कभी-कभी
आदमी जो कहता है
उसके अर्थ को अपने आस-पास के
परिवेश के कारण
बदल कर गाह्य कर लिए जाते है
और इस तरह शब्दों के
ईमान की हत्या हो जाती है।
शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है,
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है,
रिश्ते-नाते टूट कर बिखरने लगते है,
होता कुछ नही है
बस आदमी आदमी
नही रहता
उसका पवित्र नाता
किसी ग़लत फहमी के जाल में
उलझ कर तड़पता है।
बार-बार यदि वो अपनी
सफाई भी पेश करे
तो भी मन के अन्दर पेठी
विरूध्द भावना उसके रास्ते की
रुकावट बनती है,
और यह मान्य कर लिया जाता है
की जिस पर भरोसा किया
उसने, उसकी भावनाओ ने
सिर्फ़ लूटा या लूटना चाहा।
कैसी मानवता है ये ?
कैसी विचारशक्ति है ?
शायद इसी वजह से इस समाज में
प्रेम नही टिकता , नाते टूटते है,
रिश्ते बिखरते है,
और सात्विक हृदय की
पूछ नही होती,
उसे समझा नही जाता
और बहुत जल्द उसके ख़िलाफ़
एक घिनौनी मानसिकता
तैयार कर ली जाती है।
जबकि होना यह चाहिए की
किसी के प्रति कोई धारणा
बनाने से पूर्व
उसके सच को खंगालना
परम जरूरी है।
हम सबको एक द्रष्टिकोण से
नही देख सकते।
और यदि देखते है तो
हो सकता है
किसी बिरले को
खो दे।
ख़ास दिन …
5 दिन पहले