बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

निर्मोही कहीं की



बियाबान हो या बंजर
धूप हो या पानी
उबड-खाबड रास्तों से
सीधी सपाट गलियों तक
चुपचाप लेटी पडी
रहती हैं ये मीटर गेज़ की पटरियां।

ठीक मेरी और उसकी तरह
जो साथ-साथ तो चलती हैं
किंतु कभी आपस में
मिलती नहीं।

और यह दुनिया..

आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।

निर्मोही कहीं की।

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

चार चटिकायें

1,
जोत दिये
खेत-खलिहान सब।
जितने खरपतवार थे
उखाड फेंके...।
अब नये बीज और
नई फसल है...।

2,
सबकुछ पुराना रखूं
संभव नहीं।
नित बदलती है त्वचा भी
उसकी कोशिकायें रूप लेती हैं..
इसलिये अब 'पोंड्स' नहीं
'एक्स' है..।

3,
परिधान देख कर इंसान की
कीमत आंकी जाती है।
औकातभर का आदमी
औकातभर का आकलन
करता है,
मगर उस नंगे को बडा मज़ा आता है
जो देखता है 'लाइफ स्टाइल' में
आने-जाने वाले बन्दों को।

4,
उसे
मिलावट करने के जुर्म में
पकड लिया गया।
मैने पाया कि
उसने सचमुच
जघन्य अपराध किया है..
बिक रही चीजों में
वो शुद्धता जैसी घटिया
वस्तुये मिलाता था..
और अतिसंवेदनशील
केमिकल बगैर
नैसर्गिक विधि पर
बल देता था..।
स्साला....
बाज़ार खराब करता है
मिलावटखोर कहीं का।