आज का ही तो दिन था, कुर्ला रेलवे स्टेशन के बाहर 'नुक्कड' पर जब 'कीबोर्ड के खटरागी' से मुलाकात हुई तो यकीन मानिये ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार किसी व्यक्ति से मिल रहा हूं। सूचना क्रांति के इस दौर की तारीफ तो करनी ही होगी कि उसने बगैर मिले लोगों को आपस में मिला दिया है। दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। औसतन कद-काठी, गले में टंगा चश्मा, कमर में बान्ध रखा बैग, अपनत्व की मुस्कान और मिलनसार व्यक्तित्व की ऊर्जा लिये दमकता चेहरा मेरी आंखों में आज भी कैद है। कैद है कानों में खनकती स्नेहिल आवाज़ और मिलते ही प्रस्फुटित हुए शब्द ' जैसा फोटो में दिखते हो वैसे ही लगते हो', कुछ देर तो मुझे लगा कि सचमुच फोटो और प्रत्यक्ष दिखने में बहुत अंतर होता है। अमूमन तस्वीरें हक़ीक़त बयान नहीं करती, किंतु मुझे अच्छा लगा कि मेरी तस्वीर हक़ीक़त में भी मेरी ही है। खैर.. 'तेताले' से बाहर निकल मुम्बई आए इस इंसान से मैं मिलने का इच्छुक तो था ही, इसके पीछे मुख्य कारण यह भी था कि इनकी रचनाधर्मिता के साथ- साथ 'पिताजी' नामक ब्लोग से ये अंतर्मन की जो भावनाये प्रसारित करते रहे हैं वो दिल को छूने वाली रही हैं। मैने जब ब्लोग की शुरुआत की थी तो यकीनन यह कतई नहीं सोचा था कि लोग जुडेंगे जो मित्र भी, आदरणीय भी बनते जायेंगे। ठीक है, फोन पर या चेट पर या फिर ब्लोग के माध्यम से ही जुडना होगा, किंतु प्रत्यक्ष भेंट के बारे में सोचना अपने बहुत कम प्रतिशत के साथ मस्तिष्क में था। दरअसल, होता यह है कि साहित्य के इस दौर में या यूं कहें बौद्धिक बाज़ार में लोगों का मन मस्तिष्क पता नहीं किस 'ईगो' से घिरा होता है जो बडे छोटे जैसे मनोभाव से पीडित रहते हैं और भेद कर मिलन जैसी आनन्द की अनुभूति से दूर रह जाते हैं। इस तथ्य को भी उनके आने-मिलने और बाद में 'ब्लोगर्स मीट' के सफल आयोजन ने तोड दिया। ब्लोग और ब्लोगर्स सचमुच अनोखे हैं। मुझे उनके मिलने और मिलते रह कर सबको जोडने की यह फितरत अप्रत्याक्षित तौर पर एक ऐसी मुहिम लगी जो अब तक 'ब्लोग वाणी' या 'चिट्ठा चर्चा' जैसे मंच निभाते आ रहे हैं। मगर ये मंच तो ब्लोग्स को एक सूत्र में पिरो रहे हैं, इससे दो कदम आगे इस व्यक्ति ने भौतिक, मानसिक रूप से सेतु बनने का जिम्मा उठाया और ब्लोग्स के साथ साथ ब्लोगर्स को एक धागे में बुनने का कार्य प्रारम्भ किया। मानो फाह्यान का आधुनिक अवतार हो या व्हेन सांग की आत्मा ने इस युग में पुनर्जन्म ले लिया हो, जो न केवल लोगों को जोड रहा है बल्कि मित्रता की नई दिशाएं तैयार कर उसका बखूबी चित्रण भी कर रहा है। दिलचस्प यह कि इसका कोई दम्भ भी नहीं। बस एक मुहिम और मिलते जा रहे ब्लोगर्स का रैला। हंसता हुआ, हाथ मिलाता हुआ यह 'कीबोर्ड का खटरागी' सचमुच एक नई दुनिया बना रहा है। इस दुनिया के बाशिन्दे बनने और बने रहने की अज़ीब सी खुशी है मुझे। यह खुशी ' अविनाशी' है। इच्छा है यह खुशी बिखरती रहे, ब्लोगजगत में महकती रहे। हम सब आपस में कभी न कभी मिलते-जुलते रहें, फुनियाते रहें, चेटियाते रहे, बतियाते रहें, लिखते रहे और पढते रहें, बुद्धि और स्नेह से मिलकर बन रही चाश्नी से नहाते रहे, साहित्य को अपने अंतरतम तक महसूस करते रहें।
हां, यह सच है कि हमारी मुलाकात 5 दिसम्बर को हुई थी, वह भी दोपहर 2 बजकर 10 मिनट से लेकर शाम 4 बजकर 5 मिनट तक। आज 12 दिसम्बर है। इतने दिनों बाद मुलाकात के सन्दर्भ में पोस्ट डालने का एक कारण भी था। मैं चाहता था अविनाश वाचस्पति सकुशल अपनी यात्रा सम्पन्न कर लें. इस यात्रा के दौरान होने वाले घटनाक्रम भी सकुशल सम्पन्न हों, परिणाम बेहद सुखद रूप से सामने आये, मिलनेवाले तमाम साथी अपनी अपनी रिपोर्ट पोस्ट कर दें और सबकुछ हुआ भी ऐसा ही। अबसे ऐसा ही होता रहे। आमीन।