रविवार, 16 दिसंबर 2018

सार

कैसा तो गूंथा है आपस में
हरा, सूखा सब झाड़ झँखड़
जैसे अब कोई रास्ता ही न हो
उलझे रह जाओ यहीं सुख दुःख की तरह
मुक्त हो ही न सको।
सुनो प्रिये,
मत थको,
कि आगे बढ़ो..
हरे भरे में खोओ मत
कि सूख चुके पत्तों का दुःख ओढो मत
पार करो इसे भी क्योंकि
उस पार फैला 'आकाश' है
और वही सार है।

(2 des 2018)

यादें

यादें तो आ रही हैं मगर वो नहीं आते ,
लौटे नहीं वो क्यूँ जो बिछड़ के चले जाते ;
मुद्दत हुई उन्हें नहीं देखा है इसलिए ,
रह रह के हमको अब ये उजाले भी सताते ।
मआलूम है आएँगें नहीं वो किसी सूरत ,
हर वक़्त मगर दिल से उन्हें हम हैं बुलाते ।
बढ़ जाएँ न बेचैनियाँ बेहद इस डर से ,
दुन्या मे लग लग के यादों को सुलाते ।
इस मोड़ पे ले आया हमें अब तेरा जाना ,
अपनी ही हम लाश को दिन-रात उठाते ।

【टुकड़ा-टुकड़ा डायरी/06 नवम्बर 2018】

प्रेम लिखता हूँ

मैं तुम्हारे लिए प्रेम लिखता हूँ
तुम नफरत।
जिसकी कलम में जो रंग स्याही 
वो वही लिखता है।

(9 nov 2018)

जियो ऐसे

तुमने कांटो में देखा क्या प्यार
पाया क्या सूखे झाड़ झंखाड़ में सौंदर्य ?
निर्जन पड़े हिस्से में कभी जाकर पूछा क्या
कैसे हो?
दिखी क्या
अकेले रास्ते, पड़े पत्थरों, खड़ी सूनी बदसूरत सी झाड़ियों में बिखरी मुस्कान?
तुम्हारे आने से जिनका एकांतवास पूर्ण हुआ
लंबी राहत भरी उनकी सांस की आवाज़
सुनी क्या?
सुनो!
रुको वहां ,जहाँ कोई नहीं रुकता
जाओ वहां जहाँ कोई नहीं जाता
सुनो उन्हें, जिन्हें कोई नहीं सुनता..
हाँ इन्हीं की तरह सीखो भी कि
जियो ऐसे जैसे कोई नहीं जीता ।

(18 nov 2018)

मैं पल दो पल का शायर हूँ .

ये पर्वत,पेड़
पथ और पत्थर
पीर किसे सुनाएं अपनी?
पास कौन आता इनके
प्यार करता भला कौन?
देख मुझे डबडबा कर आँखे
पूछा
पथिक तू है कौन?
तभी अचानक उड़ के आई
प्रीत पवन की
कंधो पे अपने लेकर आई
गीत एक पुराना-
मैं पल दो पल का शायर हूँ ....
(19 nov 2018)

दिन हो जाता है

सुबह लिखती है 
आसमान पर कविता
सूरज बिंदी बन छाता है।
कोई टिटहरी कंठ खोल गाती है
और दिन हो जाता है
( 22 nov 2018)

नीला विष

पर्वत हो जाना चाहा कभी
कभी नदी
तो कभी वो पगडंडी जिस पर चल कर
गुजरते रहे पर्वत, नदी, ताल ।
हुआ कुछ नहीं
बस सफर ही रहा
उपर फैला विस्तृत आकाश
शून्य का महासागर बन
सिर पर तारी रहा
और बस मन की लहरें
उथलती रही, चढ़ती उतरती रही।
मंजिल थी ही नहीं
घुमावदार रस्ते ,घाट, खाइयां
जंगल और फिर लंबी सी बिछी हुई
स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ
अजगर की तरह देह से लिपटी कसती रही।
उन्होंने कहा था साथ ही रहना मेरे
फिर पता नहीं क्या हुआ कि
वे छिटक गए।
अब ये यात्रा है
सबकुछ है
वे नहीं हैं।
हो सकता पर्वत, बह सकता नदी बन
या लेट जाता पगडंडी की तरह
तो लौटता ही नहीं।
लौटना और फिर फिर
वहीं से गुजरना
जहाँ से गुजरा करते थे साथ हम
जन्म-मृत्यु के मध्य का
विकट समय होता है।
शायद इसे ही कहते हैं नीला विष जिसे
शंकर ने कंठ में रोक लिया था।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/30/10/2018】

पापा बेटी हूँ मैं

परिंदा है हुनर मेरा
पंख हैं इसमें ..
बंधेंगा तो उड़ेगा नहीं
ये खुली जमीन और खुले आसमान के लिए बना है।
जटायू सा वजूद है
बहुत दूर तक नज़र है
इत्मीनान रखो
खोज लूँगी लक्ष्य की अशोक वाटिका ।
एक बार
आकाश में छोड़ दो ..
सूरज के पास जाकर भी जलूँगी नहीं
बल्कि उसकी आग लेकर
धरती के सारे चूल्हे फूंक दूंगी ..।
रखो हौसला मेरे हुनर पर ..
रंग दूँगी कैनवास
रच दूँगी जगत
कि मैंने जन्म लिया ही किसी रचना के लिए है।
पापा बेटी हूँ मैं।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/26 अक्टूबर2018】

ये क्षण

जिन्हें देख 
मंद मंद 
मुस्कुराते हैं 
ये क्षण 
किन्तु 
कम आते हैं....

(25 OCT 2018)

मछलीमार

मुसोलिनी या हिटलर नहीं थे तानाशाह
मार देना शौक बड़ा नहीं जितना कि तड़पाना।
तानाशाह तो वो हैं
जो बिना जाल और कांटे के
फांस लेते हैं मछली
उस्ताद शिकारी की तरह दोस्ती का लालच देकर।
हाँ, देखो
न बेचते हैं , न खाते हैं
छोड़ देते हैं पानी से बाहर निकाल कर।
और तड़पते देखना उन्हें
नृत्य सा अनुभूत होता है।
उफ्फ,
फिजूल बदनाम हैं हिटलर जैसे ...!
ओ, दुनिया के सारे दोस्तों
तुम एकबार हिटलर बन जाना
किन्तु मत बनना कभी ऐसे मछलीमार!
(24 oct 2018)

आदमीयत वाला आदमी

आदमीयत वाला आदमी
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मैं बहुत पीछे छूटा हुआ आदमी हूँ।
बहुत पीछे।
जहाँ होशियारी नहीं होती 
जहाँ वो गंवारपन होता है
जरा सा कोई प्रेम से कह दे
हृदय खोल के परोस दिया जाता है।
मैं नहीं समझ पाता आज भी
समझदारी की वो बातें
कि हर किसी को प्रेम नहीं करना चाहिए
हर किसी को दोस्त नहीं बनाते
हर किसी से खुल कर पेश नहीं आते
हर किसी से स्पष्टता नहीं होती ।
इतना गांवठी हूँ कि
रो देता हूँ
खो देता हूँ
हर उसको जिससे प्रेम होता है।
और देखो मेरा बुद्धू होना कि
मनाते कैसे हैं
जतलाते कैसे हैं
कि
कुछ भी तो नहीं आता मुझे।
इसीलिए हर वो कहता है
जो दूर हो जाता है
कि देखो ये
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता है।
मिट्ठू होता तो निर्मोही होता
किन्तु मैं चकोर सा
बस घने वृक्ष की पत्तियों से ढंकी उस शाखा पर
बैठा रहता हूँ
जो दिखती नहीं ।
मगर टूटती सबसे पहले है।
सच में , मैं छूटा हुआ, टूटा हुआ
एक आदमी हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18 अक्टूबर 2018】

धार कहाँ से करवाते हो ?

देह कोमल धरते हो फिर
सख्त हृदय क्यों रखते हो ?
कांटे ने फूल से कहा-
एक बात तो बताओ भाई
कौनसी चक्की का आटा खाते हो ?
मैं तो काँटा हूँ
चुभना काम मेरा , गाली रोज खाता हूँ।
किन्तु कितनी सदियां बीत गई
रहस्य न जान सका ये अभी तक
फूल होकर भी कैसे चुभ लेते हो?
दिखता ही नहीं जो वो
जहर कहाँ से ले आते हो ?
सवाल बहुत है मेरे पास
बोलो , सिखाया किसने चुभना तुम्हे?
चुभ कर हंसना तुम्हे?
न पैने दीखते हो
न तुम हो नुकीले
फिर घाव गहरा कैसे कर जाते हो?
बताओ , पीठ पीछे छिपे खंजर में
धार कहाँ से करवाते हो ?
(16 OCT 2018)

देश-काल-कलयुग


बेवजह बदनाम करना
वजह बना देता है दुश्मनी की।
आओ देखें कितना दम तुम्हारे झूठ में है
और कितना सच हमारे पास है।
जिन सबूतों को लेकर इतरा रहे हो
उन्ही सबूतों में तुम्हारे भी खिलाफ
पुख्ता शब्द हैं स्मरण रखना,
याद ये भी रखना कि
शीशे के घर में हो और पत्थर चला रहे हो।
खामोशी में डूबे आलम को
उसकी नियति मत मान बैठना
उठेगा तूफ़ान तो इसकी जद में
तुम्हारा पूरा वजूद भी तबाह होगा ।
बहादुरी की डींगें हांकने वाले
देखें खूब है जीवन में।
उठे तूफानों से खूब रस्ते बनाए हैं
ताल ठोंक कर अखाड़े में
उतरना हमे भी आता है,
तुम्हारी खूबसूरत चालबाजियों के उठे फन को
कुचलने का दांव
सीखा है जिंदगी के बेहतरीन कोचों से ।
भोले और साफझग मेकअप के पीछे का सच
काजल है या कोयले की कालिख
वक्त के परदे पर अंकित है।
देखते हैं -
फिल्म शुरू तो होने दो!
( 9 OCT 2018)

आभास

आभास
कि तुम हो
तुम हो..?
पूजा,पाठ
प्रार्थनाएं
आस्था,श्रद्धा जगाती है।
तुम नहीं जगे
सोए हो
इसलिए आभासी हो।
उठोगे?
कि प्रेम छटपटा रहा है
कि मन विचलित है
कि दर्द बह रहा है
एक बार
कह ही दो
कि तुम हो...
(8 Oct 2018)

प्रेम दुबारा बरसेगा

दुविधाओं के मेघों से घिरे
आसमान को
कौन समझेगा?
अहंकार नहीं ये मेरा
प्रतीक्षा है बस कि
प्रेम दुबारा बरसेगा ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/4अक्टूबर 2018】