पिता की कराहती आवाज़
हवा संग, ऊंचे पर्वतो
उबड़- खाबड़ रास्तो
खेत-खलिहानों, नदी -तालो
वृक्षों, उनके झुरमुटों के
बीच से होकर
इस महानगर की
भागती- दौड़ती
जिंदगी को चीरती
समय की
आपाधापी को फाडती
थकी -हारी
सीधे मेरे हृदय में
जा धंसती है औऱ
मैं लगभग बेसुध सा
तत्क्षण उनके पास
पहुंचने के लिए
अधीर हो उठता हूं
कि तभी
महानगरीय मकडी
अपने पूरे तामझाम के साथ
दायित्वों, कर्मो,
नौकरी - चाकरी
का तामसी, स्वार्थी
राक्षसी जाल बुनने
लगती है,
जिसमे फंस कर में
छुट्टिया लेने
छुट्टिया मिल जाने की
याचनामयी सोच
के संग तडपने लगता हूँ।
जाल और सोच के
इस युद्ध के मध्य
मस्तिष्क सुन्न हो जाता है।
गीता का सार
कुरान की आयते
या बाइबिल, गुरुवाणी की शिक्षाये
सब निष्फल हो कर
मेरी इस जंग में
हाथ मलते दिखती है।
समय जाता रहता है,
मेरी जरूरत,
मेरे होने का भाव
सब कुछ शून्य में कहीं
खो जाता है।
राक्षसी मकड जाल
कस जाता है,
महानगरी मकडी
मुझे लानत भेजती है
और अपने पुत्र होने पर
मुझे कोफ्त होती है।
ह्रदय में धंसी वो
आवाज़ भी कही
विलीन हो जाती है,
कि फोन आता है,
मैं ठीक हूँ
तुम परेशान मत होना
मेरे बेटे।
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काश
हर पिता के
साथ उसका बेटा
आजीवन रह सके,
ऐसा कोई
ईश्वरीय वरदान
प्राप्त हो सकता है क्या?
सिरफिरे ...
3 दिन पहले