सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

दस का दम

ये फेसबुक ने ब्लॉग को मानो ग्रहण लगा दिया। करीब चार महीनों बाद ब्लॉग की शक़्ल देखी। यह जानते बुझते भी कि ब्लॉग और फेसबुक में ज़मीन-आसमान का अंतर है, यहां मन हल्का होता है तो वहां तो सारा कुछ फास्ट फूड जैसा है..खैर..किंतु यह अच्छा है कि फेसबुक पर पिछले दिनों कुछ अच्छी पंक्तियों ने रूप लिया, जिसे मेरे ब्लॉग साथियों से शेयर करना चाहूंगा..क्योंकि यहीं उन पंक्तियों की असली परीक्षा होती है।



1, बार बार की
झंझट से मुक्त ही हो जाऊं तो अच्छा है।
देखना, इक दिन मैं भी
बहला-फुसलाकर
किस्मत को ऊंची पहाडी पर ले जाउंगा और
चुपके से नीचे धकेल दूंगा
फिर चिल्लाकर कहूंगा
जैसे को तैसा।

2,यूं तो बहुत से
देते है दिलासा
कोई दिल भी दे
तो बात बने।

3,कितने और
इम्तहान लेगा ए खुदा
ऐसे बुरे भी नहीं
कि हाशिये पे रहें।

4,तेरे साथ....

इस दौडती भागती सडको पर
पसरी रात की खामोशी में
हाथ थामे दूर तक चलना..
... ...
किसी सन्नाटे में डूबे कोटर में
चांद तले घंटो बैठ
बतियाते रहना..

सुबह की पहली किरण का
आचमन कर, दिन कहीं
ऊंची पहाडी, कंदराओं में भटकते हुए
वीरान पडी चट्टानों को नापना ..

किसी गांव के नुक्कड पर बैठ
चाय की चुस्कियां लेना
और खेत खलिहानों के बीच
जिन्दगी के रास्ते तलाशते हुए
कहीं दूर
किसी वृक्ष तले ठहर सुस्ताना..
तेरे साथ....

चाहता है दिल।

5,"पीर पराई
कौन जाने
जो जाने
अपनी जाने"

6,कब तक रख सकेगा
झूठ को कन्धो पर,
खुदा रहम नहीं करता
ऐसे बन्दो पर"

7,अमूमन,
अकेला होता हूं मैं
शब्द बिखेरता हूं,
सहेजता हूं मैं...
जैसे जीवन।
...
अक्सर, छूट जाता है
हाथों से वो 'अक्षर'
जिसका एक छोर
हृदय से प्रांरभ होता है
मन तक जाता है...
जैसे प्रेम।

और फिर नितांत
निर्दयी सन्नाटा घेर लेता है।

8, "हर आस अपनी
जलते जलते बुझती गई,
जिन्दगी कुछ यूं
बुनते बुनते उलझती गई।"

9,भटकना
पैदल, अकेले..
उद्देश्यविहीन.......
बिल्कुल
कोरे प्रेम की तरह....।

10, गम नहीं ए दोस्त,
के तुम्हे हमसे प्यार नहीं,
चूक रहे हो तुम्ही
इक बेहतरीन प्यार से....