शनिवार, 16 मई 2020

जित देखा तित पाया जगत महाबड़ों

मेरे चारो ओर फैले हैं
सन्त, महात्मा, साधु
संन्यासी, बाबा, बुद्ध ,ज्ञानी,महाज्ञानी आदि इत्यादि।
जीने की सीख और ढेर सारी बौद्धिक बातों से भरे प्रवचनमुखी।
दिखावे में परमहंस की तरह 
किन्तु न सरल हैं और न ही सहज।
जिन्हें भी छूना चाहा वो कड़ा
जिसमें भी बहना चाहा वो सूखी नदी
जिसमें डूबना चाहा वो गहरे अँधेरे बिनपानी कुएं सा।
सब के सब स्टिरियोस्कोपी की तरह
थ्री डी भ्रम पैदा करने वाली फिल्में हैं
जिनका सत्य एक सख्त, सपाट और काली दीवार भर है।
जरा जरा सी बात पर उखड़ना
जरा जरा से सत्य पर बिखरना,
जरा जरा से लिखे पर प्रतिक्रिया
सब जरा जरा से किन्तु
स्वयं को सिद्ध पुरुष या
सबकुछ जान समझने वाले नेस्त्रादमस साबित करने व करते रहने की होड़ में लथपथ।
मुझे लगता है अब इस ठिकाने कोई बच्चा नहीं रहा
सब बड़े जन्म ले रहे हैं।
【जित देखा तित पाया जगत महाबड़ों】

न कभी होगा

जबकि इस धरती पर
तमाम मुद्दे आदमी को
रुला-हंसा और जिला-मरा रहे हैं
आदमी इसी सबको अपना
जीवन मानकर धन्य धन्य हो रहा है
ठीक इसी वक्त
अंतरिक्ष में उसका भगवान
उल्कापिंड पर बैठा चक्कर मार रहा है।
वो घूर कर देख रहा है
मगर आदमियों को नहीं
पूरी धरती को
कि धरती उसका भोजन है..।
आदमी उसे 'गड़बड़ का भगवान' मान रहा है
आदमी उसे 'एपोफिस' बोल रहा है।
आदमी उसे 'दैत्य' कह रहा है।
पर वो नहीं जानता आदमी किस्म की किसी प्रजाति को
वो भगवान है जिसे धरती से मतलब है
और धरती इस अंनत ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा टुकड़ा भर
जिसके लिए मुंह भी नहीं फाड़ना पड़ता किसी दैत्य या भगवान को
बस एक फूंकभर धक्का देना होता है कि काम तमाम।
एक हम छोटे छोटे
दो हाथ पैरों के जीव
पता नहीं किसे पाने के लिए
किस पर जीत के लिए
किसे खाने या खत्म करने के लिए
आपस में लड़ते हैं-मरते हैं
इस धरती के उस टुकड़े के लिए
जो हमारा न कभी था, न कभी होगा..

हाशिए

दरअसल वो सुधरना और समझना चाहते थे
मगर उनके नाज़िमों ने उन्हें बहका दिया।
दरअसल वो सुधरना और समझना चाह रहे हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका रहे हैं।
दरअसल वे न सुधर सकते हैं ,न समझ सकते हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका चुके हैं।
दरअसल वो सब गुलाम और पत्थर हो चुके
उनके नाज़िम अब उनसे अपना काम ले रहे हैं।
सड़क पर बिखरे पड़े हैं पत्थरों के टुकड़े...
न वो पहाड़ बन सकते
न कोई शिल्प..!
सुबह कोई आएगा और झाड़ू से हाशिए पर पटक जाएगा।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/17 दिसम्बर19】

फेंकोगे वही लौटेगा

हमारे हाथों में है
पत्थर और प्रेम
जो फेंक लो।
कहते हैं 
जो फेंकोगे वही लौटेगा।

ये अच्छा है

मैं सड़कों पर रेंक रहे गदहों
चीख रहे मूर्खों
और उन्हें हांक रहे
लोगों के खुश और हंसते चेहरों में
पिशाचों की आकृतियां देख रहा हूँ।
मैं देख रहा हूँ उन दानवों को
जिन्होंने माया रची है।
इंसानों के भेष में देवताओं की भूमि पर
नँगा नाच मचा कर जो
तमाम स्थिरता और सौहार्दभरे आलम को
अस्त व्यस्त कर देना चाहते हैं।
मैं देख रहा हूँ
उस विपक्ष को जिसे शान्ति की अपील करनी चाहिए
वो इस आग में अपने बुद्धिजीवियों संग
घी बनाने में जुटा है।
मैं जो देख रहा हूँ वो मुझ जैसे करोड़ों लोग देख -समझ रहे हैं या होंगे ..
और ये अच्छा है।

भारत बन जाएगा

प्रदर्शन इस लोकतंत्र की खासियत है
लोकतंत्र हिंसा से ख़ास नहीं होता।
हिंसा खत्म कर देती है वजूद उद्देश्य का
और खड़ा कर देती है कटघरे में
चोर-उचक्के, बदमाश-लुटेरों की तरह।
क्या यही बनना चाहा था?
दरअसल, वे सारे तथाकथित नेता, गुरु,उस्ताद, साहित्यकार,बुद्धिजीवी टाइप के पोंगापण्डितों के गिरोह
आज भी तुम्हारी सोच और समझ को हाईजैक किए हुए हैं
और तुम आज भी उनके पीछे अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो।
बस इतना भर तो सोचना है
उनकी कठपुतली नहीं बनना है
कि इतने में ही देखो अपना भारत बन जाएगा।

आनन्द

जगत में हूँ
जगत का नहीं हूँ
देह में हूँ
देह का नहीं हूँ।
सारी माया, सारे मोह
सारे राग-रंग सबकुछ
व्याप्त हैं चारों ओर
किन्तु निर्लिप्त हूँ
मैं केवल आनन्द हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/24 दिसम्बर 19】

नमक लगाता है

प्रेम है क्या?
नदी प्रेम करती है।
यहाँ वहां पर्वतों, चट्टानों से टकराती है
घिसती है, गिरती है
रगड़ खाती है।
छिलता है बदन
मीलों का सफर तै करती है
बिना थके, उफ्फ!
ढेर सारे जख्म के बाद भी
उस सागर में घुलती है
जो नमक लगाता है।

राख नहीं होता कुछ भी

सारे सूरज जलते हैं
कुछ जल कर भी जलते रहते हैं।
प्रेम क्या नहीं कराता।
किन्तु देखो राख नहीं होता कुछ भी।

पेड़ को मुस्कुरा देता हूँ मैं

जब कहा
प्रेम है तुमसे
तो शाख हिली ,पत्ते डोले
हवा मचल कर लिपट गई।
यूं रोज एक पेड़ को मुस्कुरा देता हूँ मैं।

प्रेम संग

सारी बुद्धि तुम रखो
सारे तर्क सम्भालो
ज्ञान भंडार सब तुम्हारा
मुझे प्रेम संग 
कंगाल ही रहने दो।

प्रेम पर्वत

क्या बरसो बरस खड़े रह कर तुम ऊबते नहीं पर्वत?
मार मौसम की खाकर भी रोते नहीं पर्वत?
तुम बने कैसे? 
कैसे अपने अंदर ठूंसे रखा है लावा इतना?
फिर भी मौन खड़े, फूटते नहीं पर्वत? 
धैर्य कहाँ से पाया तुमने, सब्र इतना कैसे आया?
बताओ, क्या तुम भी करते हो प्रेम पर्वत?

जोगी मन

तुम शहर मत दिखाओ
जंगल ले चलो
जहाँ इंसानों का कोई रुतबा न हो।
मुझे अनुशासन, प्रेम और ईमानदारी से भरी जगह देखना है।
मुझे रमना है वहां जहाँ मैं पना न हो।
【जोगी मन】

प्रकृति

माना प्रकृति की सबसे विलग और विलक्षण कृति है मानव
माना बचाओ बचाओ की
पुकार विधाता सुनता है उसकी।
माना सबकुछ है मानव कि जगत का वह श्रीमंत ठहरा
किन्तु मानिए ये हुजूर कि
प्रकृति की ही रचना है सम्पूर्ण प्राणी जगत
विधाता को सुनना है उनकी भी पुकार जो मूक हैं
जो जंगल है, जो झरने है, जो पर्वत हैं जो नदी , नहरें हैं..
मनुष्य ने जिसे अपने कब्जे में ले रखा
जिसे पहुंचाई नित निरन्तर चोट है
रेती गर्दन, मरोड़ी देह
उखाड़े पेड़, सुखाई नदियां
उजाड़े जंगल, खोदे पहाड़....
क्या विधाता के ये पुत्र नहीं?
क्या इनकी रक्षा प्रकृति के जिम्मे नहीं..?
स्मरण रखे मनुष्य कि जब जब वो हत्यारा बनेगा
तब तब प्रकृति अपनी मानव कृति की सुंदरता पर मोहित नहीं हो सकेगी
कुपित होकर दंड देगी
इसी तरह कि आज दुबके पड़े सब घर में
बाहर खिलखिला रही प्रकृति सारी...
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/30 मार्च 2020】

जो 'है'

जो 'है'
वो अभिशप्त है
जो 'हो चुका' और 'नहीं हुआ' 'होगा' 'हो जाएगा' या 'हो सकता है' के
आरोप-प्रत्यारोप की फिजूल, बेवजह की वकीली चीखों के मध्य
कटघरे में खड़ा सुनता रहता है सुनवाई
चुपचाप, मौन, मूक दृष्टा की तरह।
जबकि यही 'है' सत्य है।

लॉक डाउन

आशंकाओं से भरे पूरे दिन
रात भर करवटें लेते रहते हैं।
कितनी सावधानियों के बावजूद जब
पता चलता है आसपास कोई संक्रमित है तो
सावधानियों का ग्राफ ऊपर की ओर भागने लगता है।
कैसा अजीब दौर है।
कितना संदेहास्पद।
भय के मध्य बिंदास रहने का.. जैसे जुमले
और अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान की बातें
क्रमशः आयुर्वेदिक काढ़े और गिलोय वटी की तरह जान पड़ रहे हैं।
बचने और बचे रहने का तमाशा चल रहा है
मदारी का डमरू बज रहा, जमुरा नाच रहा।
■ लॉक डाउन 0.3-तीसरा दिन

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

बिखर जाओगे

यदि पहुंचो वहां तो
बस छू भर लो
और लौट आओ,
ठहरो नहीं।
क्योंकि चोटियां
अक्सर सूनी होती है,
निर्जन और संकरी होती है।
शिखर पर बिखर जाओगे।

सुंदर,विचित्र,अद्भुत

जिनमें न नाक कटने की जलन है
और न ही रीढ़ झुका लेने का दर्द।
वैसे भी
गीली लकड़ियाँ कहाँ जल पाती है
फिर वो चाहे पानी से गीली हों या अश्रुओं से नम।

झुकना पड़ता है कुछ पाने को
सम्मान-पुरस्कार या ओहदा
ये कोई आसमान है जो
मस्तक ऊंचा कर ही छुआ जा सकता है?
वैसे भी वहां शून्य है।

तुम्हारी लौकिक बातें
संसार जीतने के षड्यंत्र या तुम्हारी भाषा में इसे कहूँ तो उपाय,तरीके, नुस्खे
कड़ी मेहनत, संघर्ष से प्राप्त करने जैसे प्रवचन
दरअसल मकड़ी के जाले भर हैं शिकार के लिए।
तुम सब मकड़ी हो।
सुंदर,विचित्र,अद्भुत।

मेरे चारो ओर

मेरे चारो ओर फैले हैं
सन्त, महात्मा, साधु
संन्यासी, बाबा, बुद्ध ,ज्ञानी,महाज्ञानी आदि इत्यादि।
जीने की सीख और ढेर सारी बौद्धिक बातों से भरे प्रवचनमुखी।
दिखावे में परमहंस की तरह 
किन्तु न सरल हैं और न ही सहज।
जिन्हें भी छूना चाहा वो कड़ा
जिसमें भी बहना चाहा वो सूखी नदी
जिसमें डूबना चाहा वो गहरे अँधेरे बिनपानी कुएं सा।
सब के सब स्टिरियोस्कोपी की तरह
थ्री डी भ्रम पैदा करने वाली फिल्में हैं
जिनका सत्य एक सख्त, सपाट और काली दीवार भर है।
जरा जरा सी बात पर उखड़ना
जरा जरा से सत्य पर बिखरना,
जरा जरा से लिखे पर प्रतिक्रिया
सब जरा जरा से किन्तु
स्वयं को सिद्ध पुरुष या
सबकुछ जान समझने वाले नेस्त्रादमस साबित करने व करते रहने की होड़ में लथपथ।
मुझे लगता है अब इस ठिकाने कोई बच्चा नहीं रहा
सब बड़े जन्म ले रहे हैं।
【जित देखा तित पाया जगत महाबड़ों】
5 nov 2019

न कभी होगा.

जबकि इस धरती पर
तमाम मुद्दे आदमी को
रुला-हंसा और जिला-मरा रहे हैं
आदमी इसी सबको अपना
जीवन मानकर धन्य धन्य हो रहा है
ठीक इसी वक्त
अंतरिक्ष में उसका भगवान
उल्कापिंड पर बैठा चक्कर मार रहा है।
वो घूर कर देख रहा है
मगर आदमियों को नहीं
पूरी धरती को
कि धरती उसका भोजन है..।
आदमी उसे 'गड़बड़ का भगवान' मान रहा है
आदमी उसे 'एपोफिस' बोल रहा है।
आदमी उसे 'दैत्य' कह रहा है।
पर वो नहीं जानता आदमी किस्म की किसी प्रजाति को
वो भगवान है जिसे धरती से मतलब है
और धरती इस अंनत ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा टुकड़ा भर
जिसके लिए मुंह भी नहीं फाड़ना पड़ता किसी दैत्य या भगवान को
बस एक फूंकभर धक्का देना होता है कि काम तमाम।
एक हम छोटे छोटे
दो हाथ पैरों के जीव
पता नहीं किसे पाने के लिए
किस पर जीत के लिए
किसे खाने या खत्म करने के लिए
आपस में लड़ते हैं-मरते हैं
इस धरती के उस टुकड़े के लिए
जो हमारा न कभी था, न कभी होगा..

(25 nov 2019)

हाशिए पर पटक जाएगा

दरअसल वो सुधरना और समझना चाहते थे
मगर उनके नाज़िमों ने उन्हें बहका दिया।
दरअसल वो सुधरना और समझना चाह रहे हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका रहे हैं।
दरअसल वे न सुधर सकते हैं ,न समझ सकते हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका चुके हैं।
दरअसल वो सब गुलाम और पत्थर हो चुके
उनके नाज़िम अब उनसे अपना काम ले रहे हैं।
सड़क पर बिखरे पड़े हैं पत्थरों के टुकड़े...
न वो पहाड़ बन सकते
न कोई शिल्प..!
सुबह कोई आएगा और झाड़ू से हाशिए पर पटक जाएगा।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/17 दिसम्बर19】

वही लौटेगा

हमारे हाथों में है
पत्थर और प्रेम
जो फेंक लो।
कहते हैं
जो फेंकोगे वही लौटेगा।
■ अकाट्य बिल

और ये अच्छा है।

मैं सड़कों पर रेंक रहे गदहों
चीख रहे मूर्खों
और उन्हें हांक रहे
लोगों के खुश और हंसते चेहरों में
पिशाचों की आकृतियां देख रहा हूँ।
मैं देख रहा हूँ उन दानवों को
जिन्होंने माया रची है।
इंसानों के भेष में देवताओं की भूमि पर
नँगा नाच मचा कर जो
तमाम स्थिरता और सौहार्दभरे आलम को
अस्त व्यस्त कर देना चाहते हैं।
मैं देख रहा हूँ
उस विपक्ष को जिसे शान्ति की अपील करनी चाहिए
वो इस आग में अपने बुद्धिजीवियों संग
घी बनाने में जुटा है।
मैं जो देख रहा हूँ वो मुझ जैसे करोड़ों लोग देख -समझ रहे हैं या होंगे ..
और ये अच्छा है।

(20 dec2019)

प्रदर्शन

प्रदर्शन इस लोकतंत्र की खासियत है
लोकतंत्र हिंसा से ख़ास नहीं होता।
हिंसा खत्म कर देती है वजूद उद्देश्य का
और खड़ा कर देती है कटघरे में
चोर-उचक्के, बदमाश-लुटेरों की तरह।
क्या यही बनना चाहा था?
दरअसल, वे सारे तथाकथित नेता, गुरु,उस्ताद, साहित्यकार,बुद्धिजीवी टाइप के पोंगापण्डितों के गिरोह
आज भी तुम्हारी सोच और समझ को हाईजैक किए हुए हैं
और तुम आज भी उनके पीछे अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो।
बस इतना भर तो सोचना है
उनकी कठपुतली नहीं बनना है
कि इतने में ही देखो अपना भारत बन जाएगा।
(21 december 2019)

आनन्द

जगत में हूँ
जगत का नहीं हूँ
देह में हूँ
देह का नहीं हूँ।
सारी माया, सारे मोह
सारे राग-रंग सबकुछ
व्याप्त हैं चारों ओर
किन्तु निर्लिप्त हूँ
मैं केवल आनन्द हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/24 दिसम्बर 19】

(तमाम हमउम्र अधेडो के लिए )

मानो या न मानो प्रिये
वृद्धावस्था सिर्फ देह को
जर्जर नही करती
खंडित करती है
उम्रभर की अकड़
अहंकार और स्वार्थ को ..
किंतु आदमी उस रस्सी की तरह क्यों होता है
जो जलने के बाद भी
बल नही छोड़ती ..
तुम और मैं छोड़ देना
समय रहते ही ..
क्योंकि समय शेष नहीं ज्यादा
कि हम वृद्ध न हों ..
16 -01-2017

सोमवार, 17 जून 2019

पेड़ पर लिपटी

पेड़ पर लिपटी
ये जो लता है
पीड़ा इसकी
कौन समझता है ।
दिखती सुंदर 
सजी धजी ये
पर अंदर गहरी
उदासीनता है।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी /19 जनवरी 2019】

दुःख की कविताएं

दुःख की कविताएं 
गर दुःख में हुई होती तो 
कितना सुख मिलता।
खैर..
सुख में रची गई कविताएं
भिन्न भिन्न प्रकार के
दुःख देती हैं।
तब वे कविता कम
रचना ज्यादा हो जाती है।

छुट्टियां खत्म..

छुट्टियां खत्म..
खालीपन भी भरा होता है
एक ऐसे अहसास से जो शब्द नहीं पाते
जो बस होते हैं।
--
उनके आने की बाट जोहने
और उनके आने के बाद
जो भरे भरे होने का अहसास होता है
वो उनके लौटने पर राई के माफिक बिखरता है।
--
सबकुछ आवश्यक है
इस सत्य को धारण कर रहना
जैसे सीने पर सौ मन का पत्थर ढोना।
वाकई सत्य कठोर होता है।
--
वो सदा खुश रहे
दुआएं, प्रार्थनाएं और
सतत चिंताओं के मध्य
फोन घनघनाते रहना
संतुलित होने का उपक्रम भर होता है।
--
छुट्टियां
खत्म होने के लिए ही क्यों होती है?
(बेटी जब घर आती है )

सोमवार, 21 जनवरी 2019

जनक - जननी

ये वो समय था जब
चारों दिशाएं मुट्ठी में थीं
सारे ग्रह -नक्षत्र नाक की सीध में थे
और धरा जैसे अपनी
कनिष्ठा पर घूम रही थी।
यकीन जानो
माता-पिता संग
ब्रह्माण्ड की समस्त महाशक्तियां
एकत्रित होकर वास करती है देह में
और निस्तेज जान पड़ता है इंद्र का सिंहासन
अप्रभ होता है उसका फैला साम्राज्य।
इसलिए प्रिये
जितना सम्भव हो सके
जगत के समस्त प्रपंच त्याग कर
रह लो साथ जनक - जननी के
कि
ईश्वर भी इस सुख से अधिक वंचित ही रहा है।
(टुकड़ा-टुकड़ा डायरी / 20 जनवरी 2019 )

बुधवार, 9 जनवरी 2019

ब्लैकहोल

उस वक्त जब
महानगर दूर हुआ करते थे
चाँद की तरह तब
मैंने धरती छोड़ी थी।
इस तथ्य को नकारते हुए कि
हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।
---
उबड़ खाबड़
आक्सीजन रहित उपग्रह के लिए
जीवन के एकमात्र ब्रह्माण्डी स्थल को त्यागना
इसरो या नासा का कोई अनुसंधान कार्य नहीं था।
वो टिमटिमाते स्वप्न को पकड़ने का दुस्साहस मात्र था।
----
हाँ, ये सच है
अँधेरी रात में चमक दमक करते असंख्य तारों को
देख लोग मोहित अवश्य होते हैं
किन्तु अंनत ब्रह्माण्ड के शून्य में खोए हुए तारों का अकेलापन ,सूनापन कोई नहीं जानता जिनका
अपना कोई प्रकाश भी नहीं होता।
लौटना चाहता था मैं
ये जानकर कि दौड़ लगाने से आसमान छुआ नहीं जाता
बल्कि पेड़ बना जाता है
अपनी जड़ों पर खड़ा।
----
अट्टाहास करता है देव
जीवन के रेगिस्तान में बनी लिप्साओं की मारीचिकाएं देख
भागते दौड़ते मानव के आसमान से ऊपर निकल जाने को देख कि वो जानता है
लौटना कठिन होता है
भटक जाना होता है
बस घूमते रह जाना यहाँ वहां
और इस बात से अनजान कि
कब कोई ब्लैकहोल सा दानव
एक सांस में निगल जाएगा।
----
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/8 जनवरी 2019】

सारे, हाँ सारे के सारे

सारे, हाँ सारे के सारे
बदमाशों ने पहन ली है
सफेद कमीज़
ताकि न दिखे मैली बनियान।
सारे, हाँ सारे के सारे
बदमाशों की हैं तख्तियां
जिस पर लिखे हैं
अनेक उच्च पदनाम।
सारे, हाँ सारे के सारे
बदमाश जुट रहे हैं एक मंच पर
हाथों में हाथ डाले जिनके
मन में फूट रहे हैं लड्डू ।
सारे, हाँ सारे के सारे
बदमाश दियासलाई का
धंधा करने लगे हैं
ताकि भड़के विरोध अग्नि।
सारे, हाँ सारे के सारे ही तो।
26 des 2018

365 सिर

मोर से आकर्षक
सुनहरी दुम वाले
हरे,नीले बैंगनी रंग से लिपे पुते
किन्तु बड़े मुंह और भूखे पेट वाले होते हैं वर्ष।
राख से जन्मे।
इनका हाजमा इतना दुरुस्त होता है कि
जीवन के जीवन लील जाते हैं
और इतने नकटे कि जरा भी शिकन नहीं।
बावजूद खूँटी पर टाँगे जाते हैं
फीनिक्स के 365 सिर।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/2 जनवरी2019】

रुको,

रुको,
ये जली हुई धरती का उज्जडपन
राक्षसी नहीं
बल्कि ये काला टीका बन
बुरी नज़र से बचाता है।
और यकीन मानो
जंगल नहीं होते जंजाल
घबराओ मत, आओ,
गहरे उतरो ,छाती पर चढ़ बैठो अँधेरे की
कि बस कुछ देर बाद ही
सूरज आसमान के सिर पर होगा
और तुम्हारा घर साफ दिखाई देगा।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/6 जनवरी 2019】

रविवार, 16 दिसंबर 2018

सार

कैसा तो गूंथा है आपस में
हरा, सूखा सब झाड़ झँखड़
जैसे अब कोई रास्ता ही न हो
उलझे रह जाओ यहीं सुख दुःख की तरह
मुक्त हो ही न सको।
सुनो प्रिये,
मत थको,
कि आगे बढ़ो..
हरे भरे में खोओ मत
कि सूख चुके पत्तों का दुःख ओढो मत
पार करो इसे भी क्योंकि
उस पार फैला 'आकाश' है
और वही सार है।

(2 des 2018)

यादें

यादें तो आ रही हैं मगर वो नहीं आते ,
लौटे नहीं वो क्यूँ जो बिछड़ के चले जाते ;
मुद्दत हुई उन्हें नहीं देखा है इसलिए ,
रह रह के हमको अब ये उजाले भी सताते ।
मआलूम है आएँगें नहीं वो किसी सूरत ,
हर वक़्त मगर दिल से उन्हें हम हैं बुलाते ।
बढ़ जाएँ न बेचैनियाँ बेहद इस डर से ,
दुन्या मे लग लग के यादों को सुलाते ।
इस मोड़ पे ले आया हमें अब तेरा जाना ,
अपनी ही हम लाश को दिन-रात उठाते ।

【टुकड़ा-टुकड़ा डायरी/06 नवम्बर 2018】

प्रेम लिखता हूँ

मैं तुम्हारे लिए प्रेम लिखता हूँ
तुम नफरत।
जिसकी कलम में जो रंग स्याही 
वो वही लिखता है।

(9 nov 2018)

जियो ऐसे

तुमने कांटो में देखा क्या प्यार
पाया क्या सूखे झाड़ झंखाड़ में सौंदर्य ?
निर्जन पड़े हिस्से में कभी जाकर पूछा क्या
कैसे हो?
दिखी क्या
अकेले रास्ते, पड़े पत्थरों, खड़ी सूनी बदसूरत सी झाड़ियों में बिखरी मुस्कान?
तुम्हारे आने से जिनका एकांतवास पूर्ण हुआ
लंबी राहत भरी उनकी सांस की आवाज़
सुनी क्या?
सुनो!
रुको वहां ,जहाँ कोई नहीं रुकता
जाओ वहां जहाँ कोई नहीं जाता
सुनो उन्हें, जिन्हें कोई नहीं सुनता..
हाँ इन्हीं की तरह सीखो भी कि
जियो ऐसे जैसे कोई नहीं जीता ।

(18 nov 2018)

मैं पल दो पल का शायर हूँ .

ये पर्वत,पेड़
पथ और पत्थर
पीर किसे सुनाएं अपनी?
पास कौन आता इनके
प्यार करता भला कौन?
देख मुझे डबडबा कर आँखे
पूछा
पथिक तू है कौन?
तभी अचानक उड़ के आई
प्रीत पवन की
कंधो पे अपने लेकर आई
गीत एक पुराना-
मैं पल दो पल का शायर हूँ ....
(19 nov 2018)

दिन हो जाता है

सुबह लिखती है 
आसमान पर कविता
सूरज बिंदी बन छाता है।
कोई टिटहरी कंठ खोल गाती है
और दिन हो जाता है
( 22 nov 2018)

नीला विष

पर्वत हो जाना चाहा कभी
कभी नदी
तो कभी वो पगडंडी जिस पर चल कर
गुजरते रहे पर्वत, नदी, ताल ।
हुआ कुछ नहीं
बस सफर ही रहा
उपर फैला विस्तृत आकाश
शून्य का महासागर बन
सिर पर तारी रहा
और बस मन की लहरें
उथलती रही, चढ़ती उतरती रही।
मंजिल थी ही नहीं
घुमावदार रस्ते ,घाट, खाइयां
जंगल और फिर लंबी सी बिछी हुई
स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ
अजगर की तरह देह से लिपटी कसती रही।
उन्होंने कहा था साथ ही रहना मेरे
फिर पता नहीं क्या हुआ कि
वे छिटक गए।
अब ये यात्रा है
सबकुछ है
वे नहीं हैं।
हो सकता पर्वत, बह सकता नदी बन
या लेट जाता पगडंडी की तरह
तो लौटता ही नहीं।
लौटना और फिर फिर
वहीं से गुजरना
जहाँ से गुजरा करते थे साथ हम
जन्म-मृत्यु के मध्य का
विकट समय होता है।
शायद इसे ही कहते हैं नीला विष जिसे
शंकर ने कंठ में रोक लिया था।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/30/10/2018】

पापा बेटी हूँ मैं

परिंदा है हुनर मेरा
पंख हैं इसमें ..
बंधेंगा तो उड़ेगा नहीं
ये खुली जमीन और खुले आसमान के लिए बना है।
जटायू सा वजूद है
बहुत दूर तक नज़र है
इत्मीनान रखो
खोज लूँगी लक्ष्य की अशोक वाटिका ।
एक बार
आकाश में छोड़ दो ..
सूरज के पास जाकर भी जलूँगी नहीं
बल्कि उसकी आग लेकर
धरती के सारे चूल्हे फूंक दूंगी ..।
रखो हौसला मेरे हुनर पर ..
रंग दूँगी कैनवास
रच दूँगी जगत
कि मैंने जन्म लिया ही किसी रचना के लिए है।
पापा बेटी हूँ मैं।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/26 अक्टूबर2018】

ये क्षण

जिन्हें देख 
मंद मंद 
मुस्कुराते हैं 
ये क्षण 
किन्तु 
कम आते हैं....

(25 OCT 2018)

मछलीमार

मुसोलिनी या हिटलर नहीं थे तानाशाह
मार देना शौक बड़ा नहीं जितना कि तड़पाना।
तानाशाह तो वो हैं
जो बिना जाल और कांटे के
फांस लेते हैं मछली
उस्ताद शिकारी की तरह दोस्ती का लालच देकर।
हाँ, देखो
न बेचते हैं , न खाते हैं
छोड़ देते हैं पानी से बाहर निकाल कर।
और तड़पते देखना उन्हें
नृत्य सा अनुभूत होता है।
उफ्फ,
फिजूल बदनाम हैं हिटलर जैसे ...!
ओ, दुनिया के सारे दोस्तों
तुम एकबार हिटलर बन जाना
किन्तु मत बनना कभी ऐसे मछलीमार!
(24 oct 2018)

आदमीयत वाला आदमी

आदमीयत वाला आदमी
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मैं बहुत पीछे छूटा हुआ आदमी हूँ।
बहुत पीछे।
जहाँ होशियारी नहीं होती 
जहाँ वो गंवारपन होता है
जरा सा कोई प्रेम से कह दे
हृदय खोल के परोस दिया जाता है।
मैं नहीं समझ पाता आज भी
समझदारी की वो बातें
कि हर किसी को प्रेम नहीं करना चाहिए
हर किसी को दोस्त नहीं बनाते
हर किसी से खुल कर पेश नहीं आते
हर किसी से स्पष्टता नहीं होती ।
इतना गांवठी हूँ कि
रो देता हूँ
खो देता हूँ
हर उसको जिससे प्रेम होता है।
और देखो मेरा बुद्धू होना कि
मनाते कैसे हैं
जतलाते कैसे हैं
कि
कुछ भी तो नहीं आता मुझे।
इसीलिए हर वो कहता है
जो दूर हो जाता है
कि देखो ये
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता है।
मिट्ठू होता तो निर्मोही होता
किन्तु मैं चकोर सा
बस घने वृक्ष की पत्तियों से ढंकी उस शाखा पर
बैठा रहता हूँ
जो दिखती नहीं ।
मगर टूटती सबसे पहले है।
सच में , मैं छूटा हुआ, टूटा हुआ
एक आदमी हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18 अक्टूबर 2018】

धार कहाँ से करवाते हो ?

देह कोमल धरते हो फिर
सख्त हृदय क्यों रखते हो ?
कांटे ने फूल से कहा-
एक बात तो बताओ भाई
कौनसी चक्की का आटा खाते हो ?
मैं तो काँटा हूँ
चुभना काम मेरा , गाली रोज खाता हूँ।
किन्तु कितनी सदियां बीत गई
रहस्य न जान सका ये अभी तक
फूल होकर भी कैसे चुभ लेते हो?
दिखता ही नहीं जो वो
जहर कहाँ से ले आते हो ?
सवाल बहुत है मेरे पास
बोलो , सिखाया किसने चुभना तुम्हे?
चुभ कर हंसना तुम्हे?
न पैने दीखते हो
न तुम हो नुकीले
फिर घाव गहरा कैसे कर जाते हो?
बताओ , पीठ पीछे छिपे खंजर में
धार कहाँ से करवाते हो ?
(16 OCT 2018)

देश-काल-कलयुग


बेवजह बदनाम करना
वजह बना देता है दुश्मनी की।
आओ देखें कितना दम तुम्हारे झूठ में है
और कितना सच हमारे पास है।
जिन सबूतों को लेकर इतरा रहे हो
उन्ही सबूतों में तुम्हारे भी खिलाफ
पुख्ता शब्द हैं स्मरण रखना,
याद ये भी रखना कि
शीशे के घर में हो और पत्थर चला रहे हो।
खामोशी में डूबे आलम को
उसकी नियति मत मान बैठना
उठेगा तूफ़ान तो इसकी जद में
तुम्हारा पूरा वजूद भी तबाह होगा ।
बहादुरी की डींगें हांकने वाले
देखें खूब है जीवन में।
उठे तूफानों से खूब रस्ते बनाए हैं
ताल ठोंक कर अखाड़े में
उतरना हमे भी आता है,
तुम्हारी खूबसूरत चालबाजियों के उठे फन को
कुचलने का दांव
सीखा है जिंदगी के बेहतरीन कोचों से ।
भोले और साफझग मेकअप के पीछे का सच
काजल है या कोयले की कालिख
वक्त के परदे पर अंकित है।
देखते हैं -
फिल्म शुरू तो होने दो!
( 9 OCT 2018)

आभास

आभास
कि तुम हो
तुम हो..?
पूजा,पाठ
प्रार्थनाएं
आस्था,श्रद्धा जगाती है।
तुम नहीं जगे
सोए हो
इसलिए आभासी हो।
उठोगे?
कि प्रेम छटपटा रहा है
कि मन विचलित है
कि दर्द बह रहा है
एक बार
कह ही दो
कि तुम हो...
(8 Oct 2018)

प्रेम दुबारा बरसेगा

दुविधाओं के मेघों से घिरे
आसमान को
कौन समझेगा?
अहंकार नहीं ये मेरा
प्रतीक्षा है बस कि
प्रेम दुबारा बरसेगा ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/4अक्टूबर 2018】

शनिवार, 3 नवंबर 2018

प्रेम


सुनो,
तुम सुखी हो
इसलिए दुःख को
बहुत अच्छे से
एक्सप्लेन कर सकते हो ...
प्रेम की बातें इसीलिए तो खूब करते हो।
और गर सचमुच होता तो?
(2 oct 18)