शनिवार, 27 नवंबर 2010

दो गज़लें


सालों बाद जब अपने पुराने दस्तावेजों की पोटली खोली तो मानों वक़्त ने करवट बदल कर मुझे अपनी आगोश में ले लिया। कुछ ऐसे खतों में खो गया जिनमें जिन्दगी खेला करती थी। उन्हीं खतों में मुझे मिला मेरे बडे भाईसाहब का एक पत्र और उनकी लिखी गज़लों के तीन पन्ने। यह तो मैं जानता था कि भाईसाहब तब खूब लिखा करते थे। मुशायरे वगैरह में जाते थे, छपते थे..पिताजी से इस संदर्भ में चर्चायें किया करते थे। मैं छोटा था और गज़ल वगैरह से दूर था इसलिये उनकी कई सारी गज़लें सिर के उपर से जाया करती थी। आज भी बहुत सी गज़लें हैं जो मेरी समझ में नहीं आती किंतु हां, थोडा-बहुत समझने लगा हूं। जब थोडा बहुत समझने लायक हुआ तब तक उन्होने न केवल लिखना छोड दिया बल्कि इस विधा से दूर अपनी जिन्दगी की जरूरतों, जिम्मेदारियों में खो गये। अब वे नहीं लिखते। यह जो उनके तीन पन्ने मेरे हाथ लगे..ये भी वर्ष 1990 के आस पास के हैं। मेरे पास उनकी गज़लों के लिहाज़ से यही तीन पन्ने और मेरी समझ में आ जाये वैसी छ्ह सरल गज़ल है। मुझे खुशी हो रही है कि मैं उनकी रचना जो वे 'अश्क़' के नाम से लिखा करते थे यहां आप सब की नज़र कर रहा हूं।

1,

" इतनी हवाएं सर्द थीं कि दरख्त हम ठिठुर गए
झौंके बहे गमों के यूं कि सख्त हम सिहर गए।

समझ के इब्तिदाए-खुशी तल्खियों को पी गए
अस्ले-सुकूं तभी मिला, बाकी थे बेखबर गए।

मुट्ठी में बहुत बांधा किए बेरुख लकीर हम
दाता ने बेवफाई की, बेबस थे हम बिखर गए।

मुरादो-हसरतों का कहां इन्सां को वक़्त है
कल जो खुले थे चश्म आज बंद हो अखर गए।

दिलकश थी जिन्दगी कभी जिनके सहारे 'अश्क़'
बचपन-ओ-जवानी के वो यार सब किधर गए। "



2,


" झूठी दुनिया झूठ चलन में
होता है व्यापार सदन में।

रस्ता भूले साफ सरल में
मंजिल पाई गहन-सघन में।

उडता टुकडा अखबारी है
नेता का चारित्र्य पवन में।

बात समझना तब है मुमकिन
उतर सको वक्ता के मन में।

पढे-सुने को समझा जाना
गज़ल हो गई अर्थ वहन में।

बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में।

कहने को है 'अश्क़' अकेले
महफिल रहती है चिंतन में। "


( कुछ अन्य अगली पोस्ट में)

सोमवार, 22 नवंबर 2010

पत्रकारिता यदि व्यवसाय है तो क्या व्यवसाय में आदर्श की हत्या माफ होती है?

समय, काल, परिस्थितियों के साथ-साथ पत्रकारिता की परिभाषा भी बदली है। उसका रूप, रंग और उद्देश्य ने भी करवट ली है। जिस पत्रकारिता का जन्म कभी 'मिशन' के तौर पर हुआ माना जाता था और जिसने अपनी महत्ता समाज़ की बुराइयों को जड से नष्ट करने के लिये स्थापित की थी वो आज अपनी उम्र के एक ऐसे पडाव पर आ पहुंची है जहां आगे खतरनाक खाई है और पीछे धकेलने वाले हजारों-हजार नये किंतु ओछे विचार। ये ओछे विचार ही आज की मांग बन चुके हैं। ऐसे विचार जिनमे स्वार्थगत चाटुकारिता निहित है, बे-ईमानी को किसी बेहतर रंग-रोगन से रोशन किया गया हैं और जिनमे ऐसे लोगों का वर्चस्व है जो अपनी सडी हुई मानसिकता को बाज़ार की ऊंची दुकानों में सजाये रखने का गुर जानते हैं। कह सकते हैं कि महात्मा गांधी की तरह ही पत्रकारिता भी आज महज इस्तमाल की चीज बन कर रह गई है। इसका हाल ठीक वैसा है जैसे घर में खांसता बूढा अपनी ही संतानों से सताया हुआ हो, या उसे बेघर कर दिया गया हो और उसकी विरासत को लूटा-झपटा जा रहा हो। सत्य, ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण वाले अति व्यंजन इस शब्द को स्वर्णाक्षर जरूर देते हैं किंतु यह दिखने वाली वह मरिचिका है जिसके आगे-पीछे सिर्फ रेत ही रेत बिछी है और सामान्य आदमी इस पर सफर नहीं कर सकता। ऊंट की तरह मेरुदंड वाले या कहें कूबड वाले लोग हैं जो इस रेत पर रास्ता बना कर दिशा तय कर रहे हैं। हां, मानस में यह प्रश्न जरूर उठता है कि यह सब हालिया बदलाव तो नहीं हैं, फिर अगर बदलाव हैं तो कब से और किस सदी से? पत्रकारिता का सत्यानाश आखिर कब से शुरु हुआ? और कैसे पाक से नापाक की ओर इसने रुख किया? इसका सही-सही आकलन करना वाकई कठिन है।
फ्रांस का बादशाह नेपोलियन बोनापार्ट जब विश्व विजय का ख्वाब देख रहा था तब उसने कहा था कि "एक लाख संगीनों की अपेक्षा मैं तीन समाचार पत्रों से ज्यादा डरता हूं।" यानी पत्रकारिता से डरने का क्रम 1769 ईसवीं से या इसके पहले से प्रारंभ हो चुका था, किंतु उस काल में इससे डरने का तात्पर्य यह था कि हम कहीं कोई गलत काम न कर बैठें या कोई ऐसी भूल न हो जाये कि लोग हमारे खिलाफ एकजुट हो जायें। समाचार पत्र तब समाज़ को और संसार को बचाये रखने का एक बेहतर जरिया माना जाता रहा। हमे अपने पौराणिक काल या उसके शास्त्रों में नारद जैसा एक विद्वान देवपुरुष मिलता है जो हालांकि पत्रकार नाम से कभी जाना नहीं गया किंतु उसके कार्य कुछ इसी प्रकार के थे। आप इसे नारद की चुगली या इधर की उधर लगाने वाली बात मान सकते हैं किंतु उनके इस कार्य में हमेशा ही कोई सदपरिणाम छुपा हुआ रहा, जिसने लोक की रक्षा की यानी लोकहितार्थ कार्य किये। सैमुअल बौल्स ने पत्रकारिता को देश की प्रमुख शक्ति के रूप में अगर समझा तो इसके पीछे यही कारण था कि पत्रकारिता जनता को जनता के हित में और बुराई से लड सकने का मार्ग प्रशस्त कर रही थी। किंतु समय के साथ-साथ अचानक जब वो सैमुअल जानसन की नज़र में आई तो उसने कहा " शायद ही कोई ऐसी चीज हो जो क्रूरता की कथा की तरह चेतना को झकझोरती हो। संवाद लेखक यह बताने से कभी नहीं चूकता कि शत्रुओं ने कैसे शिशुओं का वध किया और कुमारियों पर बलात्कार किया, और अगर घटनास्थल कहीं दूर रहा तो वह एक पूरे प्रदेश की आधी आबादी की खोपडियां उतरवा कर रख देता है।"
आप गंभीरता से सोचिये कि जिस पत्रकारिता ने भारत की आज़ादी में अपनी अहम भूमिका निभाई वो आज़ादी के बाद राजनीति, कारपोरेट या सेठ-साहुकारों के गलियारों में नाचती हुई दिख रही है। जहां यह फर्क करना दुश्वार हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन दलाल? या पत्रकारिता के भेष में दलाली ही दलाली? यदि इस रूप में पत्रकारिता है तो इसका दोष किसे दें? उन संपादकों को जिन्होने सेठ-मालिकों की जुबान पर अपने विचार तय किये? या उन सेठ-मालिकों को जिन्होने ऊंचे दाम में संपादक खरीदे? या ऐसे संपादकों को जिसने कभी अपने सहयोगियों को स्वच्छंद रहने, लिखने नहीं दिया। उन्हें हमेशा अपने हित के लिये दबाव में रखा और कार्य करवाया? यह आम राय है कि संपादकीय सहयोगी चाहे कितना भी प्रतिभावान हो उसे अपने संपादक की खुशी के लिये कार्य करना होता है न कि अखबार या चैनल के लिये। और यदि सहयोगी विशुद्ध प्रतिभा का इस्तमाल कर कोई बेहतर संपादन कार्य करना चाहता है तो संपादक द्वारा उसे अपने अहम और प्रतिष्ठा पर आघात मान लिया जाता है कि कैसे कोई अदना पत्रकार उन तक पहुंचे या उनसे अच्छा लिख सके। पेट और नौकरी की मज़बूरीवश सामान्य किंतु बेहद ऊर्जावान पत्रकार संपादकों के ओछे निर्णयों को भोगने, मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं। या फिर नौकरी छोड कर इस दलदल से दूर। शुद्ध पत्रकारिता को चकनाचूर करने मे इस रवैये ने भी अपनी अहम भूमिका निभाई है।
भारत में हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता की दशा में जमीन आसमान का फर्क है। हिन्दी पत्रकारिता गरीबी रेखा से नीचे की दिखती है और अंग्रेजी अमीरी रेखा से भी उपर की। वजह? वजह दोनों में भ्रष्ट नीति। एक ऊपर चढ बैठी तो दूसरी नीचे। सच्चीदानन्द हीरानंद वात्साययन 'अज्ञेय' की 'आत्मपरक' में इसी पत्रकारिता और संपादक के संदर्भ में उनके कथन है कि " आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही है और सम्मान के पात्र नहीं हैं।" विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक है 'पत्रकार कला' जिसमे उनकी भूमिका में गणेश शंकर विद्यार्थी का कोट है कि " यहां भी अब बहुत से पत्र सर्व साधारण के कल्याण के लिये नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं............., इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं, धन से ही वे चलते हैं और बडी वेदना के साथ कहना पडता है कि उनमे काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन की ही अभ्यर्थना करते हैं।" कृष्णबिहारी मिश्र भी इस पत्रकारिता के परिवेश को अपनी पुस्तक 'पत्रकारिता, इतिहास व प्रश्न' में यह जाहिर कर कहते हैं कि " आज पत्रकार देश के दुर्भाग्य को अपना दुर्भाग्य मानने और अपनी विरासत के उज्जवल अध्याय को अपना आदर्श बनाने को तैयार नहीं है। समाज के दूसरे वर्ग के लोगों की तरह वह निजी समृद्धि और विलास वैभव में जीने की आकुल स्पृहा से आंदोलित होकर रंगीन-घाटों पर दौडता नज़र आ रहा है।" ऐसे हालात सिर्फ भारत के बने हैं, ऐसा भी नहीं है..यह पत्रकारिता की दुनिया की रीत बन चुकी है। शायद तभी आस्कर वाइल्ड यह कहते पाये गये कि- " साहित्य और पत्रकारिता में फर्क यही है कि पत्रकारिता पढने योग्य नहीं होती और साहित्य पढा नहीं जाता।" जार्ज बर्नाड शा मानते थे कि-" एक साइकिल दुर्घटना और सभ्यता के बीच जो अंतर है, उसे पहचानने में समाचारपत्र जाहिरा तौर पर असमर्थ होते हैं।" यह इसलिये कि पत्रकारिता ने अपने स्तर को पुष्ट नहीं किया, उसने उसे बेहतर बनाने की दिशा नहीं दी। हो यह गया है कि पत्रकार तथ्यों के साथ इंसाफ नहीं कर रहा, इसके पीछे के कारण भी कई सारे होते हैं। मुझे मार्क ट्वेन के शब्द याद आते हैं कि-" पहले तथ्यों को प्राप्त कीजिये, फिर तो आप उन्हें जितना चाहे तोड-मरोड सकते हैं।" मार्क ने हो सकता है दूसरे लिहाज़ से कहा हो किंतु आज पत्रकारिता में अगर तथ्य होते हैं तो उनकी ऐसी-तैसी कर परोस दिया जा रहा है। नेपथ्य में दबाव, लालच या भ्रष्ट आचार का खेल है। समाचार पत्र मुख पत्र बन गये हैं और जो सचमुच मुखपत्र हैं उन पर छींटाकशी ऐसी कि मानों वे कोई अपराध कर रहे हों। कमसे कम वे मुखपत्र अपनी ईमानदारी तो दिखा ही रहे हैं जो समाचार पत्रों में नहीं दिखती।
आप न्यूज चैनलों की बात करें। आधुनिक युग का सबसे बडा और प्रभावशाली मीडिया तंत्र। इसे ग्लेमर या फैशन शो की संज्ञा दी जा सकती है, जहां समाचार और मुद्दो पर निष्पक्ष विचार नहीं होते बल्कि राजनेताओं के लिये खुला मंच सौंपा जाता है, खासकर उन्हें जो सत्ता में हो। सच भी है क्योंकि उनके वरदहस्त से ही सारी माल-मस्ती है। सूट-बूट और टाई में, जेल लगे सलीके से जमे केशों वाले प्रबुद्ध पत्रकार या बढी हुई दाढी और आधुनिक बुद्धिजीवी, जिसे आप अंग्रेजी में एक्स्ट्रा इंटलीजेंट कह सकते हैं, लोगों को इस कदर बेवकूफ बनाते हैं मानों उनके सिवा कोई पत्रकार नहीं है और ये ही चंद लोग अवार्ड या सम्मान पाते दिखते हैं। ऐसा लगता है मानों इलेक्ट्रानिक मीडिया के ये बाप-दादा हों, इनसे ही शुरु और इन पर ही खत्म होती है पत्रकारिता।
आप पिछले एक दशक का काल उठा कर देख लीजिये..कौनसा नया पत्रकार दिखा जिसे आपने कोई मीडिया अवार्ड लेते देखा? जब बडे जनर्लिस्ट दा किसी विवाद या घोटालों में फंसे दिखते हैं तो पत्रकारिता शर्म से अपना सिर नीचा कर लेती है। छोटों की बिसात क्या? वे तो छोटी छोटी बे-इमानियों में ही मस्त रहते हैं। पत्रकारिता की यह पापचरिता इतनी गंभीर रूप से पैठ चुकी है कि इसे ही हमने असल मान लिया है। कारपोरेट या चाटुकारिता वाली पत्रकारिता जबसे शुरू हुई तबसे इसकी जमीन पर अफीम उगने लगी, जिसके नशे में मदमस्त पत्रकार मानने को तैयार नहीं कि वह नशे में है। अफसोस होता है कि जिस पत्रकारिता ने वर्ष 1920 से 1947 के बीच संघर्ष, अभावों, अभिशापों और उत्पीडन के मध्य रहने के बावजूद देशहित में आग उगलती हुई कलम से भारतीय जनमानस में नईचेतना जाग्रत की, जिसने अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ एकमेव होकर अपनी आवाज़ बुलंद की और जिससे ब्रिटिश शासन तक हिल गया आज बाज़ार में सजी हुई है और जो चाहे उसे खरीद ले सकता है। आज 1885 के राजा रामपाल सिंह जैसे विशुद्ध लडाके नहीं बचे है जिन्होने राष्ट्रीय जागरण के लिये हिन्दी दैनिक 'हिन्दोस्थान' का प्रकाशन किया, और ऐसे ही अनगिनत पत्र प्रकाशित किये जाते रहे जो भारत की ऊर्जा, उसका आत्मबल साबित होते रहे। बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, गणेश विद्यार्थी जैसे अब इतिहास में दफ्न है जिनसे प्रेरणा लेना इन सफेदपोश माने जानेवाले पत्रकारों के लिये शरमींदगी का विषय है। मुझे फिर कृष्ण बिहारी मिश्र याद आते हैं जो लिखते हैं कि ".....स्खलन को नये मुहावरों से महिमान्वित करते गर्वपूर्वक कहा जाने लगा है कि पत्रकारिता आज व्यवसाय है। आदर्श का सवाल उठाना अप्रासंगिक राग टेरना है....।" मेरे जहन में एक सवाल कौन्धता है कि यदि पत्रकारिता व्यवसाय है तो क्या व्यवसाय में आदर्श की हत्या माफ होती है?
एक भारतीय मानसिकता यह भी कि "फिर भी उम्मीद है किसी ऐसे वीर, जाबांज की जो भारत की भूमि से इस गंदगी से सनी पत्रकारिता को उज्जवल कर दिखायेगा और ताज्जुब मत कीजिये कि इस और कदम बढाये जा चुके हैं। क्योंकि अच्छाई सनातन है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता और वो बुराई पर विजय प्राप्त करने के लिये ही अवतार लेती है।"

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

"सुन्दर कांड- एक पुनर्पाठ "


पिछले दिनों जब मैं अपने शहर खरगोन गया था, पिताजी ने दो पुस्तके पढने को दी थी। उनमें से एक थी "सुन्दर कांड- एक पुनर्पाठ।" हमारी विद्वता है यह कि हमने महाकाव्यों की सैकडों टीकायें, भाष्य, व्याख्यायें की और यह सुस्थापित करने का सफल प्रयत्न किया कि वे काव्य कितने सामयिक हैं, कितने ऊर्जावान हैं, कितने अमूल्य हैं। देखिये कि आज तक उन महाकाव्यों पर चिंतन का कोई अंतिम चरण नहीं आया, और वे हमेशा से ही हमारे लिये नये-नये द्वार खोलते जा रहे हैं..। जितना कुछ लिखा गया..लगता है कम ही लिखा गया..। जितना कुछ चिंतन हुआ..लगता है कम ही हुआ है, यह उस काव्य और उस लेखक की ईश्वरीय शक्ति है कि वो जीवंत, चेतना से लबालब, दिशायें प्रदत्त करने में सार्थक और लगातार हमारी बुद्धि को विस्तार देने का काम कर रहे हैं, भ्रांतियों को नष्ट कर रहे हैं। 'सुन्दर कांड-एक पुनर्पाठ' इस आधुनिक युग में बिल्कुल आधुनिक अंदाज में व्याख्यायित है कि मुझे उसके लेखक की लगन, मेहनत और अध्ययन पर ताज्जुब होता है। मैं जानता हूं कंप्यूटर और इंटरनेट की इस दुनिया में रिफ्रेंसेस बटौरने में आने वाली दुविधायें कम ही हो गई हैं किंतु इस पुस्तक के लेखक ने महज इंटरनेट का उपयोग कर उदाहरण बटौरे? नहीं लगता ऐसा। खूब-खूब अध्ययन का प्रतिफल है कि "सुन्दर कांड-एक पुनर्पाठ' जैसी अतिपठनीय पुस्तक का जन्म हो सका।
मैं पुस्तक के लेखक को नहीं जानता, सिर्फ पुस्तक पर उनके नाम से जाना कि इसका लेखक भी है..। इसके अलावा अपने परिचय में लेखक ने एक रत्ती शब्द भी नहीं लिखा है जिससे जाना जा सके कि वो कौन है, कहां का है, क्या करता है? जैसा कि आजकल होता है..कि हम अपनी पुस्तक पर अपना जीवन परिचय या कुछ इसप्रकार का लिख छोडते हैं। वैसे लेखक का यह गुण हो सकता है जो उसके किसी कारण से उपजा हो, किंतु मुझे भा गया इसलिये कि मैं सोचता हूं जो पुस्तक सर्वहारा के लिये लिखी जाती है वो निजी कभी नहीं रहती या उसपे अपने बारे में लिखने का मोह नहीं रहता। जैसे न कभी तुलसीदास को यह मोह रहा न वेदव्यास जैसे लेखकों को। अब अगर मैं पुस्तक के लेखक को इस श्रेणी में रख देता हूं तो यह उसके लिये सबसे बडा पुरस्कार है। हालांकि लेखक तुलसी, वेदव्यास, कालीदास आदि की पंक्ति का नहीं है क्योंकि लेखन भी उस तरह का नहीं है। यह लेखन समीक्षा है, तुलनात्मक अध्ययन है, और अपने विचारों को साकार करने के लिये दुनियाभर के उदाहरणों का संग्रहण है। इसे मैं आज के दौर के लेखक-पत्रकारों में सबसे श्रेष्ठ मानता हूं जो किसी दृष्टांत के प्रति अपनी पूरी शक्ति उढेल देता हैं और स्थापित करता है कि सच किस प्रकार सच है। मेरे पिताजी ने मुझे शायद इसीलिये यह पुस्तक पढने को दी थी कि मैं जान सकूं लेखन का एक और अद्भुत उदाहरण।
पहले मैं आपको बता दूं कि "सुन्दर कांड-एक पुनर्पाठ" के लेखक का नाम मनोज श्रीवास्तव है। बस। और उन्होने पुस्तक भी उन्हें समर्पित की है जिन्हें हनुमान की तरह बिना किसी दावे के सेवा करते रहना प्रिय है। आप सोच सकते हैं कि क्या यह पुस्तक हम सबको समर्पित हुई? या जिनके बारे में लिखी गई उसे ही? यानी हमारा इस पर सिर्फ उतना ही अधिकार है कि हम पुस्तक पढें, जानें और अपने दिमाग के तंतुओं को नई चेतना से जाग्रत कर अपने आदिपुरुषों के प्रति आभार व्यक्त करें जो हमे जीवन का सदमार्ग आज भी दिखा रहे हैं। और कोशिश करें कि पुस्तक हमारी हो जाये।
मैं पुस्तक की समीक्षा कत्तई नहीं करना चाहता। और इसके लिये बैठा भी नहीं हूं। मुझे पुस्तक ने प्रभावित किया। उसके विषय और विषय पर सार्थक प्रस्तुति ने अपनी ओर खींचा और चाहा कि यह आप सबको भी बताऊं.. बस्स इस लिहाज़ से मैं अपने भाव रख छोड रहा हूं। विषय वही है जो रहता आया है। या कहें जो हमारी जडों में व्याप्त है। तुलसीदास की महानतम कृति या कहें..तुलसी के राम की महानतम लीला का जो वर्णन रामचरितमानस में हैं, उसके एक अतिमहत्वपूर्ण भाग के सुन्दर कांड पर..नहीं पूरे सुन्दरकांड पर नहीं, किंतु हनुमानजी के संदर्भ में ही..उनके श्लोक पर आधारित बातों को हजारों रिफ्रेंसेस के जरिये जिन 252 पृष्ठों में समाहित किया गया है वो हमारी सोच को, सोच की दिशा को पन्ने दर पन्ने प्रभावित किये बगैर नहीं छोडता। जो यह साबित भी करता जाता है कि लेखक ने बला की मेहनत की है। उसके पास देखने, समझने और सोचने की बडी ही विचित्र शक्ति है, जिसने अपनी बात को किसी अंधविश्वास के तहत नहीं बल्कि आधुनिक मानसिकता के जरिये, बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से अंकित किया है।
ऐसा होता है। आजकल ऐसा ही हो रहा है कि हम अपनी जडों को छोडकर विज्ञान के तर्कों पर जीना सीख रहे हैं। चारों और हिन्दू संस्कारों, पुराणों, उनके विश्वासों पर आघात-प्रतिआघात करने का दुस्साहस चल रहा है। हमारे मानस को बदलने की जितनी राक्षसीय कुचालें रची जा रही है वे हमे अपने वज़ूद से डिगाने के लिये काफी है। इसलिये जरूरत पडती दिखती है कि हम सबूत दें। साबित करें। और उन मूर्खों को ज्यादा जो ईश्वरीय सत्य को झुठलाने के लिये बकवास करते फिरते हैं। हालांकि मुझे स्वामी अखंडानन्दजी का एक कथन यहां सौफीसदी अच्छा लगता है कि " जिन्हें खोजना है वो खोजें..मेरे लिये तो कृष्ण कदंब की डाली पर बैठा बांसूरी बजा रहा है..सामने ही..। तुम भी देख सकते हो..अगर तुम्हें देखना है तो, और अगर अनुसंधान करना है तो करो, मुझे क्या..। यह तुम्हारा काम है मेरा नहीं..क्योंकि मुझे तो कृष्ण दिख रहा है।" किंतु..आज का परिवेश बगैर साबित हुए चीजों को अन्ध विश्वास की नज़र करार देता है। और संभव है यह पुस्तक इसी अन्धेपन को दूर करने के लिये काफी है..। पुस्तक में हनुमानजी क्यों हनुमानजी हैं..इसे सार्थक करने की छोटी सी सफल कोशिश की गई है..क्यों वे अतुलित बलधामं हैं? हेमशैलाभदेहं क्यों है? कैसे हैं? या क्यों दनुजवनकृशानुं कहते हैं? ज्ञानिनामग्रगण्यं, सकलगुणनिधानं, वानराणामधीशम, रघुपतिअप्रियभक्तं, वातजातं, नमामी जैसे शब्दों पर विस्तार से अलग-अलग अध्याय के आधार पर सैकडों प्राचीन, आधुनिक, देशी, पाश्चात्य..लेखकों, विद्वानों..के कथनों..उद्धरणों आदि के रिफ्रेंसेस देते हुए सिद्ध किया गया है। और यह सिद्धता इसके लिये बिल्कुल भी नहीं है कि आप उसे आलोचना की श्रेणी में रखते हुए नकार सकें। "क्या तुलसी ने आतंक का प्रत्युत्तर सुन्दरकांड में दिया?" साबित किया है लेखक ने। जहां वाल्मिकी भी हैं अब्दाल सलाम फराज़ भी है तो स्यूवाल भी है, स्टोल भी है, साथ ही वैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत है तो कई रिपोर्ट्स हैं। कई कई कई...तरह से कई, कई विद्वानों के कथनों, आंकडों आदि को लेकर बूना जाने वाला यह जाल व्यक्ति को जानकारी, समझ, ज्ञान देने के लिये भरपूर तो है ही साथ ही यह स्थापित भी कर देने के लिये है कि हम अपनी भ्रांतियां उतार फेंके...। मैं बधाई देना चाहूंगा मनोज श्रीवास्तव को कि जिन्होने अपने ज्ञान, बुद्धि का सही सदुपयोग करते हुए इस तरह की पुस्तक को आकार दिया।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

घोटालों के बीच गुम हो रहा सुदर्शन चक्र

पूर्व संघ सरसंचालक सुदर्शन के बयान के बाद मचा बवाल इस पूरे पखवाडे में घोटालो की भेंट चढ गया। वैसे भी सुदर्शन कह कर चुप थे और उधर सोनिया गान्धी ने तो अपना मुंह खोला ही नहीं था। सुदर्शन नहीं जानते थे कि संघ और भारतीय जनता पार्टी उनके बयान पर मुंह फेर लेगी। मगर सोनिया जानती थी कि उन्हें चुप रहना है क्योंकि उनके चाटुकार सैनिकों की फौज काफी है इस बयान, बवाल से निपटने के लिये। यह देश की विडंबना है कि जिसे सुदर्शन का साथ देना चाहिये था उसने अपना हित साधने के लिये होंठ सिल लिये। सुदर्शन का बयान झूठा या सच्चा जो भी हो..किंतु यह जांच का विषय होना ही चाहिये था। आपको क्या लगता है कि सुदर्शन कोई नासमझ व्यक्ति है जिन्होंने किसी पागलपन के दौरे में बयान दिया? क्या वे इस देश को सोनिया से कम जानते हैं या सिर्फ सोनिया ही त्याग की मूर्ति हैं सुदर्शन नहीं? सुदर्शन पढे-लिखे, बेहद सुलझे विचारों वाले और तमाम ऊंच-नीच को जानने-समझने वाले व्यक्ति हैं, सोनिया से ज्यादा...। लिहाज़ा उनके बयान को घोटालों की इस बाढ में बहने नहीं देना चाहिये था। यह भी तो हो सकता है कि घोटालों की सनसनीखेज खबरें, सुदर्शन के आग उगलते बयान पर पानी का छींटा डालने का बेहतर षडयंत्र हो? आप कहेंगे अपने बयान के बाद सुदर्शन क्यों चुप हैं? आप यह क्यों नहीं कहते कि सोनिया क्यों चुप रही? वैसे उनको सलाम ठोंकने वाले सैनिकों का उत्तर होगा कि सोनिया फिज़ूल के आरोपों पर अपना मुंह क्यों खोलेगी। तो भाई आप सैनिक क्यों बक बक करते है? जब फिजुल है तो चुप ही रहा जाये न.., मामला अपने आप निपट जायेगा। किंतु इसके पीछे का खेल भी न्यारा है। यह ऐसे मुद्दे होते हैं जब सोनिया की नज़रों में आया जा सकता है। आप अपनी वफादारी अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं। लिहाज़ा सुदर्शन का बोलना हुआ नहीं था कि चारों ओर से उन्हें घेरने, उन्हें घसीटने, उन्हें खींचने का कांग्रेसी कॉमनवेल्थ शुरू हो गया था। इधर सुदर्शन चाहते तो होंगे कि संघ उनका साथ दे। यह ताज्जुब की बात है कि संघ ने उन्हें उनके निजी विचार बता कर उनसे किनारा कर लिया। भाजपा से वैसे भी कोई ज्यादा उम्मीद उन्हें नहीं थी क्योंकि भाजपाई सोच का और मुद्दों पर संघर्ष करने का ढंग बदल चुका है। हालांकि इस मुद्दे पर वो अगर अड जाती और बगैर किसी दबाव, बगैर किसी गलत प्रक्रिया के शुद्ध जांच की मांग करके, एक बार हो ही जाये वाली शैली में आ जाती तो उसे राजनैतिक फायदा जरूर होता साथ ही देश का भी फायदा हो जाता, और दूध का दूध पानी का पानी सामने आ जाता। मगर हर बार की तरह अफसोस कि इतने संवेदनशील बयान के बावज़ूद कोई सार्थक जांच नहीं हुई। आप सोच रहे होंगे कि मैं इतना उतावला क्यों हो रहा हूं इस बयान की तह में जाने के लिये? तो आपको बता दूं कि सोनिया के लिये सुदर्शन द्वारा व्यक्त किया गया बयान कोई नया नहीं था। इसके पहले भी इस तरह की बातें राजनीतिक चक्र में घूमी थीं, और घूम कर कहीं किसी दरार में छिप गई थीं। सुदर्शन ने उसे बाहर निकालने का साहस किया। आप बता सकते हैं सुदर्शन के इस साहस की पुनरावृत्ति कोई और कर सकता है क्या? वो कांग्रेसी नेता खुद भी नहीं जिसके वज़ूद पर सुदर्शन ने अपनी बात कही थी। वैसे कांग्रेसी नेताओं में वो जिगर है ही नहीं कि सोनिया के खिलाफ कुछ सोच भी सकें। यह उनकी अपनी मज़बूरी है। मेरा तो महज़ यह मानना है कि सुदर्शन जैसा व्यक्तित्व जिसने संघ जैसी विशाल राष्ट्रीय, राष्ट्रवादी संस्था को संभाला वो कोई नीचता जनक कार्य तो कभी नहीं कर सकता है, जिससे उनका मानमर्दन हो। तब उनका बयान सिवाय सुर्खियों तक सीमित रह जाये, या सिर्फ थोडे से बवाल में नष्ट हो जाये, देश की एक उच्च पदस्थ पार्टी की उच्च पदासीन अधिकारी के लिये भी ठीक नहीं। आखिर यह उनके अपने जमीर, ईमानदारी पर उठा सवाल है। और वह भी बहुत ज्यादा घातक। जवाब मिलना चाहिये था।
खैर..। घोटालों की बाढ में इन दिनों कांग्रेस क्या और भाजपा क्या..सब के सब बह रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड उछाल-उछाल राजनैतिक होली खेली जा रही है। जांच भी अवश्य होगी। किंतु कांग्रेस के लिये यह सुखद भी है क्योंकि अगर इन घोटालों की बाग़ड (खेत के किनारे खडी की जाने वाली घासफूस से बनी दीवार) तैयार नहीं की गई तो सोनिया पर उठे सवालों की लहलहाती फसल पर सबकी नज़र चली जा सकती है। इसलिये चाहे वो अशोक चव्हाण के आदर्श घोटाले की बात हो या रतन टाटा के बयान से उठे विवाद या फिर कॉमनवेल्थ के घोटालों की फेहरिस्त हो, सबकी सब मीडिया में अव्वल स्थान पर हो और सुदर्शन के बयान किसी रद्दी की टोकरी में पडे पुराने अखबार की तरह खत्म हो जाये..कांग्रेस की यह चाहत अवश्य रहेगी। खुदा जाने उसकी चाहतों में और क्या-क्या है? किंतु यह जरूर है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति पर प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा उठाई गई उंगली के लिये तीसरे अंपायर का निर्णय अगर दिया जाता तो मैच का रंग ज्यादा निखरता, उसका रोमांच बढता और सच्ची जीत सामने आती।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरुधंति से सावधान

क्या अरुधंति राय जैसी बाइयों से देश को सावधान रहने की आवश्यकता नहीं है? खुद को अतिबुद्धिजीवी मानने वाली अरुधंति का विचार देश को बांटने वाला है, और यह पहला अवसर भी नहीं है कि बाई ने ऐसा कहा हो। समय-समय पर अरुधंति ने आग में घी डालने वाले बयान दिये हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब यह कत्तई नहीं होता है कि देश के बंटवारे या देश के हिस्से के विरोध में अपने बयान देकर चर्चा में बने रहने का मोह पूर्ण किया जाये। क्योंकि यह देश कोई मज़ाक नहीं है। इस देश की आज़ादी के लिये कइयों-कइयों ने अपना बलिदान दिया है। जी हां अरुधंतिजी कश्मीर भी इसी देश में है जिसके लिये आज भी हमारे देशभक्त अपने खून से उसे सींच रहे हैं, जिसे आपने भारत से अलग बताया है। अरुधंति का बयान महज़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद को महान कहलवाने और यह साबित कराने के लिये है कि दिखिये हम भारत में रहने के बावज़ूद भारत के खिलाफ बोलते हैं, और किसी की हिम्मत नहीं कि हमसे ऐंठ जाये। ऐसी बाइयां या ऐसे लोग पहले तो बयान देकर सुर्खियों में छा जाते हैं, फिर अपने बयान या अपने बचाव के लिये देश को भ्रमित करने वाले बयान देते हैं, प्रेस कांफ्रेंस लेते हैं और फिर सुर्खियां ढूंढते हैं। फिलवक्त अरुधंति को कानूनी पेंच में लेने की कवायद जारी है। लिया ही जाना चाहिये। कानून की जंजीरों में ऐसे विकृत मानसिकता वाले लोगों को बांधना ही चाहिये जो देश के सौहार्द के लिये खतरा हैं।
क्या जानती हैं अरुधंति कश्मीर के बारे में? कश्मीरी पंडितों से पूछ कर देखें या फिर कश्मीर का इतिहास ईमानदराना होकर पढ लें। वैसे मैं जानता हूं कि अरुधंति जैसे लोग जिस परिवेश, जिस मानसिकता और जिस उद्देश्य के लिये जी रहे हैं उसमें दूसरों की सही राय या सही इतिहास या विशुद्ध भारतीय होकर कभी नहीं सोच सकते। उनकी रगों में विरोध और विवाद पैदा करने वाला ही खून दौडता नज़र आता है। अरुधंति राय की यह किस्मत है कि यह देश उन जैसे लोगों को फिज़ुल में महत्व दे देता है। शायद यही कारण है कि देश को ऐसे लोगों की बयानबाजी से कभी कभी बडी कीमत चुकानी पड जाती है। होना यह चाहिये कि हम अरुधंति जैसे लोगों को महत्व देना छोड दें। दूसरी बात यह है कि कश्मीर का इतिहास या भारत का इतिहास ठीक से पढा जाये। उसका अध्ययन किया जाये। अरुधंति को यह पता होगा कि हमारी संसद में सर्व सम्मति से पारित है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। अगर नहीं तो वे चाहें तो संयुक्त राष्ट्र महासभा में वी के कृष्णमेनन या एम सी छागला या फिर सरदार स्वर्ण सिंह जैसे महानुभावों की दलीलें देख-पढ लें कि कश्मीर किसका हिस्सा है? और यदि इतने से भी उनकी तथाकथित तीक्ष्ण बुद्धि में कश्मीर के प्रति ज़हर खत्म न हो तो प्राचीन भारतीय इतिहास की किताबें खरीद कर लायें और पढें कि कश्मीर किसके नक्शे में हमेशा विद्ममान है या नहीं? भारतीय इतिहास बताता है कि भारत में ईसा पूर्व (गौर से पढें अरुधंतिजी ईसा पूर्व) तीसरी शताब्दी से ही कश्मीर में एक समृद्ध नवपाषाण संस्कृति रही थी। और इस संस्कृति का जो महत्वपूर्ण स्थल मिला है वह है बुर्जहोम। यह आधुनिक श्रीनगर से ज्यादा दूर नहीं है। कहने का मतलब यह है कि मैं भारतीय इतिहास के नवपाषाण युगीन कश्मीर की बात कर रहा हूं। सिन्धु सभ्यता के विस्तार में जम्मू-कश्मीर के एक स्थल मांदा का नाम भी है जो अखनूर के निकट है। यह तो माना जायेगा न कि सिन्धु सभ्यता भारतीय इतिहास की सबसे मज़बूत सीढी है। चलिये 150 ईसवीं के भारत पर नज़र दौडा लीजिये। यह काल शक, कुषाण, सातवाहन का काल माना जाता है। अरुधंतिजी कनिष्क को जानती हैं? कुषाण वंश का तीसरा शासक कनिष्क। कनिष्क को इतिहासकारों ने कुषाण वंश का महानतम शासक माना है। उसका राज्यारोहण का काल 78 से 105 ईसवीं के बीच में अलग अलग इतिहासकारों ने माना है। जो भी हो कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिन्ध, बैक्ट्रिया व पार्शिया के प्रदेश शामिल थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य विस्तार मगध तक फैलाया था और कश्मीर को तो उसने अपने राज्य में मिलाकर वहां एक नगर ही बसा लिया था जिसका नाम था कनिष्कपुर। यानी कश्मीर कनिष्क के शासनकाल के समय तो था ही यह ऐतिहासिक तथ्य है। इसके भी पहले प्राचीनतम या वैदिक कालीन इतिहास को अगर अरुधंतिजी मानती हो तो वह भी उठाकर पढ सकती हैं कि कश्मीर भारतवर्ष के नक्शे में रहा है। वे ललितादित्य के शासनकाल पर नज़र डाल सकती हैं या रणजीत सिंह के इतिहास को खंगाल कर देख लें कि कश्मीर कहां था? अरे हमारे पुराण कश्मीर की गवाही देते हैं। इसका नामकरण तो कश्यप मुनि के नाम पर हुआ माना जाता है। फिर कैसे अरुधंति राय को कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं लगता? खैर..यहां मैं साफ-साफ कह देना चाहता हूं कि मैं अरुधंति को समझाने की चेष्ठा कत्तई नहीं कर रहा, वे महान हैं..। मैं अपने भारत के इतिहास को संक्षिप्त में दर्शा कर अपने देशभक्त लोगों के सामने फिर से रख रहा हूं। मुगलों ने भारत पर काफी लम्बा राज किया, यह माना ही नहीं बल्कि लिखा भी गया है। मुगल शासको में कश्मीर किसी जन्नत से कम नहीं था। जहांगीर हो या शाहजांह भारत के इस बेमिसाल स्थान कश्मीर को विशेष प्रेम करते थे। आधुनिक भारतीय इतिहास की परतों पर तो कश्मीर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। चाहे आप महाराजा गुलाब सिंह को ले लें या महाराजा हरिसिंह के इतिहास को खंगाल लें..क्या ये किसी विदेश में शासन करते रहे? अजी ज्यादा दूर क्यों जाते हैं..हरिसिंह के बेटे कर्ण सिंह से तो पूछ कर भी देखा जा सकता है कि कश्मीर भारत का हिस्सा है या नहीं?
अरुधंति का यह बयान था ही कि एक अन्य महाशय का बयान भी अरुधंति के बयान को बल दे गया। दिलीप पाडगांवकर का। इन महानुभाव ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिये पाकिस्तान को शामिल करके ही हल निकल सकता है, जैसी बात कही। मानों इन्हें यह अधिकार दिया हो कि भाई दिलीपजी आप जो कहेंगे वही मान्य होगा। सिर्फ एक वार्ताकार के रूप में दिलीपजी को भेजा गया था। भाईजान ने हल ही खोज निकाला। कश्मीर का मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुलझाने का मतलब क्या है? वो हमारा है, हम सोचने में समर्थ हैं कि किससे, कब और कैसी बातचीत करनी होगी? विडंबना यह है कि हमारे इतिहास में गद्दारों का भी एक इतिहास है। इनकी बडी फौज रही है, जिन्होने समय-समय पर भारत को आघात पहुंचाया है। चाहे वो जयचंद के रूप में हो या रानी लक्ष्मीबाई के समय, गद्दारों ने इतिहास के प्रत्येक कालखंड में भारत की संप्रभुता पर वार किया है। और अफसोस कि इसी वजह से हम मज़बूत नहीं बन सके। गद्दारों का इतिहास दफ्न नहीं हो सका है। किंतु हां, आज हम इतने समझदार तो हो गये हैं कि गद्दारों को पहचान सकते हैं। समय यही है कि सबकुछ सरकार ही निपटेगी जैसा विचार त्याग कर हमें अपने धर्म, अपने कर्तव्य को पहचानते हुए भारत को मज़बूत व एकजुट रखने के लिये आगे बढना ही होगा। अन्यथा इसकी कीमत भयावह होगी यह तय है, जो हम सबको भुगतनी ही होगी। भारत कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक एक है..कहने में ही नहीं इसे स्वीकारने का गर्व भी महसूस करना चाहिये।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

शीर्षकहीन

पद पाने की होड
विशेष बन जाने की चाह
कामयाबी के लिये ज़ंग
मानों जीवन के सूत्र
बन गये हैं।
किंतु अफसोस
यह सूत्र उस
निर्विवाद सत्य को
झुठला नहीं पाता कि
खेल खत्म होने के बाद
बादशाह और प्यादे
सब को एक ही बॉक्स
में डाल दिया जाता है।

दो तिकडियां भी-

1,


हद है मुसाहलत की
वो इश्क़ फरमाते हैं और
हम नींद।


2,

बेदार हैं लोग
उन्हें छेडना नहीं
ख्वाब टूट जायेगा।

*- मुसाहलत- आलस्य
*बेदार- जागरुक

रविवार, 19 सितंबर 2010

क्षणिकायें

1,

उसने किसी के
पेट पर लात मारी।
वाह क्या बात है,
वो एक ही तीर से
कितने
शिकार कर गया।

2,

ऊंचे और ऊंचे
चोटी पर जा पहुंचे।
अफसोस कि
देखना अब नीचे ही है।

3,

हम घास,
आप दरख्त
आपका इतराना
लाज़मी है।
पर बचके,
कहते हैं
आन्धियों में टूटते
दरख्त ही हैं।

4,

तुम्हारी प्रतिष्ठा
तुम्हारा अहम
तुम्हें मोहक
बना रहा है।
किंतु 'प्लेटो' कहता है
कि
छलने वाली प्रत्येक
वस्तु को मोहक
कहा जा सकता है।

सोमवार, 13 सितंबर 2010

आत्म सत्य

अक्सर..
हां अक्सर ही तो,
जब
देखता हूं खुद को
खुद के भीतर,
तो पाता हूं
भीतर
गहरे भीतर
एक सबसे अच्छा गुण..
जिसमे दुर्गुण की
कोई गन्ध आती है।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

भ्रम

छोटे बडे
ऊंचे ऊंचे
रेलवे ब्रिज़
रोज़ चढना
रोज़ उतरना।
और लोकल के
फर्स्टक्लास डिब्बे से
उतरकर कर भीड में
खो जाना।

जिन्दगी के सच है।

एक में
उतरना तय है
दूजे में
इस भ्रम का
दूर होना कि
हम विशेष हैं।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

जिन्दगी

जिन्दगी-

ढेर सारे चिंतकों की किताबें
खुली हैं और पन्ने
फडफडा रहे हैं।

ग्लैडी टैबर की खिडकी
सनसनीखेज जिन्दगी को बयां करती है तो
मेसफिल्ड के लिये यह
शोरभरी गली में एक
लम्बे सिरदर्द का नाम है।

'किंग जोन' का लेखक
शेक्सपीयर मानता है
जिन्दगी उतनी ऊबाऊ होती है,
जितनी कोई दोबारा कही गई कहानी।

किंतु देखो
जिजीविषा..कि
यह है तो जीवन है, जीवन रहेगा तो
अनंत संभावनायें भी रहेंगी।
'अनामदास का पोथा' खुलता है मगर
उधर ह्यूगो ग्रोशिय मानो इसे नकारते हुए
लिखता है
मैने अपना जीवन परिश्रमपूर्वक
कुछ भी नहीं करते हुए गुजार दिया।

और एक मैं
जिन्दगी के ताने-बाने में उलझा
डरता हूं, तब और ज्यादा जब
टैगोर को पढता हूं कि
मृत्यु है, उस के होने पर भी जीवन नष्ट नहीं होता।

यानी फिर से जिन्दगी...???? उफ्फ।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

सलीके से रखे हैं मेरे दिन-रात

लगभग खंडहर होते जा रहे
इस शरीर के स्टोर रूम को
साल में महज़ एक बार खोलता हूं।
जब भी दरवाजा खोल कर मैं अन्दर घुसता हूं
रैक में सलीके से जमाये गये
दिन और रातों का
हिसाब रखते रजीस्टर के पन्ने
फडफडा कर उडने लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है क्योंकि
वे इस दिन खिलखिलाने लगते हैं।

घंटो बैठा रहता हूं उनके साथ..
सन 1967 की रात से लेकर
19 अगस्त 2010 तक के इस समय तक
का पूरा पूरा हिसाब है।
और जैसे जैसे पल बीत रहे हैं
पन्नों पर चढते जा रहे हैं।

अमूमन मैं दिन का वो पन्ना निकालता हूं
जब अपने शहर को छोड महानगर में आया था।
सिर्फ शहर नहीं छूटा था
छूट गया था बहुत कुछ...

पता नहीं किस बचत में से
पिताजी ले आते थे नये कपडे
और मां पानी मिले दूध को
ओटा ओटा कर खीर बनाती थी।

ललाट पर टीका लगा कर
चारों दिशा में धौक दिलवाती थी मां
और पीठ पर हाथ धर
अपने जीवन के मानों सारे
आशीर्वाद उढेल दिया करती थी।

मैं नहीं जानता था तब इन सब का महत्व
आज जब इस दिन
अपने स्टोर रूम में बैठा दिन के उस
पन्ने को खोल बैठा हूं तब जाना है इसका महत्व।
तभी ..तभी..बरबस ही आंखों से अश्रुदल फूट पडते हैं
और मैं इन्हें पौंछ कर इस महानगर से
फोन करता हूं।

क्योंकि आज यदि मैं इन दिन और रात को
बटौर संजो पा रहा हूं तो
उन्हीं की बदौलत जिनके हाथ मेरे शीश पर हैं
और जिनके आशीर्वादों से मेरी सांसे गति पाती है।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

कशमकश



लगता है
अपनी ग्रेविटी खोये
ग्रह-नक्षत्रों ने
एटम बम की तरह
गिर-गिर कर
मेरी किस्मत को
चकनाचूर कर दिया है।
और दिमाग
किसी जापान की तरह
फिर उठने, किस्मत चमकाने,
संवरने की फिक़्र में
जुटा है।


इस जुटने में हो यह रहा है कि-

कभी-कभी दिल
हिटलर की तरह पेश आता है
और गान्धीवादी विचारधारा
उसके तमाम 'ब्लाकेज' को
क्लियर कर देती है।
यह जंग भी जारी है।

खून में लोहा है
और रगों में गुलामी से
लडने की ताक़त
शायद यही वजह है कि
अंग्रेजों की तरह
मेरे इन हालात ने
मुझे झौंक रखा है
एक नये विश्वयुद्ध में।

आज़ादी की सोच ने
हाथ-पैरों में गज़ब की
स्फूर्ति ला खडी की है
जो सुध-बुध खोकर
भिडे पडे हैं,
मगर अफसोस
इरविन-गांधी के बीच की सन्धि
दिमाग द्वारा दिल को
हमेशा परास्त कर दिया करती है।

देखिये इन फेफडों को
जो गोले-बारूद की गन्ध
के बावजूद सीने को
ताने रखने के भरसक प्रयास में हैं।
और अपने पीछे
रखे गये दिल को बचाने की
खातिर
किसी 'अस्थालिन' के 'पफ' से
सांसों को रास्ता दे रहे हैं।
आखिर कब तक
कृत्रिम रासायनिक हवा से
सांसो को काबू में रखा जा सकता है?

यूं तो खडे कर चुका हूं
अपनी उम्मीदों के
बडे बडे रडार,
जो दुश्मन की हर चाल
का पता लगाते हैं।
मगर अपने ही लोगों का
खिलाफत आन्दोलन
हर-हमेश ले डूबता है मुझे।
फिर भी
सागर की गहराई में किसी
डिस्कवरी चैनल की तरह
कैमरों से खोज करता हूं
उम्मीद का कोई
अजीबो-गरीब जलचर।

आखिर जापान की तरह
खत्म होकर जिन्दा होने की
कशमकश जो है।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

सवाल सावन का



"नीम का वो पेड
आज भी है।
किंतु
वो डाल नहीं
जिस पर बंधता था
सावन का झूला।

सावन खिलखिला तो रहा है
मगर यौवन की
खिलखिलाहट पर
वक्त की रस्सी ने गांठ बान्ध दी है।
गांठ कसती जरूर है अपनी
इच्छाओं को।

इच्छायें क्या नहीं होती
हवा के साथ डोलने की?

डोलना इस मौसम में
स्वतः ही मन चाहता है।
मन उड कर फिर
उस डाल पर बैठना
चाहता है
जिस पर बन्धा करता था
सावन का झूला।

और उसका घर
ठीक सामने दिखाई देता था।

अब सवाल यह था कि
सावन के झूले का लुत्फ
लेता था या
उसके घर से उसके निकलने
की प्रतीक्षा करता था?

जो भी हो नीम के
पेड की तरह
सवाल भी खडा है...।
और सावन
झूम रहा है।"


* चित्र उसी असली नीम के पेड का है जो आज भी वहां है, पर सूना सूना सा, जैसे उसे भी हमारी याद आती हो और वो भी रोता हो।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

बस यूं ही

1-
विचारों का तीर सीधे
खोपडी की किसी हड्डी में
धंस जाता है।
उसका नुकीला कोना
मजबूत कोशिकाओं के बने
किसी ज्ञान खंड से टकराता है,
और एक दर्द का रैला उठता है
जो फेफडों से बहता हुआ
एक कोने में दुबके
हृदय के स्पन्दन को भी भिगो देता है।
खून की गति
अचानक तेज़ हो जाती है
जो कंपकपा देती है
इरादों को,
कि
बस बहुत हो चुका
इस बेशर्म दुनिया में
भावनाओं के तट पर
कुम्भ का आयोजन।


2-
आंखों की गीली पुतलियां
दृष्य ओझल कराती हैं,
और गाल पर बहती
अश्रूधार का नमकीन स्वाद
होठों से टकराता है तो
बरबस फूट पडता है स्वर
ओह क्या प्रेम ऐसा होता है?
इसीलिये कहता हूं
दिमाग के कामकाज में
दिल के लिये
'वेकेंसी' नहीं होती।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बारिश?

मुम्बई में बारिश का कोई ठिकाना नहीं रहता, अभी सूरज चमक रहा है और अचानक बारिश धम से टपक पडती है..रुक रुक कर, कभी तेज़ तो कभी धीमी...यहां के आलम का यह विचित्र मज़ा है..ऐसी ही बारिश की तरह लग सकती है मेरी यह रचना...

हां शायद बारिश शुरू हो गई है,
कल घर से बाहर निकला था
तो पैर के जूते गिले हो गये थे..
पसीना इतना तो नहीं होता कि
जूते के तलवे गिले हो जाये
सो निश्चित ही बारिश का मौसम है।

और तुम कहते हो कि
आजकल अपनी भी फिक्र नहीं है,
कहां खोये होते हो
पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
और अगर टूट भी जाये तो
यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
तब लगता है हां
निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।

सूरज निकलता नहीं है
डरता है शायद
और ये हवाओं को क्या हो चला है कि
आजकल ठंडी हो गई है,
बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।

वैसे

जब भंवर लयबद्ध नहीं होती
जीवन की दिशायें एक सीध खो देती हैं
मुहफेरी की खिडकियों से
झांकने लगते हैं दोस्त,
पीठ के पीछे छूरा घोपने की घटनायें आम हो जाती हैं,
मुंह के सामने मीठी छुरियों का बाज़ार लगने लग जाता है
और वे कन्धे ऊंचे व बडे हो जाते हैं एक दम से
जिनके सहारे गले में हाथ डाला जाता था
तब लगता है बारिश सावन की चमक खो चुकी है
फिर तेज़ कितनी भी हो
मुझे दिखाई नहीं देती,
बस घर के छप्पर पर आवाज़ आती है
धप धप धपा धप
जैसे कोई धोबी घाट पर कपडों को पीट रहा हो
और ऐसे में कहो कि बारिश है
तो हो सकता है बारिश का मौसम है?

सोमवार, 12 जुलाई 2010

यह कैसा इतिहास?

इतिहास कैसा होना चाहिये? सत्य पर आधारित। और सत्य? कम से कम गोरों द्वारा दिये गये सत्य जैसा तो नहीं। क्योंकि गोरों ने हमारे इतिहास से काफी छेडखानी की है, नफरत के बीज बोये हैं, जो उनके खून में है। उनके गन्दे खून का भी एक इतिहास है। खैर, इन दिनों महाराष्ट्र में एक किताब पर बवाल मचा हुआ है। जेम्स लेन नामक एक कथित इतिहासकार हैं जिन्होंने शिवाजी महाराज पर एक किताब रची है ' शिवाजी-हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडिया' नामक। किताब मैने पढी नहीं है, पढना भी नहीं चाहता। क्योंकि उसके जितने प्रचारित या प्रसारित अंश पढे है वे तमाम, किसी भी सत्य से कोसो दूर हैं। यह विडम्बना है कि हमने अपने इतिहास के लिये हमेशा से ही गोरों की बातों पर विश्वास किया। हमारे इतिहासकार भी हुए किंतु अधिकांश सहमति गोरों की बातों से दर्शाई गई। क्यों? क्या हमारे इतिहासवेत्ता लायक नहीं या उनकी बातें गलत हैं? ऐसा कुछ भी नहीं है, यदि हम पी एन ओक जैसे इतिहासकारों को आज मान्यता देते तो सम्भव था इन गोरों द्वारा समय-समय पर जिस तरह से जनमानस को भडकाने का षडयंत्र चला आ रहा है वो बन्द हो जाता। ग्रांट डफ जैसे इतिहासकारों को हमने अपने दस्तावेजों मे तरजीह दे दी मगर ओक को क्यों नहीं?
इस विषय पर तर्क-वितर्क होगा। हास्यास्पद तो वो है जो लेन की किताब की तरफदारी करेगा। मैं लेन की तरफदारी क्यों नहीं करता? आपको बता दूं कि इतिहास का छात्र रहा हूं। भारतीय इतिहास से लेकर यूरोपीय इतिहास का गम्भीर अध्ययन किया हुआ है। हां पीएचडी नहीं है तो इसका मतलब यह भी नहीं कि बन्दे ने रिसर्च जैसा कुछ किया ही नहीं। ढेरों इतिहासकारों को पढा, कई-कई जगह खुद गया और जानकारियां ली। बहस-मुबाहस भी खूब की। और हमेशा अपने इतिहासकारों की बातों को यकीन के करीब पाया। खासकर पी एन ओक जैसे। जदुनाथ सरकार, जी एस सरदेसाई, एम जी रानाडे जैसों ने भारत के सन्दर्भ में काफी सच्चा अध्ययन किया है। यदि ग्रांट डफ जैसे ने शिवाजी द्वारा अफज़ल खां
के खिलाफ विश्वासघात का आरोप लगाया तो रानाडे ने अपनी पुस्तक' राइज आफ द मराठा' में इसका बहुत सटिक जवाब दिया है। खैर..मैं कहना यह चाह रहा हूं कि जेम्स लेन बाजारवाद का इतिहासकर्ता है। उसकी किताब किसी प्रकार के अध्ययन या रिसर्च का नतीज़ा नहीं है बल्कि बाज़ार द्वारा प्रायोजित भारत के जनमानस को भडकाने का कृत्य है। लेकिन फिलहाल न्याय के क्षेत्र में लेन की किताब की लाइन क्लीयर है। आपको बता दूं और यह तमाम इतिहासवेत्ता जानते हैं कि शिवाजी महाराज द्वारा मराठा राज्य की स्थापना की सम सामयिक स्त्रोत सामग्री व अभिलेखों के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने के कारण उनके प्रशासनिक आदर्शों व परम्पराओं का अनुमान लगाना कठिन है। यूरोपीय स्त्रोत व फारसी इतिवृत्तों से भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त सूचना प्राप्त नहीं होती तथा मराठी अभिलेख अधिकतर परवर्ती काल से संबद्ध है। अब रही उत्तरकालीन प्रशासनिक पद्धति से अनुमान की बात, तो इसी के आधार पर शिवाजी के जीवनकाल की घटानाओं का अनुमानभर लगाया गया है। इसमें भी भारतीय इतिहासकार ज्यादा करीब माने गये हैं क्योंकि उन्होंने जमीन से जुडी जानकारियां प्राप्त की और विदेशी इतिहासकारों ने सुनी सुनाई बातों को अपने ढंग से मोडने का काम किया। अब जेम्स लेन को कोई नया तीर मारना था सो महाराष्ट्र में देवतुल्य पूजनीय समझे जाने वाले शिवाजी महाराज के खिलाफ आग उगली ताकि बवाल हो और उसकी किताब धडल्ले से बिके। मोटी कमाई हो। मेरा मानना है इतिहास जो रहा, वो रहा..आज क्या है? जो राज्य शिवाजी के नाम से गर्व अनुभव करता है, सिर्फ राज्य नहीं पूरा भारतवर्ष, और इसके साथ ही उस राज्य की आस्था भी जुडी है तो इसे भंग करने का दुस्साहस कतई नहीं किया जाना चाहिये। यह अपराध है। आप किसी इतिहास को, ऐसा इतिहास को जो जनमानस में घर कर गया हो, जिससे दिशायें प्रवाहित होती हैं, जिससे प्रेरणा का सूत्रपात होता है उसे किसी भी प्रकार के तथ्यों का प्रभावी जामा पहना कर सत्य को झुठलाने का प्रयास करते हैं तो यह आपका अतुलनीय कार्य नहीं बल्कि घोर अपराध है? जेम्स लेन को विद्वान मानने से में इंकार करता हूं। उसकी विद्वत्ता गोरों की मानसिकता का परिचायक हैं। कम से कम आप तो इस सच्चाई को पूरी ईमानदार तरीके से स्वीकार कीजिये। तर्क-वितर्क तो बहुत हो जायेंगे। मगर अपने देश के लिये यदि अन्धभक्ति भी हो तो क्या गलत है?

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

ईसा वाक्य

-मैं भूल गया
उन मानसिक दबावों,
जानबूझ कर
दिये गये अप्रत्यक्ष तनावों को,
भूल गया तमाम कडवे अनुभव.......
क्योंकि मुझे लगता है
कडवी दवाई
अमूमन सेहत के लिये
हितकारी होती है।

-आज अगर मैं टिका हूं
या भले ही सलीब पर टंगा हूं
फिर भी सोचने में
बुराई नहीं कि
आखिर उन सच्चे
हृदयवालों की दुआयें
फिज़ूल कैसे हो सकती हैं?......
क्या यह विश्वास
जीवन को गति नहीं दे सकता?

-इसलिये
ईसा के अंतिम वाक्य
गूंजते हैं
"ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं......।"

मंगलवार, 15 जून 2010

चारोक्ति

1,
हां मैं हारा हुआ हूं
अब बताओ कैसे जीतोगे मुझसे?
मगर सावधान रहना तुम
जीत स्थाई नहीं होती।
और न हार....।

2,
गुरुर के लायक हो
सबकुछ तो है तुम्हारे पास,
इसलिये आंखे भी बन्द है,
और मैं गुरबत में
तुम्हे खुली आंखों से देख रहा हूं।

3,
सुना है
पुण्य भी कटते हैं
चलो आज मैं
अपने पाप काटता हूं
तुम पुण्य काटो।

4,
तुम्हारा नाम
अखबारों में है
बडे आदमी बन गये हो तुम,
मैं छोटा हूं,
एक रद्दी की दुकान है बस।

मंगलवार, 1 जून 2010

आदमीयत से भरी सोच

सबकुछ उल्टा-पुल्टा है। लिखना या पढना कठिन हो चला है। अब यह देखने वाली बात है कि इमानदारी और मेहनत से भरा प्रतिभायुक्त पिचका पेट आखिर कितनी और पराजय पचा सकता है? कब तक बडे पेट वालों की डकार अपने नथूनों में भरकर चाटुकार अपनी चमक बिखेरते रहेंगे? कोई एक तो होगा जो उम्मीद जैसे शब्द को साकार बनाता हो? यह है एक आदमीयत से भरी सोच, जिसका कोई बीमा नही होता। खैर....

"जब रेंकने वाले गधे
भौंकने लगे
तब समझो आदमी के
धैर्य की
परीक्षा शुरू हो जाती है।
उनकी यह पदोन्नति है या अवनति?
जो भी हो किंतु
परिस्थितियों की इस
कोचिंग क्लास में
सीख यही मिलती है कि
आखिर गधों की उम्र
आदमी की उम्र से कम होती है।"

शनिवार, 15 मई 2010

तीन कवितायें

1, प्रतीक्षा के
अग्नि कुंड में
समय की समिधायें
डाल-डाल
उम्र को हवन कर दिया
और
इस तप का
प्रतिफल ये मिला कि
अब आस्तिक न रहा।


2, विरह की लपटों से
झुलसी
लगभग राख हुई उम्र
इस नंगी-रूखी
हवा के बदन से
लिपट
जीवन के चारों ओर
भंवर बना
नाचने लगी है
मानो यह
अंतिम नृत्य साधना है
किसी बलि के लिये।


3, स्मृतियों का पत्थर
आंखों के स्थिर
अश्रु ताल में
जब भी गिरता है
तो
हलचल मच जाती है,
फिर उम्र कितनी भी हो
गाल गीले हो ही जाते हैं।

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

तेरी प्रतिमा

बहुत दिनों से रागमयी कोई रचना नहीं की। दिमाग भी ऐसा है कि जिसमें मज़ा आता है वही करता रह जाता है, आलेख या समीक्षायें लिखने में रमा तो लिखता ही रहा, बगैर यह सोचे कि उनके पाठक ज्यादा नहीं, सीधी, सपाट कवितायें की तो बस करता ही चला गया, बगैर यह सोचे कि उसके रस में फीकापन भी है। मगर मैं जानता हूं मेरी फितरत ही ऐसी है, किंतु यह भी जानता हूं एक ही धारा में बहते रहना भी मुझे पसन्द नहीं, हालांकि कहते हैं धारायें बदलते रहने वाले को किनारा नहीं मिल पाता, वो भटकता रह जाता है। किंतु इसका भी अपना मज़ा है, किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है, सो ऐसा ही एक नयापन-


"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।

मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।

भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।

स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।

पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।

मेरे उजडे उपवन में कब सावन बन आओगी
कल्पना कुसुम हो मुकुलित नव जीवन सरसाओगे।

तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।

तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"
बहुत दिनों से रागमयी कोई रचना नहीं की। दिमाग भी ऐसा है कि जिसमें मज़ा आता है वही करता रह जाता है, आलेख या समीक्षायें लिखने में रमा तो लिखता ही रहा, बगैर यह सोचे कि उनके पाठक ज्यादा नहीं, सीधी, सपाट कवितायें की तो बस करता ही चला गया, बगैर यह सोचे कि उसके रस में फीकापन भी है। मगर मैं जानता हूं मेरी फितरत ही ऐसी है, किंतु यह भी जानता हूं एक ही धारा में बहते रहना भी मुझे पसन्द नहीं, हालांकि कहते हैं धारायें बदलते रहने वाले को किनारा नहीं मिल पाता, वो भटकता रह जाता है। किंतु इसका भी अपना मज़ा है, किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है, सो ऐसा ही एक नयापन-


"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।

मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।

भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।

स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।

पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।

मेरे उजडे उपवन में कब सावन बन आओगी
कल्पना कुसुम हो मुकुलित नव जीवन सरसाओगे।

तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।

तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

गांठे

जन्म के साथ
जिन्दगी की तरह
एक सीधी-सपाट डोर थमाई थी "उसने",
कहा था, इसके सहारे
इसीकी तरह तुम भी चलना।

अभी चलना शुरू किया ही था कि
रिश्ते-नातों की तमाम
गठानें बान्धनी भी शुरू कर दी।

जीवन को जीने, उसे मज़बूत बनाने के चक्कर में
कितनी गांठे बान्ध ली..।

और जब मुड कर देखा तो
उन्हीं गांठों में फंसे, तडपते से हम दिखे।

और तो और
गांठों की वजह से
वो सीधी-सपाट, लम्बी सी डोर भी
छोटी हो गई, बिल्कुल जिन्दगी की तरह।

अब गठान खुलती नहीं,
खुलती भी है तो डोर में सलवटे हैं
वो सीधी रही नहीं,
सो इंसानी फितरत कि
काटने लगे हैं अब अपनी ही डोर
अपनी ही जिन्दगी की तरह।

उपर से यह वाहियात सोच कि
एक दिन
न रहेगा बांस
न बजेगी बांसुरी।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

निवाला

सुबह होने के साथ ही
अट्टहास करता
छा जाता है
राक्षसी दिन।

जैसे भूखा हो बरसों से।

अपने नुकीले दांतों के बीच
रख कर चबाता है
और एक एक करके
खाने लगता है हम सबको।

अपने लवणयुक्त चिपचिपे
लार के साथ उतारता है
अन्धेरी गर्म कोठरी से पेट में।

फिर आंतों के
अजगरी कसाव से
दबाता है,
इतना कि सारी हड्डियां
चूर चूर हो जाती है।

खून-पसीना सबकुछ एक हो जाते हैं।

विटामिन, प्रोटिन, जैसे तमाम
शक्तिवर्धक पदार्थ को शोषित कर
अपनी धमनियों में भेजता है।

और रात होते ही
डकार मार सो जाता है।


बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

ज्ञान का अधिकार ज्यादा जरूरी

मैं एक कार्यक्रम में था। "शिक्षा के अधिकार पर चिंतन"। कुल पांच-छह वक्ता। अच्छे वक्ता थे। मुझे भी बोलने का अवसर मिला। हालांकि मैं बोलने या वक्ता के रूप में कहीं ज्यादा आता-जाता नहीं, क्योंकि सिर्फ बहस पर, विशेषकर औपचारिक बहस पर मैं विश्वास नहीं करता क्योंकि वहां विषय लुप्त हो जाते हैं और 'व्यक्ति विशेष' विषय पैदा हो जाते हैं। सो मुझे अधिक बेहतर लगते है ऐसे आयोजन जहां गम्भीरता हो। कोई चिंतन हो। जहां सार्थक मंथन होता हो। किंतु ऐसा अब ज्यादा कहां होता है? है न। पर कभी-कभी हो भी जाया करता है। जैसा हाल ही में हुआ। खैर, बहुत कुछ सुना, विषय था भी सार्थक और वो दर्शन की ओर मुड गया था सो ज्यादा आनन्द आने लगा था। अपनी बात रखते वक़्त कितना कुछ कहा, बोला शब्दशः याद नहीं किंतु सोचा इस विषय पर लिखना भी चाहिये, विषय अच्छा था सो आपके सम्मुख रखने के मोह से विलग नहीं हो सका। और लिखने के इस लोभ का संवरण नहीं कर सका, क्योंकि मैं समझता हूं, जब कोई सर्वहारा विषय होता है तो उसे व्यक्त कर देना चाहिये। छोटा सा आयोजन था, विशुद्ध साहित्यिक आयोजन अब अदने ही होते हैं। उसकी चर्चा भी अपने कुनबे से बाहर नहीं निकल पाती। ठीक भी है, शक्ति संचय शायद यही है।


"मेरा यह दृढ मानना है कि श्रद्धा है तो ज्ञान है। ज्ञान अर्जन के लिये श्रद्धा का होना अनिवार्य है। किसी भी प्रकार का ज्ञान आपकी श्रद्धा के प्रतिशत पर निर्भर करता है। मैं समझता हूं दुनिया में जितने प्रकार के दुख है, अशांति है, तनाव है वे पहले श्रद्धा के अभाव में तो बाद में ज्ञान के अभाव में ज्यादा हैं। निस्सन्देह इसका उपचार भारतीय आध्यात्म, उसके दर्शन में है। आपको बता दूं कि भारतीय आध्यात्म ईश्वर आस्था का विषय नहीं है। यह ईश्वर द्वारा, उसके प्रतिनिधित्व में या किसी प्रकार की घोषणा में नहीं है। यह सिर्फ श्रद्धा और ज्ञान की प्रीति है। यह खुद के भीतर के जगत का ही अध्ययन है, न कि बाहर के किसी प्रायोजन का प्रतिफल। आप जानते हैं कि भीतर का जगत रहस्यों से परिपूर्ण, बेहद ही दिलचस्प है। यहां ढेर सारी इच्छायें हैं, कामनायें हैं, राग है, द्वेष है , दुख हैं, सुख हैं किंतु चीर आनंद नहीं है। इसी आनन्द की बाहरी तलाश हमारे तमाम तनावों, अशांति की जनक है। जहां श्रद्धा का प्रतिशत कम है वहां ज्ञान का अभाव ज्यादा है। अब एक बडी ही दिलचस्प बात है कि भारतीय दर्शन का उद्गम, उसका जन्म दुख का कारण खोजने और उसे समाप्त करने की जीवन राह खोजते हुए हुआ है। यह भी आप जानते हैं कि कामनायें कर्म कराती हैं। चित्त में कर्मफल की इच्छायें जाग्रत करातीं हैं। और ये जो आप कर्म करते हैं उसके फलों में प्रकृति की ढेरों शक्तियां हिस्सा लेती हैं। कभी सफलता हाथ लगती है तो कभी नहीं लगती। किंतु दोनों कर्म बन्धन में आपको फंसाती हैं। भारतीय दर्शन में यही कर्म बन्धन, बार बार के जन्म का प्रतिफल है। आप गम्भीर होकर सोचिये कि कर्म बन्धन से मुक्ति ही स्थाई आनंद है। गीता में पूर्ण ज्ञान ही मुक्ति का उपाय दर्शाया गया है। ऋगवेद में यह ज्ञान प्रकृति की एक बडी शक्ति के रूप में है।
अब सरकार भले ही शिक्षा के अधिकार का कानून ले आये किंतु इस प्रकार की शिक्षा ज्ञान नहीं बांट सकती। ज्ञान के लिये तो आपको अपने भीतर की पाठशाला में जाना होगा। क्योंकि शिक्षा और ज्ञान में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है। शिक्षा सरोवर हो सकती है किंतु ज्ञान सागर है। यह सच है कि ज्ञान के लिये शिक्षा के रास्ते ही जाया जा सकता है किंतु पूर्ण रूप से श्रद्धा के संग। यह बडा ही अज़ीब दौर है जब हम भारतीय दर्शन से विरक्त शिक्षा को ही सम्पूर्ण मान बैठे हैं और अपने बच्चों तक में अल्फा, बीटा, गामा आदि सम्प्रेषित कर रहे हैं। यह सच है कि यह अतिआवश्यक है। किंतु यह भी सच है कि हम अपनी तरह, अपने बच्चों में भी अशांति, तनाव संक्रमित कर रहे हैं। इतनी आपाधापी, इतनी प्रतियोगिता और शिक्षा भी तो ऐसी जो श्रद्धा के बगैर है, ज्ञान से रिक्त है, सिर्फ जीविकोपार्जन के निमित्त। तो स्वभाविक रूप से कई प्रकार के तनाव घिर आने हैं। खैर..भारतीय शिक्षा में मान लीजिये यदि गीता का भी सब्जेक्ट इंक्लुड हो जाये तो? क्या बुराई है, यह किसी मज़हब से जुडा है, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। कुरान मदरसों में पढाई जाती है, बाइबल की विद्या भी कई स्कूलों में दी जाती है, गीता की क्यों नहीं? मेरा मानना है कि हमारी शिक्षा में गीता, कुरान, बाइबल, गुरुग्रंथ साहेब सबके वैकेल्पिक विषय होने चाहिये। दरअसल यह इसलिये कि मैं यहां ज्ञान की चर्चा कर रहा हूं जो इन्हीं विषयों में समाहित है। शोध जरूर होते हैं। शोध महज़ आपकी डिग्री तक सीमित न हो तो आध्यात्म के अन्दर झांका जा सकता है। अब आप यह मान सकते हैं कि दुनिया इन सब चीजों से बहुत आगे निकल चुकी है। ये विषय हमारी उन्नति, या आर्थिक प्रगति नहीं कर सकते, न ही देश-विदेश में आगे बढने में सफलता दे सकते हैं। यह है बगैर श्रद्धा। श्रद्धा किसी भी वस्तु में होगी, वो निश्चित रूप से आपको सफल करेगी ही। बस, सफलता के इस मापदंड में देखना यह है कि आप बाहरी सफलता प्राप्त कर रहे हैं या आंतरिक। बडा ही उबाऊ विषय लेकर चर्चा कर रहा हूं मैं। है न। किंतु मैं जानता हूं जिसकी श्रद्धा पढने की है उसे कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा, जिस प्रकार मेरी श्रद्धा लिखने में है और इसके लिये गहन अध्ययन हुआ। आप सोच सकते हैं इससे मुझे मिला क्या? सुख। इस सुख का औचित्य क्या? मैं किसी भी प्रकार के तनाव से मुक्त हूं। कितना? और कितने लम्बे समय तक ऐसा हो सकता है? जब तक मैं इस पूरी मनस्थिति में आकंठ डूबा रहूंगा। मैं आपको फिर कह देता हूं कि ये किसी प्रकार की ईशवरीय आस्था नहीं है। और न ही श्रद्धा अन्धविश्वास है। श्रद्धा पर डॉ.राधाकृष्णन ने अपनी राय देते हुए लिखा था कि- " श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं है। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने की महत्वकांक्षा है।" ( डॉ. राधाकृष्णन, श्रीमद्भाग्वत गीता, पृ.158)। चित्त की विशेष दशा श्रद्धा है। ज्ञान के कई क्षेत्र हैं। विज्ञान की भी कई शाखायें हैं। कोई डॉक्टर, कोई अर्थशास्त्री, कोई मनोविज्ञान, कोई दर्शन, कोई भूगर्भ शास्त्र कोई इतिहास आदि में ज्ञान अर्जित कर शांति चाहता है। किंतु गीता में ज्ञान का तात्पर्य खुद के अंतिम तत्व बोध से है। इसके लिये बडी महत्वकांक्षा चाहिये, और श्रद्धा इसी महत्वकांक्षा की ऊर्जा है।
ये जो हमारा भारत है, क्यों महान है? इसलिये कि यहां अनुभव अध्ययन, जिज्ञासा और निष्कर्षो की एक सुदीर्घ परम्परा है। भौतिक जगत के जितने भी अध्ययन हैं वे सारे हस्तांतरित हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के सूत्र खोजते हैं, हम सब भी लगभग इसी तकनीक का इस्तमाल करते हैं। किंतु आत्म ज्ञान अहस्तांतरित नही। कपिल, कणाद, गौतम, बादरायण, पतंजलि या शंकराचार्य आदि की अनुभूतियां वैयक्तिक है, वे प्रेरित कर सकती हैं मगर उनका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता। ये श्रद्धा के विषय हैं। उन्हें मिला आत्मज्ञान श्रद्धा की शक्ति पाकर हम सबके लिये महत्वकंक्षा बन सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मूर्ख, अश्रद्धालु और संशयी नष्ट हो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये न तो ये जगत है, न वो परलोक। उन्हें सुख तो मिल ही नहीं सकता। ( वही श्लोक 40)। हममें एक बुरी आदत भी है कि हम सन्देह करने लगते हैं। सन्देह दरअसल देह के साथ है। वृहदारण्यक उपनिषद (4.4.13) में कहा गया है कि- " शरीर में प्रविष्ट यह आत्म तत्व जिसे प्राप्त हो गया है- यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आतमास्मिन सन्देहेय गहने प्रविष्टः।" वह सब कर्ता है- "स हि सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव?" "उसे सबका कर्ता व लोक का स्वामी बताया गया किंतु तब वह और लोक दो होते हैं इसलिये अंतिम में जोडा गया हे - वही लोक भी है। प्रकृति और परमतत्व दो नहीं है। श्रीकृष्ण सन्देह और संशयों को खत्म करने के लिये ज्ञान मार्ग दिखाते हैं। क्योंकि ज्ञान से ही तमाम सन्देह दूर हो सकते हैं। आप मान सकते हैं कि हम भारतीय हैं इसलिये भारतीय दर्शन की महत्ता सिद्ध करते हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि यूरोपीय दर्शन जिसका आधार यूनानी दर्शन है वो भी भारतीय दर्शन से प्रभावित ही है। प्लेटिनस (204-70ई.) आखिरी यूनानी दार्शनिक रहे थे। उनका चिंतन भारतीय दर्शन से युक्त रहा। उनके विवेचन में जिन तीन तत्वों को दिखाया गया उसे ट्राइनिटी यानी त्रितत्व कहा गया। पहला 'वह एक' , दूसरा तर्क बुद्धि, तीसरा विश्वात्मा है। हालांकि इसाइयत ने इन्हें नहीं अपनाया। किंतु त्रित्व की कल्पना नई नहीं थी। महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात ऋगवेद के सातवें मंडल के एक मंत्र में 'त्र्यंबक यजामहे' हजारों साल पहले से ही मौजूद है। प्लेटिनस ने जागतिक कर्मों से परे रहकर मुक्ति मार्ग को अपनाने पर जोर दिया जो गीता कहती रही है। इसके पहले प्लेटो (428-427ई.पू) ने गीता की तरह 'फीडो' मे कहा है कि "देहधारी अज्ञानी होकर बन्धन में होते हैं। किंतु ज्ञानी मुक्त हो जाते हैं।" प्लेटो 'रिपब्लिक' में लिखते हैं कि-" शुभ प्रत्यय पर ध्यान करने से आत्मा की गति ऊर्ध्वगामी हो जाती है और आनंदद्वीप पहुंच जाती है।" कुलमिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शन ज्ञान का महासागर है, इसमें डुबकी लगायें, दावे के साथ कहता हूं बाहर आने की इच्छा ही नहीं होगी, खैर ..ज्ञान सर्वोच्च है। इसे श्रद्धा से ग्रहित करें। कभी-कभी हमें लगता है कि कोई विषय रुचिकर नहीं है किंतु सम्भव है वो ही जीवन मार्ग के लिये असल रोशनी हो। यानी, शिक्षा का अधिकार सरकार दे सकती है, किंतु जो अधिकार हमारे भीतर है उससे हम दूर क्यों रहें। श्रद्धा रखे, ज्ञान प्रेषित करें। जन जन तक पहुंचाने का कर्म करें। बस कर्म करें। "

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

डोर

यह 150 वीं पोस्ट है, पता ही नहीं चला। खैर.., काफी दिनों से काव्यात्मक कुछ लिखा नहीं,वैसे मूलत: मैं तो आलेख लिखने वाला ठहरा, काव्यात्मक रचना मेरे बस की नहीं, सिर्फ प्रयासभर करता हूं। हां, कवितायें पढने में बहुत रस लेता हूं। अपने चन्द लेखक कवि हैं जिनके ब्लोग पर जा कर अपनी काव्य प्यास बुझा लेता हूं। इन कवि हृदयों से सीखते हुए कभी कभी मैं भी शब्दों को धारा में बहाने का प्रयत्न कर बैठता हूं, पता नहीं यह धारा में बहते भी हैं या इधर उधर होकर कहीं अटक जाते हैं? जो भी हो आपके सामने है। शब्द अटके हों तो निकालने में सहायता करें।

"मां से नज़र बचा
भरी दोपहर अपनी
नवजात प्रेम डोर लिये
भाग जाया करता था
कहीं सुदूर
वीराने पडे मैदान में।

डोर मांझने की खातिर
तपी हुई,
खौलती हुई
सरस,गोन्द की लुग्दी
मलता था, ताकि
वो पक्की हो सके।

फिर दुनियाई पतंगों को
काटने की खातिर
बीन कर लाये
कांच के टुकडों को
पीस-पीस महीन कर
उसका बुरादा बना
लगाता था।

चढाता था उस पर
अपने खून से बना रंग।
सूखने देता था घंटों
तेज़ धूप में उसे।
ये तप था, और अज़ीब सा
गुदगुदाता उत्साह था।

यकीन हो जाता था कि
हां, अब ठीक है तो
होले होले से
लपेट कर उसे
अपनी दिल की चक्री में
छुपाकर लौटता था घर।

ऐसा तो रोज़ ही किया।
धूप में जला बदन
हाथों में पडे छाले
और उपर से खाई
मां की डांट भी,
मगर सुकून था।

कि एक दिन इस
आकाश में उडाऊंगा
अपनी भी पतंग।
और काटूंगा विरोध की
तमाम उन पतंगों को
जो रोज़ उडती हुई देखता हूं।

सच पूछो तो पता नहीं था
बाज़ार में बिकने वाले
रासायनिक पदार्थों से लिपटे
इन पक्के धागों के बारे में,
जो महंगे और मज़बूत थे
बिल्कुल समाज़ की तरह।

तभी तो
थिगी ही थी कि
कट गई,
दूर कहीं जा अटकी
बबूल के पेड में।

आज भी लटकी है वहीं,
अपने उसी बने मंझे हुए
धागे के साथ,
जो हवा के संग इधर-उधर
पता नहीं कहां कहां
आधारहीन झूल रहा है।
वक़्त की मार सहता
रंगहीन, कमज़ोर, मज़बूर
बेचारा, यूं ही।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

मेरी नज़र में-नाटककार चरणदास सिद्धू (अंतिम भाग)

14.3.1997 को डॉ. राजेन्द्र पाल को दिये गये एक साक्षात्कार में डॉ.चरणदास सिद्धू ने नास्तिकता पर अपने विचार प्रकट किये हैं। ( नाट्यकला और मेरा तजुरबा, पृ.141) यह मुद्दा वाकई गम्भीर है। डॉ.सिद्धू नास्तिक हैं। पहले नहीं थे, बाद में हुए। ( इंगलिश ऑनर्स करते समय मैने, प्राइवेट कैंडिडेट के तौर पर, प्रभाकर ( हिन्दी) तथा विद्वानी (पंजाबी) के इम्तिहान पास किये। तब तक मैं आम लोगों जैसा वहमी था...।' इसी पुस्तक से , पृ.142) यह जो होना होता है उसे मैं ठीक वैसे ही लेता हूं जैसे कोई पहले पढाई किसी विषय की कर रहा होता है और बाद में करियर कोई दूसरा चुन लेता है। उन्होनें एक जगह कहा है- "मैं नास्तिक हूं। बिना झिझक हर एक को बताता हूं कि मुझे कल्पित रब में विश्वास नहीं है।..... मैं मुश्किल से मुश्किल घडी में भी किसी दैवी ताकत से, प्रार्थना करके, भीख नहीं मांगता। मगर मैं जानबूझकर आस्तिक लोगों की बेइज्जती नहीं करता। मुझे कमजोर वहमी लोगों से हमदर्दी है। काश उनके पल्ले सोच समझ होती। अंदरूनी शक्ति होती...।" मुझे याद आते हैं सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गान्धी, विनोबा भावे आदि। मुझे सोचना होगा कि क्या ये कमजोर थे? या वहमी थे? या फिर इनमे अन्दरूनी शक्ति का अभाव था? इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ कतई नहीं लिखना चाहुंगा, क्योंकि मैने जाना है कि दुनिया के जितने भी नास्तिक हैं वे तमाम लोग बहुत बडे आस्तिक होते हैं। अपने नास्तिक होने के लिये वे जिस रब या ईश्वर का विरोध करते रहते हैं उम्रभर, तर्क देते हैं, अमान्य करने की कोशिश करते हैं और बहुत कुछ आस्तिकता पर कहते हुए यह भी कहते हैं कि जानबूझकर आस्तिक लोगों को बेइज्जत नहीं करता तब उससे लगता है कि ये 'रब' काल्पनिक तो कतई नहीं हो सकता। वरना इतना विरोध क्यों? खैर..। ऐसे में मेरी आस्तिकता और अधिक दृढ हो जाती है। बरनर्ड शॉ, बरट्रेंड रसल, सैमुअल बटलर, टॉमस हार्डी तथा कई यूरोप व अमेरिका के लेखक व चिंतक-खासकर कार्ल मार्क्स की विचारधारा के प्रशंसक। मनोविज्ञान की किताबें और मिथिहास के बारे में फ्रेज़र जैसे विद्वानों के खोज ग्रंथ आदि ने डॉ सिद्धू को तर्कशील बनाया। भारत देश सनातन काल से आध्यात्मिक रहा है, ऐसा माना जाता है। वेद-पुराण, शास्त्र और कई तरह के दर्शनयुक्त साहित्य रचे गये, बडे से बडे साहित्यकारों द्वारा....। शायद सब फिज़ुल? मैने कहीं पढा था कि भारत जैसे अतिबुद्धिवादी देश और इसकी परम्पराओं को नष्ट करने के लिये भी विदेशों में काफी काम हुआ है। विदेशी साहित्यकारों का एक पूरा जमघट लगा..।खैर.., यह विषय सचमुच बहस के लायक नहीं है क्योंकि मेने हमेशा माना है कि तर्क समाधान नहीं देता, सिर्फ उलझाता है, भ्रमित रखता है। आखिर इस 'तर्क' का रूप भी तो ऐसा है कि इसे उल्टा कर पढे तो होता है 'कर्त', यानी 'काटना'। बस तर्क सिर्फ काट है। काट कब समाधानी हुआ? बहरहाल, इस बहस में उज्जवल पक्ष जो जीवन की प्रेरणा हो सकता है, उसे कतई नहीं भूला जा सकता।
20 बरसों के लगातार लेखन, अनुभवों को समेटने का प्रतिफल है डॉ सिद्धू की यह किताब"नाट्यकला और मेरा तजुरबा"। डॉ. सिद्धू गम्भीर चिंतक हैं। जो व्यक्ति 7वीं जमात में परिपक्व विचार पाल लेता हो उसका पूरा जीवन कैसा होगा इसकी कल्पनाभर करके समझा जा सकता है। " कुछ बन्दे मौत को जीत लेते हैं। अपने कारनामों के जरिये, कलाकृतियों द्वारा, वे अपनी जिन्दगी को अमर बना जाते हैं। मुझे चाहिये, मैं भी अपनी मेहनत सदका, दिमागी ताक़त के भरोसे, कुछ इस तरह का काम कर जाऊं, लोग मेरा काम और मेरा नाम सदियों तक याद रखें।" फिर 32 वर्ष में प्रवेश करते करते उन्होंने साध लिया कि आखिर उन्हें करना क्या है? 'कॉलेज में पढाने के साथ-साथ मैं नाटक पढने, देखने, लिखने और खेलने पर शेष जिन्दगी लगाउंगा।' आप सोच सकते हैं कि जिला होशियारपुर का एक देहाती लडका, प्रोफेसर बनता है, नाटक लिखता है, खेलता है, आई ए एस के इम्तिहान में सफल होता है किंतु नाटक के शौक में वो उसे त्यागता है, अमेरिका जाता है, अंग्रेज़ी का डबल एमए, फर्स्टक्लास, पीएचडी और तमाम नाटककारों का गहन अध्ययन करता हुआ युरोप की यात्रा करता है, तेहरान होते हुए स्वदेश लौटता है। और इस बीच अपने लक्ष्य को बेधने के लिये पूरी तरह तैयार हो जाता है...। क्या यह सब सहज हो सका? नहीं। लगन, मेहनत और दृढ विश्वास का नतीजा था कि डॉ. सिद्धू ने जो ठाना था उस दिशा में वे अपना वज़ूद ले, निकल पडे थे, संघर्ष खत्म नहीं बल्कि नये नये सिरे से उठ खडे हुए थे। अपनी पूरी जिंदगी कभी हार नहीं मानी। उन्होने जो देखा वो लिखा, देहात का परिवेश, सामाजिक समस्यायें, धर्म, कर्म आदि तमाम गूढ बातों का चिंतन-मनन उनके नाटकों में उतरता रहा। मंचित होता रहा। उनकी धुन, लगन, मेहनत देख देख कर उनके छात्र, दोस्त आदि जो उनके करीब आया सबके सब उनके मुरीद होते चले गये। आलोचना नहीं हुई, ऐसा भी कभी नहीं हुआ, या यूं कहें ज्यादा आलोचनायें ही हुई और सिद्धू साहब कभी डिगे नहीं। उनका पूरा परिवार उनके साथ सतत लगा रहा। और जीवन भी क्या, कि जो देखा वो कहा, कोई लाग-लपेट नहीं, कोई भय नहीं, कोई चिंता नहीं। थियेटर का यह बिरला कलाकार धनी नहीं था, न हुआ और न ही इसका कोई उपक्रम किया। वो सिर्फ नाटक के लिये पैदा हुए। पूरी इमानदारी से नाटक को समर्पित रहे। जीवन में, अपने काम में जब भी आप इमानदार होते हैं तो सफलता भी इमानदार ही प्राप्त होती है जो लगभग आदमी को अमर कर देती है। तभी तो मुझ जैसा भी उन पर कुछ लिखता है, उन्हें याद करता है और राह बनाता है कुछ ऐसे ही जीवन जीने या हौसले के साथ रहने की। यह व्यक्ति के कार्य ही हैं जो जग में विस्तारित होते चले जाते हैं।
अपने कई नाटकों का विशेष ज़िक्र किया है चरणदासजी ने, जैसे इन्दूमती सत्यदेव, स्वामीजी, भजनो आदि, बस यह जान सका हूं कि नाटक क्या हैं, किस पर आधारित है और उसका मूल क्या है। मगर वो कैसे हैं यह तो देख कर या उसे पढकर ही पता लग सकता है इसलिये नाटकों पर मैं कुछ नहीं लिख सकता। सिद्धू साहब की दूसरी पुस्तक जो मेरे पास है (नाटककार, चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र), उसका सम्पादन रवि तनेजा ने किया है और कुल 29 लोग, जिनमें साहित्यकार, नाटककार, समीक्षक, लेखक, छात्र आदि सब कोई समाहित हैं जिन्होंने एकमत से सिद्धू साहब के जीवन के पहलुओं को अपने-अपने तरीके से व्यक्त किया है। अपने संस्मरण व्यक्त किये हैं। असल में यही सब तो होती है, जीवन की पूंजी। जीवन की सफलता। सिर ऊंचा उठा कर चलते रहने की शक्ति। ऐसे व्यक्ति दुर्लभ होते है। बिरले होते हैं। आप कह सकते हैं कि सचमुच के इंसान होते हैं। ताज्जुब और विडम्बना यह कि 'इंसान' को पढने, जानने, समझने वाले आज कम होते चले जा रहे हैं।

मंगलवार, 30 मार्च 2010

मेरी नज़र में-नाटककार चरणदास सिद्धू (भाग-2)

अनुभव जब एकत्र हो जाते हैं तो वे रिसने लगते हैं। मस्तिष्क में छिद्र बना लेते हैं और ढुलकने लगते हैं, कभी-कभी हमे लगता है अपनी खूबियों को बखानने के लिये व्यक्ति लिख रहा है, बोल रहा है या समझा रहा है। किंतु असल होता यह है कि अनुभव बहते हैं जिसे रोक पाना लगभग असम्भव होता है। नदियां बहुत सारी हैं, कुछ बेहद पवित्र मानी जाती है इसलिये उसमें डुबकी लगाना जीवन सार्थक करना माना जाता है। हालांकि तमाम नदियां लगभग एक सी होती हैं, कल कल कर बहना जानती हैं, उन्हें हम पवित्र-साधारण-अपवित्र आदि भले ही कह लें किंतु किसी भी नदी को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे कैसा माना जा रहा है या वो कैसी है? वो तो निरंतर बहती है, सागर में जा मिलती है। आप चाहे तो उसके पानी का सदुपयोग कर लें या उसे व्यय कर लें, या फिर नज़रअंदाज़ कर लें, यह सब कुछ हम पर निर्भर होता है। ठीक ऐसे ही आदमी के अनुभव होते हैं, जो रिसते हैं, कलम के माध्यम से या प्रवचन के माध्यम से या किसी भी प्रकार के चल-अचल माध्यम से। कौन किसका अनुभव, किस प्रकार गाह्य करता है यह उसकी मानसिक स्थिति या शक़्ति पर निर्भर है। " मेरी दृष्टि में, एक सुखी जिन्दगी वो होती है जिसमें जरूरी आराम की चीज़े हों, मगर ऐशपरस्ती न हो। इसमें किसी किस्म का अभाव महसूस न हो। सब्र संतोष हो। इसके लिये आवश्यक है कि आदमी तगडा काम करे जो इंसानियत की भलाई की खातिर हो। सबसे अहम बात-एक सुखी जीवन रिश्तेदारों और दोस्तों की संगत में, दूसरों के वास्ते जिया जाय।" ( 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द चित्र', - सुखी जीवन-मेरा नज़रिया पृ.17) डॉ. चरणदास सिद्धू अब जाकर यह कह सके, यानी 44-45 वर्षों बाद, तो इसे क्या उनके जीवन का निचोड नहीं माना जा सकता? मगर ये ' दूसरों के वास्ते जिया जाय' वाला कथन मुझे थोडा सा खनकता है क्योंकि पूरी जिन्दगी उन्होंने नाटक को समर्पित की, उनका परिवार उनके समर्पण में सलंग्न रहा तो इसे मैं दूसरों के वास्ते जीना नहीं बल्कि अपने लक्ष्य के वास्ते जीना ज्यादा समझता हूं। वैसे भी जब आप किसी लक्ष्य पर निशाना साधते हैं तो शरीर की तमाम इन्द्रियां आपके मस्तिष्क की गिरफ्त में होती है और आपको सिर्फ और सिर्फ लक्ष्य दिखता है, ऐसे में दूसरा कुछ कैसे सूझ सकता है? यह सुखद रहा कि सिद्धू साहब को जैसा परिवार मिला वो उनके हित के अनुरूप मिला। यानी यदि जितने भी वे सफल रहे हैं उनके परिवार की वज़ह भी उनकी सफलता के पीछे है और यह उन्होंने स्वीकारा भी है। खैर..। पर यह तो नीरा दर्शन हुआ, जिसमें जीवन के लौकिक रास्तों से हटकर बात होती है। पर असल यही है कि सिद्धू साहब बिरले व्यक्ति ठहरे जिनका अपना दर्शन किसी गीता या कुरान, बाइबल से कम नहीं। यथार्थवादी दर्शन। और यह सब भी इसलिये कि उन्होंने जिन्दगी को जिया है, नाटकों में नाटक करके, तो यथार्थ में उसे मंचित करके। उनकी पुस्तक 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' जब पढ रहा था तो उसमे पहले पहल लगा कि व्यक्ति अपनी महत्ता का बखान कर रहा है, या करवा रहा है। किताब सबसे उत्तम जरिया होता है। मगर बाद में लगा कि व्यक्ति यदि अपनी महत्ता बखान भी रहा है तो फिज़ुल नहीं, बल्कि वो वैसा है भी। और यदि वो वैसा है तो उसका फर्ज़ बनता है कि वैसा ही लिखे या लिखवाये। कोई भी कलाकार हो, उसे अपनी कला का प्रतिष्ठित प्रतिफल मिले, यह भाव सदैव उसके दिलो दिमाग में पलता रहता है। यानी यह चाहत कोई अपराध नहीं। सामान्य सी चाहत है। इस सामान्य सी चाहत में रह कर असामान्य जिन्दगी जी लेने वाले शख्स को ही मैरी नज़र महान मानती है। महान मानना दो तरह से होता है, एक तो आप उक्त व्यक्ति से प्रभावित हो जायें, दूसरे आप व्यक्ति का बारिकी से अध्ययन करें, उसके गुण-दोषों की विवेचना करें। मैं दूसरे तरह को ज्यादा महत्व देता हूं। इसीलिये जल्दी किसी से प्रभावित भी नहीं होता, या यूं कहें प्रभावित होता ही नहीं हूं, क्योंकि यहां आपका अस्तित्व शून्य हो जाता है, आप अपनी सोच से हट जाते हैं और प्रभाववश उक्त व्यक्ति के तमाम अच्छे-बुरे विचार स्वीकार करते चले जाते हैं। ऐसे में तो न उस व्यक्ति की सही पहचान हो सकती है, न वह व्यक्ति खुद अपने लक्ष्य में सफल माना जा सकता है। फिर एक धारणा यह भी बनाई जा सकती है कि आखिर मैं किस लाभ के लिये किसी व्यक्ति के सन्दर्भ में बात कर रहा हूं? और क्या मुझे ऐसा कोई अधिकार है कि किसी व्यक्ति के जीवन को लेकर उसकी अच्छाई-बुराई लिखूं? नहीं, मुझे किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। न ही ऐसा करने से मुझे कोई लाभ है। फिर? आमतौर पर आदमी लाभ के मद्देनज़र कार्य करता है। उसे करना भी चाहिये। जब वो ईश्वर को अपने छोटे-मोटे लाभ के लिये पटाता नज़र आता है तो किसी व्यक्ति के बारे में लिख पढकर लाभ क्यों नहीं कमाना चाहेगा? मुझे भी लाभ है। वो लाभ यह कि मुझे सुख मिलता है। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में लिख कर जिसके माध्यम से अन्य जीवन को किसी प्रकार का रास्ता प्राप्त हो सके, बस इसका सुख। न कभी मैं सिद्धू साहब से मिला, न ही दूर दूर तक ऐसी कोई सम्भावना है कि मिलना हो। और मैं जो भी लिख रहा हूं वो सारा का सारा उनकी किताब में ही समाहित है। मैं तो सिर्फ उस लिखे को सामने रख अपनी व्याख्या कर रहा हूं, जो किसी भी प्रकार से गलत नहीं माना जा सकता। यह मैरा धर्म है कि जब किसी पुस्तक को पढता हूं तो उसे सिर्फ पढकर अलमारी के किसी कोने में सजाकर नहीं रख देता बल्कि उसके रस से अपनी छोटी ही बुद्धि से सही, सभी को सराबोर या अभिभूत करा सकने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि कोई भी पुस्तक किसी पाठक से यही चाहती है। यह मेरी, नितांत मेरी एक ईमानदार सोच है। और मेरा कर्म, धर्म लिखना ही तो है सो मैं इसे निसंकोच निभाता हूं। और लाभ यह कि सुख मिलता है। जैसा कि सिद्धू साहब ने लिखा- " सुख तो एक सोचने की आदत है, स्थाई तौर पर अच्छा महसूस करने की हालत। सुख कभी न छूटने वाली वो आदत है जिसके जरिये आप हमेशा चीज़ों के रौशन रुख को ताकते रहें...।" मेरा रुख यही है। सुख की सोच। रोशन रुख को ताकते हुए। तो क्या, सिद्धू साहब दार्शनिक हैं? नहीं। उनका जीवन दार्शनिक है। उनके अनुभव दर्शन है। मैने उनकी किताबों से जो व्यक्तित्व पाया है उसके आधार पर ही मैं कुछ कह सकता हूं। वरना लिखना तो उन लोगों के बारे में होता है जिन्हें आप अच्छी तरह से जानते हों। और यदि मैं कहूं, मैं उनके बारे में कैसे लिख रहा हूं तो वो सिर्फ इसलिये कि मेरी जिन्दगी में उनकी किताबे आईं और उन्हीं किताबों के जरिये अपनी छोटी सी बुद्धि के सहारे बतौर समीक्षक शब्दों में उतार रहा हूं। "नाटक लिखा नहीं जाता नाटक गढा जाता है" ( नाट्य कला और मेरा तजुरबा,मुलाकातें-पृ.165) सिद्धू साहब बताते हैं। जब अपनी धुन, अपने तरह का जीवन जिसने गढ रखा हो वो कोई चीज कैसे लिख सकता है? गढ ही सकता है। काश के मुझे उनके नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता? भविष्य में ही सही इंतजार किया जा सकता है। किंतु इधर 1973 से 1991 तक के सफर में उनके द्वारा जो करीब 33 नाटक रचे, लिखे गये हैं उन्हें पढने की उत्सुकता बढ गई है और यह भी तय है कि सबको धीरे धीरे पढ लूंगा। शायद तब डॉ. सिद्धू सर के नाटकों पर लिखा जा सकता है, अभी तो उनके जीवन पर ही लिखी गई किताबें मेरे पास है सो मैं सिर्फ वही लिख सकता हूं। जैसी किताब है। तो अगली पोस्ट में मिलिये और यह भी जानिये कि, हां आदमी जो ठान लेता है, वो करके ही दम लेता है। और जब दम लेता है तो उसके वो दम में बला की तसल्ली होती है। किंतु इस दम लेने के बीच उसे उम्र का बहुत बडा भाग तपा देना होता है। " स्वर्ण तप-तप कर ही तो निखरता है।" कैसे तपे सिद्धूजी? और कैसे निखरे? जरूर पढिये अगली पोस्ट में।

शनिवार, 27 मार्च 2010

मेरी नजर में- नाटककार डॉ.चरणदास सिद्धू

किसी भी व्यक्ति को उसकी किताब से पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता। वैसे भी किसी व्यक्ति को पूरा कब जाना जा सका है, हां उसके करीब रह कर उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव, उसकी आदतें आदि जानी जा सकती है और जब ऐसे व्यक्ति किसी के बारे कुछ लिखते हैं तो हम उक्त व्यक्ति के सन्दर्भ में अपनी रूप रेखा बना सकते हैं। बस यही रूप-रेखा खींची है मैने डॉ. चरणदास सिद्धू को लेकर। इस देश में कई ख्यातिनाम नाटककार हुए हैं। उनमे से एक यदि मैं चरणदास सिद्धू को गिन लूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ठीक है कि मैने कभी सिद्धू साहब के नाटक नहीं देखे, कभी इसके पहले तक उनके नाम से परिचय नहीं हुआ, कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई, किंतु यह कतई जरूरी नहीं होता कि आपके जीवन में कभी कोई महान व्यक्ति आ ही नहीं सकता। समय-समय की बात होती है जब आपको मिलने, पढने आदि को प्राप्त होता है और तब आप कह उठते हैं कि अरे, मैं इनसे पहले क्यों नहीं मिल पाया या मैं इतना अज्ञानी रहा कि अब जा कर इनके बारे में पता चला? खैर देर आयद दुरुस्त आयद। धन्यवाद दूंगा सुशील छौक्कर जी का जिनके माध्यम से मैं डॉ.चरणदास सिद्धू के नाम से परिचित हुआ, फिर उनकी 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' तथा 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्दचित्र' जैसी किताब पढ पाया। दोनों किताबें सुशीलजी के सौजन्य से ही मुझे प्राप्त हुई। एक आदमी जिसने अपना पूरा जीवन नाटकों को समर्पित कर दिया, जिसने नाटक के अलावा कुछ और सोचा ही नहीं, जिसने अपने सामने आए कई सारे बडे प्रतिष्ठित पदों को ठुकरा दिया, जिसने अपने घर-परिवार तक को नाटक की दीवानगी में दूसरे पायदान पर रखा और जो आज भी नाटक के लिये ही जी रहा है क्या ऐसे व्यक्ति के बारे में जानना-समझना कोई नहीं चाहेगा? क्या ऐसे व्यक्ति बिरले नहीं? मैं समझता हूं कि किसी भी कार्य को करने के लिये सनक होनी चाहिये, सनक यानी दीवानगी आपको कार्य की सफलता तक छोडती है और यदि सफलता की चमक में आपकी आंखे चौन्धियाती नहीं है तो समझो आप सचमुच के आदमी है। बस यही 'आदमी' माना जा सकता है चरणदास सिद्धू को। सुशीलजी ने इनकी बारे में काफी कुछ बताया। फिर पढा। और फिर इनके बारे में, इनके करीबी रहे, छात्र रहे, दोस्त रहे, जानने-समझने वाले रहे व्यक्तियों ने जो कुछ भी लिखा, उसे भी पढा। फिर इनको मनन किया। और तब खींची रूप रेखा जो आपके सम्मुख लाने से रोक नहीं पाया।
इस देश में बेहतरीन नाटककार शेष ही कितने हैं? नाटककारों पर लिखने वाले भी शेष कितने है? और नाटककारों को जानने-समझने के लिये कितनों के पास वक्त है? ऐसे प्रश्न क्यों नहीं कौन्धते है आमजन में? खैर इससे नाटककारों या चरणदास सिद्धू जैसों को कोई मतलब भी नहीं क्योंकि ये तो बस धुनी रमाये हुए हैं, तप में लीन है। दुर्भाग्य हमारा है कि हम वंचित रह जाते हैं ऐसे दुर्लभ जीवन से, जिसके माध्यम से हम जीवन के कई सारे अनबुझे पहलुओं को जान सकते हैं, समझ सकते हैं। क्योंकि नाटककार सिर्फ नाटक मंचित नहीं करता बल्कि अपने जीवन को, अपने परिवेश को, अपने अनुभवों को या कहें एक समग्र जीवन दर्शन को कथानक में उतारकर पेश करता है। वो अभिनय करता या कराता तो है किंतु कहीं वो अपने ही जीवन के साथ खेल भी रहा होता है। कौन खेलता है अपने जीवन के साथ? आज जब मैं अपने चारों ओर भागते-दौडते-खाते-पीते- कमाते- गंवाते लोगों की भीड देखता हूं तो यही ख्याल आता है कि जी कौन रहा है? खेल कौन रहा है? जीवन काट रहें है सब। कट रहा है सबकुछ बस। खेलने के अर्थ बदल गये हैं। खैर..। मैने चरणदास जी के बारे में सुना व पढा है। फक्कड सा जीवन। किंतु ऐसी फक्कडता नहीं कि जीवन का लक्ष्य ही लुप्त हो जाये। अपने लक्ष्य के लिये तमाम बाधाओं को पार करने वाला व्यक्तित्व, अपने शौक के लिये आसमान को ज़मीन पर झुका देने वाला साहसिक जांबाज, अपनी एक अलग दुनिया बना कर चलने वाला दुनियादार इंसान...., क्या कभी मिल भी सकुंगा उनसे? क्योंकि जितना पढा-सुना है वो उनसे मिलने के लिये व्यग्र तो कर ही देता है किंतु अपनी भी बडी बेकार आदत है कि किसी के बारे में जानने-समझने के इस चक्कर में यदि कभी कहीं उसके ही विचारों के कई सारे विरोधाभास जब सामने आते हैं तो उसे कहने-बोलने से भी हिचकिचाता नहीं। कभी-कभी इस आदत के चलते सामने वाला मिलना नहीं चाहता। जबकि मिलकर मुझे बहुत कुछ और जानने-समझने को मिल सकता है जो ज्यादा असल होता है। पर..स्पष्टवादिता की प्रवृत्ति स्वभाव में प्राकृतिक रूप से जो ठहरी। कभी कभी गुडगोबर भी कर देती है। क्योंकि ज़माना औपचारिकता का है और अपने को औपचारिकता की ए बी सी डी नहीं आती। यानी हम जमाने के साथ नहीं है, यह हम जानते हैं। शायद इसीलिये बहुत पीछे हैं। वैसे इस पीछडेपन को हम स्लो-साइक्लिंग रेस मानते हैं। जिसमे जीतता कौन है? आप जानते ही हैं। खैर..डॉ.चरणदास सिद्धू के बारे में सुशीलजी से सुनकर, उनकी किताबो को पढकर उनके बारे में जो चित्र खींचा है वो वाकई दिलचस्प है और जिसे एकमुश्त पोस्ट मे ढालकर पेश नहीं किया जा सकता, सो अगली पोस्ट का इंतजार जरूर कीजियेगा।

रविवार, 21 मार्च 2010

उथले हैं वे जो कहते हैं


किसी भी साहित्यिक रचना या रचना संग्रह को इमानदारी से पढने वाला पाठक अगर मिल जाता है और वो उस रचना पर अपनी राय भी व्यक्त कर देता है तो यह सोने पे सुहागा हो जाता है। उस संग्रह को फिर किसी दूजे पुरस्कार आदि की आवश्यकता ही नहीं होती। मेरे पूज्य पिताजी डॉ. जे पी श्रीवास्तव के काव्य खंड " रागाकाश" के प्रकाशन के लिये जब इस पर मैं वर्क कर रहा था तो कई सारी कठिनाइयां आ रही थीं। पहली तो यही थी कि मैं बगैर पिताजी की आज्ञा के उनकी धरोहर को छापना चाह रहा था। उनकी अपने दौर में लिखी गई कई सारी रचनायें, जिसमें कइयों के कागज़ भी पुराने होकर फटने लगे थे को सहेज कर मुम्बई तो ले आया था अब बस पिताजी की आज्ञा की देर थी। पहले जब उनका साहित्ययुग पूरे उफान पर था, देश-विदेश के बडे से बडे साहित्यकार आदि से मेल मिलाप था, तब परिवारिक परिस्तिथियों ने उनके किसी भी तरह के प्रकाशन सम्बन्धित कार्य को नहीं होने दिया। और जब परिस्थितयां सुधरी तो काफी देर हो चुकी थी, पूरा का पूरा युग मानों बदल गया था, फिर भी उनका लेखन सतत जारी रहा, आज भी पठन-पाठन वैसा ही है जैसा पहले था किंतु लेखन अब ज्यादा नहीं होता। इस दौर में किसी प्रकाशन के प्रति भी उनका रुख उदासीन रहा। फिर भी मेरा प्रयास जारी था, उधर मेरे बडे भाई ने ढांढस बन्धाया कि अभी काम पे लग जाओ बाद में अपनी मंशा पिताजी को बतायेंगे, कुछ हो न हो कम से कम रचनायें व्यवस्थित तो हो जायेंगी। हमारे लिये यही जरूरी था। सो टाइप और इसकी साज सज्जा मैने अपने कमप्युटर पर दिन रात बैठ कर तैयार कर ली। अब? यदि पुस्तक का रूप देना है तो खास समस्या थी प्रकाशक की। दरअसल मेरे पास एक साहित्यक निधि थी, साहित्य के रसिकों के लिये बेहद उपयुक्त व विशुद्ध धरोहर थी सो चाहता था कि अच्छा प्रकाशक मिले। किंतु इस 'बाज़ार' में प्रकाशकों की शर्तों व आनाकानी का जो सीधा अनुभव मैने किया वो संस्मरण योग्य है। खैर..अगर बेहतर सामग्री हो तो उसे बेहतर कलेवर देना ही आवश्यक होता है जिसमे मैं कोई समझौता नहीं करना चाहता था। लिहाज़ा एक प्रकाशक की भूमिका अख्तियातर करने की मानसिकता लिये मैं छापाखानों पर भटकने लगा। कई जगह अलग अलग लागत निकालता रहा और अंत में तय किया कि अब हो न हो अपना प्रकाशन शुरू कर इस दस्तावेज को पुस्तकाकार देना ही है। चाहे जितना पैसा लगे। सो पुस्तक छपने डाल दी। अब सामने था पिताजी को बताना और बाद में विमोचन या लोकार्पण ताकि साहित्य को उसका पूरा पूरा सम्मान मिल सके। कहते हैं न यदि आप अपने कार्य के प्रति इमानदार हों और वो सदमार्गीय हो तो ईश्वर रास्ते निकालते जाता है। रास्ते निकले। पिताजी माने। बडे भाई की मेहनत रंग लाई। फिर तो बाद में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जी जैसे महान साहित्यकार की अद्वितीय कलम ने 'पुरोवाक' लिखा। "रागाकाश" छपकर आई। विमोचन भी बडे साहित्यकारों की संगत में हुआ। समीक्षायें हुई। किसी ने कहा कि ऐन समारोह पर किताब को डिसकाउंट में बेचा जा सकता है। काफी बिक सकती है। किंतु पिताजी ने साफ इंकार कर दिया। हम भाई भी इस मूड में नहीं थे कि किताब बेचें। साहित्यकार, इसके रसिक परिचितों, मित्रों के साथ साथ देश की कई पत्रिकाओं-समाचार पत्रों में 'रागाकाश' प्रेषित की गई। कुछ ने समीक्षा की, कुछ पचा गये। परिचितों, मित्रो आदि में से किसने कितना लाभ लिया यह उनका अनुभव होगा। किंतु जिस प्रयास की शुरुआत मैने की थी वो 2008 के अप्रैल महीने में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। किताब के बारे में राय आती रही यानी उसकी सार्थकता सिद्ध होती रही। यह नहीं पता था, और न ही इसका कोई प्रयास था कि किसी प्रकार के पुरस्कार के लिये कोई अतिरिक्त उपक्रम किया जाये। वैसे भी पिताजी को पुरस्कार आदि का कभी मोह नहीं रहा, और मैने भी ज्यादा यही सोचा कि 'रागाकाश" पठनप्रेमियों तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचे। लिहाज़ा सम्मान या पुरस्कार आदि के सन्दर्भ में कभी हमने सोचा ही नहीं था। पिताजी का मानना रहा है कि- होई वही जो राम रची राखा। सो दो वर्ष बीत जाने के बाद अचानक अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर राजस्थान की ओर से स्व.सेठ घनश्यामदास बंसल स्मृति 2009-10 का पुरस्कार काव्य संग्रह " रागाकाश" को प्राप्त हुआ है, कि खबर डाक द्वारा आई। श्री नरेन्द्र शर्मा, डॉ. आनंद मंगल वाजपेयी, डॉ. त्रिभुवन राय और डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के सूक्ष्म परिक्षण के बाद तय हुआ रागाकाश को पुरस्कृत करना। इस पुरस्कार से और कुछ हो न हो किंतु यह जरूर ज्ञात होता है कि आज भी बेहतर साहित्य को पूछने-परखने वाले लोग हैं और यथासम्भव उनकी वजह से ही भारत में साहित्य जिन्दा है। क्योंकि साहित्य के जिन्दा रहने के लिये सुधी पाठकों की आवश्यकता होती है। बहरहाल, यह भी एक अनुभव रहा था मेरा जिसने सिखाया कि कार्य इमानदारी से करो, प्रतिफल जो भी हो जैसा भी हो, अच्छा ही होता है। इसी सम्बल से फिलवक़्त उनके एक निबन्ध संग्रह के कार्य में भी रत हूं। देखता हूं कब वो पुस्तक का आकार लेता है? अच्छे प्रकाशक की तलाश तब भी रहेगी ही। और न मिलेगा तो अपना दम है ही।
अब 'रागाकाश' के दूसरे खंड 'रागानुगा" की एक छोटी रचना भी चलते चलते आपको नज़र करता हूं, यह मुझे बहुत पसन्द है, शायद आपको भी पसन्द आयेगी-

" उथले हैं वे जो कहते हैं
वर्ना दुख तो सब सहते हैं
किसको है मिल गया किनारा
सब धारा ही में बहते हैं।

सूखेगा जो हरा बना है
टूटेगा जो अभी तना है
कोई काम नहीं आता है
बडबोलापन यहां मना है।

सृष्टि किसी की नहीं, यहां सब
नश्वर है, टिकता है क्या कब?
जाने किसके हाथ डोर है
दिखा रहा प्रतिक्षण नव करतब।

हार-हार कर हार न मानी
मृत्यु वरण करने की ठानी
ऐसे पुरुषार्थी भी डूबे
डूबे पीर, औलिया, ज्ञानी।

काल अजय है, अजय विधाता
माया है सब रिश्ता-नाता
धीरे-जल्दी, हंसके-रोके
आया है जो, निश्चित जाता॥"

मंगलवार, 16 मार्च 2010

सृष्टि सर्जन का पहला मुहूर्त

बचपन से ही सृष्टि के सन्दर्भ में जानने-समझने की जिज्ञासा रही है। यह विषय मेरे लिये हरहमेश रोमांचित कर देने वाला रहा है। बहुत कुछ पढा-लिखा, अध्ययन किया, साथ ही इस सन्दर्भ में पंडित, ज्योतिष, वैज्ञानिक, ज्ञानियों आदि इत्यादि से समय समय पर अपनी जिज्ञासा शांत करने के उपक्रम भी करता रहा हूं, बावजूद सृष्टि मेरे लिये अबूझ ही बनी हुई है। यानी संतुष्ट नहीं हो पाया हूं कि आखिर ऐसा अजूबा जन्मा कैसे? हालांकि अपने-अपने तरीकों से लगभग सारे शास्त्रों, ज्ञानी महापुरुषों ने इसके बारे में बताया है। समझाया है। विज्ञान का भी अपना तर्क है। जितना अधिक मिल सका उतना मैने पढा भी। किंतु इस क्षुधा का क्या जो शांत ही नहीं होती? खैर..। आज इस व्यक्त सृष्टि का पहला ऊषाकाल है। सवंतसर। समग्र जगत का प्रथम सूर्योदय। भारतीय नव वर्ष का प्राम्भिक दिन। आप गर्व कर सकते हैं कि इसका प्रारम्भ किसी ऋषि-मुनि, पंडित, महात्मा आदि की किसी जन्मतिथि आदि से नहीं है बल्कि जिस क्षण सृष्टि शुरू हुई उसी समय संवतसर का प्रारम्भ हो गया। हां इस तिथि मे कई महाज्ञानी जन्में, मृत्यु को धारित हुए। यहां तक कि युधिष्ठिर विक्रमादित्य समेत कइयों ने अपने अपने संवतसर चलाये भी, किंतु इस प्रथम संवतसर की पहली सौर्यकिरण, पहला दिन, तिथि गणना सचमुच बेहद ही दिलचस्प और अनूठी है। गणना के अनुसार सृष्टि की आयु 1 अरब 95 करोड, 58 लाख, 85 हजार एक सौ 12 वर्ष हो चुकी है। वैज्ञानिक अनुमान भी यही है। आज के दिन से ही काल की भी शुरुआत हुई थी। जी हां वही काल जिसे हम समय, टाइम आदि नाम से जानते हैं। भारतीय दर्शन में काल और ब्रह्म पर्याय हैं। लोकजीवन में काल और मृत्यु को पर्याय माना जाता है। सृष्टि सर्जन से पूर्व काल बोध नहीं था। संवतसर भी नहीं। फिर उसके पहले था क्या? मेरी जिज्ञासा का सूत्रपात इसी प्रश्न से हुआ था। ऋगवेद के नासदीय सूक्त (10.129) में बहुत खूबसूरत चित्रण किया गया है कि- तब न सत था, न असत। न भूमि, न आकाश- "नो व्योमा परो यत।" न मृत्यु थी न अमरत्व। न रात, न दिन। वायु भी नहीं थी किंतु वह एक स्वयं अवात अवस्था में अपनी शक्ति से प्राण ले रहा था- "आनीदवातं स्वधया तदेकं।" अब आप देखिये कितना मजेदार है यह, कि 'वह एक- तदेकं' कौन? .., ऋगवेद में है यह, कि वह बिना हवा के सांस ले रहा था। इसी 'वह एक' को विद्वानजन कभी विप्र इन्द्र, मित्र, अग्नि तो कभी वरूण आदि देव नामों से पुकारते हैं। किंतु वह 'एक सद'- एक ही सत्य है- एकसद विप्रा बहुधा वदंति। (ऋ.1.164.46) सृष्टि सर्जन के मंगलाचरण के साथ का आईना ही परिवर्तन की शुरूआत है। प्रारम्भ है। जब परिवर्तन है तो तय है कोई गति अवश्य है। जहां गति है वहीं समय है। और यही समय का दर्पण ही तो संवतसर है।
विज्ञान में देखें। प्रत्येक सर्जन या बदलाव यानी परिवर्तन के पीछे एक ऊर्जा है। शक्ति के केन्द्र लगातार ऊर्जा दे रहे हैं तो क्या एक दिन इस संचित ऊर्जा का भी क्षय होगा? हो सकता है। होगा ही। एंगेल्स की ' डायलेक्टिस आफ नेचर' में लिखा है करोडों वर्ष बीतेंगे, सूर्य की ऊर्जा क्षीण होगी। सूर्य का ताप ध्रूवों के हिम को गला न पायेगा। हिम बढेगा, मानव जाति को जीवन के लिये पर्याप्त ऊष्मा नहीं मिलेगी। वो आगे लिखते हैं कि- धरती चन्द्रमा के समान, निर्जीव हिम पिंड की तरह निर्जीव होते सूर्य के चारों ओर निरंतर घटती हुई कक्षा में चक्कर लगायेगी और अंत में उसी में जा गिरेगी। कुछ ग्रह इसके पहले ही वहां गिर चुके होंगे। वैदिक दर्शन इसे प्रलय कहता है। किंतु प्रलय काल सम्पूर्ण ऊर्जा का नाशक नहीं है यानी उसके बाद भी ऊर्जा शेष रहती है और यही वजह है कि प्रलय के बाद पुनः सृष्टि का जन्म होता है। भारत के सांख्य दर्शन में कपिल ने यही बात बहुत पहले ही कही थी। सृष्टि और प्रलय प्रकृति की इकाई में चलते हैं इसीलिये प्रकृति मे द्वंद्व दिखाई देता है। बडी अजीब है न सृष्टि। और आज उसके काल के प्रवाह में बहते बहते हम यहां तक आ गये। भारतीय कालबोध का क्षण सृष्टि का प्रारम्भ है। फिर इसके बाद युग हैं। महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद यानी ईसा पूर्व 3102 वर्ष से कलियुग चल रहा है। युगाब्ध के अनुसार भारत की 52 वीं सदी है यह। विक्रमसम्वत के अनुसार यह 2067 सम्वत है। यही शक संवत्सर 1932 है। किंतु दुनिया ईसाकाल की दृष्टि से देखती है जिसके अनुसार 21 वीं सदी है। जो भी हो किंतु यह निर्विवाद सत्य है कि आज के दिन से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था जो हमारे लिये नववर्ष का प्रारम्भ है। तो आइये इसे मनायें। हमारे भारतीय संवत्सर का स्वागत करें। खूब नाचे-झूमें-गायें। सभीको मेरी ओर से आत्मीय शुभकामनायें।

शनिवार, 6 मार्च 2010

फिर दिल की नहीं, दिशा की जरूरत है

हॉकी का विश्वकप चल रहा है और भारत अपने तीन मैचों में सिर्फ एक पाकिस्तान से जीता है बाकी के ऑस्ट्रेलिया और स्पेन से बुरी तरह हारा। यानी उसके सेमीफाइनल के रास्ते अब कठिन हो चुके हैं। आज उसका इंग्लैंड के साथ मुकाबला है। इधर हीरो होंडा के विज्ञापन में दिखाया गया है कि फिर दिल दो हॉकी को....। कैसे? हीरो होंडा खरीद कर या हॉकी के लिये नया दिमाग देकर? खैर। भारतीय हॉकी जिस परम्परागत शैली में खेली जाती है उसे बदलने की जरूरत है। बदलाव की इस दरकार को समझकर प्रयत्न भी हुए किंतु सबसे बडी समस्या हमारी जलवायु की है। गरम देश में स्टेमिना को बरकरार रख पाना थोडा कठिन हो जाता है। फिटनेस भी इसीके चलते अपना अहम रोल निभाती है। लगातार तेज़ हॉकी खेलते रहना सम्भव नहीं हो पाता। किंतु यह सब कारण बहाने की लिस्ट में रखे जा सकते हैं। हां, भारतीय हॉकी संघ और खिलाडियों में मानसिक बिखराव भी अहम भूमिका निभाता है। हॉकी को लेकर गम्भीर चिंतन, समाधान, आर्थिक सहयोग आदि जैसे तमाम प्रयत्न किये जाते रहे हैं, बावजूद हम इसमे सुधार नहीं कर पाये। यही हाल पाकिस्तानी हॉकी का भी है। उसकी शैली भी ठीक हमारी शैली से मिलती जुलती है किंतु पाकिस्तान में जीतने की जिजीविशा हमसे ज्यादा है और यही कारण है कि उसकी हॉकी मरी नहीं है। भारतीय हॉकी से अपेक्षायें कुछ ज्यादा कर ली जाती है, वैसे पिछले डेढ दशक से जिस गति से उसका पतन हुआ है उससे अपेक्षायें जैसी बात बहुत हद तक कम हो चुकी है। किंतु फिर भी हॉकी को फिर से दिल देने की जरूरत नहीं है क्योंकि वो हमारा दिल है ही। हां, लगातार पराजय किसी भी खेल से ध्यान भंग करा देती है, बस हॉकी के साथ भी यही हो रहा है। हॉकी महासंघ विवादों में रहता है। उसकी अपनी राजनीति है। इस तथ्य को थोडी देर के लिये भूल जाइये क्योंकि मैं उस कारण की ओर ध्यान खींचना चाहता हूं जो आज की हॉकी के लिये बेहद जरूरी है। हॉकी के ख्यातिनाम खिलाडी धनराज पिल्लै मेरे मित्र हैं। उनसे भी कई बार इस मुद्दे पर चर्चा हुई है। विवाद अपनी जगह है, मुद्दे अपनी जगह है जिस पर धनराज ने भी कईबार अपनी राय व्यक्त की है, ऐसे और भी कई हॉकी के खिलाडी हैं जिन्होंने हॉकी की रजनीति को अव्वल कारण बताया है किंतु फिर भी इसे मैं फिलहाल परे रखूंगा क्योंकि मैं मानता हूं कि उससे ज्यादा जरूरी है हमारी खेल शैली में बदलाव की। धनराज भी मानते हैं कि 'यूरोपीय शैली आज के दौर में हमारी परम्परागत शैली को पीछे छोड चुकी है। किंतु उनका मानना यह भी कि इसके बावजूद हम बेहतर खेल सकते हैं और जीत सकते हैं। अगर सूझबूझ के साथ खेलें तो।' मैने पूछा भी था कि क्या सूझबूझ नहीं होती? उन्होने कहा था कि होती तो है मगर हम विरोधी टीम की रणनीति में उलझकर रह जाते हैं। और उसे भंग करने के चक्कर में कईबार खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते। खैर यह पहलू तो है ही, इसके साथ ही साथ मेरा सोचना है या यूं कहूं हॉकी के सन्दर्भ में बारिकी से जानना है कि हमारी हार के पीछे सबसे बडा कारण है जीतने की जिद का न होना। साथ ही यूरोपीय शैली को समझने के बावजूद उसका तोड न ढूंढ पाना। तोड के लिये या तो आप भी उतने ही तेज़ हों या तकनीकी रूप से आप पूरे 70 मिनिट तक ढीले न पडें। हमारी टीम की स्वभावगत कमजोरी है कि हम विरोधी टीम पर या तो दबाव नहीं बना पाते या फिर यदि बनाते भी हैं तो उसे कायम नहीं रख पाते। उल्टे खुद बहुत जल्दी दबाव में आ जाते हैं। आज भी फिनिशिंग नहीं है। ट्रेपिंग नहीं है। साझापन नहीं है और रणनीति को साधे नहीं रख पाते। या बीच खेल में अपनी रणनीति को बदल नहीं पाते। खिलाडियों में आपस में कोई समझदारी दिखती ही नहीं जो विरोधी टीम को धोखे में रख सके। न तो हमारे पास लम्बे शॉट्स हैं, न स्कूप को रोकने की सधी कला, न ही पेनल्टी कार्नर को गोल में बदलने की धारधार क्षमता। और जब विरोधी टीम की डी में हम घुसते हैं तो बिखर जाते हैं। वहां इतनी हडबडाहट होती है कि गेन्द को अपनी हॉकी से चिपकाये भी नहीं रख पाते। ऑस्ट्रेलिया से मैच की बात हो या स्पेन से, हम यदि हारे तो हमारी परम्परागत गलतियों की वज़ह से। हां हमारी रक्षापंक्ति हमेशा मजबूत रही है यह कहा जा सकता है किंतु उसकी मजबूती बनी रहे इसके लिये हमारे फारवर्ड खिलाडियों को और ज्यादा मेहनत करनी जरूरी हो जाती है। वैसे भी आज की हॉकी, उसके नियमों में भारी बदलाव हैं और जिसमें अब किसी भी खिलाडी की कोई फिक्स जगह नहीं रह गई है, यह वजह भी है कि हम अभी तक इन नियमों में पारंगत नहीं हो पायें हैं। दूसरी बात जो सबसे प्रमुख है कि यूरोप में हॉकी फुटबाल की रणनीति की तरह खेली जाने लगी है। इसका उदाहरण स्पेन के साथ हुए मुकाबले में देखा जा सकता था। कौनसा खिलाडी कहां से कब निकल कर गेन्द पर झपटता है या कौन किसे कब गेन्द पास कर रहा है यह दौडते रहते खिलाडियों में सूझबूझ का कमाल है जो हम नहीं समझ पाते, यही वजह है कि विरोधी टीमे हम पर अक्सर फिल्ड गोल दागती रहती हैं। कुलमिलाकर भारतीय हॉकी को अभी सुधरने में काफी वक्त लगेगा, और यह भी तब होगा जब हॉकी संघ की राजनीति अहम, स्वार्थ, कमाई की लडाई से बाहर निकल जाये। फिर चाहे कोच बदल लें, देशी-विदेशी कोच रख लें, खिलाडियों को बाहर कर दें, नये खिलाडी ले आयें, कोई फर्क़ नहीं पडने वाला। इस तरह के तमाम दोषों पर जब तक गम्भीर नहीं होंगे तब तक हम विश्व विजेता बनने के सपने देखना छोड ही दें तो अच्छा है। हम जानते हैं कि इस राजनीति ने कई बेहतरीन खिलाडियों के करियर को खा लिया है। जिसमें धनराज जैसे ताज़ा उदाहरण सामने हैं। और यही कारण रहा कि भारतीय हॉकी आज अपने ही अस्तित्व को तलाशने में जुटी हुई है। सो मुद्दे की बात यह है कि हॉकी को दिल नहीं दिशा देने की जरूरत है। आप भी कुछ सोचते होंगे? सो लिख डालिये ताकि हमारी हॉकी के लिये कुछ बेहतर हो सके। क्योंकि यह तय है कि मैं समय समय पर तमाम बातों को लेकर हॉकी की जड में सम्पादित करने की किसी भी तरह की कोशिश करता ही रहता हूं।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

जो प्रेम की हो ली, वो है होली

रुकिये.....इतना बडा आलेख देख कर भागिये मत। सच पूछिये तो आनंद आयेगा। होली के पर्व पर इस तरह के आनंद को पाने की भी चेष्ठा होती है, तभी आप मेरे ब्लोग पर आये हैं। पूरा पढने का साहस करें, पसन्द आयेगा। तब तक मैं आपके और अन्य ब्लोग से होकर आता हूं।


-आनंद में डूबना, उसमे सराबोर होना, उसमें समाहित होना मनुष्य की प्रकृति है। आनन्द के लिये ही मानवजीवन के समस्त कर्म है। वो इसका प्यासा है। प्रकृति आनंद से परिपूर्ण है। वह मनमोहक है, उसमे रूप, रंग, गुण, गन्ध, स्वर, रस है। यानी समग्र प्रकृति में सौन्दर्य रचा बसा है। वह नियम से बन्धी है। उसका कर्म लय से जुडा है। राग स्वतंत्र है। और जितनी भी दैवीय शक्तियां हैं वे सारी इसी नियम के अंतर्गत भ्रमण करती है। प्रकृति का संविधान ऋत कहा जाता है। ऋग्वेदिक ऋषियों द्वारा निर्मित प्रकृति इसी संविधान का अनुगमन करती है। ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमंत, पतझड, बसंत इसी ऋत के ऋतुरूप होते हैं। इसमे बसंत प्रकृति का यौवनकाल है, तरुणाई उमंग का उत्थान है। प्रकृति अपना सबकुछ बसंत पर न्योछावर कर देती है। मानो नववधु पहली बार अपने प्रियतम से मिलन को ललचा रही हो। वो उसे पाकर नवजीवन सा अहसास पाती है। खिल उठती है। खिलखिला उठती है। अल्हडपन, मस्ती, दीवानगी यानी यौवन का चरम होली है। बसंत ऋतु का उल्लासशिखर होली है। जम्बुद्विप भरतखंड का उत्साह, उल्लास, और उमंग़ होली है। मस्तक पर चन्दन का टीका हो, गाल गुलाल से लाल हों, नृत्य में झूमते, गाते लोग हों, टोलियां हों, हंसी-ठिठोली हो..यही होली है। जीवन का उत्साह ही होली है।
हिन्दू धर्म व्यापक है। सनातन है। यहां जीवन को पूजा जाता है। जीवन का पर्व मनाया जाता है। यहां राम आगमन की दीवाली होती है तो कृष्ण की बांसुरी से निकले स्वर हृदयों में प्रेम घोल देते हैं, रास रचता है, रंग बिखरते हैं। जन-मन सब एक हो जाते हैं। द्वेत भाव नहीं दिखता, अद्वेत हो जाता है प्रकृति का कण-कण। यही होली है। ढेर सारे रंगों का मिलना और एक होकर उल्लास का नृत्य ही होली है। राधा-कान्हा का रास, अमीर-गरीब की गलबहियां। धरती-आकाश की प्रीति, वाकदेवी के सातों सुर झृंकत हो उठते हैं और शिव भी सुधबुध खो कर इस मस्ती में डूब जाते हैं। वात्सायन के कामसूत्र (1.4.42) में बसंत का यही उल्लास क्रीडा पर्व है। भारतवर्ष का महानतम प्रेमपर्व। मानों आकाश के तमाम देवी-देवता धरती पर उतरकर रंगों से खेल रहे हों। बैरभाव कहीं लुप्त होकर दैत्यों का मन भी ललचा रहे हों इस पावन पर्व पर थिरकने को। यही होली है।
होली को कुछ विद्वानों ने मिस्त्र या यूनान से आयातित बताया है। मिस्त्र में होली जैसा उत्सव था, यूनान में भी था। क्योकि ऐसे देशों से भारत के व्यापारिक सम्बन्ध रहे थे। सत्यकेतु विद्यालंकार के "वैदिक युग" (पृष्ठ- 232) में लिखा है कि वर्तमान ईराक़ और तुर्की राज्य के कुछ क्षेत्रों से प्राप्त भग्नावशेष व पुरातन सभ्यताओं से हमें पता चलता है कि उनके भारत से व्यापारिक सम्बन्ध थे। ऋगवेद (1.25.4) में पक्षियों के उडने वाले आकाश मार्ग और समुद्री नौका मार्ग के उल्लेख हैं। जेमिनी ने होलिका पर्व का उल्लेख (400-200 ईसापूर्व) किया और लिखा कि होलिका सभी आर्यों का उत्सव है। आचार्य हेमाद्री ने (1260-70 ई.) पुराण के उदाहरण से होली की प्रधानता बतलाई है। हज़ारों वर्ष पुरानी होली की परम्परा इसी भरत की भूमि से उपजी। मिस्त्र-यूनान ने नक़ल की। भारतीय दर्शन, साहित्य, संस्कृति कला, गीत, संगीत तथा उत्सवों, पर्वों से सराबोर है। यहीं आनंद की ऊर्जा उफान मारती है। उसका मद रस झलकाता है। प्राणीमात्र में बहकर वो प्रकृति के उच्चतम उत्साह को पाता है और होली स्दृश्य बन जन जन में व्याप्त हो जाती है।
संवेदनशीलता प्रकृतिप्रदत्त है। चार्ल्स डारविन ने ' द ओरिजिनल आफ द स्पेसिस एंड द रिसेन्मेंट' में बताया है कि ' प्राणियों को भावोत्तेजना में आनंद आता है।' आनंद का केन्द्रबिन्दु मानव के भीतर है। इसके उपाय, साधन प्रकृति में हैं। धरती सगन्धा है, पवन गन्ध प्रसारित करती है। मनुष्य में मदन गन्ध है, पुष्पों में सुगन्ध है। सूर्य ऊर्जावान है, ऊषा में सौन्दर्य झलकता है। चंद्रमा शीतल है, सुन्दर है। पूर्णीमा धवल चान्दनी बिखेरती है। प्रकृति के सारे जीव सवेंदित होते हैं। यही होली है। होली में नृत्य है। मगन होने का बोध है। महाप्राण निराला तो मानों अपने शब्दों में प्रक़ृति के इस आनंद के साथ खेलते हैं कि- 'वर्ण गन्ध धर, मधुरन्द भर, तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर, खुली रूप-कलियों में पर भर, स्तर-स्तर सपुरिकरा, रंग गई पग-पग धन्य धरा।" निराला ही क्या तुलसी, कालीदास ने भी इस यौवनमयी प्रकृति को अंगीकार करते हुए शब्दचित्र खींचे हैं। तुलसी कहते हैं-" सीतल जागे मनोभव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही, सुगन्ध सुगन्द मारुत मदन अनल सखा सही। विकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकदा, कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपसरा।" कालीदास का कुमारसम्भव तो बसंत के रस-रंग में नहाया हुआ है-" पवन स्वभाव से ही आग भडकाऊ है, बसंत कामदेव के साथ आया है। उसने नई कोपलों के पंख लगाकर आम्र मंजरियों के वाण तैयार किये हैं। आम्र मंजिर खाने से ही नर कोकिल का सुर मीठा हुआ। उसकी कूक पर रूठी नारियां भी रूठना भूल जाती हैं।" यही होली है। रूठना, गिले-शिकवा, बैरभाव जहां प्रेम के रंगों में समाहित हो जायें और एक रंग बन जायें, होली मन जाती है। सांस्कृतिक राष्ट्रभाव की उल्लासधर्मिता या उसकी अभिव्यक्ति ही होली है। और जब इस पर बाज़ारवाद चढ जाता है तो यह पूरी की पूरी स्वच्छंदता पर, संस्कृति पर आक्रमण है। संस्कृति कभी उत्सवों की प्रेरक नहीं रही, किंतु ये बाज़ार अपने उत्सव गढता है। कभी फादर्स डे होता है तो कभी मदर्स। कभी वैलेनटाइन बिकता है तो कभी होली डे। मीडिया से लेकर पूरा बाज़ारतंत्र त्योहारों को बेचने लगता है। दुकानें खुल जाती हैं। उमंग की दुकाने, उत्साह की दुकानें। रंगों की दुकानें। प्रेम की दुकानें। और खरीददारों की भीड उमडती है। माल खरीदा जाता है। उपभोग किया जाता है। और जब उपभोग के बाद माल खत्म तो उत्साह खत्म, उमंग खत्म, प्रेम के गीत खत्म। नाच खत्म। थक हार कर बैठ जाना होता है। गाल पर लगे गुलाल पौछ दिये जाते हैं, रंग नहा धो कर निकाल दिये जाते हैं। फिर से तैयार होकर मनुष्य अपने बाज़ारीकरण में मशगूल हो जाता है। या मज़बूर हो जाता है। अब जब दुकानें सजेंगी तब खरीरदारी होगी। यह होली नहीं। होलिका है जो हमारे देश के पावन पर्वों को बाज़ार की आग में झौंकती है। प्रह्लाद बनिये और इससे बचिये। होली मनाइये। इसकी अल्हडता, प्रकृति की चरम बसंतोंपूर्ण मादकता का रसभोग लेने और इसके प्रेम, दुलारमयी भांग के नशे में 12 मास रहने के लिये बस प्यार करें। भारत की महान संस्कृति, सभ्यता का रसपान करें। होली खेलें। प्रेम, भक्ति, गीत, नृत्य, सेवा, समर्पण को पूजा मान गलमिलौवल करें।
ऐसी ही सार्थक, जीवंत होली दिवस पर मेरी आत्मीय शुभकामनाये आप सब स्वीकार करें।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

आंखों में कल का सपना है


ओफिस से रात में लौटना होता है, अमूमन आधी रात चढ जाया करती है। जब गांव वाले अपनी नींद को बिदाई देने के लिये अंतिम खर्राटे लिया करते हैं तब मैं अपने घर पहुंच कर या तो दरवाजा खटखटाता हूं या फिर बेल बजाता हूं। अज़ीब सी जिन्दगी है महानगरों की। खैर..लौटा ही था कि अपने पोस्ट बाक्स में कोई किताब आई हुई दिखी, झट से बाक्स ओपेन किया। सीढियां चढते चढते ही उसका कवर खोला और दरवाजे की बेल बजाने से पहले आंखों के सामने थी 'आंखों में कल का सपना है' गज़ल संग्रह। डा.अमर ज्योति 'नदीम' का गज़ल संग्रह। दरअसल यह आर्कुट का कमाल है जब डाक्टर साहब से परिचय हुआ। और उनके ब्लोग तक जा पहुंचा। उनके बारे में लिखा हुआ पढा और थोडा बहुत उन्हे जाना। फिर जी मेल से चेट पर उन्हें पक़डा और उनसे शुरू हुई बातचीत। गम्भीर और सधे हुए उनके शब्दों ने प्रभावित किया। आदमी की उम्र और उसके अनुभव परिपक्वता प्रदान करते हैं,और ज्ञान बन कर बरसते हैं। मुझे तो इसी बरसात में नहाना अच्छा लगता है सो डाक्टर साहब जब भी नेट पर दिखते हैं मैं उन्हें पकड लेता हूं। वे भी मुझसे बात करते हैं बिल्कुल ऐसे जैसे मुझे बरसों से जानते हों। यह उनका बडप्पन है। हालांकि आजकल ऐसे लोग कम ही मिल पाते हैं। मेरा तगडा अनुभव है कि ज्यादातर लोग अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिये छोटा होना नहीं चाहते। पद का, प्रतिष्ठा का, पैसों का या फिर ज्ञान का ऐसा मद उनमें भरा होता है कि वे झुकना नहीं चाहते। झुकने को अक्सर छोटापन मान लिया जाता है जबकि कहा जाता है कि ज्ञानी हमेशा सरल और लचीला होता है। किंतु आज नमस्कार भी ऐसे किया जाने लगा हैं मानों एहसान जता रहे हों। खैर..मैने कहीं पढा था कि छोटा होना या झुकना जब आदमी भूल जाता है उसका पतन वहीं से शुरू हो जाता है। ख्यातिनाम ला त्सू का एक कथन भी प्रसंगवश कहता हूं कि "झुकना समूचे को सुरक्षित रखना होता है।" अपन तो छोटे हैं इसलिये पतन का प्रश्न ही नहीं है। न नाक कटने का डर, न अहम भंग होने का भय। और किस्मत भी अच्छी कि डाक़्टर साहब जैसे लोग भी मुझे मिल जाते हैं। जिनमें किसी तरह की दुनियाई स्वर्ण परत नहीं चढी होती,और आदमी होने का 24 कैरेट खरापन भी होता है। दरअसल मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं यह भी बताता चलूं, डाक्टर साहब की जिन गज़लों को मैने पढा उनमे बहुत सारी गज़ले मेरे मनोभावों को छूती हुई गईं। यानी आज के दौर में सामाजिक स्तर पर पतन हो या व्यवहारिक स्तर पर टूटन या नौकरी पेशे में चल रही अव्यवस्थायें हों, आदमीयत कैसे खत्म होती जा रही है उसे बखूबी से उन्होंने शब्दों में उतार कर लक्ष्य पर सीधे चोट की है। जैसे-
" चूक हो जाये न शिष्टाचार में, दुम दबा कर जाइये दरबार में।
कुर्सियों के कद गगनचुम्बी हुए, आदमी बौना हुआ आकार में...।"
हां उनसे उनके गज़ल संग्रह के बारे में एक बार पूछा था, सो उन्होने डाकविभाग का सदुपयोग करते हुए मुझे अपनी हस्ताक्षरयुक्त किताब प्रेषित कर दी। मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और आप सब के लिये किताब का निचोड प्रस्तुत करने की कोशिश कर बैठा। हालांकि मैं जानता हूं यह कोशिश किताब की पूरी तरह निचोड नहीं है उसके लिये तो वह पढनी ही होगी फिर भी जो कर पाया, जितना कर सका, आपके लिये नज़र है।
मैने उनकी कृति पढनी शुरू की तो हिन्दी और ऊर्दू सम्मिश्रण युक्त उनके शब्द खिलखिलाते हुए मेरी आंखों के सामने थे जो उनके जीवन का बहुत सारा भाग उढेल रहे थे। जिसमे जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, दुष्यंत कुमार ,प्रेमचन्द और मैक्सिकम गार्की से ली गई प्रेरणा स्पष्ट झलक रही थी। उनकी ज्यादतर गज़लें समाज़ और दुनिया की अव्यवस्थाओं के खिलाफ आक्रोश से भरी हुई महसूस होती है। और सचमुच उनकी आंखों में कल का सपना है जो उम्मीद व्यक्त करता है कि बदलाव सुखद हो।
प्रसादजी का छ्न्दबोध गज़लों में समाहित करना कठिन होता है किंतु
"जो कुछ भी करना है, कर ले
इसी जनम में, जी ले, मर ले।"

डाक्टर साहब का यह शे'र प्रसाद्जी के श्रद्धा और मनु के बीच से निकलती जीवन धारा माना जा सकता है। किंतु इसी के आगे उन्होने प्रेमचन्द का यथार्थबोध भी करवाया कि-
" अवतारों की राह देख मत
छीन-झपट कर झोली भर ले।"

गार्की का मर्म और समाज़ की पीडा इस किताब में ज्यादा है जो व्यवस्था के साथ भिडती हुई प्रतीत होती है। तो दुष्यंतजी शे'रों के साथ चलते नज़र आते हैं। यह अद्भुत है कि गोर्की और दुष्यंतजी को पढने वाले उनका अक़्स अमर ज्योति साहब के शब्दों के नेपथ्य में ढूंढ सकते हैं।
"कह गया था, मगर नहीं आया
वो कभी लौट कर नहीं आया।"

तो
" नहीं कोई भी तेरे आसपास, क्यों आखिर?
सडक पर तन्हा खडा है उदास, क्यों आखिर?"

आप देखिये डाक्टर साहब का आक्रोश, वेदना और राजनीतिक,सामाजिक तंत्र के प्रति धधकते सवाल कि-
"राम के मन्दिर से सारे पाप कट जायेंगे क्या?
बन गया मन्दिर तो चकले बन्द हो जायेंगे क्या?
कितने लव-कुश धो रहे हैं आज भी प्लेट-ओ- गिलास
दूध थोडा, कुछ खिलौने उनको मिल पायेंगे क्या?
चिमटा,छापा,तिलक,तिर्शुल,गांजे की चिलम
रहनुमा-ए-मुल्क अब इस भेस में आयेंगे क्या?
अस्पतालों, और सडकों, और नहरों के लिये
बोलिये तो कारसेवा आप करवायेंगे क्या?"

अध्यापन और इसके बाद बैंक की नौकरी विचित्र लग सकती है किंतु पठन पाठन, दर्शन और फिर गणित का गुणा-भाग वाला व्यक्ति जीवन के हर स्तर को अनुभव करने में ज्यादा समर्थ हो जाता है जिसका निष्कर्ष, परिणाम यही निकलता है कि-
"खूब मचलने की कोशिश कर
और उबलने की कोशिश कर
व्याख्यायें मत कर दुनिया की
इसे बदलने की कोशिश कर।"

सचमुच डा.अमर ज्योति 'नदीम' की आंखें (कृति) कल का सपना देखती हैं और अपने अनुभवों से आने वाले पीढी की दिशा तय करती हैं। कुल 86 गज़लों से बनाया गया है यह गुलदस्ता जिसके प्रत्येक फूल ताज़े, महकते हुए हैं। या यूं कहें अमर हैं, ज्योति की तरह रोशनी बिखेरते से हैं। अब आप सोचिये कैसे मूरख हैं वे प्रकाशक जो सिर्फ बाज़ारवाद को देखते हुए बेहतरीन कृतियों को नज़रअन्दाज़ करते हैं, जिन्हे जन-जन में जाने से रोकते हैं। और ये आजकल की नई पीढी के फेशनेबल, आधुनिक मानेजाने वाले हाडमांस के अर्धजीवित पुतले हिन्दी साहित्य से क्यों दूर हैं? शुक्रिया अयन प्रकाशन का जिसने इस कृति को आकार दिया। और शुक्रिया डाक्टर साहब का भी जिन्होनें मुझे अपनी कृति से परिचय कराया।