शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

ओहदे वाला आदमी

ओहदे वाला आदमी
'आदमी' नहीं होता
वो
'ओहदे वाला आदमी' होता है।

'आदमी' होने के लिये
सिर्फ 'आदमी" होना होता है।
और
ओहदे पर जो 'आदमी" होता है
वो ओहदे के नीचे होता है,
दबा सा।
उपर उसके होता है
अहम और दम्भ का चमकता
हीरा।
हीरा... जैसे मिलावटी चीजों पर
ब्रांडेड रैपर लगा हुआ
'ग्रीन' चिन्हित पैकेट।

सच तो यह भी है कि
पैसा, यश, कीर्ति
होंगे किसी जन्म के पुण्य।
किंतु पाप की तरह
वो भी तो कटते हैं,
ओहदे वाले ये क्यों
नहीं समझते हैं।

प्रारब्ध जिसका जो
उसे मिलता है,
पर हर क्षण होता
एक प्रारंभ है
जो बनता 'प्रारब्ध" है
यह 'आदमी' सोचता है।

इसीलिये यह कहना
कि
ओहदे पर बैठना
और 'आदमी' बने रहना
कठिन है।
जैसे
सांप का बगैर ज़हर के होना।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

सवाल आपसे हैं, उनसे नहीं जो सवाल पैदा कर रहे हैं

कल मुम्बई में अफरा-तफरी मच गई। मध्य-रेल अचानक ठप्प हो गई। सुबह के उस समय यह सब हुआ जब लाखों लोग अपने कार्यस्थल की ओर रवाना होते हैं। एक निर्माणाधीन पुराना पाईपलाइन वाला पुल टूट कर लोकल ट्रेन पर गिर जाता है, हाहाकार मच जाता है। मचे भी क्यों नहीं आखिर ट्रेन हादसे मे मौत भी हुई और घायल भी हुए। ऐसा लगा मानों किसी परिवार के मुख्य व्यक्ति को हार्ट अटैक आया और परिवार वालों में भगदड मच गई। बदहवासी छा गई। सारा कामकाज रुक गया। सबकुछ उलट-पलट सा गया। मुम्बई की लोकल ट्रेन को भी तो जीवन रेखा ही माना जाता है। यही वजह है कि कल लोग किस हाल में थे, और किस हाल में घर पहुंचे..बडी करुणामयी कहानी है। अफसोसजनक यह कि इस कहानी की आदत हो गई है, हर गम पचाने की मज़बूरी हो गई है। रोज़ ब रोज़ कहानी दोहराती है, सो जीवन में यह आम हो गई है। वाह री विडम्बना। किंतु मैं मुख्य घटना के केन्द्र की बात करना चाह रहा हूं। उस कैब की बात करना चाह रहा हूं जिसमें मोटरमैन (ड्राईवर) फसां था और मौत से लड रहा था। वो जीत जाता यदि उसके विभाग वाले चुस्त दुरुस्त होते। दुख होता है यह कहने में कि देश का सबसे बडा नेटवर्क, सबसे बडा लापरवाह है जो अपने आदमी की जान की कीमत भी नहीं समझता और महज़ 5 लाख सहायता राशि देकर मामले की इतिश्री मान लेता है। वह एक निरापद मौत थी। करीब 3 घंटों तक दचके हुए कैब में दबा हुआ मोटरमैन सहायता के लिये गुहार लगा रहा था, और रेलप्रशासन मामले की पुष्टी के लिये मीडिया से मुखातिब होना ज्यादा बेहतर मान रहा था। कहने को वहां सब थे। रेल विभाग का आपातकालीन दस्ता भी था, पुलिस प्रशासन भी था, अग्निशमक दल के लोग भी थे और जनसामान्य की भीड भी थी। अगर वहां कोई नहीं था तो उस जिन्दगी को बचाने वाला, जिसकी सूझबूझ की वजह से बहुत बडी दुर्घटना टल चुकी थी। हास्यास्पद है जिस नेटवर्क के बारे में कहा जाता है कि यहां हर कार्य के लिये एक प्रशिक्षित व्यक्ति मौज़ूद है, साधन उपलब्ध हैं, वहां उसके पास कैब को काटकर जान बचाने के लिये जो औज़ार हैं वो सिर्फ दिखावा, कैब को काटने के लिये ड्रील मशीन लाई गई, गैस की टंकी लाई गई, पर वाह रे रेल विभाग, वो टंकी खाली निकली। मौत से लडने वाले ड्राईवर की थमती सांस की मानो किसी को कोई परवाह नहीं, पुलिस भीड को हटाने में व्यस्त, अग्निशमन दल रेल विभाग की कार्यवाही की प्रतीक्षा में, तो रेल विभाग का बचाव दल अपने ही बचाव में दिखाई दिया। अन्दर दबा कुचला उसका खुद का आदमी अंतिम सांसे गिन रहा होता है और बाहर उसे बचाने के नाम पर सिर्फ नाटक खेला जाता है। और जब कैब काट लिया जाता है, अन्दर फंसे ड्राईवर को बाहर निकाला जाता है तो हाथ में सिर्फ लाश आती है, क्योंकि निकालते समय उसका हाथ कट जाता है, पैर मे चोट पहुंचती है, वैसे भी काफी देर हो चुकी होती है। वाह रे रेल विभाग की सफलता। उस लाश को अस्पताल भेजा जाता है, फिर घरवालों को सौंप दिया जाता है। परिवार के बहते आंसुओं के बीच दो शब्द संवेदना के टपका कर रेलविभाग अपनी कर्मठता का प्रदर्शन करता है। अब परिवार को सहायता राशि घोषित कर दी गई है, किसी को नौकरी का आश्वासन भी दे दिया जायेगा। बस्स..धीरे धीरे सबकुछ ठीक..खत्म...। वाह री...मानवता....। मुझे समझ में यह नहीं आता कि करोडों बज़ट वाले रेलविभाग में इतनी दुर्घटनायें हो चुकी है, बावज़ूद इससे निपटने के लिये आवश्यक साधन भी उपलब्ध नहीं? प्रशिक्षित कर्मचारी भी नहीं? जो ऐसी घटनाओं के होते ही चुटकी में जान बचा सकता हो? होनी को कौन टाल सकता है, यह सच है किंतु होनी के बाद अगली होनी से बचाने के उपाय खडे किये जा सकते हैं। किंतु लापरवाहों की आंखे नहीं होती, दिमाग नहीं होता, होता है तो जेब भरने, काम चलने की बस एक तुच्छ मानसिकता होती है। मानवीय भूल होती है, किंतु कोई ड्राईवर मौत को आमंत्रण देता हो, ऐसा नहीं होता। अभी पिछले दिनो जब मथुरा में हादसा हुआ तो रेलविभाग ने ड्राईवर को दोषी मान कर अपनी कार्यवाही शुरू कर दी, किंतु जब मुम्बई में खुद रेलविभाग दोषी था तो कौन कार्यवाही करेगा?
सवाल सिर्फ रेलविभाग को ही नहीं साधता, बल्कि हमारे आसपास फैले इस पूरे तंत्र को साधता है जो आदमी की जिन्दगी को कौडी की कीमत से तौलता है। हर जगह मौत खडी है। उसके खडे होने के संकेत भी दीखते हैं, उसे खडे करने वाले लोग भी दीखते हैं..किंतु नहीं दिखते इन पर पाबन्दी लगाने वाले। पूरी मानवता की यह सबसे बडी हार है। और हम अपनी ही हार रोज़ देखते है खडे होकर..., हंसते हुए..। क्या अब भी आप मौन साधना ही हितकर समझते हैं या ऐसी तमाम खडी मौतों के खिलाफ आवाज़ बुलन्द कर प्रशासन को चेताना चाहते हैं? सवाल आपसे हैं, उनसे नहीं जो सवाल पैदा कर रहे हैं।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

365 गेंदो में 93 रन

365 गेंदो में 93 रन, टेस्ट मैचों के लिहाज़ से ठीक-ठाक कहे जा सकते हैं। क्रीज़ पर ड्टे रहना और शतक के करीब रहना भी कम रोमांचक नहीं होता है। टेस्ट मैच वैसे भी क्रिकेट का असली रूप होता है, इसमे क्रिकेट की कलात्मकता, तकनीक निखर कर सामने आती है और ऐसा माना जाता है कि टेस्ट मैच ही क्रिकेट के असली खिलाडी की पहचान है। वैसे आजकल वन डे, ट्वेंटी-20 मैचों की भरमार है, फटाफट क्रिकेट का बाज़ार भी गरम रहता है, किंतु मुझे लगता है जिसे क्रिकेट पसन्द है, जो क्रिकेट का परम आनन्द लेना चाहता है वो तो टेस्ट मैचों में ही दिलचस्पी रखेगा और उसे ज्यादा देखेगा। लिहाज़ा 365 गेन्दों में 93 रन के करीब बना लेना और कुछ टेस्ट पसंद दर्शकों का निरंतर बने रहना, हौसलाअफज़ाई के लिये काफी है। क्रीज़ पर डटे रहने का यह रोमांच खिलाडी के लिये भी उतना ही दिलचस्प होता है जितना कि कोई प्यासा कुआं खोदते हुए पानी के करीब पहुंच जाये। जी हां, मैं भी टेस्ट मैच खेल रहा हूं, क्रीज़ पर नाबाद डटा हूं। 'समय' की टीम के गेन्दबाजों ने हालांकि काफी कोशिश की आउट करने की किंतु 'हिन्दी' की टीम का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं भी कम खिलाड नहीं कि जल्दी आउट हो जाऊं। सो उसके बाउंसर, यार्कर, गुडलैंथ, स्पिन सब कुछ झेलते हुए कभी-कभी चौका भी लगाया। सिक्सर लगे हों और तालियां बज़ी हों, ऐसे भी दो-एक मौके मैने देखे। जो भी हो पर पिच पर टिका हूं। अपने चन्द दर्शकों (पाठकों) के लिये पूरी पूरी कोशिश की है, कर रहा हूं कि उन्हे निराश ना कर दूं। हां, सचिन तेन्दुलकर नहीं हूं किंतु अपनी टीम का सिर कभी ना झुके यह विश्वास धर खेल रहा हूं। अब चूंकि टेस्ट खिलाडी हूं तो मुझे ज्यादा दर्शकों की कतई चाह भी नहीं, जो हैं वो खासे, कोरे, विशुद्ध टेस्ट पसन्द दर्शक हैं, इसका मुझे गर्व है। बस वे ही मेरी ताक़त हैं। उनसे ही सीखता हूं। वे ही प्रेरणास्त्रोत हैं।
सच पूछिये तो ये 365 दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। इस बीच कुछ ऐसे बेहतरीन मित्र बन गये जिनकी तलाश मेरे स्वप्न में थीं। ब्लोग मेरे रोज़मर्या जीवन का हिस्सा बन गया। जब भी उदास हुआ और ब्लोग सफर किया तो उदासी भाग गई। थकान से टूटते शरीर की 'आरोमा थैरेपी' इसी ब्लोग ने की। विचारों के तूफान को यहीं शांत किया। अपनी अल्प मतिनुसार शब्दों के साथ यहीं खेला। हां, मुझे ब्लोग पर देख कइयों ने इसे बकवास कहा। क्यों टाइम पास करता है? इससे तुझे क्या मिल जायेगा? समय क्यों खर्च करता है? अरे दुनिया कितनी आगे बढ गई है, लोग पैसा कमाने की सोचते हैं, तू इसमे अपना समय बिगाड रहा है। इससे क्या तुझे कोई पुरस्कार मिल जायेगा या कोई ज्ञानपीठ सम्मान दे देगा? आखिर होगा क्या इससे? आदि आदि...। मैं चुप रहा क्योंकि बचपन में सुना था कि अच्छे कार्यों के बीच कई सारे व्यवधान आते हैं"। पिताजी कहा करते हैं कि "अच्छा साहित्य पढना और लिखना समय का कतई दुरुपयोग नहीं होता।" वे कहते हैं कि- "आप कोई कर्म कर लेने के बाद कैसा अनुभव करते है? थकान का या प्रसन्नता का? आपको प्रसन्नता हो तो समझो आपने अच्छा कर्म किया। ग्लानि हो तो समझिये आपका वो काम अच्छा नहीं।" वैसे भी हमारी मनुस्म्रुति में यह कहा गया है कि-
"यत्कर्म कुर्वतोस्य ंस्यात्पारतोषा चांतरात्मन।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत॥" ( मनुस्म्रुति 4.161)

"यानी कर्म के साथ आत्मतुष्टि अवश्य होनी चाहिये। कर्म करते समय यदि अंतरात्मा को संतुष्टी का अनुभव हो तो उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। जिस कर्म में आत्मग्लानि या पश्चाताप हो वो नहीं करना चाहिये।" मुझे तो पढने-लिखने में आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता है इसलिये मैं यह करता हूं। ब्लोग तो आज है, कल तक मैं अपनी डायरी मेंटेन किया करता था। अखबार की नौकरी, और वह भी बगैर किसी ज्यादा उपरी दबाव के, तो लिखने में मज़ा आता रहा। साहित्यिक पारिवारिक माहौल व पिताजी की अपनी लाइब्रेरी में किताबें भी खूब मिली पढते रहने के लिये, तो उसमे मगन रहा, फिर नई किताबें खरीदने का शौक रहा, अब जब ब्लोग है तो क्यों न अपनी फितरत को इसके माध्यम से दिशा देता रहूं। लिहाज़ा इस ब्लोग सुख की नदिया में गोता लगाते हुए और मोतियां बिनते हुए एक वर्ष हो गया। मैं उन सब का अभिनन्दन करता हूं जिन्होने मुझे सराहा। मेरे साथ बने रहे। अब यह स्नेह बना रहे, या यह कहूं कि स्नेह बढ्ता रहे। यही आकांक्षा है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

एक ये भी दीवाली है...

फटे कपडे वाला
पसीने से लथपथ
बदहवास कहां दौडा जा रहा है,

रुक...
अबे रुक जा...।
बच के कहां जायेगा बे
बोल...क्यों भाग रहा है
और ये तेरे हाथ में....
क्या है, बता....
चोर कहीं के।

पकडे रखना
मुंडेर पर चढा था ये
वो तो अच्छा हुआ कि
दीये जल रहे थे
दिख गया...।

बोल बे..चुप क्यों है?
तेरे हाथ में क्या है?

अच्छा तेल सने हाथ...
कोई पकडे तो फिसल जाये
और भाग जाये...ऐं..।

तमाच...तमाच..तमाच

बता...
रो रहा है..दो और पडेंगे
तब बतायेगा क्या....।

दीया ?????.........?

"-सुना था
आज के दिन
दीया जला आंगन में रखते हैं...
लक्ष्मी आती है...
मां बीमार है, बाप का पता नहीं..
खाने को कुछ नहीं..
इतने सारे दीये जल रहे थे
सोचा एक उठा ले जाऊं..

माफ कर दे
हवलदारसाब....

और
ये ले बाबू तेरा दीया....।"


तमसो मा..ज्योतिर्गमय...........।

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ले तू भी
फेंक पत्ता..
पी ले कल का क्या भरोसा..
उपर क्या बतायेगा?
ऐं..
पी भी नहीं...।

पैसा क्या उपर ले जायेगा...?


पूजन...

किटी पार्टी में देर हो रही है
ओह ये लिपिस्टिक...

वाव..क्या लग रही है तू।

हां दीवाली है न।

ऐ...हम जा रहे हैं
घर की बत्तियां बुझा दे।

जी मेमसाब।

तमसो...मा..ज्योतिर्गमय.....।

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बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

रात हवा ने बहुत बात की

रात हवा ने बहुत बात की
रग-रग, छू-छू मुलाकात की।

ऐसे कोई बौराता है
जीना मुश्किल हो आता है,
ठन्डा,भीना मादक अंचल
परस-परस मन बहकाता है।

ऐसी बैरिन कौन जात की
रात हवा ने बहुत बात की।

खिलतीं कलियां शर्माती हैं
झूम,लचक झुक झुक जाती हैं,
बे-मौसम, बे-वक़्त, करकशा
हवा अगन सुलगा जाती है।

लज्जा उघरे गात गात की
रात हवा ने बहुत बात की।

अर्पित मान हुआ जाता है
मंत्र-मुग्ध मन झुक आता है,
नस-नस में बस पवन हठीला
सन-सन सी सरसा जाता है।

बात करे अब कौन प्रात की
रात हवा ने बहुत बात की।

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

शांति के नये 'बाबा', जय हो ओबामा

ओम से नहीं, अब शांति ओबामा से मिलती है। इससे बडा चमत्कार और क्या हो सकता है कि जिसे दुनिया आठ-नौ महीने पहले तक जानती नहीं थी उसे शांति का सबसे बडा दूत बना दिया गया। जिसने अपने लिये, अपने कुनबे के लिये लडाई लड कर सत्ता हासिल की उसे दुनिया का महान शांति वाहक मान लिया गया। सच तो यह है कि अब मुझे काला जादू पर विश्वास होने लगा है। गोटियां फिट करने वाले फनकार की फतह कैसे होती है, जान गया हूं। यह भी समझ में आया कि दुनिया में नोबेल पुरस्कार आखिर नोबेल क्यों है? माफ करना 'बापू' आप गलत दिशा में थे, आपकी शांति, अहिंसा, सदाचार सबकुछ दुनिया के लिये, जनमानस के लिये था, अगर आप अपने लिये सोचते तो शायद आज आप भी ओबामा की तरह शांति दूत होते, नोबेल विजेता होते। वैसे आज के नेता बडे खुश हैं। वे भी सपने देख सकते हैं किसी नोबेल के। अजी उनका पूरा-पूरा हक़ है। इस नये शांति के नोबेल विजेता के गुण देखिये- ओबामा ने अमेरिका इतिहास बदला, एक अश्वेत या कहें अर्ध-श्वेत व्यक्ति ने अमेरिका जैसी महाशक्ति को अपने कब्जे में लेकर सत्ता हासिल की। केन्याई मूल के अश्वेत पिता और अम्रेरिकी श्वेत माता की संतान होना ओबामा के लिये फायदेमन्द साबित हुआ। नस्लवादी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अमेरिका की राजनीति के बीच संघर्ष करते हुए देश की गद्दी तक पहुंचना आसान थोडे होता है। हमारे गांधीजी जैसे थोडी कि पूरी जिन्दगी जनसेवा में लगा दी, देश के दिलो दिमाग में बस जाने तथा सर्वोपरि होने के बावज़ूद किसी प्रकार के सत्ता सुख से अलग रहे। जीवनपर्यंत दूसरों के सुखों के लिये, शांति के लिये तन-मन सब कुछ अर्पित कर दिया। छी, यह भी कोई काम हुआ भला। इसलिये गान्धीजी को हमेशा नज़रन्दाज रखा गया और ओबामा को आज नोबेल दिया गया। किसकी पूजा करने से ज्यादा लाभ होता है? यह नोबेल आयोजक बखूबी जानते हैं। इसीलिये तो उन्होने लगभग ज़ोर्ज़ बुश की राह चलने वाले 48 साल के ओबामा को चुना। आप देखिये, ओबामा सत्ता में आये उधर उत्तर कोरिया ने परमाणु परिक्षण किया। और ईरान भी इसके काफी करीब है। इराक से जो अमेरिकी सेना लौट रही है अगर उसे मापदंड माना गया हो तो जय हो नोबेल वालों, क्योंकि वो पूर्वनियोजित कार्यक्रम है। ओबामा के सामने चुनौती के तौर पर अफगानिस्तान का मामला लिया जा सकता है। किंतु वहां के हालात और अधिक दयनीय हो रहे हैं। अब तक ना तालिबान का सफाया हो सका ना कोई शांति का रत्तीभर दर्शन। और तो और बुश की पाकिस्तान को लेकर जितनी गलत नीतियां थीं उससे भी दो कदम आगे हैं अपने 2009 शांति के नोबेल विजेता बराक ओबामा। पाकिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी सहायता राशि बढाकर तीन गुनी ज्यादा कर दी गई है। जिसे पाकिस्तान ज्यादा भारत के खिलाफ उपयोग में लाता है। ओबामा ने यह सोचने में अपनी शांति भंग नहीं की कि पाकिस्तान इस राशि का इस्तमाल पडौसी देशों में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में नहीं करेगा। हां शांति के इस नये दूत ओबामा ने इजराईल-फिलिस्तीन वार्ता में जरूर एक नया युग शुरु करने की पहल की। मगर अफसोस यहां भी है कि अमेरिका की जो ईजराइल लाबी है वो काफी शक्तिशाली है और ओबामा उसके आगे बेबस हैं। लिहाज़ा इस वार्ता में अब तक कुछ भी खास नहीं हुआ है। उधर सिर-ऐढी का जोर लगा देने के बावज़ूद ओबामा अपने देश के लिये ओलम्पिक मेजबानी नहीं ला सके, देश को मन्दी की मार से नहीं बचा सके। चीन के आगे दबना और दलाई लामा से ना मिलना, क्या संकेत देता है यह सोचा जा सकता है? अब नोबेल आयोजकों को इतना धैर्य कहां कि फिलहाल थोडा रुक कर ओबामा को परख लेते। अभी तो उन्होने अपना जीवन शुरू ही किया है और उन्हें यह कह कर अपने मापदंड की भी ऐसी कि तैसी कर दी कि कम समय के भीतर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को मज़बूती देने के उनके 'असाधारण' प्रयासों के लिये यह नोबेले दिया गया। वाकई असाधारण ही तो है। नोबेल, नोबेल ही तो है, कोई शक़ ?????????

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

आंख


यों ही बहुत
सुन्दर तुम्हारी
बडी काली आंख।
कमल, खंजन,
हरिण सबको
मात करती आंख।
अनगिनत से
भाव भरती
बात करती आंख।
किंतु
उपमाहीन है
नीचे झुकी-सी आंख।



-चित्र गुगल से साभार