मंगलवार, 27 जुलाई 2010

सवाल सावन का



"नीम का वो पेड
आज भी है।
किंतु
वो डाल नहीं
जिस पर बंधता था
सावन का झूला।

सावन खिलखिला तो रहा है
मगर यौवन की
खिलखिलाहट पर
वक्त की रस्सी ने गांठ बान्ध दी है।
गांठ कसती जरूर है अपनी
इच्छाओं को।

इच्छायें क्या नहीं होती
हवा के साथ डोलने की?

डोलना इस मौसम में
स्वतः ही मन चाहता है।
मन उड कर फिर
उस डाल पर बैठना
चाहता है
जिस पर बन्धा करता था
सावन का झूला।

और उसका घर
ठीक सामने दिखाई देता था।

अब सवाल यह था कि
सावन के झूले का लुत्फ
लेता था या
उसके घर से उसके निकलने
की प्रतीक्षा करता था?

जो भी हो नीम के
पेड की तरह
सवाल भी खडा है...।
और सावन
झूम रहा है।"


* चित्र उसी असली नीम के पेड का है जो आज भी वहां है, पर सूना सूना सा, जैसे उसे भी हमारी याद आती हो और वो भी रोता हो।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

बस यूं ही

1-
विचारों का तीर सीधे
खोपडी की किसी हड्डी में
धंस जाता है।
उसका नुकीला कोना
मजबूत कोशिकाओं के बने
किसी ज्ञान खंड से टकराता है,
और एक दर्द का रैला उठता है
जो फेफडों से बहता हुआ
एक कोने में दुबके
हृदय के स्पन्दन को भी भिगो देता है।
खून की गति
अचानक तेज़ हो जाती है
जो कंपकपा देती है
इरादों को,
कि
बस बहुत हो चुका
इस बेशर्म दुनिया में
भावनाओं के तट पर
कुम्भ का आयोजन।


2-
आंखों की गीली पुतलियां
दृष्य ओझल कराती हैं,
और गाल पर बहती
अश्रूधार का नमकीन स्वाद
होठों से टकराता है तो
बरबस फूट पडता है स्वर
ओह क्या प्रेम ऐसा होता है?
इसीलिये कहता हूं
दिमाग के कामकाज में
दिल के लिये
'वेकेंसी' नहीं होती।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बारिश?

मुम्बई में बारिश का कोई ठिकाना नहीं रहता, अभी सूरज चमक रहा है और अचानक बारिश धम से टपक पडती है..रुक रुक कर, कभी तेज़ तो कभी धीमी...यहां के आलम का यह विचित्र मज़ा है..ऐसी ही बारिश की तरह लग सकती है मेरी यह रचना...

हां शायद बारिश शुरू हो गई है,
कल घर से बाहर निकला था
तो पैर के जूते गिले हो गये थे..
पसीना इतना तो नहीं होता कि
जूते के तलवे गिले हो जाये
सो निश्चित ही बारिश का मौसम है।

और तुम कहते हो कि
आजकल अपनी भी फिक्र नहीं है,
कहां खोये होते हो
पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
और अगर टूट भी जाये तो
यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
तब लगता है हां
निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।

सूरज निकलता नहीं है
डरता है शायद
और ये हवाओं को क्या हो चला है कि
आजकल ठंडी हो गई है,
बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।

वैसे

जब भंवर लयबद्ध नहीं होती
जीवन की दिशायें एक सीध खो देती हैं
मुहफेरी की खिडकियों से
झांकने लगते हैं दोस्त,
पीठ के पीछे छूरा घोपने की घटनायें आम हो जाती हैं,
मुंह के सामने मीठी छुरियों का बाज़ार लगने लग जाता है
और वे कन्धे ऊंचे व बडे हो जाते हैं एक दम से
जिनके सहारे गले में हाथ डाला जाता था
तब लगता है बारिश सावन की चमक खो चुकी है
फिर तेज़ कितनी भी हो
मुझे दिखाई नहीं देती,
बस घर के छप्पर पर आवाज़ आती है
धप धप धपा धप
जैसे कोई धोबी घाट पर कपडों को पीट रहा हो
और ऐसे में कहो कि बारिश है
तो हो सकता है बारिश का मौसम है?

सोमवार, 12 जुलाई 2010

यह कैसा इतिहास?

इतिहास कैसा होना चाहिये? सत्य पर आधारित। और सत्य? कम से कम गोरों द्वारा दिये गये सत्य जैसा तो नहीं। क्योंकि गोरों ने हमारे इतिहास से काफी छेडखानी की है, नफरत के बीज बोये हैं, जो उनके खून में है। उनके गन्दे खून का भी एक इतिहास है। खैर, इन दिनों महाराष्ट्र में एक किताब पर बवाल मचा हुआ है। जेम्स लेन नामक एक कथित इतिहासकार हैं जिन्होंने शिवाजी महाराज पर एक किताब रची है ' शिवाजी-हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडिया' नामक। किताब मैने पढी नहीं है, पढना भी नहीं चाहता। क्योंकि उसके जितने प्रचारित या प्रसारित अंश पढे है वे तमाम, किसी भी सत्य से कोसो दूर हैं। यह विडम्बना है कि हमने अपने इतिहास के लिये हमेशा से ही गोरों की बातों पर विश्वास किया। हमारे इतिहासकार भी हुए किंतु अधिकांश सहमति गोरों की बातों से दर्शाई गई। क्यों? क्या हमारे इतिहासवेत्ता लायक नहीं या उनकी बातें गलत हैं? ऐसा कुछ भी नहीं है, यदि हम पी एन ओक जैसे इतिहासकारों को आज मान्यता देते तो सम्भव था इन गोरों द्वारा समय-समय पर जिस तरह से जनमानस को भडकाने का षडयंत्र चला आ रहा है वो बन्द हो जाता। ग्रांट डफ जैसे इतिहासकारों को हमने अपने दस्तावेजों मे तरजीह दे दी मगर ओक को क्यों नहीं?
इस विषय पर तर्क-वितर्क होगा। हास्यास्पद तो वो है जो लेन की किताब की तरफदारी करेगा। मैं लेन की तरफदारी क्यों नहीं करता? आपको बता दूं कि इतिहास का छात्र रहा हूं। भारतीय इतिहास से लेकर यूरोपीय इतिहास का गम्भीर अध्ययन किया हुआ है। हां पीएचडी नहीं है तो इसका मतलब यह भी नहीं कि बन्दे ने रिसर्च जैसा कुछ किया ही नहीं। ढेरों इतिहासकारों को पढा, कई-कई जगह खुद गया और जानकारियां ली। बहस-मुबाहस भी खूब की। और हमेशा अपने इतिहासकारों की बातों को यकीन के करीब पाया। खासकर पी एन ओक जैसे। जदुनाथ सरकार, जी एस सरदेसाई, एम जी रानाडे जैसों ने भारत के सन्दर्भ में काफी सच्चा अध्ययन किया है। यदि ग्रांट डफ जैसे ने शिवाजी द्वारा अफज़ल खां
के खिलाफ विश्वासघात का आरोप लगाया तो रानाडे ने अपनी पुस्तक' राइज आफ द मराठा' में इसका बहुत सटिक जवाब दिया है। खैर..मैं कहना यह चाह रहा हूं कि जेम्स लेन बाजारवाद का इतिहासकर्ता है। उसकी किताब किसी प्रकार के अध्ययन या रिसर्च का नतीज़ा नहीं है बल्कि बाज़ार द्वारा प्रायोजित भारत के जनमानस को भडकाने का कृत्य है। लेकिन फिलहाल न्याय के क्षेत्र में लेन की किताब की लाइन क्लीयर है। आपको बता दूं और यह तमाम इतिहासवेत्ता जानते हैं कि शिवाजी महाराज द्वारा मराठा राज्य की स्थापना की सम सामयिक स्त्रोत सामग्री व अभिलेखों के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने के कारण उनके प्रशासनिक आदर्शों व परम्पराओं का अनुमान लगाना कठिन है। यूरोपीय स्त्रोत व फारसी इतिवृत्तों से भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त सूचना प्राप्त नहीं होती तथा मराठी अभिलेख अधिकतर परवर्ती काल से संबद्ध है। अब रही उत्तरकालीन प्रशासनिक पद्धति से अनुमान की बात, तो इसी के आधार पर शिवाजी के जीवनकाल की घटानाओं का अनुमानभर लगाया गया है। इसमें भी भारतीय इतिहासकार ज्यादा करीब माने गये हैं क्योंकि उन्होंने जमीन से जुडी जानकारियां प्राप्त की और विदेशी इतिहासकारों ने सुनी सुनाई बातों को अपने ढंग से मोडने का काम किया। अब जेम्स लेन को कोई नया तीर मारना था सो महाराष्ट्र में देवतुल्य पूजनीय समझे जाने वाले शिवाजी महाराज के खिलाफ आग उगली ताकि बवाल हो और उसकी किताब धडल्ले से बिके। मोटी कमाई हो। मेरा मानना है इतिहास जो रहा, वो रहा..आज क्या है? जो राज्य शिवाजी के नाम से गर्व अनुभव करता है, सिर्फ राज्य नहीं पूरा भारतवर्ष, और इसके साथ ही उस राज्य की आस्था भी जुडी है तो इसे भंग करने का दुस्साहस कतई नहीं किया जाना चाहिये। यह अपराध है। आप किसी इतिहास को, ऐसा इतिहास को जो जनमानस में घर कर गया हो, जिससे दिशायें प्रवाहित होती हैं, जिससे प्रेरणा का सूत्रपात होता है उसे किसी भी प्रकार के तथ्यों का प्रभावी जामा पहना कर सत्य को झुठलाने का प्रयास करते हैं तो यह आपका अतुलनीय कार्य नहीं बल्कि घोर अपराध है? जेम्स लेन को विद्वान मानने से में इंकार करता हूं। उसकी विद्वत्ता गोरों की मानसिकता का परिचायक हैं। कम से कम आप तो इस सच्चाई को पूरी ईमानदार तरीके से स्वीकार कीजिये। तर्क-वितर्क तो बहुत हो जायेंगे। मगर अपने देश के लिये यदि अन्धभक्ति भी हो तो क्या गलत है?

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

ईसा वाक्य

-मैं भूल गया
उन मानसिक दबावों,
जानबूझ कर
दिये गये अप्रत्यक्ष तनावों को,
भूल गया तमाम कडवे अनुभव.......
क्योंकि मुझे लगता है
कडवी दवाई
अमूमन सेहत के लिये
हितकारी होती है।

-आज अगर मैं टिका हूं
या भले ही सलीब पर टंगा हूं
फिर भी सोचने में
बुराई नहीं कि
आखिर उन सच्चे
हृदयवालों की दुआयें
फिज़ूल कैसे हो सकती हैं?......
क्या यह विश्वास
जीवन को गति नहीं दे सकता?

-इसलिये
ईसा के अंतिम वाक्य
गूंजते हैं
"ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं......।"