बहुत दिनों से रागमयी कोई रचना नहीं की। दिमाग भी ऐसा है कि जिसमें मज़ा आता है वही करता रह जाता है, आलेख या समीक्षायें लिखने में रमा तो लिखता ही रहा, बगैर यह सोचे कि उनके पाठक ज्यादा नहीं, सीधी, सपाट कवितायें की तो बस करता ही चला गया, बगैर यह सोचे कि उसके रस में फीकापन भी है। मगर मैं जानता हूं मेरी फितरत ही ऐसी है, किंतु यह भी जानता हूं एक ही धारा में बहते रहना भी मुझे पसन्द नहीं, हालांकि कहते हैं धारायें बदलते रहने वाले को किनारा नहीं मिल पाता, वो भटकता रह जाता है। किंतु इसका भी अपना मज़ा है, किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है, सो ऐसा ही एक नयापन-
"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।
मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।
भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।
स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।
पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।
मेरे उजडे उपवन में कब सावन बन आओगी
कल्पना कुसुम हो मुकुलित नव जीवन सरसाओगे।
तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।
तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"
ख़ास दिन …
3 दिन पहले
28 टिप्पणियां:
भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।
बेहतरीन भाव
सुन्दर
भाई, जरा कभी पॉडकास्ट करें अपना गीत तर्रनुम में तो मजा आये.
... बहुत सुन्दर,बेहतरीन रचना !!
nice
वाह वाह अमिताभ क्या बात है , कमाल है । उडन जी की रिक्वेस्ट को हमारा भी वोट है
"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।
बहुत सुन्दर।
अभी एक रचना की खुमारी उतरी नही थी कि दूसरी रचना पेश कर दी। लगता है अब तो ये खुमारी कई दिनों तक नही उतरेगी। इस "तेरी प्रतिमा" वाली रचना का ख्याल कहाँ से आया जी। शुक्रिया उस हवा और उस समय का जिसकी वजह हमें एक और बेहतरीन रचना पढने को मिली। एक एक शब्द बहुत कुछ कहता है। और अंदर तक छूता है। और हाँ गजब की लय बनी है जी।
स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।
पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।
बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ! अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! बहुत बढ़िया लगा! लाजवाब! उम्दा प्रस्तुती!
भरी भरकम शब्दों में से हमें जो अत्यंत सुन्दर लगा वो ये है...
पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी...
लेकिन अमिताभ जी, इस कविता में उन कवियों की आत्माओं को प्रसन्न करने की क्षमता है जिन्हें नयी पीढ़ी के लोग अब समझ नहीं पाते और इसलिए केवल लाइब्रेरी की शोभा बढ़ने के लिए रखते हैं...
धन्यवाद ऐसी कविता लिखने के लिए...
'तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"
हिंदी के सुन्दर शब्द का प्रयोग और सशक्त भावाभिव्यक्ति .
कविता बहुत पसंद आई.
'भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है'
कवियों और लेखकों की यही तो खासियत है कि 'ठहराव 'शब्द ही अजनबी है उनके लिए..
नयी विधा नयी शैली आजमाते रहना लेखन में विविधता और रोचकता लाता है..अन्यथा एकरस रचनाएँ पाठक भी पसंद नहीं करते.
तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"
....Ek naya pyarbhara tarana sachmuch kuch hatkar... Bahut achha laga... hona bhi chahiye kuch nutan....
Bahut shubhkamnayne.
तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।
तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥
वाह अमिताभ जी आज तो हवा ही कुछ और है भटकने का मज़ा भी और है और इस पोस्ट का भी
आज तो जैसे रस तपाक रहा है आपके ब्लॉग पर .. लय तो है बस आवाज़ और ताल की कमी है ... मा सरस्वती उतार आई हैं आज लेखनी में ... बहुत अच्छा लिखा है अमिताभ जी ...
मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।
स्मृति के मधुर पल ... कभी आँसू तो कभी मुस्कुराहट ... लाजवाब लिखा है ..
स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।
बहुत सुंदर शब्द हैं ... पर उनकी स्मृति मौन प्रतीक्षा को कुछ कम कर देती है .....
पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।
इस खारे पानी को बचा कर रखना ही उचित है ... क्या पता कभी पीने के काम आ जाएँ ... कहानी तो कभी न कभी उन तक पहुँच ही जाएगी ...
पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।
सुन्दर अभिव्यक्ति...
पुराने कवियों की याद ताज़ा करदी | तुझको पीड़ा में ढूंढा अब तुझमे ढूंढेंगे पीड़ा
shabd vinyas bahut khoobsurat hai..kuchh shabd bahut acchhe prayog huai hai. bahtareen rachna.badhayi.
Uff! Kitna dard hai is rachana me!
bahut hi umda ,babhut hi gaharai se likhi gai post. badhiyan likhte hai aap.
poonam
लेकिन धाराये बदलने का भी अपना एक अलग आनन्द है भाई । जो मन हो लिखते रहो सर्जनात्मकता उसी मे है ।
किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है
बहुत सही कहा आपने अमिताभ जी.....भटकते रहने से नया नया देखने सीखने जाने को मिलता है...और यही जीवन है ......
और उतनी ही सुन्दर ये रागमयी कविता ...:)
तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में
क्या कहने .....
क्षमा चाहूँगा .....बहुत दिन बाद आया इस तरफ ...:)
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।
....तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।...
vry beautiful...sunder bhaav , shabd ka sunder samanvay....!!
alnkaro se susjjit smpoorn khubsurat kvita .aapki ye vidha aur nya pryog bahut kuch de gya.
श्रीवास्तव जी
वाकई अनुशाहित छन्द भाव पूर्ण भी
बधाईयां
मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।
इसमे सचमुच नयापन है ।
तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।
अप्रतिम!
'तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥
... बहुत सुन्दर,बेहतरीन
Bahut dino se blog par nahi aye ... kuch likha bhi nahi ... asha hai sab kushal hoga ...
Apna samaachaar den ...
Waahh waahhh....
Ati aanandam praapnoti naa shanshayam...
"पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।"
JC
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