मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

मेरे अंदर के कब्रिस्तान के

रोज एक आत्महत्या  होती है 
मेरे अंदर। 
सूली पर लटक जाते हैं विचार 
सोच गहरी खाई में कूद पड़ती है 
ट्रेन की पटरी पर लेट जाती है इच्छाएं 
कट जाती है कामनाएं 
महत्वकांक्षाएं पंखे से लटक कर झूलती हैं  
और किसीको कानो कान खबर नहीं होती। 
क्योंकि खबर ही नहीं बनती 
न कोई पोस्टमार्टम होता है 
न कोई केस दर्ज होता है 
न कोई लिखा लेटर छूटा होता है 
और न ही चहरे पर आंसुओं की झड़ी। 
आखिर मुस्कुराता हुआ आदमी 
कैसे मारा जा  सकता है भला ?
सब अपने कामो में मशगूल हैं 
दुनिया चल रही है 
कहीं सन्नाटा नहीं है। 
सिवाय मेरे अंदर के कब्रिस्तान के,
जहां दफन होता रहता हूँ रोज।