14.3.1997 को डॉ. राजेन्द्र पाल को दिये गये एक साक्षात्कार में डॉ.चरणदास सिद्धू ने नास्तिकता पर अपने विचार प्रकट किये हैं। ( नाट्यकला और मेरा तजुरबा, पृ.141) यह मुद्दा वाकई गम्भीर है। डॉ.सिद्धू नास्तिक हैं। पहले नहीं थे, बाद में हुए। ( इंगलिश ऑनर्स करते समय मैने, प्राइवेट कैंडिडेट के तौर पर, प्रभाकर ( हिन्दी) तथा विद्वानी (पंजाबी) के इम्तिहान पास किये। तब तक मैं आम लोगों जैसा वहमी था...।' इसी पुस्तक से , पृ.142) यह जो होना होता है उसे मैं ठीक वैसे ही लेता हूं जैसे कोई पहले पढाई किसी विषय की कर रहा होता है और बाद में करियर कोई दूसरा चुन लेता है। उन्होनें एक जगह कहा है- "मैं नास्तिक हूं। बिना झिझक हर एक को बताता हूं कि मुझे कल्पित रब में विश्वास नहीं है।..... मैं मुश्किल से मुश्किल घडी में भी किसी दैवी ताकत से, प्रार्थना करके, भीख नहीं मांगता। मगर मैं जानबूझकर आस्तिक लोगों की बेइज्जती नहीं करता। मुझे कमजोर वहमी लोगों से हमदर्दी है। काश उनके पल्ले सोच समझ होती। अंदरूनी शक्ति होती...।" मुझे याद आते हैं सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गान्धी, विनोबा भावे आदि। मुझे सोचना होगा कि क्या ये कमजोर थे? या वहमी थे? या फिर इनमे अन्दरूनी शक्ति का अभाव था? इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ कतई नहीं लिखना चाहुंगा, क्योंकि मैने जाना है कि दुनिया के जितने भी नास्तिक हैं वे तमाम लोग बहुत बडे आस्तिक होते हैं। अपने नास्तिक होने के लिये वे जिस रब या ईश्वर का विरोध करते रहते हैं उम्रभर, तर्क देते हैं, अमान्य करने की कोशिश करते हैं और बहुत कुछ आस्तिकता पर कहते हुए यह भी कहते हैं कि जानबूझकर आस्तिक लोगों को बेइज्जत नहीं करता तब उससे लगता है कि ये 'रब' काल्पनिक तो कतई नहीं हो सकता। वरना इतना विरोध क्यों? खैर..। ऐसे में मेरी आस्तिकता और अधिक दृढ हो जाती है। बरनर्ड शॉ, बरट्रेंड रसल, सैमुअल बटलर, टॉमस हार्डी तथा कई यूरोप व अमेरिका के लेखक व चिंतक-खासकर कार्ल मार्क्स की विचारधारा के प्रशंसक। मनोविज्ञान की किताबें और मिथिहास के बारे में फ्रेज़र जैसे विद्वानों के खोज ग्रंथ आदि ने डॉ सिद्धू को तर्कशील बनाया। भारत देश सनातन काल से आध्यात्मिक रहा है, ऐसा माना जाता है। वेद-पुराण, शास्त्र और कई तरह के दर्शनयुक्त साहित्य रचे गये, बडे से बडे साहित्यकारों द्वारा....। शायद सब फिज़ुल? मैने कहीं पढा था कि भारत जैसे अतिबुद्धिवादी देश और इसकी परम्पराओं को नष्ट करने के लिये भी विदेशों में काफी काम हुआ है। विदेशी साहित्यकारों का एक पूरा जमघट लगा..।खैर.., यह विषय सचमुच बहस के लायक नहीं है क्योंकि मेने हमेशा माना है कि तर्क समाधान नहीं देता, सिर्फ उलझाता है, भ्रमित रखता है। आखिर इस 'तर्क' का रूप भी तो ऐसा है कि इसे उल्टा कर पढे तो होता है 'कर्त', यानी 'काटना'। बस तर्क सिर्फ काट है। काट कब समाधानी हुआ? बहरहाल, इस बहस में उज्जवल पक्ष जो जीवन की प्रेरणा हो सकता है, उसे कतई नहीं भूला जा सकता।
20 बरसों के लगातार लेखन, अनुभवों को समेटने का प्रतिफल है डॉ सिद्धू की यह किताब"नाट्यकला और मेरा तजुरबा"। डॉ. सिद्धू गम्भीर चिंतक हैं। जो व्यक्ति 7वीं जमात में परिपक्व विचार पाल लेता हो उसका पूरा जीवन कैसा होगा इसकी कल्पनाभर करके समझा जा सकता है। " कुछ बन्दे मौत को जीत लेते हैं। अपने कारनामों के जरिये, कलाकृतियों द्वारा, वे अपनी जिन्दगी को अमर बना जाते हैं। मुझे चाहिये, मैं भी अपनी मेहनत सदका, दिमागी ताक़त के भरोसे, कुछ इस तरह का काम कर जाऊं, लोग मेरा काम और मेरा नाम सदियों तक याद रखें।" फिर 32 वर्ष में प्रवेश करते करते उन्होंने साध लिया कि आखिर उन्हें करना क्या है? 'कॉलेज में पढाने के साथ-साथ मैं नाटक पढने, देखने, लिखने और खेलने पर शेष जिन्दगी लगाउंगा।' आप सोच सकते हैं कि जिला होशियारपुर का एक देहाती लडका, प्रोफेसर बनता है, नाटक लिखता है, खेलता है, आई ए एस के इम्तिहान में सफल होता है किंतु नाटक के शौक में वो उसे त्यागता है, अमेरिका जाता है, अंग्रेज़ी का डबल एमए, फर्स्टक्लास, पीएचडी और तमाम नाटककारों का गहन अध्ययन करता हुआ युरोप की यात्रा करता है, तेहरान होते हुए स्वदेश लौटता है। और इस बीच अपने लक्ष्य को बेधने के लिये पूरी तरह तैयार हो जाता है...। क्या यह सब सहज हो सका? नहीं। लगन, मेहनत और दृढ विश्वास का नतीजा था कि डॉ. सिद्धू ने जो ठाना था उस दिशा में वे अपना वज़ूद ले, निकल पडे थे, संघर्ष खत्म नहीं बल्कि नये नये सिरे से उठ खडे हुए थे। अपनी पूरी जिंदगी कभी हार नहीं मानी। उन्होने जो देखा वो लिखा, देहात का परिवेश, सामाजिक समस्यायें, धर्म, कर्म आदि तमाम गूढ बातों का चिंतन-मनन उनके नाटकों में उतरता रहा। मंचित होता रहा। उनकी धुन, लगन, मेहनत देख देख कर उनके छात्र, दोस्त आदि जो उनके करीब आया सबके सब उनके मुरीद होते चले गये। आलोचना नहीं हुई, ऐसा भी कभी नहीं हुआ, या यूं कहें ज्यादा आलोचनायें ही हुई और सिद्धू साहब कभी डिगे नहीं। उनका पूरा परिवार उनके साथ सतत लगा रहा। और जीवन भी क्या, कि जो देखा वो कहा, कोई लाग-लपेट नहीं, कोई भय नहीं, कोई चिंता नहीं। थियेटर का यह बिरला कलाकार धनी नहीं था, न हुआ और न ही इसका कोई उपक्रम किया। वो सिर्फ नाटक के लिये पैदा हुए। पूरी इमानदारी से नाटक को समर्पित रहे। जीवन में, अपने काम में जब भी आप इमानदार होते हैं तो सफलता भी इमानदार ही प्राप्त होती है जो लगभग आदमी को अमर कर देती है। तभी तो मुझ जैसा भी उन पर कुछ लिखता है, उन्हें याद करता है और राह बनाता है कुछ ऐसे ही जीवन जीने या हौसले के साथ रहने की। यह व्यक्ति के कार्य ही हैं जो जग में विस्तारित होते चले जाते हैं।
अपने कई नाटकों का विशेष ज़िक्र किया है चरणदासजी ने, जैसे इन्दूमती सत्यदेव, स्वामीजी, भजनो आदि, बस यह जान सका हूं कि नाटक क्या हैं, किस पर आधारित है और उसका मूल क्या है। मगर वो कैसे हैं यह तो देख कर या उसे पढकर ही पता लग सकता है इसलिये नाटकों पर मैं कुछ नहीं लिख सकता। सिद्धू साहब की दूसरी पुस्तक जो मेरे पास है (नाटककार, चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र), उसका सम्पादन रवि तनेजा ने किया है और कुल 29 लोग, जिनमें साहित्यकार, नाटककार, समीक्षक, लेखक, छात्र आदि सब कोई समाहित हैं जिन्होंने एकमत से सिद्धू साहब के जीवन के पहलुओं को अपने-अपने तरीके से व्यक्त किया है। अपने संस्मरण व्यक्त किये हैं। असल में यही सब तो होती है, जीवन की पूंजी। जीवन की सफलता। सिर ऊंचा उठा कर चलते रहने की शक्ति। ऐसे व्यक्ति दुर्लभ होते है। बिरले होते हैं। आप कह सकते हैं कि सचमुच के इंसान होते हैं। ताज्जुब और विडम्बना यह कि 'इंसान' को पढने, जानने, समझने वाले आज कम होते चले जा रहे हैं।