शनिवार, 27 नवंबर 2010

दो गज़लें


सालों बाद जब अपने पुराने दस्तावेजों की पोटली खोली तो मानों वक़्त ने करवट बदल कर मुझे अपनी आगोश में ले लिया। कुछ ऐसे खतों में खो गया जिनमें जिन्दगी खेला करती थी। उन्हीं खतों में मुझे मिला मेरे बडे भाईसाहब का एक पत्र और उनकी लिखी गज़लों के तीन पन्ने। यह तो मैं जानता था कि भाईसाहब तब खूब लिखा करते थे। मुशायरे वगैरह में जाते थे, छपते थे..पिताजी से इस संदर्भ में चर्चायें किया करते थे। मैं छोटा था और गज़ल वगैरह से दूर था इसलिये उनकी कई सारी गज़लें सिर के उपर से जाया करती थी। आज भी बहुत सी गज़लें हैं जो मेरी समझ में नहीं आती किंतु हां, थोडा-बहुत समझने लगा हूं। जब थोडा बहुत समझने लायक हुआ तब तक उन्होने न केवल लिखना छोड दिया बल्कि इस विधा से दूर अपनी जिन्दगी की जरूरतों, जिम्मेदारियों में खो गये। अब वे नहीं लिखते। यह जो उनके तीन पन्ने मेरे हाथ लगे..ये भी वर्ष 1990 के आस पास के हैं। मेरे पास उनकी गज़लों के लिहाज़ से यही तीन पन्ने और मेरी समझ में आ जाये वैसी छ्ह सरल गज़ल है। मुझे खुशी हो रही है कि मैं उनकी रचना जो वे 'अश्क़' के नाम से लिखा करते थे यहां आप सब की नज़र कर रहा हूं।

1,

" इतनी हवाएं सर्द थीं कि दरख्त हम ठिठुर गए
झौंके बहे गमों के यूं कि सख्त हम सिहर गए।

समझ के इब्तिदाए-खुशी तल्खियों को पी गए
अस्ले-सुकूं तभी मिला, बाकी थे बेखबर गए।

मुट्ठी में बहुत बांधा किए बेरुख लकीर हम
दाता ने बेवफाई की, बेबस थे हम बिखर गए।

मुरादो-हसरतों का कहां इन्सां को वक़्त है
कल जो खुले थे चश्म आज बंद हो अखर गए।

दिलकश थी जिन्दगी कभी जिनके सहारे 'अश्क़'
बचपन-ओ-जवानी के वो यार सब किधर गए। "



2,


" झूठी दुनिया झूठ चलन में
होता है व्यापार सदन में।

रस्ता भूले साफ सरल में
मंजिल पाई गहन-सघन में।

उडता टुकडा अखबारी है
नेता का चारित्र्य पवन में।

बात समझना तब है मुमकिन
उतर सको वक्ता के मन में।

पढे-सुने को समझा जाना
गज़ल हो गई अर्थ वहन में।

बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में।

कहने को है 'अश्क़' अकेले
महफिल रहती है चिंतन में। "


( कुछ अन्य अगली पोस्ट में)

सोमवार, 22 नवंबर 2010

पत्रकारिता यदि व्यवसाय है तो क्या व्यवसाय में आदर्श की हत्या माफ होती है?

समय, काल, परिस्थितियों के साथ-साथ पत्रकारिता की परिभाषा भी बदली है। उसका रूप, रंग और उद्देश्य ने भी करवट ली है। जिस पत्रकारिता का जन्म कभी 'मिशन' के तौर पर हुआ माना जाता था और जिसने अपनी महत्ता समाज़ की बुराइयों को जड से नष्ट करने के लिये स्थापित की थी वो आज अपनी उम्र के एक ऐसे पडाव पर आ पहुंची है जहां आगे खतरनाक खाई है और पीछे धकेलने वाले हजारों-हजार नये किंतु ओछे विचार। ये ओछे विचार ही आज की मांग बन चुके हैं। ऐसे विचार जिनमे स्वार्थगत चाटुकारिता निहित है, बे-ईमानी को किसी बेहतर रंग-रोगन से रोशन किया गया हैं और जिनमे ऐसे लोगों का वर्चस्व है जो अपनी सडी हुई मानसिकता को बाज़ार की ऊंची दुकानों में सजाये रखने का गुर जानते हैं। कह सकते हैं कि महात्मा गांधी की तरह ही पत्रकारिता भी आज महज इस्तमाल की चीज बन कर रह गई है। इसका हाल ठीक वैसा है जैसे घर में खांसता बूढा अपनी ही संतानों से सताया हुआ हो, या उसे बेघर कर दिया गया हो और उसकी विरासत को लूटा-झपटा जा रहा हो। सत्य, ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण वाले अति व्यंजन इस शब्द को स्वर्णाक्षर जरूर देते हैं किंतु यह दिखने वाली वह मरिचिका है जिसके आगे-पीछे सिर्फ रेत ही रेत बिछी है और सामान्य आदमी इस पर सफर नहीं कर सकता। ऊंट की तरह मेरुदंड वाले या कहें कूबड वाले लोग हैं जो इस रेत पर रास्ता बना कर दिशा तय कर रहे हैं। हां, मानस में यह प्रश्न जरूर उठता है कि यह सब हालिया बदलाव तो नहीं हैं, फिर अगर बदलाव हैं तो कब से और किस सदी से? पत्रकारिता का सत्यानाश आखिर कब से शुरु हुआ? और कैसे पाक से नापाक की ओर इसने रुख किया? इसका सही-सही आकलन करना वाकई कठिन है।
फ्रांस का बादशाह नेपोलियन बोनापार्ट जब विश्व विजय का ख्वाब देख रहा था तब उसने कहा था कि "एक लाख संगीनों की अपेक्षा मैं तीन समाचार पत्रों से ज्यादा डरता हूं।" यानी पत्रकारिता से डरने का क्रम 1769 ईसवीं से या इसके पहले से प्रारंभ हो चुका था, किंतु उस काल में इससे डरने का तात्पर्य यह था कि हम कहीं कोई गलत काम न कर बैठें या कोई ऐसी भूल न हो जाये कि लोग हमारे खिलाफ एकजुट हो जायें। समाचार पत्र तब समाज़ को और संसार को बचाये रखने का एक बेहतर जरिया माना जाता रहा। हमे अपने पौराणिक काल या उसके शास्त्रों में नारद जैसा एक विद्वान देवपुरुष मिलता है जो हालांकि पत्रकार नाम से कभी जाना नहीं गया किंतु उसके कार्य कुछ इसी प्रकार के थे। आप इसे नारद की चुगली या इधर की उधर लगाने वाली बात मान सकते हैं किंतु उनके इस कार्य में हमेशा ही कोई सदपरिणाम छुपा हुआ रहा, जिसने लोक की रक्षा की यानी लोकहितार्थ कार्य किये। सैमुअल बौल्स ने पत्रकारिता को देश की प्रमुख शक्ति के रूप में अगर समझा तो इसके पीछे यही कारण था कि पत्रकारिता जनता को जनता के हित में और बुराई से लड सकने का मार्ग प्रशस्त कर रही थी। किंतु समय के साथ-साथ अचानक जब वो सैमुअल जानसन की नज़र में आई तो उसने कहा " शायद ही कोई ऐसी चीज हो जो क्रूरता की कथा की तरह चेतना को झकझोरती हो। संवाद लेखक यह बताने से कभी नहीं चूकता कि शत्रुओं ने कैसे शिशुओं का वध किया और कुमारियों पर बलात्कार किया, और अगर घटनास्थल कहीं दूर रहा तो वह एक पूरे प्रदेश की आधी आबादी की खोपडियां उतरवा कर रख देता है।"
आप गंभीरता से सोचिये कि जिस पत्रकारिता ने भारत की आज़ादी में अपनी अहम भूमिका निभाई वो आज़ादी के बाद राजनीति, कारपोरेट या सेठ-साहुकारों के गलियारों में नाचती हुई दिख रही है। जहां यह फर्क करना दुश्वार हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन दलाल? या पत्रकारिता के भेष में दलाली ही दलाली? यदि इस रूप में पत्रकारिता है तो इसका दोष किसे दें? उन संपादकों को जिन्होने सेठ-मालिकों की जुबान पर अपने विचार तय किये? या उन सेठ-मालिकों को जिन्होने ऊंचे दाम में संपादक खरीदे? या ऐसे संपादकों को जिसने कभी अपने सहयोगियों को स्वच्छंद रहने, लिखने नहीं दिया। उन्हें हमेशा अपने हित के लिये दबाव में रखा और कार्य करवाया? यह आम राय है कि संपादकीय सहयोगी चाहे कितना भी प्रतिभावान हो उसे अपने संपादक की खुशी के लिये कार्य करना होता है न कि अखबार या चैनल के लिये। और यदि सहयोगी विशुद्ध प्रतिभा का इस्तमाल कर कोई बेहतर संपादन कार्य करना चाहता है तो संपादक द्वारा उसे अपने अहम और प्रतिष्ठा पर आघात मान लिया जाता है कि कैसे कोई अदना पत्रकार उन तक पहुंचे या उनसे अच्छा लिख सके। पेट और नौकरी की मज़बूरीवश सामान्य किंतु बेहद ऊर्जावान पत्रकार संपादकों के ओछे निर्णयों को भोगने, मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं। या फिर नौकरी छोड कर इस दलदल से दूर। शुद्ध पत्रकारिता को चकनाचूर करने मे इस रवैये ने भी अपनी अहम भूमिका निभाई है।
भारत में हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता की दशा में जमीन आसमान का फर्क है। हिन्दी पत्रकारिता गरीबी रेखा से नीचे की दिखती है और अंग्रेजी अमीरी रेखा से भी उपर की। वजह? वजह दोनों में भ्रष्ट नीति। एक ऊपर चढ बैठी तो दूसरी नीचे। सच्चीदानन्द हीरानंद वात्साययन 'अज्ञेय' की 'आत्मपरक' में इसी पत्रकारिता और संपादक के संदर्भ में उनके कथन है कि " आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही है और सम्मान के पात्र नहीं हैं।" विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक है 'पत्रकार कला' जिसमे उनकी भूमिका में गणेश शंकर विद्यार्थी का कोट है कि " यहां भी अब बहुत से पत्र सर्व साधारण के कल्याण के लिये नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं............., इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं, धन से ही वे चलते हैं और बडी वेदना के साथ कहना पडता है कि उनमे काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन की ही अभ्यर्थना करते हैं।" कृष्णबिहारी मिश्र भी इस पत्रकारिता के परिवेश को अपनी पुस्तक 'पत्रकारिता, इतिहास व प्रश्न' में यह जाहिर कर कहते हैं कि " आज पत्रकार देश के दुर्भाग्य को अपना दुर्भाग्य मानने और अपनी विरासत के उज्जवल अध्याय को अपना आदर्श बनाने को तैयार नहीं है। समाज के दूसरे वर्ग के लोगों की तरह वह निजी समृद्धि और विलास वैभव में जीने की आकुल स्पृहा से आंदोलित होकर रंगीन-घाटों पर दौडता नज़र आ रहा है।" ऐसे हालात सिर्फ भारत के बने हैं, ऐसा भी नहीं है..यह पत्रकारिता की दुनिया की रीत बन चुकी है। शायद तभी आस्कर वाइल्ड यह कहते पाये गये कि- " साहित्य और पत्रकारिता में फर्क यही है कि पत्रकारिता पढने योग्य नहीं होती और साहित्य पढा नहीं जाता।" जार्ज बर्नाड शा मानते थे कि-" एक साइकिल दुर्घटना और सभ्यता के बीच जो अंतर है, उसे पहचानने में समाचारपत्र जाहिरा तौर पर असमर्थ होते हैं।" यह इसलिये कि पत्रकारिता ने अपने स्तर को पुष्ट नहीं किया, उसने उसे बेहतर बनाने की दिशा नहीं दी। हो यह गया है कि पत्रकार तथ्यों के साथ इंसाफ नहीं कर रहा, इसके पीछे के कारण भी कई सारे होते हैं। मुझे मार्क ट्वेन के शब्द याद आते हैं कि-" पहले तथ्यों को प्राप्त कीजिये, फिर तो आप उन्हें जितना चाहे तोड-मरोड सकते हैं।" मार्क ने हो सकता है दूसरे लिहाज़ से कहा हो किंतु आज पत्रकारिता में अगर तथ्य होते हैं तो उनकी ऐसी-तैसी कर परोस दिया जा रहा है। नेपथ्य में दबाव, लालच या भ्रष्ट आचार का खेल है। समाचार पत्र मुख पत्र बन गये हैं और जो सचमुच मुखपत्र हैं उन पर छींटाकशी ऐसी कि मानों वे कोई अपराध कर रहे हों। कमसे कम वे मुखपत्र अपनी ईमानदारी तो दिखा ही रहे हैं जो समाचार पत्रों में नहीं दिखती।
आप न्यूज चैनलों की बात करें। आधुनिक युग का सबसे बडा और प्रभावशाली मीडिया तंत्र। इसे ग्लेमर या फैशन शो की संज्ञा दी जा सकती है, जहां समाचार और मुद्दो पर निष्पक्ष विचार नहीं होते बल्कि राजनेताओं के लिये खुला मंच सौंपा जाता है, खासकर उन्हें जो सत्ता में हो। सच भी है क्योंकि उनके वरदहस्त से ही सारी माल-मस्ती है। सूट-बूट और टाई में, जेल लगे सलीके से जमे केशों वाले प्रबुद्ध पत्रकार या बढी हुई दाढी और आधुनिक बुद्धिजीवी, जिसे आप अंग्रेजी में एक्स्ट्रा इंटलीजेंट कह सकते हैं, लोगों को इस कदर बेवकूफ बनाते हैं मानों उनके सिवा कोई पत्रकार नहीं है और ये ही चंद लोग अवार्ड या सम्मान पाते दिखते हैं। ऐसा लगता है मानों इलेक्ट्रानिक मीडिया के ये बाप-दादा हों, इनसे ही शुरु और इन पर ही खत्म होती है पत्रकारिता।
आप पिछले एक दशक का काल उठा कर देख लीजिये..कौनसा नया पत्रकार दिखा जिसे आपने कोई मीडिया अवार्ड लेते देखा? जब बडे जनर्लिस्ट दा किसी विवाद या घोटालों में फंसे दिखते हैं तो पत्रकारिता शर्म से अपना सिर नीचा कर लेती है। छोटों की बिसात क्या? वे तो छोटी छोटी बे-इमानियों में ही मस्त रहते हैं। पत्रकारिता की यह पापचरिता इतनी गंभीर रूप से पैठ चुकी है कि इसे ही हमने असल मान लिया है। कारपोरेट या चाटुकारिता वाली पत्रकारिता जबसे शुरू हुई तबसे इसकी जमीन पर अफीम उगने लगी, जिसके नशे में मदमस्त पत्रकार मानने को तैयार नहीं कि वह नशे में है। अफसोस होता है कि जिस पत्रकारिता ने वर्ष 1920 से 1947 के बीच संघर्ष, अभावों, अभिशापों और उत्पीडन के मध्य रहने के बावजूद देशहित में आग उगलती हुई कलम से भारतीय जनमानस में नईचेतना जाग्रत की, जिसने अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ एकमेव होकर अपनी आवाज़ बुलंद की और जिससे ब्रिटिश शासन तक हिल गया आज बाज़ार में सजी हुई है और जो चाहे उसे खरीद ले सकता है। आज 1885 के राजा रामपाल सिंह जैसे विशुद्ध लडाके नहीं बचे है जिन्होने राष्ट्रीय जागरण के लिये हिन्दी दैनिक 'हिन्दोस्थान' का प्रकाशन किया, और ऐसे ही अनगिनत पत्र प्रकाशित किये जाते रहे जो भारत की ऊर्जा, उसका आत्मबल साबित होते रहे। बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, गणेश विद्यार्थी जैसे अब इतिहास में दफ्न है जिनसे प्रेरणा लेना इन सफेदपोश माने जानेवाले पत्रकारों के लिये शरमींदगी का विषय है। मुझे फिर कृष्ण बिहारी मिश्र याद आते हैं जो लिखते हैं कि ".....स्खलन को नये मुहावरों से महिमान्वित करते गर्वपूर्वक कहा जाने लगा है कि पत्रकारिता आज व्यवसाय है। आदर्श का सवाल उठाना अप्रासंगिक राग टेरना है....।" मेरे जहन में एक सवाल कौन्धता है कि यदि पत्रकारिता व्यवसाय है तो क्या व्यवसाय में आदर्श की हत्या माफ होती है?
एक भारतीय मानसिकता यह भी कि "फिर भी उम्मीद है किसी ऐसे वीर, जाबांज की जो भारत की भूमि से इस गंदगी से सनी पत्रकारिता को उज्जवल कर दिखायेगा और ताज्जुब मत कीजिये कि इस और कदम बढाये जा चुके हैं। क्योंकि अच्छाई सनातन है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता और वो बुराई पर विजय प्राप्त करने के लिये ही अवतार लेती है।"

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

"सुन्दर कांड- एक पुनर्पाठ "


पिछले दिनों जब मैं अपने शहर खरगोन गया था, पिताजी ने दो पुस्तके पढने को दी थी। उनमें से एक थी "सुन्दर कांड- एक पुनर्पाठ।" हमारी विद्वता है यह कि हमने महाकाव्यों की सैकडों टीकायें, भाष्य, व्याख्यायें की और यह सुस्थापित करने का सफल प्रयत्न किया कि वे काव्य कितने सामयिक हैं, कितने ऊर्जावान हैं, कितने अमूल्य हैं। देखिये कि आज तक उन महाकाव्यों पर चिंतन का कोई अंतिम चरण नहीं आया, और वे हमेशा से ही हमारे लिये नये-नये द्वार खोलते जा रहे हैं..। जितना कुछ लिखा गया..लगता है कम ही लिखा गया..। जितना कुछ चिंतन हुआ..लगता है कम ही हुआ है, यह उस काव्य और उस लेखक की ईश्वरीय शक्ति है कि वो जीवंत, चेतना से लबालब, दिशायें प्रदत्त करने में सार्थक और लगातार हमारी बुद्धि को विस्तार देने का काम कर रहे हैं, भ्रांतियों को नष्ट कर रहे हैं। 'सुन्दर कांड-एक पुनर्पाठ' इस आधुनिक युग में बिल्कुल आधुनिक अंदाज में व्याख्यायित है कि मुझे उसके लेखक की लगन, मेहनत और अध्ययन पर ताज्जुब होता है। मैं जानता हूं कंप्यूटर और इंटरनेट की इस दुनिया में रिफ्रेंसेस बटौरने में आने वाली दुविधायें कम ही हो गई हैं किंतु इस पुस्तक के लेखक ने महज इंटरनेट का उपयोग कर उदाहरण बटौरे? नहीं लगता ऐसा। खूब-खूब अध्ययन का प्रतिफल है कि "सुन्दर कांड-एक पुनर्पाठ' जैसी अतिपठनीय पुस्तक का जन्म हो सका।
मैं पुस्तक के लेखक को नहीं जानता, सिर्फ पुस्तक पर उनके नाम से जाना कि इसका लेखक भी है..। इसके अलावा अपने परिचय में लेखक ने एक रत्ती शब्द भी नहीं लिखा है जिससे जाना जा सके कि वो कौन है, कहां का है, क्या करता है? जैसा कि आजकल होता है..कि हम अपनी पुस्तक पर अपना जीवन परिचय या कुछ इसप्रकार का लिख छोडते हैं। वैसे लेखक का यह गुण हो सकता है जो उसके किसी कारण से उपजा हो, किंतु मुझे भा गया इसलिये कि मैं सोचता हूं जो पुस्तक सर्वहारा के लिये लिखी जाती है वो निजी कभी नहीं रहती या उसपे अपने बारे में लिखने का मोह नहीं रहता। जैसे न कभी तुलसीदास को यह मोह रहा न वेदव्यास जैसे लेखकों को। अब अगर मैं पुस्तक के लेखक को इस श्रेणी में रख देता हूं तो यह उसके लिये सबसे बडा पुरस्कार है। हालांकि लेखक तुलसी, वेदव्यास, कालीदास आदि की पंक्ति का नहीं है क्योंकि लेखन भी उस तरह का नहीं है। यह लेखन समीक्षा है, तुलनात्मक अध्ययन है, और अपने विचारों को साकार करने के लिये दुनियाभर के उदाहरणों का संग्रहण है। इसे मैं आज के दौर के लेखक-पत्रकारों में सबसे श्रेष्ठ मानता हूं जो किसी दृष्टांत के प्रति अपनी पूरी शक्ति उढेल देता हैं और स्थापित करता है कि सच किस प्रकार सच है। मेरे पिताजी ने मुझे शायद इसीलिये यह पुस्तक पढने को दी थी कि मैं जान सकूं लेखन का एक और अद्भुत उदाहरण।
पहले मैं आपको बता दूं कि "सुन्दर कांड-एक पुनर्पाठ" के लेखक का नाम मनोज श्रीवास्तव है। बस। और उन्होने पुस्तक भी उन्हें समर्पित की है जिन्हें हनुमान की तरह बिना किसी दावे के सेवा करते रहना प्रिय है। आप सोच सकते हैं कि क्या यह पुस्तक हम सबको समर्पित हुई? या जिनके बारे में लिखी गई उसे ही? यानी हमारा इस पर सिर्फ उतना ही अधिकार है कि हम पुस्तक पढें, जानें और अपने दिमाग के तंतुओं को नई चेतना से जाग्रत कर अपने आदिपुरुषों के प्रति आभार व्यक्त करें जो हमे जीवन का सदमार्ग आज भी दिखा रहे हैं। और कोशिश करें कि पुस्तक हमारी हो जाये।
मैं पुस्तक की समीक्षा कत्तई नहीं करना चाहता। और इसके लिये बैठा भी नहीं हूं। मुझे पुस्तक ने प्रभावित किया। उसके विषय और विषय पर सार्थक प्रस्तुति ने अपनी ओर खींचा और चाहा कि यह आप सबको भी बताऊं.. बस्स इस लिहाज़ से मैं अपने भाव रख छोड रहा हूं। विषय वही है जो रहता आया है। या कहें जो हमारी जडों में व्याप्त है। तुलसीदास की महानतम कृति या कहें..तुलसी के राम की महानतम लीला का जो वर्णन रामचरितमानस में हैं, उसके एक अतिमहत्वपूर्ण भाग के सुन्दर कांड पर..नहीं पूरे सुन्दरकांड पर नहीं, किंतु हनुमानजी के संदर्भ में ही..उनके श्लोक पर आधारित बातों को हजारों रिफ्रेंसेस के जरिये जिन 252 पृष्ठों में समाहित किया गया है वो हमारी सोच को, सोच की दिशा को पन्ने दर पन्ने प्रभावित किये बगैर नहीं छोडता। जो यह साबित भी करता जाता है कि लेखक ने बला की मेहनत की है। उसके पास देखने, समझने और सोचने की बडी ही विचित्र शक्ति है, जिसने अपनी बात को किसी अंधविश्वास के तहत नहीं बल्कि आधुनिक मानसिकता के जरिये, बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से अंकित किया है।
ऐसा होता है। आजकल ऐसा ही हो रहा है कि हम अपनी जडों को छोडकर विज्ञान के तर्कों पर जीना सीख रहे हैं। चारों और हिन्दू संस्कारों, पुराणों, उनके विश्वासों पर आघात-प्रतिआघात करने का दुस्साहस चल रहा है। हमारे मानस को बदलने की जितनी राक्षसीय कुचालें रची जा रही है वे हमे अपने वज़ूद से डिगाने के लिये काफी है। इसलिये जरूरत पडती दिखती है कि हम सबूत दें। साबित करें। और उन मूर्खों को ज्यादा जो ईश्वरीय सत्य को झुठलाने के लिये बकवास करते फिरते हैं। हालांकि मुझे स्वामी अखंडानन्दजी का एक कथन यहां सौफीसदी अच्छा लगता है कि " जिन्हें खोजना है वो खोजें..मेरे लिये तो कृष्ण कदंब की डाली पर बैठा बांसूरी बजा रहा है..सामने ही..। तुम भी देख सकते हो..अगर तुम्हें देखना है तो, और अगर अनुसंधान करना है तो करो, मुझे क्या..। यह तुम्हारा काम है मेरा नहीं..क्योंकि मुझे तो कृष्ण दिख रहा है।" किंतु..आज का परिवेश बगैर साबित हुए चीजों को अन्ध विश्वास की नज़र करार देता है। और संभव है यह पुस्तक इसी अन्धेपन को दूर करने के लिये काफी है..। पुस्तक में हनुमानजी क्यों हनुमानजी हैं..इसे सार्थक करने की छोटी सी सफल कोशिश की गई है..क्यों वे अतुलित बलधामं हैं? हेमशैलाभदेहं क्यों है? कैसे हैं? या क्यों दनुजवनकृशानुं कहते हैं? ज्ञानिनामग्रगण्यं, सकलगुणनिधानं, वानराणामधीशम, रघुपतिअप्रियभक्तं, वातजातं, नमामी जैसे शब्दों पर विस्तार से अलग-अलग अध्याय के आधार पर सैकडों प्राचीन, आधुनिक, देशी, पाश्चात्य..लेखकों, विद्वानों..के कथनों..उद्धरणों आदि के रिफ्रेंसेस देते हुए सिद्ध किया गया है। और यह सिद्धता इसके लिये बिल्कुल भी नहीं है कि आप उसे आलोचना की श्रेणी में रखते हुए नकार सकें। "क्या तुलसी ने आतंक का प्रत्युत्तर सुन्दरकांड में दिया?" साबित किया है लेखक ने। जहां वाल्मिकी भी हैं अब्दाल सलाम फराज़ भी है तो स्यूवाल भी है, स्टोल भी है, साथ ही वैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत है तो कई रिपोर्ट्स हैं। कई कई कई...तरह से कई, कई विद्वानों के कथनों, आंकडों आदि को लेकर बूना जाने वाला यह जाल व्यक्ति को जानकारी, समझ, ज्ञान देने के लिये भरपूर तो है ही साथ ही यह स्थापित भी कर देने के लिये है कि हम अपनी भ्रांतियां उतार फेंके...। मैं बधाई देना चाहूंगा मनोज श्रीवास्तव को कि जिन्होने अपने ज्ञान, बुद्धि का सही सदुपयोग करते हुए इस तरह की पुस्तक को आकार दिया।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

घोटालों के बीच गुम हो रहा सुदर्शन चक्र

पूर्व संघ सरसंचालक सुदर्शन के बयान के बाद मचा बवाल इस पूरे पखवाडे में घोटालो की भेंट चढ गया। वैसे भी सुदर्शन कह कर चुप थे और उधर सोनिया गान्धी ने तो अपना मुंह खोला ही नहीं था। सुदर्शन नहीं जानते थे कि संघ और भारतीय जनता पार्टी उनके बयान पर मुंह फेर लेगी। मगर सोनिया जानती थी कि उन्हें चुप रहना है क्योंकि उनके चाटुकार सैनिकों की फौज काफी है इस बयान, बवाल से निपटने के लिये। यह देश की विडंबना है कि जिसे सुदर्शन का साथ देना चाहिये था उसने अपना हित साधने के लिये होंठ सिल लिये। सुदर्शन का बयान झूठा या सच्चा जो भी हो..किंतु यह जांच का विषय होना ही चाहिये था। आपको क्या लगता है कि सुदर्शन कोई नासमझ व्यक्ति है जिन्होंने किसी पागलपन के दौरे में बयान दिया? क्या वे इस देश को सोनिया से कम जानते हैं या सिर्फ सोनिया ही त्याग की मूर्ति हैं सुदर्शन नहीं? सुदर्शन पढे-लिखे, बेहद सुलझे विचारों वाले और तमाम ऊंच-नीच को जानने-समझने वाले व्यक्ति हैं, सोनिया से ज्यादा...। लिहाज़ा उनके बयान को घोटालों की इस बाढ में बहने नहीं देना चाहिये था। यह भी तो हो सकता है कि घोटालों की सनसनीखेज खबरें, सुदर्शन के आग उगलते बयान पर पानी का छींटा डालने का बेहतर षडयंत्र हो? आप कहेंगे अपने बयान के बाद सुदर्शन क्यों चुप हैं? आप यह क्यों नहीं कहते कि सोनिया क्यों चुप रही? वैसे उनको सलाम ठोंकने वाले सैनिकों का उत्तर होगा कि सोनिया फिज़ूल के आरोपों पर अपना मुंह क्यों खोलेगी। तो भाई आप सैनिक क्यों बक बक करते है? जब फिजुल है तो चुप ही रहा जाये न.., मामला अपने आप निपट जायेगा। किंतु इसके पीछे का खेल भी न्यारा है। यह ऐसे मुद्दे होते हैं जब सोनिया की नज़रों में आया जा सकता है। आप अपनी वफादारी अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं। लिहाज़ा सुदर्शन का बोलना हुआ नहीं था कि चारों ओर से उन्हें घेरने, उन्हें घसीटने, उन्हें खींचने का कांग्रेसी कॉमनवेल्थ शुरू हो गया था। इधर सुदर्शन चाहते तो होंगे कि संघ उनका साथ दे। यह ताज्जुब की बात है कि संघ ने उन्हें उनके निजी विचार बता कर उनसे किनारा कर लिया। भाजपा से वैसे भी कोई ज्यादा उम्मीद उन्हें नहीं थी क्योंकि भाजपाई सोच का और मुद्दों पर संघर्ष करने का ढंग बदल चुका है। हालांकि इस मुद्दे पर वो अगर अड जाती और बगैर किसी दबाव, बगैर किसी गलत प्रक्रिया के शुद्ध जांच की मांग करके, एक बार हो ही जाये वाली शैली में आ जाती तो उसे राजनैतिक फायदा जरूर होता साथ ही देश का भी फायदा हो जाता, और दूध का दूध पानी का पानी सामने आ जाता। मगर हर बार की तरह अफसोस कि इतने संवेदनशील बयान के बावज़ूद कोई सार्थक जांच नहीं हुई। आप सोच रहे होंगे कि मैं इतना उतावला क्यों हो रहा हूं इस बयान की तह में जाने के लिये? तो आपको बता दूं कि सोनिया के लिये सुदर्शन द्वारा व्यक्त किया गया बयान कोई नया नहीं था। इसके पहले भी इस तरह की बातें राजनीतिक चक्र में घूमी थीं, और घूम कर कहीं किसी दरार में छिप गई थीं। सुदर्शन ने उसे बाहर निकालने का साहस किया। आप बता सकते हैं सुदर्शन के इस साहस की पुनरावृत्ति कोई और कर सकता है क्या? वो कांग्रेसी नेता खुद भी नहीं जिसके वज़ूद पर सुदर्शन ने अपनी बात कही थी। वैसे कांग्रेसी नेताओं में वो जिगर है ही नहीं कि सोनिया के खिलाफ कुछ सोच भी सकें। यह उनकी अपनी मज़बूरी है। मेरा तो महज़ यह मानना है कि सुदर्शन जैसा व्यक्तित्व जिसने संघ जैसी विशाल राष्ट्रीय, राष्ट्रवादी संस्था को संभाला वो कोई नीचता जनक कार्य तो कभी नहीं कर सकता है, जिससे उनका मानमर्दन हो। तब उनका बयान सिवाय सुर्खियों तक सीमित रह जाये, या सिर्फ थोडे से बवाल में नष्ट हो जाये, देश की एक उच्च पदस्थ पार्टी की उच्च पदासीन अधिकारी के लिये भी ठीक नहीं। आखिर यह उनके अपने जमीर, ईमानदारी पर उठा सवाल है। और वह भी बहुत ज्यादा घातक। जवाब मिलना चाहिये था।
खैर..। घोटालों की बाढ में इन दिनों कांग्रेस क्या और भाजपा क्या..सब के सब बह रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड उछाल-उछाल राजनैतिक होली खेली जा रही है। जांच भी अवश्य होगी। किंतु कांग्रेस के लिये यह सुखद भी है क्योंकि अगर इन घोटालों की बाग़ड (खेत के किनारे खडी की जाने वाली घासफूस से बनी दीवार) तैयार नहीं की गई तो सोनिया पर उठे सवालों की लहलहाती फसल पर सबकी नज़र चली जा सकती है। इसलिये चाहे वो अशोक चव्हाण के आदर्श घोटाले की बात हो या रतन टाटा के बयान से उठे विवाद या फिर कॉमनवेल्थ के घोटालों की फेहरिस्त हो, सबकी सब मीडिया में अव्वल स्थान पर हो और सुदर्शन के बयान किसी रद्दी की टोकरी में पडे पुराने अखबार की तरह खत्म हो जाये..कांग्रेस की यह चाहत अवश्य रहेगी। खुदा जाने उसकी चाहतों में और क्या-क्या है? किंतु यह जरूर है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति पर प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा उठाई गई उंगली के लिये तीसरे अंपायर का निर्णय अगर दिया जाता तो मैच का रंग ज्यादा निखरता, उसका रोमांच बढता और सच्ची जीत सामने आती।