बुधवार, 14 अप्रैल 2010

तेरी प्रतिमा

बहुत दिनों से रागमयी कोई रचना नहीं की। दिमाग भी ऐसा है कि जिसमें मज़ा आता है वही करता रह जाता है, आलेख या समीक्षायें लिखने में रमा तो लिखता ही रहा, बगैर यह सोचे कि उनके पाठक ज्यादा नहीं, सीधी, सपाट कवितायें की तो बस करता ही चला गया, बगैर यह सोचे कि उसके रस में फीकापन भी है। मगर मैं जानता हूं मेरी फितरत ही ऐसी है, किंतु यह भी जानता हूं एक ही धारा में बहते रहना भी मुझे पसन्द नहीं, हालांकि कहते हैं धारायें बदलते रहने वाले को किनारा नहीं मिल पाता, वो भटकता रह जाता है। किंतु इसका भी अपना मज़ा है, किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है, सो ऐसा ही एक नयापन-


"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।

मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।

भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।

स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।

पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।

मेरे उजडे उपवन में कब सावन बन आओगी
कल्पना कुसुम हो मुकुलित नव जीवन सरसाओगे।

तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।

तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"
बहुत दिनों से रागमयी कोई रचना नहीं की। दिमाग भी ऐसा है कि जिसमें मज़ा आता है वही करता रह जाता है, आलेख या समीक्षायें लिखने में रमा तो लिखता ही रहा, बगैर यह सोचे कि उनके पाठक ज्यादा नहीं, सीधी, सपाट कवितायें की तो बस करता ही चला गया, बगैर यह सोचे कि उसके रस में फीकापन भी है। मगर मैं जानता हूं मेरी फितरत ही ऐसी है, किंतु यह भी जानता हूं एक ही धारा में बहते रहना भी मुझे पसन्द नहीं, हालांकि कहते हैं धारायें बदलते रहने वाले को किनारा नहीं मिल पाता, वो भटकता रह जाता है। किंतु इसका भी अपना मज़ा है, किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है, सो ऐसा ही एक नयापन-


"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।

मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।

भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।

स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।

पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।

मेरे उजडे उपवन में कब सावन बन आओगी
कल्पना कुसुम हो मुकुलित नव जीवन सरसाओगे।

तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।

तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

गांठे

जन्म के साथ
जिन्दगी की तरह
एक सीधी-सपाट डोर थमाई थी "उसने",
कहा था, इसके सहारे
इसीकी तरह तुम भी चलना।

अभी चलना शुरू किया ही था कि
रिश्ते-नातों की तमाम
गठानें बान्धनी भी शुरू कर दी।

जीवन को जीने, उसे मज़बूत बनाने के चक्कर में
कितनी गांठे बान्ध ली..।

और जब मुड कर देखा तो
उन्हीं गांठों में फंसे, तडपते से हम दिखे।

और तो और
गांठों की वजह से
वो सीधी-सपाट, लम्बी सी डोर भी
छोटी हो गई, बिल्कुल जिन्दगी की तरह।

अब गठान खुलती नहीं,
खुलती भी है तो डोर में सलवटे हैं
वो सीधी रही नहीं,
सो इंसानी फितरत कि
काटने लगे हैं अब अपनी ही डोर
अपनी ही जिन्दगी की तरह।

उपर से यह वाहियात सोच कि
एक दिन
न रहेगा बांस
न बजेगी बांसुरी।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

निवाला

सुबह होने के साथ ही
अट्टहास करता
छा जाता है
राक्षसी दिन।

जैसे भूखा हो बरसों से।

अपने नुकीले दांतों के बीच
रख कर चबाता है
और एक एक करके
खाने लगता है हम सबको।

अपने लवणयुक्त चिपचिपे
लार के साथ उतारता है
अन्धेरी गर्म कोठरी से पेट में।

फिर आंतों के
अजगरी कसाव से
दबाता है,
इतना कि सारी हड्डियां
चूर चूर हो जाती है।

खून-पसीना सबकुछ एक हो जाते हैं।

विटामिन, प्रोटिन, जैसे तमाम
शक्तिवर्धक पदार्थ को शोषित कर
अपनी धमनियों में भेजता है।

और रात होते ही
डकार मार सो जाता है।


बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

ज्ञान का अधिकार ज्यादा जरूरी

मैं एक कार्यक्रम में था। "शिक्षा के अधिकार पर चिंतन"। कुल पांच-छह वक्ता। अच्छे वक्ता थे। मुझे भी बोलने का अवसर मिला। हालांकि मैं बोलने या वक्ता के रूप में कहीं ज्यादा आता-जाता नहीं, क्योंकि सिर्फ बहस पर, विशेषकर औपचारिक बहस पर मैं विश्वास नहीं करता क्योंकि वहां विषय लुप्त हो जाते हैं और 'व्यक्ति विशेष' विषय पैदा हो जाते हैं। सो मुझे अधिक बेहतर लगते है ऐसे आयोजन जहां गम्भीरता हो। कोई चिंतन हो। जहां सार्थक मंथन होता हो। किंतु ऐसा अब ज्यादा कहां होता है? है न। पर कभी-कभी हो भी जाया करता है। जैसा हाल ही में हुआ। खैर, बहुत कुछ सुना, विषय था भी सार्थक और वो दर्शन की ओर मुड गया था सो ज्यादा आनन्द आने लगा था। अपनी बात रखते वक़्त कितना कुछ कहा, बोला शब्दशः याद नहीं किंतु सोचा इस विषय पर लिखना भी चाहिये, विषय अच्छा था सो आपके सम्मुख रखने के मोह से विलग नहीं हो सका। और लिखने के इस लोभ का संवरण नहीं कर सका, क्योंकि मैं समझता हूं, जब कोई सर्वहारा विषय होता है तो उसे व्यक्त कर देना चाहिये। छोटा सा आयोजन था, विशुद्ध साहित्यिक आयोजन अब अदने ही होते हैं। उसकी चर्चा भी अपने कुनबे से बाहर नहीं निकल पाती। ठीक भी है, शक्ति संचय शायद यही है।


"मेरा यह दृढ मानना है कि श्रद्धा है तो ज्ञान है। ज्ञान अर्जन के लिये श्रद्धा का होना अनिवार्य है। किसी भी प्रकार का ज्ञान आपकी श्रद्धा के प्रतिशत पर निर्भर करता है। मैं समझता हूं दुनिया में जितने प्रकार के दुख है, अशांति है, तनाव है वे पहले श्रद्धा के अभाव में तो बाद में ज्ञान के अभाव में ज्यादा हैं। निस्सन्देह इसका उपचार भारतीय आध्यात्म, उसके दर्शन में है। आपको बता दूं कि भारतीय आध्यात्म ईश्वर आस्था का विषय नहीं है। यह ईश्वर द्वारा, उसके प्रतिनिधित्व में या किसी प्रकार की घोषणा में नहीं है। यह सिर्फ श्रद्धा और ज्ञान की प्रीति है। यह खुद के भीतर के जगत का ही अध्ययन है, न कि बाहर के किसी प्रायोजन का प्रतिफल। आप जानते हैं कि भीतर का जगत रहस्यों से परिपूर्ण, बेहद ही दिलचस्प है। यहां ढेर सारी इच्छायें हैं, कामनायें हैं, राग है, द्वेष है , दुख हैं, सुख हैं किंतु चीर आनंद नहीं है। इसी आनन्द की बाहरी तलाश हमारे तमाम तनावों, अशांति की जनक है। जहां श्रद्धा का प्रतिशत कम है वहां ज्ञान का अभाव ज्यादा है। अब एक बडी ही दिलचस्प बात है कि भारतीय दर्शन का उद्गम, उसका जन्म दुख का कारण खोजने और उसे समाप्त करने की जीवन राह खोजते हुए हुआ है। यह भी आप जानते हैं कि कामनायें कर्म कराती हैं। चित्त में कर्मफल की इच्छायें जाग्रत करातीं हैं। और ये जो आप कर्म करते हैं उसके फलों में प्रकृति की ढेरों शक्तियां हिस्सा लेती हैं। कभी सफलता हाथ लगती है तो कभी नहीं लगती। किंतु दोनों कर्म बन्धन में आपको फंसाती हैं। भारतीय दर्शन में यही कर्म बन्धन, बार बार के जन्म का प्रतिफल है। आप गम्भीर होकर सोचिये कि कर्म बन्धन से मुक्ति ही स्थाई आनंद है। गीता में पूर्ण ज्ञान ही मुक्ति का उपाय दर्शाया गया है। ऋगवेद में यह ज्ञान प्रकृति की एक बडी शक्ति के रूप में है।
अब सरकार भले ही शिक्षा के अधिकार का कानून ले आये किंतु इस प्रकार की शिक्षा ज्ञान नहीं बांट सकती। ज्ञान के लिये तो आपको अपने भीतर की पाठशाला में जाना होगा। क्योंकि शिक्षा और ज्ञान में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है। शिक्षा सरोवर हो सकती है किंतु ज्ञान सागर है। यह सच है कि ज्ञान के लिये शिक्षा के रास्ते ही जाया जा सकता है किंतु पूर्ण रूप से श्रद्धा के संग। यह बडा ही अज़ीब दौर है जब हम भारतीय दर्शन से विरक्त शिक्षा को ही सम्पूर्ण मान बैठे हैं और अपने बच्चों तक में अल्फा, बीटा, गामा आदि सम्प्रेषित कर रहे हैं। यह सच है कि यह अतिआवश्यक है। किंतु यह भी सच है कि हम अपनी तरह, अपने बच्चों में भी अशांति, तनाव संक्रमित कर रहे हैं। इतनी आपाधापी, इतनी प्रतियोगिता और शिक्षा भी तो ऐसी जो श्रद्धा के बगैर है, ज्ञान से रिक्त है, सिर्फ जीविकोपार्जन के निमित्त। तो स्वभाविक रूप से कई प्रकार के तनाव घिर आने हैं। खैर..भारतीय शिक्षा में मान लीजिये यदि गीता का भी सब्जेक्ट इंक्लुड हो जाये तो? क्या बुराई है, यह किसी मज़हब से जुडा है, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। कुरान मदरसों में पढाई जाती है, बाइबल की विद्या भी कई स्कूलों में दी जाती है, गीता की क्यों नहीं? मेरा मानना है कि हमारी शिक्षा में गीता, कुरान, बाइबल, गुरुग्रंथ साहेब सबके वैकेल्पिक विषय होने चाहिये। दरअसल यह इसलिये कि मैं यहां ज्ञान की चर्चा कर रहा हूं जो इन्हीं विषयों में समाहित है। शोध जरूर होते हैं। शोध महज़ आपकी डिग्री तक सीमित न हो तो आध्यात्म के अन्दर झांका जा सकता है। अब आप यह मान सकते हैं कि दुनिया इन सब चीजों से बहुत आगे निकल चुकी है। ये विषय हमारी उन्नति, या आर्थिक प्रगति नहीं कर सकते, न ही देश-विदेश में आगे बढने में सफलता दे सकते हैं। यह है बगैर श्रद्धा। श्रद्धा किसी भी वस्तु में होगी, वो निश्चित रूप से आपको सफल करेगी ही। बस, सफलता के इस मापदंड में देखना यह है कि आप बाहरी सफलता प्राप्त कर रहे हैं या आंतरिक। बडा ही उबाऊ विषय लेकर चर्चा कर रहा हूं मैं। है न। किंतु मैं जानता हूं जिसकी श्रद्धा पढने की है उसे कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा, जिस प्रकार मेरी श्रद्धा लिखने में है और इसके लिये गहन अध्ययन हुआ। आप सोच सकते हैं इससे मुझे मिला क्या? सुख। इस सुख का औचित्य क्या? मैं किसी भी प्रकार के तनाव से मुक्त हूं। कितना? और कितने लम्बे समय तक ऐसा हो सकता है? जब तक मैं इस पूरी मनस्थिति में आकंठ डूबा रहूंगा। मैं आपको फिर कह देता हूं कि ये किसी प्रकार की ईशवरीय आस्था नहीं है। और न ही श्रद्धा अन्धविश्वास है। श्रद्धा पर डॉ.राधाकृष्णन ने अपनी राय देते हुए लिखा था कि- " श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं है। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने की महत्वकांक्षा है।" ( डॉ. राधाकृष्णन, श्रीमद्भाग्वत गीता, पृ.158)। चित्त की विशेष दशा श्रद्धा है। ज्ञान के कई क्षेत्र हैं। विज्ञान की भी कई शाखायें हैं। कोई डॉक्टर, कोई अर्थशास्त्री, कोई मनोविज्ञान, कोई दर्शन, कोई भूगर्भ शास्त्र कोई इतिहास आदि में ज्ञान अर्जित कर शांति चाहता है। किंतु गीता में ज्ञान का तात्पर्य खुद के अंतिम तत्व बोध से है। इसके लिये बडी महत्वकांक्षा चाहिये, और श्रद्धा इसी महत्वकांक्षा की ऊर्जा है।
ये जो हमारा भारत है, क्यों महान है? इसलिये कि यहां अनुभव अध्ययन, जिज्ञासा और निष्कर्षो की एक सुदीर्घ परम्परा है। भौतिक जगत के जितने भी अध्ययन हैं वे सारे हस्तांतरित हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के सूत्र खोजते हैं, हम सब भी लगभग इसी तकनीक का इस्तमाल करते हैं। किंतु आत्म ज्ञान अहस्तांतरित नही। कपिल, कणाद, गौतम, बादरायण, पतंजलि या शंकराचार्य आदि की अनुभूतियां वैयक्तिक है, वे प्रेरित कर सकती हैं मगर उनका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता। ये श्रद्धा के विषय हैं। उन्हें मिला आत्मज्ञान श्रद्धा की शक्ति पाकर हम सबके लिये महत्वकंक्षा बन सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मूर्ख, अश्रद्धालु और संशयी नष्ट हो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये न तो ये जगत है, न वो परलोक। उन्हें सुख तो मिल ही नहीं सकता। ( वही श्लोक 40)। हममें एक बुरी आदत भी है कि हम सन्देह करने लगते हैं। सन्देह दरअसल देह के साथ है। वृहदारण्यक उपनिषद (4.4.13) में कहा गया है कि- " शरीर में प्रविष्ट यह आत्म तत्व जिसे प्राप्त हो गया है- यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आतमास्मिन सन्देहेय गहने प्रविष्टः।" वह सब कर्ता है- "स हि सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव?" "उसे सबका कर्ता व लोक का स्वामी बताया गया किंतु तब वह और लोक दो होते हैं इसलिये अंतिम में जोडा गया हे - वही लोक भी है। प्रकृति और परमतत्व दो नहीं है। श्रीकृष्ण सन्देह और संशयों को खत्म करने के लिये ज्ञान मार्ग दिखाते हैं। क्योंकि ज्ञान से ही तमाम सन्देह दूर हो सकते हैं। आप मान सकते हैं कि हम भारतीय हैं इसलिये भारतीय दर्शन की महत्ता सिद्ध करते हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि यूरोपीय दर्शन जिसका आधार यूनानी दर्शन है वो भी भारतीय दर्शन से प्रभावित ही है। प्लेटिनस (204-70ई.) आखिरी यूनानी दार्शनिक रहे थे। उनका चिंतन भारतीय दर्शन से युक्त रहा। उनके विवेचन में जिन तीन तत्वों को दिखाया गया उसे ट्राइनिटी यानी त्रितत्व कहा गया। पहला 'वह एक' , दूसरा तर्क बुद्धि, तीसरा विश्वात्मा है। हालांकि इसाइयत ने इन्हें नहीं अपनाया। किंतु त्रित्व की कल्पना नई नहीं थी। महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात ऋगवेद के सातवें मंडल के एक मंत्र में 'त्र्यंबक यजामहे' हजारों साल पहले से ही मौजूद है। प्लेटिनस ने जागतिक कर्मों से परे रहकर मुक्ति मार्ग को अपनाने पर जोर दिया जो गीता कहती रही है। इसके पहले प्लेटो (428-427ई.पू) ने गीता की तरह 'फीडो' मे कहा है कि "देहधारी अज्ञानी होकर बन्धन में होते हैं। किंतु ज्ञानी मुक्त हो जाते हैं।" प्लेटो 'रिपब्लिक' में लिखते हैं कि-" शुभ प्रत्यय पर ध्यान करने से आत्मा की गति ऊर्ध्वगामी हो जाती है और आनंदद्वीप पहुंच जाती है।" कुलमिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शन ज्ञान का महासागर है, इसमें डुबकी लगायें, दावे के साथ कहता हूं बाहर आने की इच्छा ही नहीं होगी, खैर ..ज्ञान सर्वोच्च है। इसे श्रद्धा से ग्रहित करें। कभी-कभी हमें लगता है कि कोई विषय रुचिकर नहीं है किंतु सम्भव है वो ही जीवन मार्ग के लिये असल रोशनी हो। यानी, शिक्षा का अधिकार सरकार दे सकती है, किंतु जो अधिकार हमारे भीतर है उससे हम दूर क्यों रहें। श्रद्धा रखे, ज्ञान प्रेषित करें। जन जन तक पहुंचाने का कर्म करें। बस कर्म करें। "

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

डोर

यह 150 वीं पोस्ट है, पता ही नहीं चला। खैर.., काफी दिनों से काव्यात्मक कुछ लिखा नहीं,वैसे मूलत: मैं तो आलेख लिखने वाला ठहरा, काव्यात्मक रचना मेरे बस की नहीं, सिर्फ प्रयासभर करता हूं। हां, कवितायें पढने में बहुत रस लेता हूं। अपने चन्द लेखक कवि हैं जिनके ब्लोग पर जा कर अपनी काव्य प्यास बुझा लेता हूं। इन कवि हृदयों से सीखते हुए कभी कभी मैं भी शब्दों को धारा में बहाने का प्रयत्न कर बैठता हूं, पता नहीं यह धारा में बहते भी हैं या इधर उधर होकर कहीं अटक जाते हैं? जो भी हो आपके सामने है। शब्द अटके हों तो निकालने में सहायता करें।

"मां से नज़र बचा
भरी दोपहर अपनी
नवजात प्रेम डोर लिये
भाग जाया करता था
कहीं सुदूर
वीराने पडे मैदान में।

डोर मांझने की खातिर
तपी हुई,
खौलती हुई
सरस,गोन्द की लुग्दी
मलता था, ताकि
वो पक्की हो सके।

फिर दुनियाई पतंगों को
काटने की खातिर
बीन कर लाये
कांच के टुकडों को
पीस-पीस महीन कर
उसका बुरादा बना
लगाता था।

चढाता था उस पर
अपने खून से बना रंग।
सूखने देता था घंटों
तेज़ धूप में उसे।
ये तप था, और अज़ीब सा
गुदगुदाता उत्साह था।

यकीन हो जाता था कि
हां, अब ठीक है तो
होले होले से
लपेट कर उसे
अपनी दिल की चक्री में
छुपाकर लौटता था घर।

ऐसा तो रोज़ ही किया।
धूप में जला बदन
हाथों में पडे छाले
और उपर से खाई
मां की डांट भी,
मगर सुकून था।

कि एक दिन इस
आकाश में उडाऊंगा
अपनी भी पतंग।
और काटूंगा विरोध की
तमाम उन पतंगों को
जो रोज़ उडती हुई देखता हूं।

सच पूछो तो पता नहीं था
बाज़ार में बिकने वाले
रासायनिक पदार्थों से लिपटे
इन पक्के धागों के बारे में,
जो महंगे और मज़बूत थे
बिल्कुल समाज़ की तरह।

तभी तो
थिगी ही थी कि
कट गई,
दूर कहीं जा अटकी
बबूल के पेड में।

आज भी लटकी है वहीं,
अपने उसी बने मंझे हुए
धागे के साथ,
जो हवा के संग इधर-उधर
पता नहीं कहां कहां
आधारहीन झूल रहा है।
वक़्त की मार सहता
रंगहीन, कमज़ोर, मज़बूर
बेचारा, यूं ही।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

मेरी नज़र में-नाटककार चरणदास सिद्धू (अंतिम भाग)

14.3.1997 को डॉ. राजेन्द्र पाल को दिये गये एक साक्षात्कार में डॉ.चरणदास सिद्धू ने नास्तिकता पर अपने विचार प्रकट किये हैं। ( नाट्यकला और मेरा तजुरबा, पृ.141) यह मुद्दा वाकई गम्भीर है। डॉ.सिद्धू नास्तिक हैं। पहले नहीं थे, बाद में हुए। ( इंगलिश ऑनर्स करते समय मैने, प्राइवेट कैंडिडेट के तौर पर, प्रभाकर ( हिन्दी) तथा विद्वानी (पंजाबी) के इम्तिहान पास किये। तब तक मैं आम लोगों जैसा वहमी था...।' इसी पुस्तक से , पृ.142) यह जो होना होता है उसे मैं ठीक वैसे ही लेता हूं जैसे कोई पहले पढाई किसी विषय की कर रहा होता है और बाद में करियर कोई दूसरा चुन लेता है। उन्होनें एक जगह कहा है- "मैं नास्तिक हूं। बिना झिझक हर एक को बताता हूं कि मुझे कल्पित रब में विश्वास नहीं है।..... मैं मुश्किल से मुश्किल घडी में भी किसी दैवी ताकत से, प्रार्थना करके, भीख नहीं मांगता। मगर मैं जानबूझकर आस्तिक लोगों की बेइज्जती नहीं करता। मुझे कमजोर वहमी लोगों से हमदर्दी है। काश उनके पल्ले सोच समझ होती। अंदरूनी शक्ति होती...।" मुझे याद आते हैं सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गान्धी, विनोबा भावे आदि। मुझे सोचना होगा कि क्या ये कमजोर थे? या वहमी थे? या फिर इनमे अन्दरूनी शक्ति का अभाव था? इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ कतई नहीं लिखना चाहुंगा, क्योंकि मैने जाना है कि दुनिया के जितने भी नास्तिक हैं वे तमाम लोग बहुत बडे आस्तिक होते हैं। अपने नास्तिक होने के लिये वे जिस रब या ईश्वर का विरोध करते रहते हैं उम्रभर, तर्क देते हैं, अमान्य करने की कोशिश करते हैं और बहुत कुछ आस्तिकता पर कहते हुए यह भी कहते हैं कि जानबूझकर आस्तिक लोगों को बेइज्जत नहीं करता तब उससे लगता है कि ये 'रब' काल्पनिक तो कतई नहीं हो सकता। वरना इतना विरोध क्यों? खैर..। ऐसे में मेरी आस्तिकता और अधिक दृढ हो जाती है। बरनर्ड शॉ, बरट्रेंड रसल, सैमुअल बटलर, टॉमस हार्डी तथा कई यूरोप व अमेरिका के लेखक व चिंतक-खासकर कार्ल मार्क्स की विचारधारा के प्रशंसक। मनोविज्ञान की किताबें और मिथिहास के बारे में फ्रेज़र जैसे विद्वानों के खोज ग्रंथ आदि ने डॉ सिद्धू को तर्कशील बनाया। भारत देश सनातन काल से आध्यात्मिक रहा है, ऐसा माना जाता है। वेद-पुराण, शास्त्र और कई तरह के दर्शनयुक्त साहित्य रचे गये, बडे से बडे साहित्यकारों द्वारा....। शायद सब फिज़ुल? मैने कहीं पढा था कि भारत जैसे अतिबुद्धिवादी देश और इसकी परम्पराओं को नष्ट करने के लिये भी विदेशों में काफी काम हुआ है। विदेशी साहित्यकारों का एक पूरा जमघट लगा..।खैर.., यह विषय सचमुच बहस के लायक नहीं है क्योंकि मेने हमेशा माना है कि तर्क समाधान नहीं देता, सिर्फ उलझाता है, भ्रमित रखता है। आखिर इस 'तर्क' का रूप भी तो ऐसा है कि इसे उल्टा कर पढे तो होता है 'कर्त', यानी 'काटना'। बस तर्क सिर्फ काट है। काट कब समाधानी हुआ? बहरहाल, इस बहस में उज्जवल पक्ष जो जीवन की प्रेरणा हो सकता है, उसे कतई नहीं भूला जा सकता।
20 बरसों के लगातार लेखन, अनुभवों को समेटने का प्रतिफल है डॉ सिद्धू की यह किताब"नाट्यकला और मेरा तजुरबा"। डॉ. सिद्धू गम्भीर चिंतक हैं। जो व्यक्ति 7वीं जमात में परिपक्व विचार पाल लेता हो उसका पूरा जीवन कैसा होगा इसकी कल्पनाभर करके समझा जा सकता है। " कुछ बन्दे मौत को जीत लेते हैं। अपने कारनामों के जरिये, कलाकृतियों द्वारा, वे अपनी जिन्दगी को अमर बना जाते हैं। मुझे चाहिये, मैं भी अपनी मेहनत सदका, दिमागी ताक़त के भरोसे, कुछ इस तरह का काम कर जाऊं, लोग मेरा काम और मेरा नाम सदियों तक याद रखें।" फिर 32 वर्ष में प्रवेश करते करते उन्होंने साध लिया कि आखिर उन्हें करना क्या है? 'कॉलेज में पढाने के साथ-साथ मैं नाटक पढने, देखने, लिखने और खेलने पर शेष जिन्दगी लगाउंगा।' आप सोच सकते हैं कि जिला होशियारपुर का एक देहाती लडका, प्रोफेसर बनता है, नाटक लिखता है, खेलता है, आई ए एस के इम्तिहान में सफल होता है किंतु नाटक के शौक में वो उसे त्यागता है, अमेरिका जाता है, अंग्रेज़ी का डबल एमए, फर्स्टक्लास, पीएचडी और तमाम नाटककारों का गहन अध्ययन करता हुआ युरोप की यात्रा करता है, तेहरान होते हुए स्वदेश लौटता है। और इस बीच अपने लक्ष्य को बेधने के लिये पूरी तरह तैयार हो जाता है...। क्या यह सब सहज हो सका? नहीं। लगन, मेहनत और दृढ विश्वास का नतीजा था कि डॉ. सिद्धू ने जो ठाना था उस दिशा में वे अपना वज़ूद ले, निकल पडे थे, संघर्ष खत्म नहीं बल्कि नये नये सिरे से उठ खडे हुए थे। अपनी पूरी जिंदगी कभी हार नहीं मानी। उन्होने जो देखा वो लिखा, देहात का परिवेश, सामाजिक समस्यायें, धर्म, कर्म आदि तमाम गूढ बातों का चिंतन-मनन उनके नाटकों में उतरता रहा। मंचित होता रहा। उनकी धुन, लगन, मेहनत देख देख कर उनके छात्र, दोस्त आदि जो उनके करीब आया सबके सब उनके मुरीद होते चले गये। आलोचना नहीं हुई, ऐसा भी कभी नहीं हुआ, या यूं कहें ज्यादा आलोचनायें ही हुई और सिद्धू साहब कभी डिगे नहीं। उनका पूरा परिवार उनके साथ सतत लगा रहा। और जीवन भी क्या, कि जो देखा वो कहा, कोई लाग-लपेट नहीं, कोई भय नहीं, कोई चिंता नहीं। थियेटर का यह बिरला कलाकार धनी नहीं था, न हुआ और न ही इसका कोई उपक्रम किया। वो सिर्फ नाटक के लिये पैदा हुए। पूरी इमानदारी से नाटक को समर्पित रहे। जीवन में, अपने काम में जब भी आप इमानदार होते हैं तो सफलता भी इमानदार ही प्राप्त होती है जो लगभग आदमी को अमर कर देती है। तभी तो मुझ जैसा भी उन पर कुछ लिखता है, उन्हें याद करता है और राह बनाता है कुछ ऐसे ही जीवन जीने या हौसले के साथ रहने की। यह व्यक्ति के कार्य ही हैं जो जग में विस्तारित होते चले जाते हैं।
अपने कई नाटकों का विशेष ज़िक्र किया है चरणदासजी ने, जैसे इन्दूमती सत्यदेव, स्वामीजी, भजनो आदि, बस यह जान सका हूं कि नाटक क्या हैं, किस पर आधारित है और उसका मूल क्या है। मगर वो कैसे हैं यह तो देख कर या उसे पढकर ही पता लग सकता है इसलिये नाटकों पर मैं कुछ नहीं लिख सकता। सिद्धू साहब की दूसरी पुस्तक जो मेरे पास है (नाटककार, चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र), उसका सम्पादन रवि तनेजा ने किया है और कुल 29 लोग, जिनमें साहित्यकार, नाटककार, समीक्षक, लेखक, छात्र आदि सब कोई समाहित हैं जिन्होंने एकमत से सिद्धू साहब के जीवन के पहलुओं को अपने-अपने तरीके से व्यक्त किया है। अपने संस्मरण व्यक्त किये हैं। असल में यही सब तो होती है, जीवन की पूंजी। जीवन की सफलता। सिर ऊंचा उठा कर चलते रहने की शक्ति। ऐसे व्यक्ति दुर्लभ होते है। बिरले होते हैं। आप कह सकते हैं कि सचमुच के इंसान होते हैं। ताज्जुब और विडम्बना यह कि 'इंसान' को पढने, जानने, समझने वाले आज कम होते चले जा रहे हैं।