शनिवार, 27 जून 2009

डांस 'ब्रेक'

किसी भी कलाकार का चले जाना कला क्षेत्र की क्षति है. कलाकार का न तो कोई देश होता है, न धर्म और न ही वो किसी जाति विशेष मे बन्धा होता है. वो होता है तो सिर्फ एक कलाकार होता है, लोग उसे सिर्फ कला के नाम से जानते हैं. इसलिये पिछ्ले दिनो जब मायकल जैक्सन का निधन हुआ तो एक अभूतपूर्व कला का भी अंत हो गया. अब उसकी कला बिखरी रहेगी किंतु वो नही होगा. यही कलाकार की पूंजी होती है कि उसके बाद भी उसका नाम अमर रहे. मै पक्का भरतीय हूं और इसीलिये कला प्रेमी भी हूं. मुझे मायकल का गुजर जाना व्यथित कर गया, क्योकि वो मेरे कालेज जमाने का हीरो रहा था. मुझे उसके हाल के विवाद और उसकी जीवनशैली से कोई मतलब नही, मुझे तो मतलब है उसकी कला से. मायकल जैक्सन का मेरे लिये मतलब है 'ब्रेक डांस',और गीत- संगीत का बेताज बादशाह.
बात बहुत पुरानी है, जब मै कालेज का छात्र हुआ करता था. उन दिनो हमारा शहर आधुनिकता मे बहुत पीछे था, पास ही इन्दोर जैसा बडा शहर जरूर था किंतु हमारे शहर मे उसकी हवा बहुत बाद मे पहुचती थी. मुझे फैशन भाती थी, कुछ नया करने व करते रहने की धुन बलवती रही. मै जानता हू उन दिनो घर की माली हालत. ऐसे मे मैरे शौक पूरे होना सम्भव नही थे, मुझसे बडे भाईसाहब की नौकरी जब मुम्बई मे लगी तो उनके माध्यम से मेरे पहनावे इत्यादि के शौक भी पूरे होने लगे.यानी मुम्बइया होने लगे. घर मे यदि फैशन आई तो सिर्फ मेरी ही वजह से, और ये भी यकीन के साथ कह सकता हूं कि शहर मे भी मै ही नई फैशन लाया था. दरअसल सिर्फ पहनावे से ही नही बल्कि मुझे हमेशा से ही आकर्षक दिखने की ललक रही थी, और इसके लिये मै खुद ही कुछ न कुछ ऐसा किया करता था कि वो सबसे अलग हो. उन दिनो फेशन का एक्मात्र स्त्रोत सिनेमा हुआ करता था, जबकी सिनेमा ने मुझे कभी अपनी ओर लुभाया नही. आज भी फिल्म से बहुत दूर हूं, हीरो-हीरोइने मुझे आकर्षित नही करते, फिर भी पता नही क्यों मेरे अन्दर अच्छा दिखने की ललक रही थी. खैर.. 'हिप्पी पना' न पिताजी को अच्छा लगता था न मां को. पर इतना जरूर कहूंगा कि मुझे कभी किसी ने रोका नही, शायद मै बहुत लाड का रहा. मेरे शहर मे उन इक्के दुक्के लोगो मे मै भी शरीक था जिन्हे बेहतरीन फेशनेबल कहा जाता था. दोनो भाई मेरे लिये मै जैसी मांग करता, वैसे परिधान लेकर आते,, 'ज़िंस' का शौकीन था, आज भी हूं, आज हालत ये है कि 'ज़िंस' पैंट के अलावा मुझे दूसरा कोई कपडा अच्छा नही लगता. किंतु तब 'ज़िंस' पैंट पहनना या खरीदना कठिन था. बावजूद इसके एक दिन जब पिताजी ने किसी व्यक्ति के माध्यम से 'जिंस' का कपडा बुलवाया तो मुझे हैरत हुई थी. मैरे लिये पिताजी की और से 'जिंस'?? वो पहला 'जिंस' का पैंट था, जिसे अपने मित्र बने टेलर से सिलवाया था, टेलर भी मुझसे खुश रहता क्योकि मै उससे अपने अन्दाज़ मे कपडे सिलवाता फिर वो उसी अन्दाज़ के ओरों को सिल के देता. बहरहाल वो जिंस का पैंट मेरे लिये बहुत कीमती था. कालेज मे मेरा जिंस पहनना भी एक अलग ही शान थी. शौको मे फेशन ही नही गीत-संगीत भी था. खेलकूद तो मुझे मानो विरासत से मिला ही था. मैं सोचता हूं यदि शहर पिछ्डा हुआ नही होता तो उन्नति के नाम पर बहुत कुछ पा जाता. विशेषतौर पर मेरे बडे भाई, जो टेनिस और टेबल-टेनिस के उन दिनो राज्य के बेहतरीन खिलाडी हुआ करते थे. खैर... बांसूरी बजाना, सिंथेसाईज़र बजाना मेरे शौक थे और ये शौक पूरा करते थे मेरे मुम्बई वाले भाई साहब. तब एक दिन मुझे ज्ञात हुआ कि कोई मायकल जैक्सन नामक प्राणी भी है जो गाता और नाचता जबरदस्त है. बस फिर क्या था, मुम्बई वाले भाईसाहब से पूछा, और उन्होने मुझे जैक्सन की कुछ किताबे व कैसेट भिजवा दी. तब मेने जाना जैक्सन को. फिर क्या था, मेरे शहर मे जैक्सन और उसका ब्रेक डांस अपने दोस्तो के माध्यम से फैलने लगा. मै उसकी दो कैसेट 'बेड' और 'थ्रीलर' बजाता, डांस करता. यकीन मानिये कुछ स्टेप तो मै बहुत ही जानदार करने लगा था. पर ये सब अपने घर मे पता नही चलने दिया था, क्योकि डर था कि डांट पडेगी. हमारे शहर मे विशेष दिन जैसे गणेश उत्सव, नवरात्रि आदि पर खूब कर्यक्रम होते थे, कालेज के गेदरिंग तो थे ही, जिनमे मेरा हिस्सा लेना जरूरी होता था. इधर ब्रेक डांस जैसी नई विधा से शहर अभी परिचित नही हुआ था. एमपीईबी मे ऐसे ही एक उत्सव मे सांस्क्रतिक कार्यक्रम था, मुझे याद है मै उस दिन बीमार था, घर पर आराम कर रहा था, एक दोस्त ने मुझे बताया कि अमिताभ् तुम्हे वहां डांस करना है और वो भी तुम्हरा नया डांस.. मै मना नही कर पाया. शाम हुई, रात आठ बजे से कार्यक्रम शुरू होना था. इधर मुझे किसी भी तरह जाना था, मगर बुखार ने रोक रखा था. फिर भी ठीक होने, अच्छा लगने का झूठ बोल कर थोडा बाहर घूम आने की इच्छा मां से व्यक्त की. जवाब मे 'ना' ही था. दीदी को पटाया.और किसी तरह एक झोले मे जिंस पैंट, टी शर्ट, कमीज़ डाल कर भाग निकला सीधे एमपीईबी. ऐलान हुआ. मै जल्दी तैयार होकर स्टेज़ पर जा पहुंचा. कैसेट थ्रीलर की थी, जिसका कोई गाना जिसमे म्यूजिक ज्यादा था, बजना शुरू और मैरा थिरकना भी. तालियो की आवाज़ से मेरा बुखार हवा हो चुका था. जब डांस खत्म हुआ तो ' एक बार और, एक बार और की आवाज़े कानो मे पड रही थी..किंतु मुझे तो जल्दी घर भागना था अन्यथा डांट मिलती. मै घर पहुच गया था. सोचा मम्मी-पापा को पता नही चला है. वाकई पता नही था. वो तो दूसरे दिन पापा को शहर मे फैली मेरे डांस की चर्चा से ज्ञात हुआ. इधर मेरे दोस्त ने बताया था कि तूने बहुत अच्छा डांस कर दिया भाई..पर मुझे भय था कि पापा को पता चल गया होगा और अब डांट के लिये तैयार हो जाऊं. पर जब पिताजी घर आये तो कुछ नही बोले..मुझे लगा उन्हे पता नही चला है. मायकल जैक्सन की बुक उठा कर उन्होने मुझसे इतना ही कहा कि पढाई भी जरूरी होती है.
कहने का मेरा तात्पर्य यह है कि मायकल जैक्सन का बुखार तब से मुझ पर था, किंतु बाद के दिनो मे समय बदला, नौकरी की आपाधापी और भागादौडी ने मैरे तमाम शौको पर स्वतः ही ज़ंज़ीरे जकडना शुरू कर दी, और समय की रेत मे मेरा वो अलमस्त जीवन भी दबता रहा. मुम्बई आ गया, परिवेष बदला, भाषा बदली..रहन-सहन बदला. सोचने- समझने की शक़्ल बदली. गम्भीरता ने उस काल के उत्साह को हरा दिया. मै अपने कार्यो मे व्यस्त हो गया. पत्रकारिता के संघर्ष मे खुद को झोंक दिया. क्योकि यही जरूरी था. गाना-बजाना-नाचना सब बंद. एक अलग 'अमिताभ' बन गया.
मुझे पता चला कि शिवसेना मायकल जैक्सन को मुम्बई आमंत्रित कर रही है। बस उसे देखने-मिलने की इच्छा और उसके होने की याद 6 सालो बाद फिर कुलाचे मारने लगी. 30 अक्टूबर 1996 का वो दिन था, जब मेरा हीरो मुम्बई मे मुझे साक्शात दिखने वाला था. वो आया. मैने देखा, मिला. और मह्सूस किया कि आज भी अपने शहरवासियो से पहले उसे मेने देखा, जिसके नाम से मै चर्चित हुआ था कभी. दुनिया को जिसने अपने गीत संगीत से झूमने पर मज़बूर कर दिया हो ऐसा व्यक्ति साधारण तो हो नही सकता॥सचमुच जैक्सन साधारण नही था. उसका महज़ 50 वर्ष की आयु मे चला जाना मुझे अटपटा सा लग रहा है. मै जानता हूं मेरी तरह इस देश मे भी कितने होंगे जिन्हे जैक्सन भाता होगा..../ ऐसे जादूगर को कौन भूला सकता है.

शुक्रवार, 19 जून 2009

असल साहित्य क्या है ?

इसमे कोई दो राय नही कि 'कहानी' साहित्य की खूबसूरत विधा है. किंतु 'कहानी' ही साहित्य है, यह हज़म हो जाने जैसा तो नही लगता. पिछले दिनो जब हम मित्र मंड्ली मे यह चर्चा चल रही थी और साहित्य के तथाकथित 'कार' राजेन्द्र यादव के सन्दर्भ मे बात करके अपना समय जाया कर रहे थे तो इस बीच मेरा गौतम राजरिशी जी के ब्लोग पर जाना हुआ, वहा भी मेने यही पाया कि राजेन्द्र जी मौज़ूद है/ लिहाज़ा मेरा मासूम मन साहित्य मे गद्य के प्रति विचारो की अग्नि मे तपने लगा/ 'जितना तपता सोना उतना निखरता है' वाला कथन सच ही है/
गौतमजी के ब्लोग पर राजेन्द्र यादव के प्रति स्वस्थ आलोचना मन को भायी, स्वस्थ आलोचना साहित्य को तराशने का काम करती है/ हालांकि राजेन्द्रजी जैसे जीव का पाचन तंत्र कितना बलिष्ठ है इसका पता नही किंतु साहित्य के 'आका' कहलाने का उनका मोह 'हंस' मे दीखता है/ उनका साहित्य और साहित्य के लिये उठा पट्क वाला जो आभा मन्डल है वो उन लोगो की आंखे भले ही चौन्धीयाता रहे जिन्हे उनसे स्वार्थ हो, मेरी आंखो मे वे और उनका सहित्य कभी आकर्षण का पात्र नही बन सका। अपना अपना द्रष्टिकोण ठहरा. सौभाग्यवश मेरी उनसे कभी मुलाकात नही हुई, दुर्भाग्यावश मेने उनकी कुछ रचनाओ को पढा है। खैर जहा तक बात कहानी को ही साहित्य मानने की है तो मै इसे ठीक नही मानता। साहित्य की उपज राग से है, राग पध्य रूप मे ज्यादा स्पष्ट होता है। लिहाज़ा साहित्य का जन्म ही मै पध्य से हुआ मानता हू/ आप यदि गम्भीरता से विचार करे या साहित्य की मूल गहराई मे उतरे तो पहले काव्य के रूपो को जानने व समझने के लिये थोडा पाश्चात्य व भारतीय परम्परा को खंगाल लेना आवश्यक है। काव्य के भेदो मे यूरोपीय समीक्षको ने व्यक्ति और संसार को प्रथक करके काव्य के दो भेद किये है, एक विषयीगत दूसरा विषयागत. विषयीगत यानी सब्जेक्टिव, जिसमे कवि को प्रधानता मिलती है और दूसरा विषयागत यानी आब्जेक्टिव जिसमे कवि के अतिरिक्त शेष स्रष्टि को मुख्यता दी जाती है. यानी पहला प्रकार काव्य 'लिरिक' हुआ। यूनानी बाज़ा 'लाइर' से सम्बन्ध होने के कारण इसका शाब्दिक अर्थ तो वैणिक होता है किंतु इसे प्रायः प्रगति या भाव- प्रधान काव्य कहते है। इसमे गीत तत्व की प्रधानता रह्ती है. दूसरे प्रकार के काव्य को अनुक्रत या प्रक्थनात्मक कहा गया है। महाकाव्य और खंड काव्य इसके उपविभाग है. किंतु पाश्चात्य देशो मे प्रायः महाकाव्य ही इस प्रकार के काव्य का प्रतिनिधित्व करता है. वहा खंड काव्य जैसा कोई विशेष उपविभाग नही है. ये विभाग पध्य के ही है। अब यदि गध्य की बात करे तो इसके विभाजन मे गध्य काव्य की महिमा है. जहा भाव-प्रधान काव्य मिलेगा. और उपन्यास महाकाव्य का तथा कहानी खंड्काव्य का प्रतिनिधित्व करेगा/ गद्य मे निबन्ध, जीवनी आदि अनेक ऐसे रूप है जिनको इस विभाजन मे अच्छी तरह बान्ध नही सकते. पर गध्य काव्य के शेत्र से बाहर नही है। गद्य का उलट ही पद्य है. जिसको आप अंगरेज़ी मे (Verse) कहते है।
आप जानते है कि भारतीय परम्परा मे नाटक को प्रधानता मिली है। जो काव्य अभिनीत होकर देखा जाये तो द्रष्य काव्य है और जो कानो से सुना जाये तो श्रव्य काव्य कहलाता है। यध्यपि श्रव्य काव्य पढे भी जाते है। रामायण का उदाहरण लिया जा सकता है जिसे पढने व गाने के लिये उपयुक्त माना जाता है।
उपन्यास महाकाव्य का स्थानापन्न होकर और कहानी खन्डकाव्य के रूप मे गद्य के प्रबन्ध काव्य कहे जाते है। गद्य काव्य तो मुक्तक है ही, पत्र भी मुक्तक की कोटि मे आयेंगे. उनकी निबन्ध और जीवनी के बीच की सी स्थिति है। समस्त संग्रह की द्रष्टि से एक एक निबन्ध मुक्तक कहा जा सकता है। किंतु निबन्ध के भीतर एक बन्ध रहता है. ( हालांकि उनमे निजीपन व स्वछन्दता भी होती है) वैयक्तिक तत्व की द्रष्टि से गद्य के विभागो को इस प्रकार श्रेणी बद्ध कर सकते है, उपन्यास, कहानी ( काव्य के इस रूप मे उपन्यास की अपेक्षा काव्य तत्व और निजी द्रष्टिकोण अधिक रहता है.) जीवनी यह इतिहास और उपन्यास के बीच की चीज है। इसका नायक वास्तविक होने के कारण अधिक व्यक्तिपूर्ण होता है) निबन्ध (इसमे विषय की अपेक्षा भावना का आधिक्य रहता है) गद्य काव्य तो ये सभी रूप है। किंतु गद्य काव्य के नाम की विधा विशेष रूप से गद्य काव्य है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो यह समझते है कि साहित्य कहानी या गद्य को ही कहा जाता है वे मेरी समझ मे ना समझ है। गद्य का जन्म ही कविता से हुआ है। मुझे अच्छा यह लगा कि गौतमजी न सिर्फ गज़ल या संस्मरण के महारथी है बल्कि वे वैचारिक स्तर पर साहित्य की परख करने से भी नही हिचकिचाते है। सम्भव है इसीलिये मुझे उनका ब्लोग रुचिकर लगता है।
बहुत दिन हुये मेने कोई रचना उकेरी नही.तो कोशिश करता हूं-
" मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।

निजत्व जो है
नीरा पवित्र है,
किंतु, ठीक है
गंगा की तरह
मैला कर
दिया जाता हूं,
तो कर दिया जाता हूं।

अब वो माने
या ना माने
समर्पण करे
या ना करे
मुझे प्राथमिकता दे
या ना दे
मै तो उन्हे सिर्फ
प्रेम किये जाता हूं।

अपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।

क्योकि
मासूम हूं।
हर बार
छलने के
लिये ही हूं।
"