मुम्बई में बारिश का कोई ठिकाना नहीं रहता, अभी सूरज चमक रहा है और अचानक बारिश धम से टपक पडती है..रुक रुक कर, कभी तेज़ तो कभी धीमी...यहां के आलम का यह विचित्र मज़ा है..ऐसी ही बारिश की तरह लग सकती है मेरी यह रचना...
हां शायद बारिश शुरू हो गई है,
कल घर से बाहर निकला था
तो पैर के जूते गिले हो गये थे..
पसीना इतना तो नहीं होता कि
जूते के तलवे गिले हो जाये
सो निश्चित ही बारिश का मौसम है।
और तुम कहते हो कि
आजकल अपनी भी फिक्र नहीं है,
कहां खोये होते हो
पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
और अगर टूट भी जाये तो
यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
तब लगता है हां
निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।
सूरज निकलता नहीं है
डरता है शायद
और ये हवाओं को क्या हो चला है कि
आजकल ठंडी हो गई है,
बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।
वैसे
जब भंवर लयबद्ध नहीं होती
जीवन की दिशायें एक सीध खो देती हैं
मुहफेरी की खिडकियों से
झांकने लगते हैं दोस्त,
पीठ के पीछे छूरा घोपने की घटनायें आम हो जाती हैं,
मुंह के सामने मीठी छुरियों का बाज़ार लगने लग जाता है
और वे कन्धे ऊंचे व बडे हो जाते हैं एक दम से
जिनके सहारे गले में हाथ डाला जाता था
तब लगता है बारिश सावन की चमक खो चुकी है
फिर तेज़ कितनी भी हो
मुझे दिखाई नहीं देती,
बस घर के छप्पर पर आवाज़ आती है
धप धप धपा धप
जैसे कोई धोबी घाट पर कपडों को पीट रहा हो
और ऐसे में कहो कि बारिश है
तो हो सकता है बारिश का मौसम है?