वह
गर्भ में नहीं सुन पाया कि चक्रव्यूह को तोड़ते कैसे हैं , इसीलिये द्रोणाचार्य, कर्ण सहित दुर्योधन के वीर सैनिकों ने मिलकर उसे मार गिराया। अभिमन्यु मारा गया। ज़िंदा रहे उसके माता-पिता।
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अच्छा
बताओ हमारे बच्चे का नाम क्या होगा ?
अभिमन्यु।
अरे
वाह बहुत सुन्दर नाम है।
यह
तुम्हारे जैसा होगा , बुद्धिमान, तेजस्वी।
हाँ, तुम
पर भी तो जाएगा और इसीलिये हमारा अभिमन्यु बहुत सुन्दर और तेजस्वी होगा।
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कल्पना
भी शरीर में रोमांच भर देती है ,
शरीर इतना गुदगुदाता है कि उसकी सारी नसें
प्रफुल्लित होकर खून को तेजी से दौड़ने के लिए रास्ता दे देती हैं। अभी उम्र क्या
थी , कोई २१-२२ साल। वो १८ या १९ वर्ष की होगी , प्रेम
आहें भरने लगा था। छुप छुप के मिलना-बातें करना उस शहर के हरेक प्रेमी के
लिए मजबूरी था। समाज संकीर्ण अवस्था में प्रेमियों पर नज़र रखता था , कब
कोई मिले और कब उन्हें अलग कर दिया जाए। बावजूद फूल खिलते थे। वे भी खिलें , मिले
और प्रेम को जीवन मिला। बात भविष्य की योजनाओं और कल्पनाओं तक जा पहुँची थी।
क्योंकि साथ रहने की जिद मस्तिष्क में कुलांचे भरने लगी थी। दूर रह भी नहीं सकते थे। और समाज में रहकर साथ भी नहीं रह सकते। दुविधा , मुसीबतें
और बावजूद इसके घड़ीभर मिल लेने की जद्दोजहद प्रेम को परिपक्व बना रहे थे। अभिमन्यु
ने दोनों की कल्पनाओ के गर्भ में जन्म ले लिया था। उसका
विस्तार विवाह के बाद ही संभव था किन्तु उसके लिए योजनाएं मस्तिष्क के कोरे पन्नों
पर लिखी जाने लगी थी। ये करेंगे,
वो करेंगे , यहां पढ़ाएंगे , वहां
ले जाएंगे , ऐसा होगा , वैसा होगा , तुम उसे ऐसा बनाना ,
तुम उसे ये मत करना , मैं
उसे ऐसे रखूँगी जैसे सवाल बातों के दरमियान हल किये जाते थे और माता-पिता के होने
का सुख कल्पनाओं में अनुभव कर प्रफुल्लित होते थे वे दोनों। रोज ही।
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सुनो
, मुझे पापा अपने भाई के यहां भेजना चाहते हैं।
कहाँ
?
बहुत
दूर , यहां से तो बहुत दूर है , वहीं पढूंगी।
क्यों
? क्या तुम इंकार नहीं कर सकती ?
नहीं
, भाई ने भी मुझे अपने पास ही रखने को कहा है। यहां अकेले बिगड़
जाना है इसलिए।
अरे
वाह ऐसे कैसे हो सकता है। अगर तुम न चाहो तो कोई कैसे तुम्हें कहीं भेज सकता
है।
तुम
नहीं समझोगे। जाना ही होगा।
मैं
रहूँगा कैसे तुम्हारे बगैर ?
वो
तो मेरा भी यही हाल होना है मगर हमारे पास चारा क्या है।
आखिर
क्यों तुम्हें भेजना चाहते हैं ?
पता
नहीं , शायद हमारे-तुम्हारे बारे में पता चल गया हो ? शायद
इसलिए की मैं यहां रहकर बिगड़ रही हूँ।
नहीं, तुम
मना कर दो।
कई
बार किया मगर ……
.
फिर
हम ? …
एक
लम्बी चुप्पी , सिर्फ साँसे ही चल रही थी , दो देह मुर्दा बनी हुई थी।
दिमाग की नसों में विचारों के प्रवाह आपस में लड़ झगड़ रहे हो , कोई
विकल्प नहीं सिवा इसके की वो जाए अपने भाई के पास और दूसरा यहीं रहकर इन्तजार करे
समय का। उस समय का जब वो अपने पैरों पर खड़ा होकर उसे लेने आ जाए। उस वक्त का
जब समाज उसे स्वीकार करने में नाक भौंह न सिकुड़े। उस वक्त का जो सामान्य हो जाए , उस
वक्त का जब भगवान दोनों को साथ रखे। मनौतियां भी पूरी हों। उस समय का
इन्तजार।
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मेरे
घरवाले नहीं चाहते कि तुमसे शादी हो। चाचा -ताऊ , भाई-भाभी
सब खिलाफ हैं इस रिश्ते के। पत्रों के जरिये दोनों के बीच अब बातें होती थी । पत्रों के जरिये ही रिश्ता कायम था और प्रेम आसमान में लहरा
रहा था । डाकिया किसी देवता की तरह पूज्य हो चला था । वो खाना-पीना छोड़
कर रोज ही डाकिये का इन्तजार करता। मोहल्ले में प्रवेश के रास्ते पर ही
डाकिये को पकड़ता और पूछता - कोई चिट्ठी है क्या ? डाकिया जानने लगा की वो किस चिट्ठी की बात करता है। वो उसका दोस्त बन गया था , दोस्त
बना क्या उसने बना लिया था क्योंकि उसकी कोई भी चिट्ठी घरवालों के हाथ नहीं लगनी
चाहिए। इसके लिए वो चुराए तथा बचाये गए पैसों में से कुछ डाकिये को रिश्वत बतौर
देता। कुछ के डाक टिकिट खरीदता और कुछ से कोई ग्रीटिंग वगैरह। पहले पहल खतों में
प्रेम-मनुहारों की बातें थी मगर धीरे धीरे उदासियों-निराशाओं में बदलने लगे शब्द। क्योंकि उसके घरवाले ऐसी किसी शादी या सम्बन्ध के खिलाफ थे जो प्रेम से शुरू
हो।
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कितने
पैसे हैं तुम्हारे पास ? उसने अपने एक मित्र से पूछा।
ज्यादा
नहीं और वहां तक जाने के लिए किराया बहुत है।
तब
कैसे होगा यार?
पता
नहीं।
ऐसा
करते हैं मैं अपने एक दोस्त से उधार मांगकर देखता हूँ , दे
दिए तो चले चलेंगे।
कौन
देगा उधार ? वो जो तुझसे ही पैसा लेते रहता है।
तब
ठीक है मैं कोई नौकरी करता हूँ।
हाँ
, ये बेहतर है , मगर फिर तेरी पढ़ाई?
जाने
दे उसे भाड़ में , उससे मिलना बहुत जरूरी है।
ओके।
मित्र ने उत्तर दिया।
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कोई
दो महीने गुजर गए , एक दिन वो अपने उसी मित्र से मिला और कहा किराया जितना पैसा हो गया
है मगर लौटने का नहीं है। मित्र ने कहा -तब ?
तू
साथ दे तो चल सकते हैं , विदाउट टिकिट भी सफर कर सकते हैं।
दोनों
ट्रेन से विदाउट टिकिट ही जा पहुंचे। रास्ते में कुछ नहीं खाया-पीया क्योंकि
पैसा था नहीं और अगर वो मिलती है तब कोई खर्च हुआ तो कैसे किया जाएगा , सोच
लिए दोनों वहां पहुँच गए जहां वो थी। कोई १८ -१९ घंटों का सफर। जेब में न पैसा
न पहनने के लिए कोई कपड़ा। कपडे भी दोनों ने चलते वक्त फुटपाथ से खरीद लिए थे
सस्ते वाले ताकि पैसा जाया न हो।
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''तो
भाग चलें। अभी नहीं भागेंगे तो कभी नहीं भाग सकेंगे। '' उसने बहुत रुआंसे मन से कहा।
''पर
यह तो गलत होगा और मैं तुम्हें शान से इज्जत से ले जाना चाहता हूँ।'' जवाब में यही था।
इसी
बात पर दोनों के बीच वैचारिक जंग होने लगी थी। वो अपने परिवार को छोड़ देना चाहती
थी , मगर इसे यह चिंता थी कि उसे भगाकर रखूंगा कहाँ और क्या खिलाऊंगा , उसके
पास न अच्छी नौकरी है न पैसा है। दिमाग में मंथन समुद्र के तूफ़ान सा उमड़ने लगा था।
लहरें आसमान से टकरा रही थी। मजबूरियाँ पसरी हुई थी। न वो गलत सोच रही
थी न ये गलत सोच रहा था , क्योंकि दोनों दोनों के बारे में सोच रहे थे। दोनों अपने
भविष्य के लिए ही सोच रहे थे।
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अच्छी
नौकरी मिली तो शादी कर दी जाएगी। इस आश्वासन ने उसे एक सुनहरा अवसर दे दिया
था। जो उसकी भाभी की ओर से था। वह जानता था कि ये शर्त वह पूरी कर सकता है। दिन-रात पढ़ाई करके वह बड़ा अफसर बन सकता है और वह भी इन्हीं दो
सालों में, जो दिया गया वक्त है। लौट आया था मिलकर वह। अब वह सिर्फ और
सर्फ अपनी पढ़ाई में व्यस्त था। उसे अपने प्रेम को जीतना था , उसे
उसके अलावा दूसरा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वह परीक्षा की प्रारम्भिक सीधी
भी चढ़ गया। मुख्य परीक्षा में भी उसे बेहतर अंक प्राप्त हुए , अब
अंतिम पड़ाव था इंटरव्यू का। इंटरव्यू में पास होने का मतलब था एक बड़ा पद और
समाज में बेहतरीन मान-प्रतिष्ठा। उसने इस बीच एक घर किराए से लिया , उसे
सजाया , उसे ऐसा किया कि बस इधर नौकरी लगी और उधर वो उसे ले कर आ जाए । बस, इसके पहले वो एकबार मिलना चाहता था उससे। पता चला पास के ही शहर में वो अपनी बहन
के यहां है , वो पहुंचा। पहुंचा -मिला और उसे पता चला कि उसकी शादी तय कर दी
है। ये कैसे हो सकता है ? आखिर क्यों ? उस शर्त का क्या ? उसे जवाब मिला -''पापा ने कह दिया है या तो मैं या वो। ''
ये कैसी शर्त ? उसने कहा। मगर चुप्पी ने घेर लिया था समय को।
क्या ब्रह्माण्ड का कोई भी देवता , कोई
भी अंश उसकी मनोदशा समझ सकता था ? वह उस वक्त कैसे यह सब सुन कर हतप्रभ सा खड़ा रह गया था, कौन जान सकता था उसे ? वह भी नहीं जो उससे अटूट प्रेम करती थी। गोया आसमान
टूट कर उसके सर पर ही गिरा हो। जैसे दुनिया उससे अलग हो गयी हो, वह
एकदम हाशिये पर खड़ा हो गया हो , अकेला। .उसकी आँखों में जैसे आंसू बह बह कर निकलने को आतुर थे किन्तु निकल ही नहीं
रहे थे । कोई भी , कोई भी उसकी मनोदशा को समझने को तैयार नहीं था , वो
भी नहीं जिसके लिए उसने जमीन-आसमान एक कर दिया था । निश्चित रूप से समाज जीत रहा था। उसका
प्रेम पराजित सा खड़ा था। वह अपने पैरों के नीचे से खिसक रही जमीन को अच्छी
तरह से अनुभव कर रहा था।
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अकेला लौटा वह। उस घर को तहस-नहस कर दिया जो उसने अपने हाथों से संवारा था। आसपास के लोगों ने कहा शायद पागल हो गया है। सचमुच पागल ही तो हो गया था , या अब तक पागल था , आज यथार्थ स्थिति में आया। जो हो किन्तु उसने अपने सपनों के घर को पूरी तरह उजाड़ दिया।
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हाँ, परिणामस्वरूप हुआ क्या ? यही न कि चक्रव्यूह
में तो घुसा , बेहतर तरीके से लड़ा मगर समाज द्वारा बनाई गयी व्यूह रचना को तोड़ने का उसे ज्ञान नहीं था इसलिए मारा गया , सबने
उसे मारा , एकसाथ मिलकर मारा ,
अभिमन्यु मारा गया। अभिमन्यु अब सिर्फ
स्मृतियों में है। उसकी ह्त्या कर दी गयी , वो
कल्पना के गर्भ से जन्मा अपनी मूलावस्था को प्राप्त करने से पहले ही मार दिया
गया। अभिमन्यु नहीं है उसके काल्पनिक माता-पिता ज़िंदा थे । क्योंकि उन्हें तो महाभारत जीतना था ।
उनके प्रेम और त्याग के सम्मुख कौन टिक सकता था । कोई नहीं टिका , किन्तु
इसके बावजूद टीस जो उनके जीवनभर बनी रही वह थी अभिमन्यु की। उनका अपना बच्चा
, उनके सपनों का बच्चा , उनकी कल्पना का आकार।
काश उसे चक्रव्यूह तोड़ना आता।