शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

भ्रम

छोटे बडे
ऊंचे ऊंचे
रेलवे ब्रिज़
रोज़ चढना
रोज़ उतरना।
और लोकल के
फर्स्टक्लास डिब्बे से
उतरकर कर भीड में
खो जाना।

जिन्दगी के सच है।

एक में
उतरना तय है
दूजे में
इस भ्रम का
दूर होना कि
हम विशेष हैं।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

जिन्दगी

जिन्दगी-

ढेर सारे चिंतकों की किताबें
खुली हैं और पन्ने
फडफडा रहे हैं।

ग्लैडी टैबर की खिडकी
सनसनीखेज जिन्दगी को बयां करती है तो
मेसफिल्ड के लिये यह
शोरभरी गली में एक
लम्बे सिरदर्द का नाम है।

'किंग जोन' का लेखक
शेक्सपीयर मानता है
जिन्दगी उतनी ऊबाऊ होती है,
जितनी कोई दोबारा कही गई कहानी।

किंतु देखो
जिजीविषा..कि
यह है तो जीवन है, जीवन रहेगा तो
अनंत संभावनायें भी रहेंगी।
'अनामदास का पोथा' खुलता है मगर
उधर ह्यूगो ग्रोशिय मानो इसे नकारते हुए
लिखता है
मैने अपना जीवन परिश्रमपूर्वक
कुछ भी नहीं करते हुए गुजार दिया।

और एक मैं
जिन्दगी के ताने-बाने में उलझा
डरता हूं, तब और ज्यादा जब
टैगोर को पढता हूं कि
मृत्यु है, उस के होने पर भी जीवन नष्ट नहीं होता।

यानी फिर से जिन्दगी...???? उफ्फ।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

सलीके से रखे हैं मेरे दिन-रात

लगभग खंडहर होते जा रहे
इस शरीर के स्टोर रूम को
साल में महज़ एक बार खोलता हूं।
जब भी दरवाजा खोल कर मैं अन्दर घुसता हूं
रैक में सलीके से जमाये गये
दिन और रातों का
हिसाब रखते रजीस्टर के पन्ने
फडफडा कर उडने लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है क्योंकि
वे इस दिन खिलखिलाने लगते हैं।

घंटो बैठा रहता हूं उनके साथ..
सन 1967 की रात से लेकर
19 अगस्त 2010 तक के इस समय तक
का पूरा पूरा हिसाब है।
और जैसे जैसे पल बीत रहे हैं
पन्नों पर चढते जा रहे हैं।

अमूमन मैं दिन का वो पन्ना निकालता हूं
जब अपने शहर को छोड महानगर में आया था।
सिर्फ शहर नहीं छूटा था
छूट गया था बहुत कुछ...

पता नहीं किस बचत में से
पिताजी ले आते थे नये कपडे
और मां पानी मिले दूध को
ओटा ओटा कर खीर बनाती थी।

ललाट पर टीका लगा कर
चारों दिशा में धौक दिलवाती थी मां
और पीठ पर हाथ धर
अपने जीवन के मानों सारे
आशीर्वाद उढेल दिया करती थी।

मैं नहीं जानता था तब इन सब का महत्व
आज जब इस दिन
अपने स्टोर रूम में बैठा दिन के उस
पन्ने को खोल बैठा हूं तब जाना है इसका महत्व।
तभी ..तभी..बरबस ही आंखों से अश्रुदल फूट पडते हैं
और मैं इन्हें पौंछ कर इस महानगर से
फोन करता हूं।

क्योंकि आज यदि मैं इन दिन और रात को
बटौर संजो पा रहा हूं तो
उन्हीं की बदौलत जिनके हाथ मेरे शीश पर हैं
और जिनके आशीर्वादों से मेरी सांसे गति पाती है।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

कशमकश



लगता है
अपनी ग्रेविटी खोये
ग्रह-नक्षत्रों ने
एटम बम की तरह
गिर-गिर कर
मेरी किस्मत को
चकनाचूर कर दिया है।
और दिमाग
किसी जापान की तरह
फिर उठने, किस्मत चमकाने,
संवरने की फिक़्र में
जुटा है।


इस जुटने में हो यह रहा है कि-

कभी-कभी दिल
हिटलर की तरह पेश आता है
और गान्धीवादी विचारधारा
उसके तमाम 'ब्लाकेज' को
क्लियर कर देती है।
यह जंग भी जारी है।

खून में लोहा है
और रगों में गुलामी से
लडने की ताक़त
शायद यही वजह है कि
अंग्रेजों की तरह
मेरे इन हालात ने
मुझे झौंक रखा है
एक नये विश्वयुद्ध में।

आज़ादी की सोच ने
हाथ-पैरों में गज़ब की
स्फूर्ति ला खडी की है
जो सुध-बुध खोकर
भिडे पडे हैं,
मगर अफसोस
इरविन-गांधी के बीच की सन्धि
दिमाग द्वारा दिल को
हमेशा परास्त कर दिया करती है।

देखिये इन फेफडों को
जो गोले-बारूद की गन्ध
के बावजूद सीने को
ताने रखने के भरसक प्रयास में हैं।
और अपने पीछे
रखे गये दिल को बचाने की
खातिर
किसी 'अस्थालिन' के 'पफ' से
सांसों को रास्ता दे रहे हैं।
आखिर कब तक
कृत्रिम रासायनिक हवा से
सांसो को काबू में रखा जा सकता है?

यूं तो खडे कर चुका हूं
अपनी उम्मीदों के
बडे बडे रडार,
जो दुश्मन की हर चाल
का पता लगाते हैं।
मगर अपने ही लोगों का
खिलाफत आन्दोलन
हर-हमेश ले डूबता है मुझे।
फिर भी
सागर की गहराई में किसी
डिस्कवरी चैनल की तरह
कैमरों से खोज करता हूं
उम्मीद का कोई
अजीबो-गरीब जलचर।

आखिर जापान की तरह
खत्म होकर जिन्दा होने की
कशमकश जो है।