शनिवार, 3 नवंबर 2018

प्रेम


सुनो,
तुम सुखी हो
इसलिए दुःख को
बहुत अच्छे से
एक्सप्लेन कर सकते हो ...
प्रेम की बातें इसीलिए तो खूब करते हो।
और गर सचमुच होता तो?
(2 oct 18)

बीज

बीज में बिना फूल पत्तियों के पेड़ था
उगा और बड़ा हुआ
डूंड सा , लम्बी लम्बी शाखाओं वाली भुजाओं सा
दैत्याकार।
न छाहँ देता है
न सुकून
बस भयावह दिखता है।
पानी तो उसने भी पीया है
बोया तो वह भी गया है
जमीन तो उसकी भी यही है
फिर ?
(30 sept 18)

ठोकर

तुममे
मुझमें
एक बुनियादी फर्क है।
हुनरमंद हाथों के
छैनी हथौड़े से उकेरी गई
मूरत की तरह हो तुम।
मैं
ठोकरों से
तराशा चला जाता गया
एक पत्थर ।
(24 sept 18)

मोतियाबिंद

यूं तो हर जगह पराजित हुआ
प्रेम में, व्यवहार में , कार्यों में, जिंदगी में..
और खुश हुए मेरे अकेलेपन ,मेरी असफलताओं ,
मेरी पराजयों, मेरी नाकाम कोशिशों को देखकर
मेरे दुश्मन, मेरे ईर्ष्यालु ..मेरे अप्रेमी।
किन्तु इसके बावजूद
नेपथ्य की एक महसूस होती जीत ने
हर हमेश खड़ा रखा कि
मैं किसी भी तरह किसी की खुशी
किसीके संतोष, किसी की जीत का कारण तो बना।
मुस्कुराते उनके चेहरे देखना भी
साबित करता है
कि मोतियाबिंद नहीं पड़ा है आँखों में।
(11 sept 2018)

हरसिंगार

फूल ऋतुओं को अपने सौंदर्य में समेट लेते हैं ..जैसे हरसिंगार शरद को अपनी आगोश में भींच लेते हैं। ये मौसम हरसिंगार का है, शरद के श्रृंगार का। कांच सा आकाश और उस पर तैरते बादल के टुकड़े। ऐसा लगता है जैसे मानसून में उधम मचाने वाले काले -मटमैले मेघों को नहला धुला कर प्रकृति ने टांक दिए हों आकाश में..धवल -साफ़ सुथरे किसी राजा बेटा के माफिक। और सूरज भी गोया उनके माथे पर प्यार से हाथ फेरते हुए -धरती को शीतलता का अहसास दिलाता है। शरद ऋतु चाँद का भी मौसम है। वो सजता है,सँवरता है और मीठी सी किरणों को धरती पर भेजता है ताकि नव रात्र हो ..दीप जलें और मन आत्मा किसी झिलमिलाती झील सा तरल हो कर, पिघल कर बह चले, झूम उठे, खिलखिला उठे, चहक उठे ...
शिशिर के स्वागत में सजते संवरते इस मौसम का अपना मन है-कभी तेज धूप तो कभी सर्द पवन को लपेट कर उतरती सूर्य रश्मियां ..कभी यज्ञ सी तो कभी होम की गई चंदन की महक सी अनुभूत होती हैं..जो धरती से लेकर पुण्यात्माओं के लोक तक को सुवासित करती हैं । मुझे ये ऋतु आकर्षित करती है सिर्फ उन 15 दिनों को छोड़ कर जिसे श्राद्ध पक्ष कहते हैं। इन दिनों में एक अजीब सा सूनापन है..उदासी और बोझिल मन सा महसूस होता है। सूरज भी तपता है, उमस भी होती है..हवा भी शांत ,स्थिर और हृदय भी बैठा बैठा सा लगता है। प्रकृति और मान्यताओं के मध्य भी कितना सामंजस्य है ये शरद के दिन स्थापित करते हैं।
बहरहाल, मेरे घर के बाहर ही हराभरा सा हरसिंगार का पेड़ है। रातभर उसके फूलों की महक मन मस्तिष्क को अपने जादू में रखती है ..गुलजाफरी का ये आलम मदमस्त बनाए रखता है। सुबह जब मैं उसके फूल चुनता हूँ तो लगता है जैसे कोई मंत्र चुन रहा हूँ..जिसकी आध्यात्मिक महक है और शायद इसी वजह से ईश्वर को भी ये बेइंतेहा पसंद है....दरअसल न केवल ये फूल अपनी जादुई खुशबू से मुग्ध करते हैं बल्कि आयुर्वेद ने भी इन्हें प्रमुखता दे रखी है जो मन के अतिरिक्त तन के लिए भी स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं। सचमुच हरसिंगार के फूलों का ये शरद मौसम दिलकश है..और शायद यही वजह भी है कि साहित्य ने इस ऋतु को अपनी कलम की नोंक पर रखा है ..
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी, 10 सितंबर 2018】

काश

काश
कास भी तुम्हारे
केशो पर सजता..
और मैं शरद सा
मोहित हो जाता ..
पिंगल हो उठता सूर्य हमारा
क्लेश ,दुःख, दर्द
जल भस्म हो जाते सारे।
हो जाता जीवन आकाश निर्मल
खिल जाते
मन सरोवर कमल...
किन्तु कास तो काश ही ठहरा मन का
केशों पर थोड़े सजता है।
दूर दिखता
और बस छलता है
प्रेम आस की तरह।
(9 sep 18)

लड़ न सका

मैं विधाता से लड़ न सका
जबकि लड़ना था ।
उसने पेश की थी चुनौती
और ललकारा था मुझे।
मैं अब तक की पूजा पाठों के
मायाजाल में ऐसा लिप्त रहा कि
उसकी शक्ति का प्रतिकार तक नहीं कर पाया।
ये उसका ही तो भ्रमफन्दा था जो
मेरे गले में पड़ा और मैं
उसके विधान को स्वीकार कर उसे ही पुकारता रहा।
इस उम्मीदों पर कि
धरती के देव चिकित्सक बचा लेंगे पिता को।
ये युद्ध था
जो मैं लड़े बिना हार गया ..
कितने लड़े बिना हार रहे हैं..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /02 सितंबर/2018)

सुनो

सुनो ,
गिरगिट सी व्यवस्था और
विषभरे सम्बन्ध से नहीं बच सकते तुम।
यहां प्रेम चिकना, चमकीली त्वचा का है 
रेंगता है,
तुम्हे ही नहीं
बल्कि अपनी केंचुली तक वो छोड़ देता है।
दोस्त,
दुनिया एक सांप है
जिसे पूंछ से पकड़ना चाहिए।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी / ३१-जुलाई-१८)

पत्थर है जगत

तराशे जाने वाले पत्थर
आकर्षक मूर्ति का रूप जरूर लेते हैं
पर जीवन नहीं होता उनमें,
वो भ्रम पैदा करते हैं
रहते पत्थर ही हैं।
पत्थर है जगत।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /30 जुलाई 18)

पुरुष की पीड़ा

पुरुष की पीड़ा
घुप्प अँधेरे में होने वाली घटना है।
वह इतनी एकाकी है कि
उसे स्वयं पीना है।
घूँट की कोई प्रतिध्वनि नहीं।
प्रचारित नहीं है वो
और न ही लेखनी से
प्रसारित की जा सकती है।
वो हलक में रोक देने वाली
नीलकंठी प्रक्रिया है।
पुरुष की पीड़ा
कोख में दफ़्न हो जाने वाली
अबोली स्थिति है ।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी/28 जुलाई 18)