मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

मेरे अंदर के कब्रिस्तान के

रोज एक आत्महत्या  होती है 
मेरे अंदर। 
सूली पर लटक जाते हैं विचार 
सोच गहरी खाई में कूद पड़ती है 
ट्रेन की पटरी पर लेट जाती है इच्छाएं 
कट जाती है कामनाएं 
महत्वकांक्षाएं पंखे से लटक कर झूलती हैं  
और किसीको कानो कान खबर नहीं होती। 
क्योंकि खबर ही नहीं बनती 
न कोई पोस्टमार्टम होता है 
न कोई केस दर्ज होता है 
न कोई लिखा लेटर छूटा होता है 
और न ही चहरे पर आंसुओं की झड़ी। 
आखिर मुस्कुराता हुआ आदमी 
कैसे मारा जा  सकता है भला ?
सब अपने कामो में मशगूल हैं 
दुनिया चल रही है 
कहीं सन्नाटा नहीं है। 
सिवाय मेरे अंदर के कब्रिस्तान के,
जहां दफन होता रहता हूँ रोज। 

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

और पिता ???

मेरे जन्मदिन पर दिया गया 
उसका ग्रीटिंग देखता हूँ 
और सोच में डूब जाता हूँ। 
उसके बालमन ने लिखा या सचमुच उसके लिए मैं 
दुनिया का सबसे अच्छा पिता हूँ ?
क्या वो मेरे पिता होने पर लकी है ?
उसकी छोटी छोटी इच्छाओं का 
गला घोंट दिया करता हूँ 
अपनी वाकपटुता से ,
और वो है कि हर बार मान जाती है। 
अपनी खाली जेब 
और अपनी बदकिस्मती से रुआंसी  हुई प्रतिभा 
उसकी मायूसी पढ़ तो लेती है किन्तु 
अपने सफल न होने के कारण 
उसके भविष्य पर जो स्पीड ब्रेकर खड़े करते जा रहा हूँ 
या कहूँ ब्रेकर स्वतः ही बनते जा रहे हैं उसका क्या ? 
वो अब नहीं कहती मुझसे कि 
पापा आज चॉकलेट खरीद दो 
पापा आज किसी होटल में चलो 
पापा कहीं आउटिंग पर निकालो 
पापा मेरी सारी फ्रेंड कितनी अच्छी अच्छी ड्रेसेस पहनती है 
आज ऐसी ही कोई मेरे लिए ले लो,
या फिर कभी उसने कहा हो -
पापा कोई अच्छी पिक्चर देखने चलो  
हाँ वह यह जरूर कहती है 
पापा पिछले कितने सालों से आपने अपने लिए 
कुछ नहीं खरीदा , कुछ नया नहीं पहना 
मेरी गुल्लक कब काम आएगी ? 
तब सोचता हूँ 'लकी ' कौन है ?
वो या मैं ? 
फिर क्यों कहती है वो कि मैं लकी हूँ ?
हाँ, एक समय था जब उसकी हर छोटी मोटी इच्छाएं 
पूरी कर खुद में संतुष्ट हो जाता था। 
किन्तु आज समय ने ऐसी करवट ली है 
कि न नौकरी है , न कोई काम न ही कोई धाम 
रोज रोज कड़ी दौड़ धूप 
और सतत किये जा रहे प्रयास 
उस दुनिया को बेध  नहीं पाते 
जो मेरे स्वाभिमान को अपनी चौखट पर गिरवी रखने को कहती है ,
जो चाटुकारिता और राजनीति की मलाई मांगती है 
और जो नहीं देखती 
एक छोटे  हुनरमंद भविष्य का 
एक पिता की असफलताओं से धीरे धीरे अन्धकार में जाना 
या उसके लिए संघर्ष खड़ा कर देना।
यह दुनिया कुछ नहीं देखती।  
उसके नन्हे हाथों की उंगली पकड़ जब पहली बार जमीन पर चलाया था 
तो सोचा था उसे दुनिया में कभी कोई परेशानी आने नहीं दूंगा। 
तब शायद वो लकी थी। 
किन्तु आज मेरी वजहें उसके भविष्य में व्यवधान पैदा करने को आतुर हैं 
फिर भला कैसे मैं उसके लिए लकी हूँ ?
बावजूद कहती है वो पापा आईएम लकी गर्ल। 
और मुझे लगता है 
नहीं पगली तुम नहीं हो लकी 
बदकिस्मती देखो कि लकी मैं हूँ 
और अपने इस लक को भी 
पूरी दुनिया न दे सकने वाला 
अभागा भी।  
(बेटियां सचमुच पिता के लिए लक होती हैं और पिता ??????)

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

सूक्ष्म ग्रह

जिस गठरी में भर कर लाया था 
कुछ यौवन , कुछ यादें , कुछ शौक और कुछ आदतें 
वो बीच सफर में समय के डकैतों ने छीन ली। 
और अचानक , एकदम से 
चलते चलते कंगाल हो गया। 
न यौवन रहा , न यादें रहीं , न कोई शौक और न मसखरी आदतें। 
कौन पूछता है 
खाली लटकने वाले जेब को ?
जो कभी तलहटी पर ही दिखा जाता था 
वह आज  पहाड़ पर चढने के बाद भी 
दिखता नहीं। 
क्योंकि कंगाल आदमी 
ब्रह्माण्ड का वह सूक्ष्म ग्रह  है जिसकी खोज नहीं होती। 

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

सादगी इश्क की

जितनी रेखाएं 
उभरी हैं आज तक 
वो स्याही 
तेरी स्मृतियों की है। 
कैनवास पर 
उकेरी गयी तस्वीरें 
इश्क़ के रंगो में डूबी हैं। 
यूं तो समय के दरम्यां 
सालों साल का है खालीपन 
ये उम्र की सफेदी तो 
सादगी इश्क की है। 

सोमवार, 15 जून 2015

आमंत्रण

मुझे बुलाता है कैलाश मानसरोवर
और मैं आमंत्रण को हाथ में धरे खड़ा हूँ ,
कहाँ से शुरू करू यात्रा ?
रास्तो के तमाम नक़्शे हैं
यात्रा वृत्तांतों के टेके हैं 
लुभाती तस्वीरें हैं
और सारी सुविधाएं हैं
किन्तु सबकुछ होने के बाद भी
जरूरी नहीं होता कि सब कुछ हो जाए।
जो होता है , वो होने देना चाहिए
जैसे नहीं जा पाना
कभी जा पाना भी होगा।
ये 'होगा ' भी होना है।
शुक्र है
आमंत्रण सदा है। जैसे शिव।
( फिर एक यात्रा वृत्तांत , ढेर-ढेर वृत्तांत पढ़ लेना... … किताबो के हर पन्ने एक एक आमंत्रण बन जाते हैं )

गुरुवार, 4 जून 2015

'ऐसा नहीं है '

उदासी में बोझिल ही हुआ जाता है ऐसा नहीं है। 
ऐसा नहीं है कि प्रेमी निर्मोही न हो। 
निराशाएं तोड़ती हों 
असफलताएँ धैर्य खो देती हों 
और आदमी किसी काम का न हो 
ऐसा नहीं है।
बहुत कुछ है जो 'ऐसा नहीं है '
फिर क्यों इल्ज़ामात
कि तुम ऐसे हो , वैसे हो , कैसे हो ?
जैसा है , वह उसके होने का
उसके अस्तित्व का
उसके अपने ईश्वर का होना है
और उसे पूरे का पूरा स्वीकारना ही आदमीयत है।
शायद ।

शनिवार, 30 मई 2015

इश्क का दूर होना

तुम्हे पता है
जिससे प्रेम होता है
वही दूर हो जाता है ?
देखो चाँद भी 
धरा से कितना दूर है
और भी दूर होते जा रहा है।
कभी धरा के गले लगा था
आज विरह गीत गुनगुनाता है।
कितना अजीब है न ये प्रिये
कि प्रेम के दुश्मन अरबो वर्ष पहले भी थे
कोई साढें चार अरब पूर्व क्यों आया था थिया?
धरती से टकरा कर चाँद को छीन ले गया।
और तब से अब तक कितने ही चकोरों को
बस ताकते रहने के लिए छोड़ गया ।
इसलिए इश्क मत करना ,
करना भी है तो
जुदाई में रोना मत। समझी।
(चन्द्रमा का वैज्ञानिक पक्ष पढ़ते रहने में भी दिख जाती है उसकी कोमल परतें , गजब है चाँद भई )

बुधवार, 27 मई 2015

नींद की सिलाई

सूरज की सिगड़ी पर 
रात ने लई बनाई और 
उससे चाँद को आसमान पर चिपका दिया , 
कुछ तारें टाँके 
बड़ा सा पंखा तीन की स्पीड से चला दिया....

(कभी कभी बच्चे सी सोच भी उधड़ी हुई नींद की सिलाई कर दिया करती है)

इसलिए अपनी आँखे खोलो

तुम्हारे और मेरे मध्य
अंतरिक्ष है।
इसीलिये गहरा सन्नाटा है।
न कोई वातावरण ,
न ही ध्वनि यात्रा का कोई माध्यम। 
शून्य
निपट सूने
सन्नाटे में डूबे
इस अंतरिक्ष में
रेडियो तरंगे ही होती हैं
जो संवाद स्थापित कर सकती हैं
इसलिए
अपनी आँखे खोलो।
(सुबह का आलाप : ध्यानावस्था में आँखे अंदर तो खोलनी पड़ती है )

मंगलवार, 26 मई 2015

ब्लैक होल

तुमने मेरी असफलताओं को
ब्लैक होल की संज्ञा दे दी
अच्छा ही किया।
जानते हो न
कि 
ब्लैक होल कोई छेद नहीं है।
यह तो मरी हुई इच्छाओं के वे अवशेष हैं
जो टूट चुके तारों की तरह जमा हैं।
और पता है ?
किसी सुपरनोवा की तरह चमकते हुए ख़त्म हुआ था मैं।
न न ख़त्म हुआ भी कहाँ ?
अस्तित्व कब किसीका मिटा है ?
हाँ यह जरूर है कि अब न कोई आयतन है
न आकार , रूप -रंग ,
किन्तु अनंत घनत्व के साथ
तुम्हारे अंतरिक्ष के तमाम
चाँद-तारे-सूरज और असंख्य पिंडो को
अपनी ओर खींचने का माद्दा है मुझमे।
ब्लेक होल तो ऐसे ही होते हैं।
( अंधड़ से फड़फड़ाते डायरी के पन्नों की आवाज भी कभी कभी कोई राग दे जाती है )

गुरुवार, 14 मई 2015

सब्र

'बेरोजगार के चेहरे पर मुस्कराहट उसकी लापरवाही नहीं होती बल्कि उसका धैर्य होता है।''
''किस धैर्य की बात करते हो ? हाथ-पैर बाँध कर बैठे रहना और ईश्वर से प्रार्थना करते रहना कि कोई नौकरी मिले ?''
''इसमे भी क्या बुराई है ?''
''बुराई , अरे ये बेवकूफी है , मूर्खता है।''
''ये तुम कैसे कह सकते हो कि ये मूर्खता है ? क्या मूर्खता यह नहीं की बगैर किसीके बुलावे पर आप नौकरी की भीख माँगने जाओ और वो आपको वहां से भगा दे।  देखो , याचना आदमी को झुका देती है , दो कौड़ी का आदमी एक याचक का बाप बन जाता है। समझे।''
''कामयाबी के लिए संघर्ष जरूरी होता है, यही सब संघर्ष है। इतना मैं जानता हूँ।''
''हाँ, जरूरी है, मैंने कब मना किया और वैसे भी हर कामयाब आदमी प्रेरक बन जाता है और वो अपने संघर्ष को  ढेर सारे रंग दे देकर कहता फिरता है।  किन्तु असल में होता कुछ नहीं है , कामयाबी संघर्ष के बाद ही मिलती हो ऐसा नहीं है।  कामयाबी प्रत्येक कार्य का परिणाम है।  चाहे वो हार हो या जीत। कार्य ही   कामयाबी भी  है। यानी उसका परिणाम। हार भी कामयाबी ही होती है दोस्त।''
''मुझे समझ नहीं आता तेरा तर्क।''
''हाँ, ये जो समझ है वह भी बड़ी विचित्र होती है।  प्रत्येक आदमी जो सोचता है , उसके लिए वही एकमात्र सच और सही होता है।  उसके भिन्न वो कुछ सुनना ही नहीं चाहता।  आप ठीक वैसा करो जैसा कोई बोलता है और नहीं किया तो वो आपको ताने भी मारने लगता है। संभव है किसीके प्रति गलत फहमियां पलने की यह शुरुआत भी हो। यह स्वभाव है आदमी का।  इसे पूर्वाग्रह कहते हैं।  और हाँ, ऐसा तब अधिक होता है जब दो परस्पर व्यक्तियों में एक रोजगार-सफल हो और दूसरा बेरोजगार।  अगर दोनों एक जैसे हों तो तर्क और एक दूसरे को समझ सकते हैं। क्योंकि दोनों एक दुसरे की मनोस्थिति को समझने लायक होते हैं। इसलिए मनोविज्ञान में कहा गया है कि आप किसीको समझाएं तो पहले उसकी तरह आप सोचने और समझने लायक बनें।''
''अजीब है , आदमी फालतू होने पर दार्शनिक भी बन जाता है , यह आज पहली बार देख रहा हूँ मैं।''  हँसते हुए रोहन विक्रम की पीठ पर हाथ रखते हुए उठता है - ''अच्छा अब मैं चलता हूँ , आफिस में लेट हो जाऊंगा।''
''ठीक है , रात को फ्री रहे तो आना।''  विक्रम भी उसके साथ खड़ा होता है और रोहन को दरवाजे तक छोड़ने जाता है।
''विक्रम कहीं अपनी जिंदगी बिगाड़ न ले ....''  रोहन बाइक ड्राइव करते हुए सोच रहा है- ''पहले वो ऐसा नहीं था।  मेरी बात मानता था , बहस तो करता ही नहीं था।  मगर आज , पता नहीं क्या हो गया है उसे। शायद बेरोजगार होना चिड़चिड़ा भी बना देता है आदमी को ? और दार्शनिक भी......''
विक्रम रोहन को विदा कर अपने कमरे में लौट आया है।  नीचे बिछी चटाई पर धम्म से बैठता है और चित लेट जाता है।  कमरे की छत पर उसकी निगाहें टिक जाती है।  ''रोहन मेरे लिए सोचता है , मैं उसकी हर बात को काटने लगा हूँ।  क्या मैं सही कर रहा हूँ ? मैं जो सोचता हूँ क्या वही एकमात्र सही है या रोहन जो कहता है -समझाता है वो सही है ? वो गलत नहीं कहता-आखिर मेरे भले के लिए ही तो कहता है। पर मैं करू तो क्या करूँ ? हालात ने मुझे पंगु बना दिया है।  वैसे रोहन कहता है - तू फालतू रहकर दार्शनिक हो चला है।  उसे क्या पता  कि  अगर मैं तर्क और दर्शन या फिर आध्यात्मिक होकर नहीं सोचूंगा तो शायद मैं खड़ा रहने लायक भी नहीं रह पाउँगा।  यह सब कुछ मेरा धैर्य है , धैर्य थामे रखने के लिए आदमी को किसी न किसी का सहारा तो लेना ही पड़ता है।  ईश्वर का है तो क्या बुरा  . और ईश्वर  आपको अकेला नहीं होने देता- आप को ताउम्र लगता है की वो कुछ भला करेगा। और आप इस आस में खड़े रहते हैं।  गिरते नहीं। इसे रोहन मूर्खता भले कहे मगर यह मूर्खता ही आदमी का सहारा अधिक है.....''
विक्रम के चहरे पर हलकी सी मुस्कान उभर आई है जो उसे शायद पता भी नहीं , पता तो उसे यह भी नहीं चला  कि इसी मुस्कान के साथ लेटे हुए सोचते सोचते  उसकी आँख कब लग गयी।

समझे

''तुम पहाड़ पर चढ़कर आसमान को छूने की बात करती हो और मैं कहता हूँ पहाड़ से भी ऊंचा है आसमान।  हाथ नहीं पहुंचेगा।'' 
''पहाड़ पर चढ़ जाने के  सुकून से वंचित तो नहीं होउंगी। और वैसे भी आप कोई भी सफलता हासिल कर लो , और और सफलताएं , ऊपर चढ़ते-बढ़ते रहने की लालसा जाग्रत हो जाती है। बस , पहाड़ और आसमान के बीच मेरे हाथ की इतनी सी ही तो कहानी है।'' 
''तुम हर बात को इतना फिलॉसफिकल क्यों ले लेती हो ?''
''तुम हर बात को इतना सामान्य क्यों लेते हो ?''
''उफ्फ , कठिन है तुमसे बात करना।  अच्छा मैं चलता हूँ।'' 
''ठीक है , तुम सरल मार्ग से जाओ , मैं कठिन ही सही।'' 
''फिर वही बात , कभी तो रोमांटिक मूड में आया करो।'' 
''चलो , तुम्हे देर हो रही है।'' 
वीरा ने टिफिन बंद किया और वीर के हाथो पकड़ाया।  वीर बगैर कुछ बोले टिफिन को हाथ में लेकर दरवाजे से बाहर निकल गया। 
ऐसा रोज ही होता है।  किसी न किसी विषय पर बात का अंत वीरा की दार्शनिक बात और वीर की सामान्य सी सोच के साथ ख़त्म होती  है , रात जब दोनों घर आते हैं तो लगभग थके हुए होते हैं।  सो जाते हैं।  सुबह का वही चक्र।  वीरा पहले उठती है।  कमरो की सफाई के बाद फ्रेश होती है और चाय बनाती है।  वीर तब उठता है जब वीरा लगभग तैयार हो जाती है।  मगर वीर के जाने के बाद ही वीरा घर से निकलती है।  वीरा हमेशा सोचती है , अगर वो घर से पहले निकली तो वीर के बस का नहीं है टिफिन तैयार करके ले जाना।  कई बार ऐसा हुआ भी है।  वीरा को किसी मीटिंग की वजह से जल्दी जाना हुआ और वीर बगैर टिफिन के ऑफिस चला गया।  वीर बाहर खाना भी तो नहीं खाता कि वीरा निश्चिन्त रहे।  वीर जानता था कि वीरा उसका बहुत ख्याल रखती है और वह उसे टिफिन बनाकर इसीलिये देती है क्योंकि वो रात तक भूखा ही रहेगा।  महीने में वीर वीरा को कोई ८ हजार रुपये देता है।  टिफिन के।  वीरा ले भी लेती है।  क्योंकि लिव इन रिलेशन में रहना पूरा प्रैक्टिकल ही तो रहता है।  दिल की बात इसमें नहीं होती और वीरा लाना भी नहीं चाहती।  वीर कभी कभी सोचने लग जाता है कि वीरा को अपनी बना ले किन्तु कह नहीं पाता , कहने को होता है तो वीरा की दार्शनिक बातें उसे झेलनी पड़  जाती थी। वह जानता था कि वीरा में प्यार-व्यार का कोई भूत नहीं है।  वह जिंदगी को बहुत रूखा  सा लेती है। और वीरा को लगता था कि वीर अभी नादाँ है।  नादाँ तो था ही वो। 
रात बिस्तर में वीर करवट लेकर सोता है मगर वीरा उससे लिपट कर।  वीर कहता है - ''क्यों डर लगता है क्या ?'' 
''नहीं, मुझे आदत है। पापा के साथ ऐसा ही सोती हूँ।'' 
''पर मैं तुम्हारा पापा नहीं हूँ।'' 
''हाँ, मैं  भी कोई तुम्हारी बेटी नहीं हूँ।''
''फिर ?''
''फिर क्या ?''
''सो जाओ चुपचाप।'' 
अक्सर ऐसा ही होता है और सुबह हो जाती है। 
उस दिन वीरा का आख़िरी दिन था। प्रमोशन पर उसका तबादला चंडीगढ़ हो गया था।  रात देर से भी पहुँची थी।  मगर वीर को उसने घर पहुंचा न देखा तो सोच में पड़  गयी।  उसने फोन किया। 
''कहाँ हो वीर ?''
''वीरा , अभी कितना बजा है?''
''११ बज रहे हैं रात के। पर तुम हो कहाँ, ऐसे तो कभी बाहर नहीं रहे ?''
''तुम्हे पता है वीरा , वो पानी की टंकी के पीछे जो पर्वत श्रंखला दिखती है न , मैं बस उसके नीचे खड़ा हूँ।'' 
''क्यों ?'' 
''तुम आ जाओ , आज पहाड़ पर चढूंगा , आसमान को छूने। तुम साथ नहीं चलोगी ?''
''रात में ?''
''हाँ, सोचता हूँ शायद चाँद भी हाथ लग जाए।'' 
''चाँद का क्या करोगे ?''
''अपने साथ रखूंगा। तुम्हारे जाने के बाद कोई तो मेरे साथ होना चाहिए न।'' 
वीरा ने फोन बंद कर  दिया। और कुछ देर खड़ी सोचती रही।  फिर सीधे घर से बाहर निकली , बाइक उठाई और चल पडी जहां वीर था। 
''चलो मेरे साथ।''  हाथ पकड़ कर वीरा ने खींचा। 
''क्यों?''
''चाँद घर पर ही है। तुम्हे पता है डिजायरली नामक एक महान व्यक्ति हुआ है।'' 
''हाँ, तो ?'' वीर ने हैरानी से कहा। 
''तो क्या...'' माथे पर हल्की सी चपत लगाते हुए वीरा ने कहा - ''उसने कहा है - हर चीज लौट कर आती है अगर आदमी इंतज़ार करे।''  

सोमवार, 4 मई 2015

सच कहना

तुमने सुख और शान्ति को गढ़ा 
दिया नहीं, दे सकने का भ्रम रखा। 
क्योंकि कुछ दिया जा ही नहीं सकता 
जब तक कि लिया न जाए। 
लेने वालों ने तुम्हारी दी हुई चीज नहीं ली 
बल्कि वह लिया जिससे तुम दूर भागे।
दूर भागना
सत्य-शान्ति-स्नेह की तलाश में
कभी आवश्यक नहीं रहा।
फिर भी भागे और बुद्ध बने।
जब बुद्ध बन गए तब इति हो गयी,
इस बन गए ने तुम्हारे भागने के पीछे के उद्देश्य को ग्रस लिया
और भगवान बना दिए गए तुम।
तुम्हे कुछ मिला हो या न मिला हो
किन्तु तुमसे आज सबको मिल गया है
यह मिल जाना ही तुम्हारी सफलता मानूं
गले इसलिए नहीं उतरता क्योंकि
जो दिख रहा है
उसी को छोड़ तुम दूर गए थे।
तुम अकेले सिद्ध हो गए शायद।
और खुद को पुजवाने छोड़ गए
अपने धर्म-कर्म।
सच कहना - क्या तुम्हारे उद्देश्य में यही सब था ?

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

गली









उस घर से 
कोई पांच घर छोड़ 
एक गली थी , 
गली के बाद 
दो  घर छोड़ उसका घर। 
घरों की इस कतार को  
गली विभाजित करती थी। 
मगर निगाहें विभाजन की इस रेखा से पार 
दोनों घरो की चौखट पर बिछी होती थी।  
इधर से भी-
उधर से भी। 
दरवाजे खुलने का 
बेसब्र  इन्तजार  
मुस्कुराते चहरे के रूप में 
अक्सर प्रतिफल देता था। 
कितने ही सपनो से 
लिपे जाते रहे थे आँगन और 
बनाई जाती रही थी 
प्रेम रंगोलियां।  
अब  कोई नहीं है ,
न वो , न मैं। 
सूने पड़े हैं आँगन , 
घर, दरवाजे।  
किन्तु 
घरों की कतार के बीच खींची गली 
आज भी है वहां 
और उनके -मेरे  जीवन में भी। 

मंगलवार, 10 मार्च 2015

बस जो है वो ही है

मेरे पास
सिर्फ प्रेम था
और उन्हे
इजहार चाहिये था ....
(सूरज की तेज-चिटकती धूप कपाल पर पसीने के साथ चमकती है और वो पौछना चाहते हैं)

मंगलवार, 3 मार्च 2015

हम उजाड के बाशिंदे, आप हवाओ में बहने वाले ....

उनके लिये 
किसी दूसरे के इमोशंस 
अब कोई महत्व नहीं रखते .
अच्छा है यह .

पहले की बात और थी , 
हम भी कमाऊ थे 
और व्यस्त थे ..
थोडा बहुत नाम था , 
प्रतिष्ठा थी ..
अब ऐसा कुछ नहीं है 
तो वे भी अब अपनी तरह की ही जिंदगी जीते हैं . 
उन्हे फिक्र क्यो रहेगी अब ? 

बहानो और निजी मुसीबतो से 
रिश्ते साधे रखने की यह कला 
आखिर कितने दिनो तक जिंदा रह सकती है ?

 सामने वाला कोई अनजान या 
जिसे कुछ फहमीया हो ही न 
ऐसा थोडी न है .
वह भी इंसान है 
और ठीक आपकी तरह ही , 
शायद आपसे अधिक 
जिंदगी के कठिन पथ पर 
वो सफर कर रहा है 
जहाँ अगर वो चाहता तो 
कबका आपको पीछे छोड   
निकल जाता 
क्योंकि उसके लिये 
आपके होने का मतलब ही 
सिद्ध नहीं होता .../ 

जब आपकी जरुरत होती है 
तब आप हमेशा गायब होते है..
और जब आपको उनकी जरुरत होती है 
तो पूरा पूरा समय आप लेते हैं उनसे ...
और अगर कुछ हुआ तो अपनी शिकायत, 
अपना गुस्सा या 
अपनी बात को इस कदर रखते हैं कि 
मानो दोष उनका ही हो ... 

अब तो कुछ ऐसा है कि
वे खास दिन भी आप 
भूल चुके होते हैं 
जिनसे जिंदगी के थकाऊ पलो में 
राहत की बयार चलती 
महसूस हुआ करती है . 

क्यो है ऐसा ? 

क्योंकि जिंदगी के रास्ते बदल चुके हैं.... 
एक ओर 
जिंदगी गुलशन है 
तो दूसरी ओर उजाड .... 
हम उजाड के बाशिंदे 
आप हवाओ में बहने वाले ....


शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

समय

वो पहले था
क्योंकि समय परिवर्तित है 
अब भी वैसा ही हो या रहे सम्भव नहीं।
इसलिये 'था' से 'है' की तुलना करना 
और 'है' को 'था' बना देना उचित नहीं ।
इसे ही स्वीकारो
जो है ।
और जब जब
'है' को 'था' से जोडते हुये
किसी काम का न मानना स्मरणीय होता है
आप अपने आप को छल लेते हैं
क्योंकि तब आप 'है' के साथ अन्याय ही नहीं बल्कि उसकी हत्या कर देते हो ।

बुधवार, 14 जनवरी 2015

अब नही आती 
कोई चिट्ठी , 
कोई पत्री ..
न मेल, ....
आती है तो 
सिर्फ याद ...
कभी स्याही से कागज पर 
तो कभी आंखो से गालो पर ..