सोमवार, 24 सितंबर 2012

द्वैत है और अद्वैत भी

चारो और है 
कणिका जगत /

ऊर्जा के अबेध कण /

कई कई ..,

मगर 

सब आपस में 
लथ-पथ/

आश्चर्य ...

कि
द्वैत है और अद्वैत भी /








(जैसे - 'मै' -'तुम' द्वैत 
मगर 'हम' अद्वैत ) 

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

सिगरेट अच्छी होती है


अगर इश्वर है तो चमत्कार भी होगा। बगैर चमत्कार के कौन इश्वर की सत्ता पर विश्वास करता है। इतने इतने सारे लोग यदि घुटने टेकते हैं तो चमत्कार की वजह से ही न! और इतने-इतने वे लोग भी घुटने टेकते हैं जिन्हें चमत्कार का कोई अनुभव मिला होगा। तो भैया दिखा दे चमत्कार।
 है न तू?
मैं भी घुटने टेकना चाहता हूं।
तुझे याद करना चाहता हूं।
सुना है तू ऐसे ही तो सबसे घुटने टिकवाता है, नहीं।
 देखूं..कहां है तू?
तेरा चमत्कार!
मुझे भी अधिकार है देखने और तुझे मानने का?
सिर्फ  प्रेम में या मूरती बन जाने वाली चेहरे की मुस्कान से क्या होता है?
होता तो दीवार पर लटके या किसी मंदिर में बैठे -खड़े, टूटते हुए दरवाजे या लड़ते हुए लोगों की भीड़ नहीं देखता। वैसे  तो तू हंसता रहता है..लुटता हुआ जीवन देखने के बाद भी।
वो हाथ जोड़े सैकड़ों की तादाद सिवा भीख मांगते हुए ही दिखी है मुझे आजतक। उन्हें नसीब तो कुछ नहीं हुआ। वैसे के वैसे ही हैं गलीच बस्तियों में, गलीच जीवन जीने को विवश।
खैर.. चल दिखा दे यार कोई चमत्कार..। है न तू? बोल...है की नहीं......
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सार्वजनिक स्थल से दूर किसी एकांत में खड़े होकर सिगरेट धौंक रहा है वो। धुएं के झल्लों में अपनी बुदबुदाहट के शब्दों को लपेट कर हवा में तैरा देता है, हवा में फैलते  हुए वो आसमान में कहीं जाकर लुप्त से हो जाते होंगे , उसे लगता है कि अब ये शब्द आसमान को आच्छादित कर देंगे और सारा आकाश मेरे शब्दों से गूंज उठेगा । दिग-दिगन्ता कांप उठेंगे । या फिर अपने चेहरे पर छा गए धुएं को हटाते हुए नाक बंद करते हुए कहेंगे?
कौन सिगरेट पी रहा है?
हा हा हा..
हंसते हुए अधजली सिगरेट नीचे फेंकता  है, अपने पैरों के जूते से मसलता है और सामने वाली गली के अंतिम छोर तक देख सकने का प्रयत्न करता है। वहीं से तो आना है उसे, मिलने का कहा था। और ये इंतजार..।
इंतजार पैरों में जंजीरे जकड़ देता है, जाना भी चाहता है कोई तो न जा सके, ऐसी। सिगरेट इंतजार की जंजीरों को जलाती हैं। हां, लाहे की जंजीरों को जलाने के लिए एक से तो काम नहीं चलने वाला न, इसलिए कई कई पी जाता है वो। वैधानिक चेतावनी के बावजूद। वो सोचता है..एक चेतावनी आदमी के शरीर पर भी खुदी हुई होना चाहिए- जन्मजात- ‘कितना जिएगा, एक दिन तो जाना ही है पट्ठे...।’
क्योंकि फिर भी जिएगा वो..देख देख कर जिएगा जैसे सिगरेट पीता है..।
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इसी सिगरेट से तो कभी वो मिली थी,
कहा था-क्यों पीते हो..अच्छे भले दिखते हो।
वो  हैरान था कि दिखने और सिगरेट पीने के बीच क्या तारतम्य। उसने बताया भी था कि इससे चेहरा मुरझा जाता है। वो  जोर से हंसा था, उसने  हंसने का कारण पूछा तो,
उसने  हंसते हंसते ही कहा- क्यों हंसने से चेहरे की रौनक नहीं बढ़ जाती?
दोस्ती हो गई थी। दोस्ती के पीछे सिगरेट थी। वो उधर जल रही थी, इधर दोस्ती आगे बढ़ रही थी। शायद सिगरेट के अंतिम छोर तक आते-आते दोस्ती भी अलविदा हो गई।उठा  ही लेना था फिर से सिगरेट को। क्योंकि यही थी जो उसे ताप देती थी। संताप से बचकर। कितनी रातें उसने धुएं में बिताई,
धुआं जिंदगी जैसा ही तो होता है।
घना, छल्लेदार,
उड़ता है हवा में, टिकता नहीं जमीन पर।
जमीन पर रेंगता हैं।
जिंदगी भी रेंगती है..। धुएं के माफिक।
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आफिस ब्वाय से लेकर बॉस तक ने सिगरेट पीने की मनाही कर रखी थी..। ये कोई पांचवा दफ्तर होगा जहां मना किया गया था। योग्यता जलती हुई सिगरेट की तरह होती है..राख बन जाती है तब जब आपको कोई लत हो। उसे लत नहीं थी..सिगरेट तो बस इसलिए थी कि इसके अलावा उसके पास था क्या! न साथी, न संगी..। एक दिन कलिग ने कहा था कि
यार शादी कर ले..। ये सिगरेट छूट जाएगी।
कुछ छोड़ने के लिए कुछ बहुत बड़ा पकड़ना होता है। दोनों में अंतर क्या है? शादी और सिगरेट। कलिग्स भी मन बहलाते हैं। उससे  सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए सिगरेट को बदनाम किया जाता है। खैर..कुछ नहीं छूटा, सिर्फ  नौकरी छोड़ दी।
प्रतिभा का अचार डाल भी दो तो उसे खानेवाला कौन है? सड़ ही जाना है। सड़ने से बचाना है तो प्रतिभा को स्टोर करके रख देना चाहिए।
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दर-दर भटका। क्योंकि नौकरी की जरुरत होती है। जेब में जब तक पैसा तब तक दुनिया आपकी। सिगरेट आपकी। उधार ज्यादा नहीं देता कोई। महंगी हो गई है। सरकार ने मुझ जैसे से सिगरेट छुड़वाने के लिए उसे महंगी कर दी..। या फिर इसका फायदा उठाकर  ज्यादा कमाई का जरिया बनाया? शायद बेरोजगारी बढ़ाकर बाजार बढ़ाया जा रहा हो? पता नहीं...जो हो..पर नौकरी आवश्यक हो जाती है।
वो जितनी भी थी, जितनी भी मिली थी सब नौकरी कर रही थी। अच्छी पढ़ी-लिखी हैं..स्मार्ट हैं..उन्हें तुरंत नौकरी मिल भी जाती है क्योंकि वे सिगरेट पीती भी हैं तो कायदे और तमीज के साथ। हा हा हा।
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उस धुएं में बात पते की थी। घर में कोई छह सात खाने वाले, बूढ़े मां-बाप और इकलौता वही था कमाई का साधन। पूरी योग्यता। कहीं से भी कोई कमी नहीं। मगर नौकरी नहीं। जिससे आज वो मिलने वाला था वो उसके साथ ही पढ़ा करती थी..आज उसके इंतजार में इसलिए खड़ा था कि किसी नौकरी के संदर्भ में उसे वो कही ले जाने वाली थी...। कहा तो उसने ऐसा ही था । वो अब तक नहीं आई थी क्योंकि..वो नौकरी कर रही थी..किसीका इंतजार उसके लिए मायने नहीं रखता था..। फिर ऐसे का जो सिगरेट के धुएं में अपनी जिंदगी को तबाह किए बैठा  है।
तबाह या आबाद!
जो हो ...
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यार भगवान..तेरा चमत्कार देखने का मूड है..चल बहला दे थोड़ा...। एक सिगरेट और मुंह में लगाकर उसने खाली डिब्बा सामने सड़क पर फेंक  दिया..जो लुढ़कते हुए किनारे जा लगा... । पर वो नहीं।..
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* कन्टीन्यू..क्योंकि ये कहानी खत्म नहीं होती..जलती जाती है..चैन स्मोकिंग  की तरह....

मंगलवार, 26 जून 2012

बिखरे बिखरे से कण -

-खाली होना , खाली होना नहीं होता/ भरा होना भी होता है/ लबालब/ ये आकाश है/ खालीपन से पटा हुआ.
-मेरी कलम मेरी ही हो, जरूरी नहीं/ जैसे मेरे शब्द/ लिखे/ तुमने पढ़े तुम्हारे हो गए/ तुमने पढ़े, फेंके आवारा हो गए/ जैसे मुझे तुमसे प्रेम है, जरूरी नहीं कि तुम्हे भी मुझसे हो..
-दो प्रेमियों का मिलन/ तीन चीजे है/ दो में प्रेम है तीसरे में मिलन/ एक को प्रेम है/ दूसरे को उससे प्रेम है/ यानी उसे भी प्रेम है/ फिर मिलन है/ मिलन प्रेम नहीं है/ प्रेम की वजह है/ और जब इस 'वजह' से हम प्रेम करने लगते है तो बिछोह भी 'वजह' बन कर टूट पड़ता है/ ये वजहों का झंझट है/ वरगना प्रेम ने कब किसे धोखा दिया है/ धोखा तो 'वजहे' देती है/
-आध्यात्म ? मेरे अन्दर उठी ज्वाला है/ पूरा शरीर/ दिमाग सहित / प्रकाशमयी है/ प्रकाश है/ उसकी परिधि क्या है, वो कहां तक पहुच रहा है/ प्रकाश नहीं जानता/ उसे तो बिखरना है/ मुझे/ तुम्हे/ जितना हो समेटना है/ संजोना है/ अगर हाथ जलने का डर न हो तो..

शनिवार, 23 जून 2012

कृष्ण का जादू

कृष्ण ने मुझे हमेशा से ही प्रभावित रखा है. वैसे भी कृष्ण सर्वाधिक लोकप्रिय, रहस्यमयी, पठनीय और ह्रदय समीप विषय है. जितना अध्ययन करो कम है. कई कई सारी जानकारिया   कृष्ण में दिलचस्पी  पैदा  करती  है. और लगता है कि बस पढ़ते जाओ. मै कृष्ण को  किसी धर्म विशेष की तुला पर नहीं बैठाता क्योंकि वो उससे परे का विषय है. कृष्ण हमारा पूरा एक जीवन है. इस जीवन की थाह पाना सचमुच कठिन है किन्तु गहरे जितना उतरो मोतियों का अपरम्पार खजाना हाथ लगते ही जाता है. बहुत पहले कृष्ण के एक विशेष विभाग पर शोधपरक कथा गढ़ने की ठानी थी.प्रारम्भ  भी किया था वह कार्य.किन्तु रोजमर्या की आपाधापी ने उस महती कार्य को रोक दिया.रुका तो रुका ही रहा. अब एकबार फिर उसे नए सिरे से गूंथने का विचार  है जो  यथाशीघ्र प्रारम्भ  कर दूंगा. ख़ैर..इसके पहले कुछ महत्वपूर्ण जानकारिया लिखने का मन है. इसके नेपथ्य   में दो    बाते   है, एक तो यह संग्रहित   हो जायेंगी   दूसरे   आपको  भी पढने  में आनंद  आयेगा . 
कई  सारी भ्रान्तिया है, कई सारे तर्क है, कई सारे आत्मविश्वास और अतिविश्वास है. कृष्ण का जन्म, कृष्ण का जीवनकाल आदि पर बहस-मुबाहस है. जो भी है वो सदा रहेगा किन्तु मै समझता हूँ अनुसंधान जिसे करना हो वो  करे..जिसे प्रलाप करना हो वो करे. हमारे लिए तो कृष्ण सामने खड़ा है, बांसूरी की धुन पर मुग्ध कर रहा है. इसलिए प्रमाणिकता हमें हमारी खोज पर संतुष्ट  करती है. बहरहाल, कृष्ण के विकास, स्वरूप को प्रकट करने से पहले पूर्व वैदिक देवता विष्णु के स्वरूप को समझना जरूरी हो जाता है ताकि कृष्ण के सन्दर्भ में हमें प्रमाणिकता प्राप्त हो सके. वेद सर्व प्रथम सूत्र है किन्तु कृष्ण वेदों में नहीं मिलता, पुरानो में मिलता है. ऐसे में भ्रम पैदा होना लाजिमी है. मेरा जो अध्ययन है उसके तहत चूंकि पुराण कृष्ण को विष्णु का अवतार और वृष्णि वंश का मानता है इसलिए वेद से भी जुड़ जाता है. कैसे ? ऋग्वेद में कही-कही विष्णु का उल्लेख है , विष्णु 'विष' धातु से बना, जिसका अर्थ व्याप्त होना है/ विष्णु कही मुख्य तो कही समानार्थक रूप में आया है. शक्ति के अर्थ में भी विष्णु का उल्लेख है. ऋग्वेद मन्त्र में विष्णु का सम्बन्ध गायो से भी बांधा है. ऋग्वेद के सातवे अध्याय में २९ वा सूक्त गाय, गोपाल, गौचारण से सम्बन्ध रखता है. इधर कृष्ण को 'गोपाल' भी कहा गया है. रिग्वेदी विष्णु  और उसका गायो से सम्बद्ध होना मुझे कृष्ण के अवतार पर सहमत कराता है. कृष्ण जन्म के सन्दर्भ में ब्रह्म वैवर्त पुराण में कृष्ण का जैसा रूप-सौन्दर्य वर्णन है वो ठीक विष्णु से मिलता जुलता है. आप देखिये वैदिक विष्णु जो प्रथम कोटि का देवता नहीं है किन्तु धीरे धीरे देवत्व के सबसे उपरी आसन पर विराजमान हुआ है और इधर कृष्ण भी कुछ इसी प्रकार सर्वोपरि हुए/  ऋग्वेद में कृष्ण का नाम हमें जरूर मिलता है आठवे मंडल के ८५ वे ८६, ८७, और दसवे मंडल के ४२, ४३,४४, सूक्तो के ऋषि का नाम कृष्ण है. उन्ही के नाम पर कृष्णायन गौत्र चला.हालांकि यह वैदिक ऋषि कृष्ण हमारे कृष्ण नहीं है किन्तु यह मान्य करना पड़ जाता है कि उनके नाम पर ही वासुदेव ने अपने पुत्र का नाम कृष्ण रखा हो. ख़ैर..इस सन्दर्भ में भी विवेचन है. किन्तु कृष्ण जन्म को लेकर बहुत सारे तर्क-वितर्क है. देश-विदेश के खोजियों ने अपने-अपने तर्क दिए है. हापकिंस तो कहता है कि महाभारत में पहले कृष्ण का मनुष्य रूप ही है, बाद में वो देवत्व से युक्त कर दिया गया. कीथ भी इसे मानता है. ईसा से ४०० साल पहले कृष्ण के देवत्व का खूब प्रचार हो चला था. आप जानते है कि ईसा से ३०० वर्ष पूर्व मेगस्थनीज भारत आया था, उसने भी लिखा था कि मथुरा और कृष्ण पुर में कृष्ण की पूजा होती है. पुराण, पुराणकार, यात्री , लेखक, इतिहासकार आदि के तर्कों में भले ही थोड़ा बहुत अंतर रहा हो मगर यह सब मानते है कि कृष्ण नामक एक देवतुल्य पुरुष  इस धरती पर जन्मा था...बहुत से शिध्परक संग्रहण है, मेरे पास भी है..और इन्ही सबकी वजह से कृष्ण का जादू छाया हुआ रहता है..समय समय पर कुछ लिख लिख कर खुद की कलम को भी साधुँगा ताकि अपने मूल शोधपरक कथा को बल मिले और मै उसे लिख सकने मै समर्थ बन सकू. फिलहाल इतना ही.    

गुरुवार, 10 मई 2012

100 वे जन्मदिन पर विशेष- "मंटो का मतलब"


" जब मै किसी से दोस्ती करता हूँ, तो मुझे इस बात की तवक्को होती है कि वो अपना आप मेरे हवाले कर देगा. दोस्ती करने के मुआमले में मेरे अन्दर ये एक जबरदस्त कमजोरी है जिसका इलाज मुझ से नहीं हो सकता .."
 ढेर सी काबिलियत वाली कमजोरियों से सना और कलम की नोंक से जिन्दगी की सच्चाई को उखाड़ने वाला नाम है सआदत हसन मंटो. १०० साल के मंटो को बधाई. आपको लगेगा कि मंटो तो इस दुनिया में है नहीं फिर बधाई कैसी ?मगर मंटो मरा कब? उसे जो और जितने लोग पढ़ते -समझते है उनके दिल-दिमाग में झांकिए तो पता चलेगा मंटो ज़िंदा है. हां, वो और शख्सियतो की तरह आज भी नहीं बन पाया जिनके जन्मदिनो या किसी विशेष दिनो को जलसों का आकार देकर मनाया जाता है. शुक्र है मंटो इन सब से बच गया . ख़ैर.. पूरी जिन्दगी बस जंग रही. मगर जंग के बीच मंटो की जो साफगोई रही वो ऊपर लिखे वक्तव्य से स्पष्ट जाहिर हो जाता है. हालांकि मंटो ने जीवन के हर मोड़ पर मात खाई चाहे निजी जिन्दगी का मसला हो या बाहरी जिन्दगी का..दोस्ती हो या दुश्मनी का.. किन्तु मात खाने का मतलब यह नहीं कि मंटो थम गया हो..चाहे समाज ने गालिया दी हो, या अदालत में उस पर अश्लीलता के मुकदमे चले हो, मंटो ने पार किये हर दौर जो उसके खिलाफ रहे..टूटन रही मगर मंटो झुका नहीं ...इसलिए मंटो मरा नहीं..इसलिए उसके जन्मदिन पर उसे बधाई

.. क्या लिखा जाए मंटो पर..? मंटो को चाहने वालो के सामने से कुछ छूटा हो तो लिखा जाए ..मित्र सुशील छौक्कर ने दो दिन पहले से बोल दिया था कि आपको मंटो पर कुछ तो लिखना ही है ..मेने उन्हें समझाया कि ब्लॉग अब कौन पढता है..और फेसबुक जैसे नेटवर्क पर मंटो को समझकर पढने वाले न के बराबर है..फिर? सुशीलजी ने साफ़-साफ़ कह दिया कि इन सब बातो को छोडिये, कोइ पढ़े या न पढ़े किन्तु मुझ जैसे है जो पढेंगे ..., उनका यह भाव एकबार फिर मुझे यह यकीन दिला गया कि सचमुच मंटो ज़िंदा है.

 लिखने के लिए जनाब अनवर सईद द्वारा लिखा मज़मून "सआदत हसन मंटो -खुतूत के आईने में" पढ़ कर मुझे ऐसा लगा था कि इसमे कुछ ऐसा है जिसे लिखा ही जाना चाहिए ..तो उसी मज़मून से कुछ अंश लेकर आपके लिए यहाँ पेश करता हूँ -
 'मंटो के खुतूत' मंटो की मासूम शख्सियत की कई परते खोलती है..ये खुतूत अहमद नदीम कासिमी के नाम है और जनवरी १९३७ से लेकर फरवरी १९४८ तक के उस दौर से ताल्लुक रखते है जब मंटो बंबई की फ़िल्मी दुन्या में अमली जिन्दगी के झमेलों में उलझे हुए थे और ज़माने के थपेड़े खा रहे थे. अहमद नदीम लाहौर में अपनी अदबी जिन्दगी के शुरुआती दौर में थे और उस दौर के एक मुमताज़ और मारूफ अफसाना निगार को न सिर्फ हैरत से देख रहे थे , बल्कि उनसे प्रेरणा भी ले रहे थे. मंटो का अख्तर शीरानी के माहनामा 'रुमान' में उनका अफसाना 'बेगुनाह' पढ़कर खातो का सिलसिला शुरू हुआ. मंटो को लगा कि वो दोनों मुख्तलिफ राहो के मुसाफिर है.इसका ज़िक्र 'मंटो के खुतूत' के पेश लफ्ज़ में इस तरह किया गया है-
" देहली में मंटो से मेरी ( अहमद नदीम कासिमी) मुलाक़ात हुई, तो मुझे एक ही दिन में मालूम हो गया कि मंटो के जेहन में रहने और मेरे दोस्ताना रिश्ते के यकायक ख़त्म हो जाने का इमकान (संभावना) क्यों मौजूद था...." फिर उन्होंने लिखा ' ये मुलाकात हमारे रिश्ते का कुछ न बिगाड़ सकी. इसलिए कि अगर मंटो की रोजमर्रा की बेशतर दिलचस्पिया मेरी जिन्दगी के मामूलात से बिलकुल अलग थी. तो कम से कम वो सतह तो अब भी महफूज़ थी जिस पर हम एक दूसरे से प्यार करने वाले दोस्त की हैसियत से मिल सकते थे और ये सतह आपसी भाईचारे और कुर्बानी ने मुहैया कर रखी थी. ' कासिमी साहिब ने हिंद -पाक के अदीबो से मंटो के दोस्तों और अजीजो से भी उनके खुतूत हासिल करने की कोशिश की मगर उन्हें कामयाबी नहीं मिली. इसलिए भी उन्होंने अपने रिकार्ड में महफूज़ खतो पर तसल्ली कर ली. पहला ख़त का मज़मून - " आपका अफसाना 'बेगुनाह' वाकीअतन मेने बेहद पसंद किया है. सच तो यह है कि इस किस्म के ज़ज्बात में डूबे हुए अफ़साने उर्दू में बहुत कम शाए हुए है. आपके हाथ प्लास्टिक के है और मालूम होता है कि अफ़साने के मौजू को आपने न सिर्फ महसूस किया है बल्कि उसे छूकर भी देखा है. ये खुसूसीयत हमारे मुल्क के अफसानानिगारो को नसीब नहीं. मै आपको मुबारकबाद देना चाहता हूँ कि आपमें ये खुसूसीयत भरपूर है. "
 मंटो उन दिनों रिसाला ' मुसव्विर ' की एडिटिंग करने के इलावा फ़िल्मी दुन्या के साथ भी वाबस्ता थे और स्क्रीन के लिए कहानिया लिख रहे थे जिसके दर्शक ज़ज्बाती सीन, ज़ज्बाती रोल और गीत जियाद पसंद करते थे. मंटो ने अफसाना 'बेगुनाह' में भी आम लोगो की पसंद को ही मद्देनज़र रखा और कासिमी साहब को लिखा- " अफसाने में आब्जेक्तिविटी टच बहुत प्यारे है और मौजू व् मुनासिब है. कुछ अरसे से मै फ़िल्मी अफ़सानो के तौर पर गौर कर रहा हूँ, चुनांचे मेने आपके अफ़साने को गैर इरादे तौर पर फ़िल्मी ही की ऐनक से देखा और इसे बहुत खूब पाया. एटमोसफेरिक टच बेहद अच्छे है...." अपने खतो के केनवास पर मंटो हमें बेहद भला , बेलौस और बेरिया (निश्छल) शख्स नज़र आते है. उस दौर में वो खुद मुश्किलों में घिरे हुए थे. माली हालात अच्छे नहीं थे. मिजाज़ में इंतिहा दर्जे का ईगो था, लेकिन किसी दुसरे को तकलीफ में देखकर मंटो पिघल जाते थे. मंटो ने कासिमी साहब की मुश्किल भांप ली थी. वो उन्हें जिन्दगी के असली उतार चढ़ाव से भी बाखबर कर रहे थे और हमदर्दी का इज़हार भी. मंटो ने लिखा- " फ़िल्मी दुन्या में कदम रखने की ख्वाहिश कालेज के हर तालिबे इल्म के दिल में होती है. आज से कुछ अरसा पहले यही जूनून मेरे सर भी सवार था. चुनांचे मेने उस जूनून को ठंडा करने के लिए बड़े  जतन  किये और  अंजामकार   थक हार कर बैठ गया. अहमद नदीम साहब, दुन्या वो नहीं, जो हम और आप समझते है और समझाते रहे है. अगर आपको कभी स्टूडियो की सियासत की स्टडी करने का मौका मिले तो आप चकरा जायंगे.फ़िल्मी कंपनियों में उनका जियाद असर है जिनके खयालात बूढ़े और नकारा है. वो बिलकुल जाहिल है और वो लोग जो अपने सीनों में असली  फ़न  की परवरिश करते है, उन्हें कोइ नहीं पूछता. .." मगर इस सब के बाद भी अहमद नदीम साहब की मदद करने को मंटो तैयार थे. वे लिखते है- " मै बंबई में पचास रुपये महावार कमा रहा हूँ और बेहद फजूलखर्च हूँ, आप यहाँ चले आये तो मेरा ख़याल है कि हम दोनों गुजर कर सकेंगे. मै अपनी फजूलखार्ची बंद कर सकता हूँ. मुझे आपकी मजबूरियों का पूरा एहसास है, इसलिए कि मै इन मजबूरियों से गुजर चुका हूँ." आगे देखिये मंटो लिखते है.- " आप यहाँ तशरीफ ला सकते है. मगर ये बात याद रखिये कि आपको मेरी जिन्दगी की  धूप  छाह में रहना होगा. मेरे पास छोटा सा कमरा है जिसमे हम दोनों रह सकते है. खाने को मिले न मिले, मगर पढने को किताबे मिल जाया करेंगी..."
किताबो से बेइंतेहा  मोहब्बत   करने  वाले   मंटो वाकई आदमीयत वाले इंसान थे ..वैसे तो उनके खतोकिताब की दास्ताँ लम्बी है जिसे मै पूरी तरह यहाँ लिख नहीं पाउँगा .. इतने से सिर्फ यह जतलाने की कोशिश है कि मंटो आज भी ज़िंदा है...कम से कम मुझ जैसे लोगो में.. जो मंटो से कोइ हट कर जिन्दगी नहीं जी रहे है....

मंगलवार, 20 मार्च 2012

दो कदम

1,
न उम्मीद से
चूल्हा फूँका जा सकता है
न इच्छाओ की रोटी
बनाई जा सकती है ..
हो यह सकता है कि बस
दोनों की चटनी बनाकर
चाट ली जाए ....
2,
आग उगलते सूरज
और इच्छाओं की
जलती सूखी लकडियो से
निकलती लपटों में
मेरे साथ
सचमुच कोइ बैठना
नहीं चाहता ..
और गर
चाहता भी है तो बस
घी डालना ...

शनिवार, 17 मार्च 2012

इश्क

मेरा और उसका नाम
आज भी खुदा होगा वहां
जहां जुदा होने से पहले
कुरेदी थी ज़मीन..........
और लम्बी चुप्पी के बाद
तन्हाई ने बाहे फैला कर
धीरे से बुदबुदाया था
इश्क .....
वहां खुदा होगा एक पूरा इतिहास ..
क्योकि इश्क की बदकिस्मती है
की वो 'खुदा' ही होता है...