गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

नए साल का सूरज

चलिए मै भी
मना लेता हूँ,
या यूं कहू
मान लेता हूँ
इस नव वर्ष को|

वैसे तो
रोज़ ही
उगता है अलसाते हुए
और किसी
मजदूर की तरह
दिनभर थक कर चूर
शाम होते होते
ढह जाता है वो,
अब खुमारी में
डुबो को कहा दीखता है
नए साल का सूरज?

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

राजनीति का त्रिफला

सरकार सोई या बीमार नहीं है,
वो जाग रही है।
उसने तो
सत्ता, नोट और बाहुबल के
त्रिफला चूर्ण से
अपना हाजमा सुधार रखा है।
वो पचा लेती है
तिल-तिल कर मर रहे
भूखे लोगों का दर्द।
वो देखती है
बिल्कुल करीब से
महंगाई के इस दौर में
गरीब का आटा गिला होते।
आंकडे एकत्र करती है
और
संसद में पेश करती है कि
आज कितने किसानों ने
खुद्कुशी की।
वो अनुसन्धान में रत है
कि आखिर
बेरोजगारी से कितने परिवार
तबाह होते हैं या
कितने युवा काम की तलाश में
उसके किसी मोर्चे में,
किसी आन्दोलन में
चन्द पैसों के लिये
मर भी सकते हैं।
वो अध्ययन करती है
कि ऐसे कौनसे मुद्दे हो सकते हैं
जो प्रजा के मर्म पर
प्रहार कर नाजुक भावनाओं को
तहस-नहस कर सके।
वो परखती है कि
महंगाई के बावज़ूद
आम आदमी
कैसे जिन्दा रह लेता है?
वो अपने साथ
अपने परिजनों को भी
मुफ्त हवाई यात्रा करा कर
देश में फैली अस्थिरता के
दर्शन कराती है।
सच में
सरकार सोई नहीं है।
उसे चिंता है देश की।
सोई तो प्रजा है
जिसे कुछ भान भी नहीं कि
देश चलता कैसे है?
धन स्वीस बैकों में पहुचता कैसे है?
कैसे नेता बनते ही
धनवान बना जा सकता है?
और कैसे
आदमी को उल्लू
बनाया जाता है?
उसने बडी लगन से
वैज्ञानिक अविष्कार किया है कि
हवा के ज्यादा दबाव में
कैसे विकल्पहीनता
पैदा की जा सकती है?
सचमुच
राजनीति का त्रिफला
बहुत् फलता है।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

कुपोषण

रीढ से चिपके
पिचके पेट लिये,
कंकाल हो गये
चमडी चढे शरीर वाले
इन बच्चों की
आंखों के आंसू भी
सूख कर
गीजड बन चुके हैं,
जिन पर भिनभिनाती
मक्खियों को तो उनका
भोजन मिल जाता है
किंतु
भूख की आग में
दहन हो रहे
इन नन्हे भविष्यों को
एक दाना तक
मुहाल नहीं है।
इन्हें मिलता है
अनाज़ की जगह आश्वासन,
पानी की जगह प्यास
और
कभी न पूरी हो पाने वाली
कमबख्त आस
कि
21 वीं सदी का भारत
उन्हे मुक्त कर देगा
कुपोषण से।

मगर धन्य है
इस कुपोषण का भी
शोषण जारी है।

ये जन्मे ही शायद इसीलिये हैं।
क्योंकि
इन्हीं की बदौलत
लच्छेदार भाषणों में
उलझा कर
जिन्दा रह सकते हैं नेता,

इनकी तस्वीरें निकाल
दुनियाभर में प्रसारित कर
पा सकता है
कोई फोटोग्राफर पुरस्कार।

इनकी दुर्दशा का
ब्योरा लिख
मर्म को हिला कर
बेस्ट रिपोर्टिंग का हक़दार
बन सकता है पत्रकार।

दुसरी ओर
हमारी सरकार...
फिक़्रमन्द है।

खबर है
कसाब पर करोडों खर्च
अफज़ल को शाही बिरयानी.......।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

विरह

अमूमन
प्रेम की समिधायें
विरह के अग्निकुंड में
अर्पित होते देखी हैं।

सदियां बीत गई
कभी किसी अग्निदेव को
प्रकट होते नहीं देखा,
न ही देखा
प्रेम का यौवन लौटते हुए,
न उसे किसी वरदान से
दमकते हुए।

हां, देखा तो बस
'स्वाहा' का उच्चारण करते हुए
निच्छल हृदयों को
'स्वाहा' होते हुए।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

कांक्रीट क्रांति

यादों ने जहां जन्म लिया
वह तीर्थ स्थल
कांक्रीट क्रांति में
शहीद हो चुका है।
किंतु मस्तिष्क के
किसी
कोने में
धुन्धलाती सी
तस्वीर है,
जिसे मैं चाह कर भी
कागज़ पर नहीं
उकेर सकता।

कैसे उकेरुंगा?

क्या
कडकडाती
ठिठुरती वह रात,
शहर के बाहर की
सुनसान
अन्धेरे में डूबी
काली स्याह सडक
पर उसका मिलना,
धडकते दिल की
आवाज़ का
लगभग सर्द हो चुकी
नासिका से निकलती
गर्म सांस के साथ
मिलकर व्यक्त होना
किसी कागज़ पर
चित्र रूप में
छ्प सकता है?

क्या
सन्नाटे में खोई
सडक पर
अंजानी मंज़िल की ओर
दौडती मेरी
एलएमएल टी 5
स्कूटर पर
किसी अलाव का अहसास
देता उसका साथ,
रेखांकन हो
ड्रांइंग बुक में
समा सकता है?

क्या
सडक के आसपास बने
डरावने लगते
खेत की अनजानी सी
पगडंडी पर
स्कूटर घुसा देना
और किसी
सूखी नहर के बीच
जाकर उस बर्फ सी
रात में
प्रेम का इज़हार करने
पथरीली जगह ढूंढ्ना
कोई पेंसिल की नोंक
व्यक्त कर सकती है?

क्या
रात में दिखाई दे रहे
वे सारे काले
भयावह पेड
जो किसी भूत की
आकृति का
आभास देते हैं
और जिनसे
डर कर मेरे
अन्दर समाने की
उसकी बाल-चंचल चेष्ठा,
या
कहीं दूर
किसी गांव से आ रही
हवा के साथ
हिलौरे खाती
तूतक तूतक तूतिया......जैसे
फिल्मी गीत की
आवाज़ का
उस क्षण को
रसीला बना देने के बावज़ूद
सर्द रात से बचने
न सोने, सुबह जल्दी होने
जैसी उस अज़ीब सी
बैचेनभरी स्थिति को
कौन चित्रकार
तूलिका दे सकता है?

क्या
सूरज के जागते ही
ठंड से
जम चुके दो शरीर का
हडबडा के उठना
और यह पाना कि
हम कहां, किधर, कैसे
इस अज्ञात स्थान पर
आ बैठे,
और बस अब जल्दी
भाग चलो
जैसी मानसिकता में
प्रेम का ना तो कोई
इजहार कर पाना
ना ही कोई बात करना
बस मुस्कुरा कर
रह जाना
कभी पोट्रेट की
शक़्ल ले सकता है?

नहीं, बिल्कुल नहीं
वो तो ह्रुदय की
शीराओं में समा सकता है
या फिर
शरीर के तंतुओं
नसों में दौड
लगा सकता है।
ज्यादा है तो उस
स्थान पर ले
जा सकता है जहां
सुनहरी याद का जन्म हुआ था।
पर हाय रे विकास का दौर
मेरी ऐसी कितनी ही
यादों को लील गया।
खेत-खलीहान
गांव के गांव को
उजाड गया।
उसने वो पावन
बयार को भी
अपने वातानुकूलित यंत्र में
कैद कर लिया जो
बह कर नव-सृजन
किया करती थी,
हमें पवित्र
बनाया करती थी
आज सबकुछ नष्ट हो गया
पश्चीम का दानव
पूर्व की इज्जत को
हडप गया।
और मेरा तीर्थ स्थल
कांक्रीट क्रांति में
शहीद हो गया।

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

'कीबोर्ड के खटरागी' से मुलाकात


आज का ही तो दिन था, कुर्ला रेलवे स्टेशन के बाहर 'नुक्कड' पर जब 'कीबोर्ड के खटरागी' से मुलाकात हुई तो यकीन मानिये ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार किसी व्यक्ति से मिल रहा हूं। सूचना क्रांति के इस दौर की तारीफ तो करनी ही होगी कि उसने बगैर मिले लोगों को आपस में मिला दिया है। दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। औसतन कद-काठी, गले में टंगा चश्मा, कमर में बान्ध रखा बैग, अपनत्व की मुस्कान और मिलनसार व्यक्तित्व की ऊर्जा लिये दमकता चेहरा मेरी आंखों में आज भी कैद है। कैद है कानों में खनकती स्नेहिल आवाज़ और मिलते ही प्रस्फुटित हुए शब्द ' जैसा फोटो में दिखते हो वैसे ही लगते हो', कुछ देर तो मुझे लगा कि सचमुच फोटो और प्रत्यक्ष दिखने में बहुत अंतर होता है। अमूमन तस्वीरें हक़ीक़त बयान नहीं करती, किंतु मुझे अच्छा लगा कि मेरी तस्वीर हक़ीक़त में भी मेरी ही है। खैर.. 'तेताले' से बाहर निकल मुम्बई आए इस इंसान से मैं मिलने का इच्छुक तो था ही, इसके पीछे मुख्य कारण यह भी था कि इनकी रचनाधर्मिता के साथ- साथ 'पिताजी' नामक ब्लोग से ये अंतर्मन की जो भावनाये प्रसारित करते रहे हैं वो दिल को छूने वाली रही हैं। मैने जब ब्लोग की शुरुआत की थी तो यकीनन यह कतई नहीं सोचा था कि लोग जुडेंगे जो मित्र भी, आदरणीय भी बनते जायेंगे। ठीक है, फोन पर या चेट पर या फिर ब्लोग के माध्यम से ही जुडना होगा, किंतु प्रत्यक्ष भेंट के बारे में सोचना अपने बहुत कम प्रतिशत के साथ मस्तिष्क में था। दरअसल, होता यह है कि साहित्य के इस दौर में या यूं कहें बौद्धिक बाज़ार में लोगों का मन मस्तिष्क पता नहीं किस 'ईगो' से घिरा होता है जो बडे छोटे जैसे मनोभाव से पीडित रहते हैं और भेद कर मिलन जैसी आनन्द की अनुभूति से दूर रह जाते हैं। इस तथ्य को भी उनके आने-मिलने और बाद में 'ब्लोगर्स मीट' के सफल आयोजन ने तोड दिया। ब्लोग और ब्लोगर्स सचमुच अनोखे हैं। मुझे उनके मिलने और मिलते रह कर सबको जोडने की यह फितरत अप्रत्याक्षित तौर पर एक ऐसी मुहिम लगी जो अब तक 'ब्लोग वाणी' या 'चिट्ठा चर्चा' जैसे मंच निभाते आ रहे हैं। मगर ये मंच तो ब्लोग्स को एक सूत्र में पिरो रहे हैं, इससे दो कदम आगे इस व्यक्ति ने भौतिक, मानसिक रूप से सेतु बनने का जिम्मा उठाया और ब्लोग्स के साथ साथ ब्लोगर्स को एक धागे में बुनने का कार्य प्रारम्भ किया। मानो फाह्यान का आधुनिक अवतार हो या व्हेन सांग की आत्मा ने इस युग में पुनर्जन्म ले लिया हो, जो न केवल लोगों को जोड रहा है बल्कि मित्रता की नई दिशाएं तैयार कर उसका बखूबी चित्रण भी कर रहा है। दिलचस्प यह कि इसका कोई दम्भ भी नहीं। बस एक मुहिम और मिलते जा रहे ब्लोगर्स का रैला। हंसता हुआ, हाथ मिलाता हुआ यह 'कीबोर्ड का खटरागी' सचमुच एक नई दुनिया बना रहा है। इस दुनिया के बाशिन्दे बनने और बने रहने की अज़ीब सी खुशी है मुझे। यह खुशी ' अविनाशी' है। इच्छा है यह खुशी बिखरती रहे, ब्लोगजगत में महकती रहे। हम सब आपस में कभी न कभी मिलते-जुलते रहें, फुनियाते रहें, चेटियाते रहे, बतियाते रहें, लिखते रहे और पढते रहें, बुद्धि और स्नेह से मिलकर बन रही चाश्नी से नहाते रहे, साहित्य को अपने अंतरतम तक महसूस करते रहें।
हां, यह सच है कि हमारी मुलाकात 5 दिसम्बर को हुई थी, वह भी दोपहर 2 बजकर 10 मिनट से लेकर शाम 4 बजकर 5 मिनट तक। आज 12 दिसम्बर है। इतने दिनों बाद मुलाकात के सन्दर्भ में पोस्ट डालने का एक कारण भी था। मैं चाहता था अविनाश वाचस्पति सकुशल अपनी यात्रा सम्पन्न कर लें. इस यात्रा के दौरान होने वाले घटनाक्रम भी सकुशल सम्पन्न हों, परिणाम बेहद सुखद रूप से सामने आये, मिलनेवाले तमाम साथी अपनी अपनी रिपोर्ट पोस्ट कर दें और सबकुछ हुआ भी ऐसा ही। अबसे ऐसा ही होता रहे। आमीन।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

सुशीलजी की 'अमिताभ यात्रा"


यह भी अज़ीब संयोग है कि कानपुर में भारतीय क्रिकेट टीम ने अपनी 100 वीं टेस्ट जीत अर्जित की और मैने ब्लोग पिच पर अपनी 100 वीं रचना। हालांकि टीम इंडिया ने 1932-33 से अपने टेस्ट जीवन की शुरुआत की थी और 1952 में पहली जीत हासिल की थी। मैं 2008 में ब्लोग पिच पर उतरा था और अक्टूबर को पहली रचना पोस्ट की थी। भारत की 432 वें टेस्ट मैच में 100 वीं जीत है और मेरी करीब 400 दिनों में 100 वीं रचना। है न अज़ीब संयोग। खैर..।
जीवन में घटनाये होना अवश्यंभावी है। प्रकृति घटनाओं में समाई होती है। घटनायें घटित होने के बाद ही हमें ज्ञात होता है कि कुछ हुआ है। यह प्रकृति का गुण है, और शायद इसीलिये प्रकृति को रहस्यमयी माना जाता है। किंतु जो भी घटनायें घटनी होती है उसके घटने का क्रम न जाने कब से प्रारंभ हो चुका होता है। अज्ञात ही सही मगर एक एक तिनके जुडने लगते हैं। काल उसे बुनने लगता है। क्रमानुसार उसके छोटे से छोटे अंश आपस में टकराने लगते हैं और एक विशेष दिन को उद्घाटित करने के लिये पूरा का पूरा प्राकृतिक तंत्र जुट जाता है। कहते हैं इस प्रकृति में जो भी घटता है उसका कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है। निरर्थक कुछ नहीं करती प्रकृति। शायद यही वजह है कि सुशील छौक्कर जी और अमिताभ श्रीवास्तव की प्रत्यक्ष भेंट के लिये प्रकृति ने अपना काम बहुत पहले से शुरू कर दिया होगा। ब्लोग की दुनिया से भी पहले। मिलने के लिये कब कब और कौन कौन सी जरुरते होनी है स्वतह ही निर्मित होती चली गई होंगी , हमारे अनजाने ही। दुनिया बहुत छोटी है। सैकडों लोग रोज़ टकराते हैं। किंतु किससे कब कैसे मुलाकात होनी है यह अज्ञात ही होता है और एकदिन जब मुलाकात हो जाती है तो आश्चर्य होता है। इसके बाद किसी दूसरी प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये समय दिन बुनने लगता है। स्मृतियां भी बनती है और भविष्य भी निर्मित होता चला जाता है। कुछ जो कर्म होने है वो सम्पादित भी होते चले जाते हैं। हमे बगैर खबर हुए ही हमसे प्रकृति कार्य करवा लेती है। क्योंकि हम प्रकृति के हाथों में कैद हैं। उसके कर्मों के एक माध्यम हैं। उसके लिये कोई बडा या कोई छोटा नहीं होता। सब के सब सामान्य, उसके हाथों के खिलौने। फिर कैसे कहें कि हमने कोई बडा नहार मार लिया? या हम किस शान, किस अहम में जीते हैं? सबकुछ बेमानी। प्रेम ही एकमात्र ऐसा वाहक है जो ईश्वरीय शक़्ति का अहसास कराता है और इस प्रकृति मे तमाम प्राणी इस अद्भुत प्रेम शक़्ति से बन्धे होते हैं। अब यह समय के उपर है कि कब कौन किससे मिलता है?
सुशीलजी से मुलाकात हुई मुम्बई, कल्याण स्टेशन के प्लेट्फार्म नं-5 पर। पंजाब मेल का 24-25 घंटों का लम्बा सफर तय करते हुए 22 नवम्बर की सुबह करीब 7.30 बजे वे दिल्ली से अमिताभ तक आये। अमिताभ इसलिये कह रहा हूं कि वे सिर्फ और सिर्फ मेरे लिये मुम्बई आये थे। अन्यथा होता यह है कि मुम्बई आना होता है, यहां कोई रहता है तो चलो उनसे भी मिल लिया जाये जैसी मानसिकता होती है। हालांकि मिलने के लिये यह मानसिकता भी कोई बुरी नही किंतु सुशीलजी विशुद्ध रूप से मुझसे मिलने आये थे। लिहाज़ा प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिये शब्द गुम हो जाते हैं। जहां निस्वार्थ प्रेम भाव होता है वहां किसी के प्रति कोई अन्देशा या भ्रम की स्थिति भी नहीं होती। लिहाज़ा हमारी मुलाकात में औपचारिक जैसी कोई चीज नहीं थी। उन्हे लोकल में तुरंत घुसाया। रविवार था वरना उन्हे 'घुसाया' ना कह कर 'ठूंसना' कहता। फिर भी भीड थी। मेरे घर तक पहुंचने के लिये कल्याण से 20 मिनिट तो लगते ही हैं। उनका यह पहला अनुभव था। 22-23 और 24 तीन दिन हम साथ रहे। और मज़ा देखिये कि मेरी छुट्टियां भी थी, अन्यथा मुम्बइया व्यस्तता में सुशीलजी को पूर्ण समय देना कठिन हो जाता। सुशीलजी ने यह सब पहले ही देखभाल लिया था। जिसका नतीज़ा रहा कि 'बस मज़ा आ गया।' खूब बतियाये, घूमे-फिरे। फोटो-सोटो खींचे। क्या इसे महज़ यह माना जाये कि हमारी मुलाकात के पीछे सिर्फ यही कारण होगा? नहीं, कोई भी मुलाकात सिर्फ मुलाकातभर नहीं होती। बल्कि जीवन के किसी भी दिन के उसके उपयोग के लिये कुछ न कुछ 'अच्छा' प्रकृति तय कर देती है। 'अच्छा' इसलिये कि प्रकृति में बुरा कुछ भी नहीं होता। जो भी बुरा होता है या जो हमे लगता है वो हमारे द्वारा ही किया जा रहा कुछ अप्राकृतिक कर्म है। अब इस 'अच्छे' के मनोभाव में ही सही एक रिश्ता तो बन जाता है। जो जीवन में सुनहरी यादों के इतिहास में अपना एक अलग अध्याय जोडता रहता है। बहलहाल, अज़ीब संयोग के इस सिलसिले में यह कितना बढिया रहा कि अपनी 100वीं पोस्ट सुशीलजी की "अमिताभ यात्रा" को समर्पित है।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

वाह क्या विडम्बना है



मेरे दफ्तर पहुंचने से पहले ही वो वहां मौज़ूद था। मुझसे एकाध इंच लम्बा यानी वो होगा कोई 6 फिट 1 या 2 इंच का। गठीला बदन। साफ झलकता था कि कोई स्पोर्ट परसन है। हंसता हुआ चेहरा, उसकी मुस्कान में एक अलग ही शान थी,अपनत्व का भाव था, जिसने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया था। मुझे देखते ही उठा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। माय सेल्फ फारूख दिनशा..। मैने अपनी पास वाली कुर्सी पर उसे बैठने का इशारा करते हुए औपचारिक भाव से कहा, सोरी फारूख, मुझे आने मे लेट हो गया, आपको इंतजार करना पडा होगा... आईये, बैठिये और बताईये क्या बात है? वो हंसते हुए बैठ गया और कहने लगा- अमिताभजी, आपका नाम बहुत सुना है, आपसे मिलना था इसलिये आ गया.., वैसे आपसे मिलकर ऐसा लग रहा है कि अमिताभ बच्चन से मिल लिया..., और जोर से हंसने लगा। मैं भी मुसकुरा दिया उसकी बालसुलभ हंसी पर। मेने कहा- इस बात पर चाय हो जाये? उसने कहा- श्योर। यह बात होगी कोई 1995-96 की।
मार्शल आर्ट का विख्यात खिलाडी, बेहतरीन प्रशिक्षक, उम्दा खेल लेखक। अपनी नई पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण देने आया था वो। साथ ही उसने बताया कि मार्शल आर्ट को लेकर उसने कितना कुछ किया है और कर रहा है। बच्चों से लेकर आर्मी के जवानो तक वो अपनी प्रतिभा का पूरा पूरा उपयोग करते हुए लोगों को जीवन जीना सिखा रहा था , आत्मरक्षा की कलाये सिखा रहा था, उनमें आगे बढने, लक्ष्य पाने की राह दिखा रहा था। हालांकि मैं किसी से इतनी जल्दी प्रभावित नहीं होता लिहाज़ा उससे उसके कार्यों के सन्दर्भ में पूछता रहा और सवालों के जवाब पाता रहा। शायद उसके विषय में मेरी इतनी रुचि, ज्ञान, गम्भीरता को देखते हुए वो मुझसे प्रभावित हो गया। कह उठा- ओह ग्रेट। यू आर रियली प्योर..। मैं हंस पडा..मैने कहा- ऐसी बात नहीं है, दरअसल मैं भी थोडा बहुत जानता हूं जूडो-कराटे..., हो सकता है कि इस वजह से आपसे पूछता चला गया। खैर उस मुलाकात के बाद फोन पर बातें, उसके कार्यक्रमों में मुलाकातों ने हमे करीब ला दिया। एक दोस्ताना रिश्ता बन गया जिसमें कोई स्वार्थ नहीं दिखा। मैं उसके किसी प्रोग्राम में नहीं जा पाता तो फोन पर नाराजगी जाहिर करता, पहुंच जाता तो इतना खुश हो जाता मानो मुख्य अतिथि ही पहुंच गया हो। इंतजार, मुलाकात, फोन पर बातचीत आदि हमारी दोस्ती में नये अध्याय जोडते गये। मेरी किसी बात को वो टालता नहीं, स्मृतियां बनती गईं। मैं कुछ व्यस्त हुआ तो मिलना जुलना कम हो गया, वो भी अपने कार्यों में व्यस्त किंतु न वो भूला न मैं। यदा कदा फोन और किसी कार्यक्र्म में बुलावा। उसका समर्पणभाव, किसी के लिये कुछ करने की ललक और हमेशा उपलब्ध रहने की आदत उसके इंसान होने का जीता जागता उदाहरण था। मेरी बच्ची को मैं सिखाना चाहता था मार्शल आर्ट, इसके लिये उसने कह दिया था- अमिताभ घर भिजवा दूंगा सिखाने वाला, मुझे बस कहभर देना कि कब शुरू करना है। किंतु ऐसा हो नहीं सका। हां वर्ष 2003-04 में मुझसे मेरी एक कलिग ने ऐसी इच्छा जाहिर की और मैने फारूख को फोन मिला दिया। कोई 3-4 साल बाद मैं उसे फोन कर रहा था। उसने प्रसन्नता से कहा- भेज दो उसे। मैने अपनी कलिग से कहा- देखो वो बहुत महंगा प्रशिक्षक है , पूछ लेना कितनी फीस वगेरह है। उसने पूछा, और जवाब में उसे मिला 'अमिताभ से कह देना आइन्दा ऐसी बात वो सोचे भी नहीं।' जिन्दादिली का दूसरा नाम था फारूख, मैं अपनी किस्मत पर खुश रहता कि इतना बेहतरीन इंसान मेरा दोस्त है। 27 नवम्बर 2008 को कोई एक बडा सा कार्यक्रम था स्पोर्ट का, मुझे उसमें आतिथ्य के लिये अपने परिचित कुछ बडे खिलाडी आमंत्रित करने थे। मैं लिस्ट बना रहा था जिसमें फारूख का नाम पहले नम्बर पर था। सोचा फारूख कभी मना नहीं कर सकता, सो पहले दूसरों को बुला लूं उसे 26 की रात फोन कर तय कर लूंगा। किंतु 26 को तो इधर आतंकी घटना घटित हो गई और सबकुछ उलट-पलट सा गया। कार्यक्रम स्थगित हो चुका था। किंतु फारूख की याद आ रही थी। और यकीन मानिये जब 29 तारीख को फोन किया तो वो बन्द। लैंड लाईन एंगेज़। ऐसा पहली बार हो रहा था। और शायद अंतिम बार भी। क्योंकि फारूख......।
26 की शाम अपने दोस्त के साथ ओबेराय में खाना खाने गया था वो। दोस्त को बचाने और एके 47 से दागी जा रही आतंकी द्वारा गोलियों को वो अपने सीने पर झेल गया। यह 30 नवम्बर को पता चला। अच्छा होता कि पता ही नहीं चलता...। अब तक वो मुझे बुलाता रहा था, मगर जब मेरी बारी आई तो...,उसने उसके फोन के 'स्वीच आन' का इंतजार मुझे थमा दिया। ऐसा इंतजार..जो कभी पूरा नहीं होना है...।
कुछ ऐसा ही इंतजार उन सब का भी होगा जिनके बेटे, मित्र, भाई, पति, पत्नी, बच्चे इस हमले के शिकार हुए..। होते रहते हैं...। और हम हमेशा बरसिया मनाते रहते हैं..सालों से बरसियां मनाई जा रही हैं, नई-नई बरसी आ जाती है और हम मनाते जा रहे हैं,मनाना खत्म नहीं होता..। वाह क्या विडम्बना है।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

आटा और रोटी

आटा गूंथना
जीवन मथने
जैसा ही तो है|
उसकी लोई बना
बेलन से आकार देना
और गर्म तवे पर
रख सेंकने भर से
रोटी नहीं बनती,
आग पर
तपना भी होता है
और इस तरह
जलना होता है
कि कही
चिटक तक न लगे|
जीवन क्या ऐसा नहीं?

फिर दुःख ...
कहते है
रोटी को
चबा चबा कर खाना
पाचन तंत्र के लिए
ठीक होता है|
न निगलना
न उगलना..
चबा कर
रसमय कर लेना|
जीवन में दुःख भी
एक रोटी ही तो है|

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

ओहदे वाला आदमी

ओहदे वाला आदमी
'आदमी' नहीं होता
वो
'ओहदे वाला आदमी' होता है।

'आदमी' होने के लिये
सिर्फ 'आदमी" होना होता है।
और
ओहदे पर जो 'आदमी" होता है
वो ओहदे के नीचे होता है,
दबा सा।
उपर उसके होता है
अहम और दम्भ का चमकता
हीरा।
हीरा... जैसे मिलावटी चीजों पर
ब्रांडेड रैपर लगा हुआ
'ग्रीन' चिन्हित पैकेट।

सच तो यह भी है कि
पैसा, यश, कीर्ति
होंगे किसी जन्म के पुण्य।
किंतु पाप की तरह
वो भी तो कटते हैं,
ओहदे वाले ये क्यों
नहीं समझते हैं।

प्रारब्ध जिसका जो
उसे मिलता है,
पर हर क्षण होता
एक प्रारंभ है
जो बनता 'प्रारब्ध" है
यह 'आदमी' सोचता है।

इसीलिये यह कहना
कि
ओहदे पर बैठना
और 'आदमी' बने रहना
कठिन है।
जैसे
सांप का बगैर ज़हर के होना।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

सवाल आपसे हैं, उनसे नहीं जो सवाल पैदा कर रहे हैं

कल मुम्बई में अफरा-तफरी मच गई। मध्य-रेल अचानक ठप्प हो गई। सुबह के उस समय यह सब हुआ जब लाखों लोग अपने कार्यस्थल की ओर रवाना होते हैं। एक निर्माणाधीन पुराना पाईपलाइन वाला पुल टूट कर लोकल ट्रेन पर गिर जाता है, हाहाकार मच जाता है। मचे भी क्यों नहीं आखिर ट्रेन हादसे मे मौत भी हुई और घायल भी हुए। ऐसा लगा मानों किसी परिवार के मुख्य व्यक्ति को हार्ट अटैक आया और परिवार वालों में भगदड मच गई। बदहवासी छा गई। सारा कामकाज रुक गया। सबकुछ उलट-पलट सा गया। मुम्बई की लोकल ट्रेन को भी तो जीवन रेखा ही माना जाता है। यही वजह है कि कल लोग किस हाल में थे, और किस हाल में घर पहुंचे..बडी करुणामयी कहानी है। अफसोसजनक यह कि इस कहानी की आदत हो गई है, हर गम पचाने की मज़बूरी हो गई है। रोज़ ब रोज़ कहानी दोहराती है, सो जीवन में यह आम हो गई है। वाह री विडम्बना। किंतु मैं मुख्य घटना के केन्द्र की बात करना चाह रहा हूं। उस कैब की बात करना चाह रहा हूं जिसमें मोटरमैन (ड्राईवर) फसां था और मौत से लड रहा था। वो जीत जाता यदि उसके विभाग वाले चुस्त दुरुस्त होते। दुख होता है यह कहने में कि देश का सबसे बडा नेटवर्क, सबसे बडा लापरवाह है जो अपने आदमी की जान की कीमत भी नहीं समझता और महज़ 5 लाख सहायता राशि देकर मामले की इतिश्री मान लेता है। वह एक निरापद मौत थी। करीब 3 घंटों तक दचके हुए कैब में दबा हुआ मोटरमैन सहायता के लिये गुहार लगा रहा था, और रेलप्रशासन मामले की पुष्टी के लिये मीडिया से मुखातिब होना ज्यादा बेहतर मान रहा था। कहने को वहां सब थे। रेल विभाग का आपातकालीन दस्ता भी था, पुलिस प्रशासन भी था, अग्निशमक दल के लोग भी थे और जनसामान्य की भीड भी थी। अगर वहां कोई नहीं था तो उस जिन्दगी को बचाने वाला, जिसकी सूझबूझ की वजह से बहुत बडी दुर्घटना टल चुकी थी। हास्यास्पद है जिस नेटवर्क के बारे में कहा जाता है कि यहां हर कार्य के लिये एक प्रशिक्षित व्यक्ति मौज़ूद है, साधन उपलब्ध हैं, वहां उसके पास कैब को काटकर जान बचाने के लिये जो औज़ार हैं वो सिर्फ दिखावा, कैब को काटने के लिये ड्रील मशीन लाई गई, गैस की टंकी लाई गई, पर वाह रे रेल विभाग, वो टंकी खाली निकली। मौत से लडने वाले ड्राईवर की थमती सांस की मानो किसी को कोई परवाह नहीं, पुलिस भीड को हटाने में व्यस्त, अग्निशमन दल रेल विभाग की कार्यवाही की प्रतीक्षा में, तो रेल विभाग का बचाव दल अपने ही बचाव में दिखाई दिया। अन्दर दबा कुचला उसका खुद का आदमी अंतिम सांसे गिन रहा होता है और बाहर उसे बचाने के नाम पर सिर्फ नाटक खेला जाता है। और जब कैब काट लिया जाता है, अन्दर फंसे ड्राईवर को बाहर निकाला जाता है तो हाथ में सिर्फ लाश आती है, क्योंकि निकालते समय उसका हाथ कट जाता है, पैर मे चोट पहुंचती है, वैसे भी काफी देर हो चुकी होती है। वाह रे रेल विभाग की सफलता। उस लाश को अस्पताल भेजा जाता है, फिर घरवालों को सौंप दिया जाता है। परिवार के बहते आंसुओं के बीच दो शब्द संवेदना के टपका कर रेलविभाग अपनी कर्मठता का प्रदर्शन करता है। अब परिवार को सहायता राशि घोषित कर दी गई है, किसी को नौकरी का आश्वासन भी दे दिया जायेगा। बस्स..धीरे धीरे सबकुछ ठीक..खत्म...। वाह री...मानवता....। मुझे समझ में यह नहीं आता कि करोडों बज़ट वाले रेलविभाग में इतनी दुर्घटनायें हो चुकी है, बावज़ूद इससे निपटने के लिये आवश्यक साधन भी उपलब्ध नहीं? प्रशिक्षित कर्मचारी भी नहीं? जो ऐसी घटनाओं के होते ही चुटकी में जान बचा सकता हो? होनी को कौन टाल सकता है, यह सच है किंतु होनी के बाद अगली होनी से बचाने के उपाय खडे किये जा सकते हैं। किंतु लापरवाहों की आंखे नहीं होती, दिमाग नहीं होता, होता है तो जेब भरने, काम चलने की बस एक तुच्छ मानसिकता होती है। मानवीय भूल होती है, किंतु कोई ड्राईवर मौत को आमंत्रण देता हो, ऐसा नहीं होता। अभी पिछले दिनो जब मथुरा में हादसा हुआ तो रेलविभाग ने ड्राईवर को दोषी मान कर अपनी कार्यवाही शुरू कर दी, किंतु जब मुम्बई में खुद रेलविभाग दोषी था तो कौन कार्यवाही करेगा?
सवाल सिर्फ रेलविभाग को ही नहीं साधता, बल्कि हमारे आसपास फैले इस पूरे तंत्र को साधता है जो आदमी की जिन्दगी को कौडी की कीमत से तौलता है। हर जगह मौत खडी है। उसके खडे होने के संकेत भी दीखते हैं, उसे खडे करने वाले लोग भी दीखते हैं..किंतु नहीं दिखते इन पर पाबन्दी लगाने वाले। पूरी मानवता की यह सबसे बडी हार है। और हम अपनी ही हार रोज़ देखते है खडे होकर..., हंसते हुए..। क्या अब भी आप मौन साधना ही हितकर समझते हैं या ऐसी तमाम खडी मौतों के खिलाफ आवाज़ बुलन्द कर प्रशासन को चेताना चाहते हैं? सवाल आपसे हैं, उनसे नहीं जो सवाल पैदा कर रहे हैं।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

365 गेंदो में 93 रन

365 गेंदो में 93 रन, टेस्ट मैचों के लिहाज़ से ठीक-ठाक कहे जा सकते हैं। क्रीज़ पर ड्टे रहना और शतक के करीब रहना भी कम रोमांचक नहीं होता है। टेस्ट मैच वैसे भी क्रिकेट का असली रूप होता है, इसमे क्रिकेट की कलात्मकता, तकनीक निखर कर सामने आती है और ऐसा माना जाता है कि टेस्ट मैच ही क्रिकेट के असली खिलाडी की पहचान है। वैसे आजकल वन डे, ट्वेंटी-20 मैचों की भरमार है, फटाफट क्रिकेट का बाज़ार भी गरम रहता है, किंतु मुझे लगता है जिसे क्रिकेट पसन्द है, जो क्रिकेट का परम आनन्द लेना चाहता है वो तो टेस्ट मैचों में ही दिलचस्पी रखेगा और उसे ज्यादा देखेगा। लिहाज़ा 365 गेन्दों में 93 रन के करीब बना लेना और कुछ टेस्ट पसंद दर्शकों का निरंतर बने रहना, हौसलाअफज़ाई के लिये काफी है। क्रीज़ पर डटे रहने का यह रोमांच खिलाडी के लिये भी उतना ही दिलचस्प होता है जितना कि कोई प्यासा कुआं खोदते हुए पानी के करीब पहुंच जाये। जी हां, मैं भी टेस्ट मैच खेल रहा हूं, क्रीज़ पर नाबाद डटा हूं। 'समय' की टीम के गेन्दबाजों ने हालांकि काफी कोशिश की आउट करने की किंतु 'हिन्दी' की टीम का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं भी कम खिलाड नहीं कि जल्दी आउट हो जाऊं। सो उसके बाउंसर, यार्कर, गुडलैंथ, स्पिन सब कुछ झेलते हुए कभी-कभी चौका भी लगाया। सिक्सर लगे हों और तालियां बज़ी हों, ऐसे भी दो-एक मौके मैने देखे। जो भी हो पर पिच पर टिका हूं। अपने चन्द दर्शकों (पाठकों) के लिये पूरी पूरी कोशिश की है, कर रहा हूं कि उन्हे निराश ना कर दूं। हां, सचिन तेन्दुलकर नहीं हूं किंतु अपनी टीम का सिर कभी ना झुके यह विश्वास धर खेल रहा हूं। अब चूंकि टेस्ट खिलाडी हूं तो मुझे ज्यादा दर्शकों की कतई चाह भी नहीं, जो हैं वो खासे, कोरे, विशुद्ध टेस्ट पसन्द दर्शक हैं, इसका मुझे गर्व है। बस वे ही मेरी ताक़त हैं। उनसे ही सीखता हूं। वे ही प्रेरणास्त्रोत हैं।
सच पूछिये तो ये 365 दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। इस बीच कुछ ऐसे बेहतरीन मित्र बन गये जिनकी तलाश मेरे स्वप्न में थीं। ब्लोग मेरे रोज़मर्या जीवन का हिस्सा बन गया। जब भी उदास हुआ और ब्लोग सफर किया तो उदासी भाग गई। थकान से टूटते शरीर की 'आरोमा थैरेपी' इसी ब्लोग ने की। विचारों के तूफान को यहीं शांत किया। अपनी अल्प मतिनुसार शब्दों के साथ यहीं खेला। हां, मुझे ब्लोग पर देख कइयों ने इसे बकवास कहा। क्यों टाइम पास करता है? इससे तुझे क्या मिल जायेगा? समय क्यों खर्च करता है? अरे दुनिया कितनी आगे बढ गई है, लोग पैसा कमाने की सोचते हैं, तू इसमे अपना समय बिगाड रहा है। इससे क्या तुझे कोई पुरस्कार मिल जायेगा या कोई ज्ञानपीठ सम्मान दे देगा? आखिर होगा क्या इससे? आदि आदि...। मैं चुप रहा क्योंकि बचपन में सुना था कि अच्छे कार्यों के बीच कई सारे व्यवधान आते हैं"। पिताजी कहा करते हैं कि "अच्छा साहित्य पढना और लिखना समय का कतई दुरुपयोग नहीं होता।" वे कहते हैं कि- "आप कोई कर्म कर लेने के बाद कैसा अनुभव करते है? थकान का या प्रसन्नता का? आपको प्रसन्नता हो तो समझो आपने अच्छा कर्म किया। ग्लानि हो तो समझिये आपका वो काम अच्छा नहीं।" वैसे भी हमारी मनुस्म्रुति में यह कहा गया है कि-
"यत्कर्म कुर्वतोस्य ंस्यात्पारतोषा चांतरात्मन।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत॥" ( मनुस्म्रुति 4.161)

"यानी कर्म के साथ आत्मतुष्टि अवश्य होनी चाहिये। कर्म करते समय यदि अंतरात्मा को संतुष्टी का अनुभव हो तो उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। जिस कर्म में आत्मग्लानि या पश्चाताप हो वो नहीं करना चाहिये।" मुझे तो पढने-लिखने में आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता है इसलिये मैं यह करता हूं। ब्लोग तो आज है, कल तक मैं अपनी डायरी मेंटेन किया करता था। अखबार की नौकरी, और वह भी बगैर किसी ज्यादा उपरी दबाव के, तो लिखने में मज़ा आता रहा। साहित्यिक पारिवारिक माहौल व पिताजी की अपनी लाइब्रेरी में किताबें भी खूब मिली पढते रहने के लिये, तो उसमे मगन रहा, फिर नई किताबें खरीदने का शौक रहा, अब जब ब्लोग है तो क्यों न अपनी फितरत को इसके माध्यम से दिशा देता रहूं। लिहाज़ा इस ब्लोग सुख की नदिया में गोता लगाते हुए और मोतियां बिनते हुए एक वर्ष हो गया। मैं उन सब का अभिनन्दन करता हूं जिन्होने मुझे सराहा। मेरे साथ बने रहे। अब यह स्नेह बना रहे, या यह कहूं कि स्नेह बढ्ता रहे। यही आकांक्षा है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

एक ये भी दीवाली है...

फटे कपडे वाला
पसीने से लथपथ
बदहवास कहां दौडा जा रहा है,

रुक...
अबे रुक जा...।
बच के कहां जायेगा बे
बोल...क्यों भाग रहा है
और ये तेरे हाथ में....
क्या है, बता....
चोर कहीं के।

पकडे रखना
मुंडेर पर चढा था ये
वो तो अच्छा हुआ कि
दीये जल रहे थे
दिख गया...।

बोल बे..चुप क्यों है?
तेरे हाथ में क्या है?

अच्छा तेल सने हाथ...
कोई पकडे तो फिसल जाये
और भाग जाये...ऐं..।

तमाच...तमाच..तमाच

बता...
रो रहा है..दो और पडेंगे
तब बतायेगा क्या....।

दीया ?????.........?

"-सुना था
आज के दिन
दीया जला आंगन में रखते हैं...
लक्ष्मी आती है...
मां बीमार है, बाप का पता नहीं..
खाने को कुछ नहीं..
इतने सारे दीये जल रहे थे
सोचा एक उठा ले जाऊं..

माफ कर दे
हवलदारसाब....

और
ये ले बाबू तेरा दीया....।"


तमसो मा..ज्योतिर्गमय...........।

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ले तू भी
फेंक पत्ता..
पी ले कल का क्या भरोसा..
उपर क्या बतायेगा?
ऐं..
पी भी नहीं...।

पैसा क्या उपर ले जायेगा...?


पूजन...

किटी पार्टी में देर हो रही है
ओह ये लिपिस्टिक...

वाव..क्या लग रही है तू।

हां दीवाली है न।

ऐ...हम जा रहे हैं
घर की बत्तियां बुझा दे।

जी मेमसाब।

तमसो...मा..ज्योतिर्गमय.....।

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बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

रात हवा ने बहुत बात की

रात हवा ने बहुत बात की
रग-रग, छू-छू मुलाकात की।

ऐसे कोई बौराता है
जीना मुश्किल हो आता है,
ठन्डा,भीना मादक अंचल
परस-परस मन बहकाता है।

ऐसी बैरिन कौन जात की
रात हवा ने बहुत बात की।

खिलतीं कलियां शर्माती हैं
झूम,लचक झुक झुक जाती हैं,
बे-मौसम, बे-वक़्त, करकशा
हवा अगन सुलगा जाती है।

लज्जा उघरे गात गात की
रात हवा ने बहुत बात की।

अर्पित मान हुआ जाता है
मंत्र-मुग्ध मन झुक आता है,
नस-नस में बस पवन हठीला
सन-सन सी सरसा जाता है।

बात करे अब कौन प्रात की
रात हवा ने बहुत बात की।

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

शांति के नये 'बाबा', जय हो ओबामा

ओम से नहीं, अब शांति ओबामा से मिलती है। इससे बडा चमत्कार और क्या हो सकता है कि जिसे दुनिया आठ-नौ महीने पहले तक जानती नहीं थी उसे शांति का सबसे बडा दूत बना दिया गया। जिसने अपने लिये, अपने कुनबे के लिये लडाई लड कर सत्ता हासिल की उसे दुनिया का महान शांति वाहक मान लिया गया। सच तो यह है कि अब मुझे काला जादू पर विश्वास होने लगा है। गोटियां फिट करने वाले फनकार की फतह कैसे होती है, जान गया हूं। यह भी समझ में आया कि दुनिया में नोबेल पुरस्कार आखिर नोबेल क्यों है? माफ करना 'बापू' आप गलत दिशा में थे, आपकी शांति, अहिंसा, सदाचार सबकुछ दुनिया के लिये, जनमानस के लिये था, अगर आप अपने लिये सोचते तो शायद आज आप भी ओबामा की तरह शांति दूत होते, नोबेल विजेता होते। वैसे आज के नेता बडे खुश हैं। वे भी सपने देख सकते हैं किसी नोबेल के। अजी उनका पूरा-पूरा हक़ है। इस नये शांति के नोबेल विजेता के गुण देखिये- ओबामा ने अमेरिका इतिहास बदला, एक अश्वेत या कहें अर्ध-श्वेत व्यक्ति ने अमेरिका जैसी महाशक्ति को अपने कब्जे में लेकर सत्ता हासिल की। केन्याई मूल के अश्वेत पिता और अम्रेरिकी श्वेत माता की संतान होना ओबामा के लिये फायदेमन्द साबित हुआ। नस्लवादी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अमेरिका की राजनीति के बीच संघर्ष करते हुए देश की गद्दी तक पहुंचना आसान थोडे होता है। हमारे गांधीजी जैसे थोडी कि पूरी जिन्दगी जनसेवा में लगा दी, देश के दिलो दिमाग में बस जाने तथा सर्वोपरि होने के बावज़ूद किसी प्रकार के सत्ता सुख से अलग रहे। जीवनपर्यंत दूसरों के सुखों के लिये, शांति के लिये तन-मन सब कुछ अर्पित कर दिया। छी, यह भी कोई काम हुआ भला। इसलिये गान्धीजी को हमेशा नज़रन्दाज रखा गया और ओबामा को आज नोबेल दिया गया। किसकी पूजा करने से ज्यादा लाभ होता है? यह नोबेल आयोजक बखूबी जानते हैं। इसीलिये तो उन्होने लगभग ज़ोर्ज़ बुश की राह चलने वाले 48 साल के ओबामा को चुना। आप देखिये, ओबामा सत्ता में आये उधर उत्तर कोरिया ने परमाणु परिक्षण किया। और ईरान भी इसके काफी करीब है। इराक से जो अमेरिकी सेना लौट रही है अगर उसे मापदंड माना गया हो तो जय हो नोबेल वालों, क्योंकि वो पूर्वनियोजित कार्यक्रम है। ओबामा के सामने चुनौती के तौर पर अफगानिस्तान का मामला लिया जा सकता है। किंतु वहां के हालात और अधिक दयनीय हो रहे हैं। अब तक ना तालिबान का सफाया हो सका ना कोई शांति का रत्तीभर दर्शन। और तो और बुश की पाकिस्तान को लेकर जितनी गलत नीतियां थीं उससे भी दो कदम आगे हैं अपने 2009 शांति के नोबेल विजेता बराक ओबामा। पाकिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी सहायता राशि बढाकर तीन गुनी ज्यादा कर दी गई है। जिसे पाकिस्तान ज्यादा भारत के खिलाफ उपयोग में लाता है। ओबामा ने यह सोचने में अपनी शांति भंग नहीं की कि पाकिस्तान इस राशि का इस्तमाल पडौसी देशों में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में नहीं करेगा। हां शांति के इस नये दूत ओबामा ने इजराईल-फिलिस्तीन वार्ता में जरूर एक नया युग शुरु करने की पहल की। मगर अफसोस यहां भी है कि अमेरिका की जो ईजराइल लाबी है वो काफी शक्तिशाली है और ओबामा उसके आगे बेबस हैं। लिहाज़ा इस वार्ता में अब तक कुछ भी खास नहीं हुआ है। उधर सिर-ऐढी का जोर लगा देने के बावज़ूद ओबामा अपने देश के लिये ओलम्पिक मेजबानी नहीं ला सके, देश को मन्दी की मार से नहीं बचा सके। चीन के आगे दबना और दलाई लामा से ना मिलना, क्या संकेत देता है यह सोचा जा सकता है? अब नोबेल आयोजकों को इतना धैर्य कहां कि फिलहाल थोडा रुक कर ओबामा को परख लेते। अभी तो उन्होने अपना जीवन शुरू ही किया है और उन्हें यह कह कर अपने मापदंड की भी ऐसी कि तैसी कर दी कि कम समय के भीतर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को मज़बूती देने के उनके 'असाधारण' प्रयासों के लिये यह नोबेले दिया गया। वाकई असाधारण ही तो है। नोबेल, नोबेल ही तो है, कोई शक़ ?????????

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

आंख


यों ही बहुत
सुन्दर तुम्हारी
बडी काली आंख।
कमल, खंजन,
हरिण सबको
मात करती आंख।
अनगिनत से
भाव भरती
बात करती आंख।
किंतु
उपमाहीन है
नीचे झुकी-सी आंख।



-चित्र गुगल से साभार

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

वाह रे समर्पण।

पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
अपने पूरे विस्तार के साथ
मेरी तस्वीर।
मैं कुछ समझ पाता कि
उसने पलक बन्द कर
निगल लिया मुझे
ह्रदय के अंतरतम तक
और बुदबुदाई
अब तुम जा सकते हो।




मैं
दुनियाई बवंडर में
उलझा
अपने दायित्व, कर्म
धर्म निभाता
लगभग बूढा हो गया,
वो कभी याद नहीं आई,
क्योकि उसे कभी
भूला ही नहीं।
फिर यह विश्वास कि
मैं तो उसके
ह्रदय में ही हूं।
सोच बुदबुदाता हूं
वाह रे समर्पण।

शनिवार, 19 सितंबर 2009

"प्राणांतक सुख"

नवरात्रि की सभी को मेरी और से आत्मीय शुभकामनायें।

" हिन्दी पखवाडा चल रहा है, वैसे मेरे लिये तो हिन्दी हर क्षण रगों में बहती है, इसलिये पखवाडा चले या सालवाडा मुझे इससे कोई मतलब नहीं रहता। लिहाज़ा हिन्दी की ही एक रचना जो मुझे बेहद पसन्द है, सादर कर रहा हूं। "

अप्रतिक्रियोद्भुत
एक अहेतुकी कर्म का
अविनाशी प्रदर्शन
अग-जग में परिव्याप्त
सहज कौशल का मार्जित प्रकर
अतल गव्हरों में झंझायित
आलोडित कंदराओं का
प्रसादांत क्रन्दन
अनावरित अवतरण की
दुस्तर भूमिका
अंजुलि भर
गुम्फित वन्दन के स्वर
श्रद्धा विगलित प्रेम-पेलव
संसार का अपहरण
डूब उतरता
सहज-सिन्धु विक्षुब्ध
प्रलय जनमाता
अंतरतर कातर मन
आह..
टूटन का म्रुत्योधिक सुख
आह...
अनस्तित्व का प्राणांतक सुख।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

पर्वत को छू पाकर बदली बरस गई।

पूरी भरने से पहले ही गगरी छलक गई
बैरिन लट गुंथने के पहले औचक उलझ गई।

माना मूल्य समर्पण का है
यह तन बस अर्पण का है
किंतु देव-पूजन से पहले
सिर का घूंघट क्यों सरका है?

पद-प्रक्षालन से पहले यह कैसी झिझक हुई
चरण पकड कर बैठ गई मैं अन्यमनस्क हुई।

बून्दों के गिरने से पहले
खुली सीप से कुछ तो कह ले
बन्धन से मोती है फिर भी
अच्छी खोटी सीप परख ले।

गिरने से पहले ही क्यों यों चकनाचूर हुई,
दरपण के सम्मोहन में मैं खुद से दूर हुई।

जीवन में बन्धन का स्वर है
मिलन-बन्ध में जीव अमर है
यम की पूजा के पहले ही
ब्रह्माराधन सर्व अजर है।

मिलने से पहले ही बावरी यों मदहोश हुई
जन्मों की उलझी गुत्थी ज्यों पल में सुलझ गई।

आओ तो मैं चांद सितारे
गोदी भर लूं सारे सारे
यही समर्पण बने विसर्जन
अनजानी पहिचान पुकारे।

जैसे सागर की सीमा लख नदिया उमग गई
जैसे पर्वत को छू पाकर बदली बरस गई।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

बुढिया हिन्दी

वो रोई,
नहीं..नहीं
उसे रुलाया गया।

रुलाया जाता रहा।

60 वर्ष की
बूढी के आंसू
पोछ्ने के नाम पर
देखो कितने
मज़में लगे हैं,
मेले लगे हैं,
सज़ी हैं दुकानें
और बिक रहे हैं
आंसू।

उसके आंसू
बेच कर
देखो तो कितने
महल खडे हो गये,
लोग कितने बडे हो गये,
पीठाधीश बन गये।
बावजूद
आंसू बेचे जा रहे हैं
खरीदने वाले
बन्द आंखे किये
खरीदे जा रहे हैं।
कोई माई का लाल नहीं
जो कोने में
पडी
रो रही उस बुढिया को
सम्भाले,
उसके आंसू पोछे
और कहे
जिसके बूते
मैं चला, जमा, खडा हुआ
जिसके बूते मैं
देशधारा में बहा,
जिसकी छाती से
दूध पिया,
उसे उसका मान सम्मान
पूरे-पूरे हक़ के साथ
यदि ना भी दिलवा पाऊं
किंतु उसे आजन्म
निसंकोच अपने
साथ रख,
ता-उम्र सेवा करता रहुंगा....।

अरे मां है वो
इतने से ही मान जायेगी
आंसू अपने पौछ डालेगी।
और गोद में उठा
पूरे आंगन में
दौड लगायेगी।
बस इतना ही तो चाहती है।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

सुख




मेरे चेहरे के भाव
वो खूब पढ लेती है।
उसका नन्हा दिमाग
मेरे दिमाग से
कहीं तेज चलता है।
वो मेरे अनुसार अपने
कार्य ढालती है,
मुझे क्या अच्छा लगता है
क्या नहीं.
वो बारिकी से जानती है।
यहां तक कि
मुझे भी कभी पता नहीं चलता कि
मैं "ऐसा कुछ चाह" रहा था।
थकान होती है
तो सिर के पास बैठ
अपने नन्हें, कोमल हाथों से
सहलाने लगती है।
मैं
मना करता हूं
तो सीधे कुछ किताबें उठा
पढ्ने लगती है,
मुझे दिनभर की
बातें बताती है।
और जब देखती है कि
मैं हंसा तो
झट उठ कर भाग जाती है।
या फिर
कह उठ्ती है-
पापा
चलो आपको घुमा लाऊं।
मैं पूछ्ता हूं
कहां?
तो कहती है
कहीं भी बाहर,
जैसे मार्केट-वार्केट
होटल-वोटल,
मेरे लिये कुछ
खरीद वरीद लेना
कुछ खा-वा लेंगे
और क्या।
मैं हंस देता हूं और
प्यारी सी चपत
देते हुए
कहता हूं
शैतान।

बस यही तो है
जीवन के सुख।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

और सुबह हो गई

-तरुणाई संझा ने
निर्मोही दोपहर को
धकेलते हुए
मेरे आंगन में
प्रवेश किया
और मुझे
चांदनी सौंप
खुद धीरे से
खिसक गई।


-आसमान पे चढ
आंखे फाड कर
ढूंढ रहा है चांद,
किंतु रात के मदभरे
सन्नाटे में
नव वधु की तरह
चांदनी सकुचाते हुए
मेरे अंक में
समा गई।


-सांय-सांय करती
मेरे बंद कमरे के
दरवाजे-खिडकियों पर
लात मार
दस्तक देती
चिल्ला रही है हवा,
लौटा चांद की चांदनी।
पर स्म्रतियों की
सुरा पी चांदनी
मेरे संग नशे में
खो गई।


-स्वप्न मधुबन मे
बिछी तारों की सेज़ पे
मेरी देह से लिपटी
मखमली स्पर्श
और प्रेम के परम सुख्
का रसास्वादन
देती चांदनी,
लो समर्पित
हो गई।


-ना देह की सुध रही
ना दीन-दुनिया की,
जब पक्षी चहके और
भौर की किरण ने
दरवाजे की दरार से
लुढक कर
मेरे कमरे में प्रवेश किया,
तो चांदनी के चेहरे पर
देखो कुटील हंसी
छा गई।


-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।


-कुछ समझ पाता
इतने में
आंखों में समा गई
किरण,
चादर की सिलवटे मिटा
चांदनी को विदा
किया ही था कि
धम्म से पलंग पर
अब किरण
पसर गई।

-और सुबह हो गई।

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

आग सिर्फ भस्म करती है

तुमने बडे प्रेम से
आग लगा दी,
मेरे तन में भी और
अपने तन में भी।
अब जलो...।

ये पद-प्रतिष्ठा की
प्रदक्षिणा,
खोने-पाने की
प्रतिस्पर्धा,
लूटने-खसोट्ने की
प्रलोभना,
बढती भूख का
प्रलाप,
प्राप्त प्रक्रुति का
प्रकोप,
चहूंओर सिर्फ और
सिर्फ आग का प्रमाण,
जलते रहो।

जीवन आग है,
जिसकी जितनी ऊंची
लपटें,
उसकी उतनी प्रतिभा।
जो जितना जला सके
उसका उतना प्रकाश।
जो ना जला सके
उसमे भी जलन,
वाह,
हर् कोई जल रहा,
इस दावानल मे।

आग सिर्फ
भस्म करती है,
भस्म।
चाहे जलो या जलाओ।


( ढेर सारे विचार गुत्थमगुत्था थे। मैंने उन्हें एकत्रित नहीं किया और उतार दिया। या यूं कहूं कि समय का अभाव है, और 'पोस्ट' करने की जल्दी। निश्चित रूप से बिखराव का आभास होगा। किंतु इतना तय है कि शब्दों के नेपथ्य में छुपा जीवन का गूढ् आपकी पैनी नज़रों से बचेगा नहीं।)

सोमवार, 31 अगस्त 2009

अगर तुम साथ दो



हौसला है मुझमें
पार कर लूंगा इस दर्द से
भरी बदरंगी नदी को,
उसकी आगत
उछाल मारती
लहरों पे नाचूंगा,
और इस चौडे दर्प से भरे
पर्वत को
चूर-चूर कर दूंगा
अपने कदमों तले,
अगर तुम साथ दो।

यूं तो क्षितिज कुछ होता नहीं
महज मरिचिका की तरह
प्रतीत होता है,
किंतु मैं
उस आकाश को
पकङ खींच लूंगा,
इस धरा पर ला पटकूंगा,
और यदि तुम
चाहो तो,
कदमों में तुम्हारे
उसे झुका दूंगा,
अगर तुम साथ दो।

जरूरी नहीं कि
प्रेम में करीब ही रहा जाए,
सांसो को आपस में
टकराया जाए,
अधरो की कंपन को
अधरों से मिटाया जाए,
मैं हवाओं के सहारे
आलिंगन कर लूंगा,
तुम्हें अपने अंतस में
बसा लूंगा,
अपनी गर्म सांसों को
सूरज की किरणों से मिला
तन तुम्हारा तर दूंगा
अगर तुम साथ दो।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

न जाने कब ?

सातिया मांड (बना)
पटा रख
उस पर आसन बिछा कर
बैठाती थी मां,
आरती उतार कर
तिलक लगा
ढेर सारे अशीर्वाद बुदबुदाती,
मुंह में मीठाई रख देती,
फिर चारों दिशा में
धोक (प्रणाम) दिला
पीठ पर हाथ धर
अपने भगवान से
मेरे लिये कितनी
दुआयें मांगती,
मुझे नही पता।
कहती
आज के दिन
कोई संकल्प लो
और अपनी कोई भी
बुरी आदत छोड दो।
उसके आशीर्वाद
लिये मैं
बढता रहा,
लडता रहा,
जीतता रहा।
मगर न कोई
संकल्प ले पाया
न बुरी आदतें छोड पाया।
अब
जब वर्षों से दूर हूं
हर बार 'आज' उनकी
ज्यादा याद आती है,
बहुत ज्यादा
बहुत ही ज्यादा
याद आती है।
यहां रहने की
कैसी मज़बूरी है,
और क्या ये जरूरी है?
पता नहीं।
सोचता हूं,
ज्यादा सोचता ही हूं कि
दौड कर चला जाऊं
उनके पास।
कम से कम 'आज़' के दिन।
फोन पर और उनके मन मे
हर-हमेश आशीर्वाद
रहते ही हैं,
पर आज़ का विशेष दिन है,
आज फिर वो मुझे अशीर्वाद देंगी
और संकल्प व बुरी आदत
छोडने को कहेगी,
मैं भी चाहता हूं
अब संकल्प ले ही लूं,
अपनी कोई बुरी आदत
छोड ही दूं,
उनके साथ रहने का संकल्प
और छोडने में
मुम्बई रहने की
बुरी आदत।
किंतु...
न जाने कब
मेरी ये मुराद
पूरी होगी?
न जाने कब?

( जब घडी में रात के 12 बजे थे यानी 19 अगस्त शुरू हो गया था कि फोन की रिंग चहक उठी। मेरी अज़ीज़... ममता की बधाई, फिर तुरंत सुशील छोक़्कर जी की शुभकामनायें...सुधीर महाजन का एसएमएस.....मेरे इस दिन को खुशनुमा कर गये। घर से माता-पिता-बहन-भाईयों के आशीर्वाद प्राप्त हुए जो मेरी शक़्ति हैं।
मेरी बिटिया अपनी मम्मी के साथ एक दिन पहले से इस दिन की तैयारी में लग जाती है। बिटिया के लिये तो मानों कोई उत्सव हो। मुझसे छुपाकर अपने हाथों से ग्रीटिंग बनाना, मेरी जरूरत के हिसाब से कोई गिफ्ट लाना, और सोकर उठूं इसके पहले मेरे कान में अपनी आवाज़ में रिकार्ड की हुई बधाई लगा देना....., फिर ग्रीटिंग ...फिर गिफ़्ट..फिर मीठाई....फिर...., सच तो यह है कि माता-पिता के आशीर्वाद ही इस रूप में फलते हैं। और जब कोई मुझसे पूछ्ता है कि जीवन में तुमने कमाया क्या? तो मैं अपने अज़ीज़, मित्रों के नाम ले लेता हूं, यही सब तो मेरी पूंजी है।)

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

कौन दे गया शाप

' स्वाईन फ्लु' तेज़ी से बढ्ने लगा है। मुम्बई के हालात कुछ ठीक नहीं कहे जा सकते। आप यदि अस्पताल की ओर देखें तो पायेंगे बदहवास लोगों की भीड और परेशान चेहरे हर कोने पर बिखरे पडे हैं। फ्लु की तादाद भले कम हो पर दहशत हरकिसी के सिर पर सवार है। क्या बाज़ार,क्या दफ्तर,क्या सडके और क्या घर...हर जगह स्वाईन के नाम का डर। सच और अफसोस यह भी है कि रोज़ इस बीमारी से कोई ना कोई मौत हो रही है। उफ्फ..

" न बाढ
न चिलचिलाती धूप
न कोई आकाल
न कोई भूचाल।
न खबर
न आतंक
और न ही कोई आहट,
बस, चुपचाप-दबे पांव
धडाम से फट पडा
खौफ का बादल,
टूट पडा
कोने-कोने पसर गया।
हाय,
शहर मेरा फिर डर गया।
शरारत
अणु से शैतान की,
जो फैला गया
शंका, शक़ और शोक।
वो प्रेम मिलन
होठों का चुम्बन
गलबहियां
सब शूल बन गई,
चुभने लगीं।
दूर होने लगे
लोग आपस में
शनै-शनै,
बहने लगी
बदहवासी।
हाय,
शहर में मेरे बसने लगी खामोशी।
हां,
नथूनों से होकर
गले में घुस
सीधे मस्तिष्क पर
करता वार।
लाचार, बीमार
बिलखता परिवार
परेशां सरकार
करती उपचार।
फिर भी
बढता जाता है ताप,
भोग रहे बच्चे, बूढे और जवान
न जाने किसका पाप?
हाय,
शहर को मेरे कौन दे गया शाप।"

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

हाज़िर हूँ जनाब

मित्रवर की आवाज़ हो और हम ना आयें ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे यकीन मानिये इन दिनो मैं इस हाल में नही हूं कि कुछ स्वस्थ लेखन हो सके, पिछले दिनो ऐसी व्यस्तता रही कि लिखने का समय नही मिला, समय मिलता कि वायरल फीवर ने जकड लिया { शुक्र है कि स्वाईन फ्लु ने नही जकडा} पिछली लगातार भागादौडी की थकान और फीवर की वजह से आई कमजोरी ने लगभग शरीर को तोड कर रख दिया। रोज़ सोचता रहा कि कुछ लिखूं, पढता तो रहा मगर लिखने का कीडा बस कुलबुलाता ही रहा. अभी जब अपने मित्र (दर्पणजी) का बुलावा देखा तो खुद को रोक नही सका। सच कहूं तो इस ब्लोगिंग ने मुझे तर दिया है. कुछ ऐसे मित्र मुझे मिल गये जिनकी कल्पना ही मैं कभी किया करता था. ईश्वर की किरपा।
बीमार मन आखिर क्या लिख सकता है? किंतु हां, इस अवस्था का भी अपना अनुभव होता है और जो सबसे अलग होता है। मुझे लगता है ये अवस्था खुद को देखने के लिये सबसे बेहतर अवस्था है। हम कम से कम ये तो जान लेते हैं कि हमारा 'शरीर' भी है। अन्यथा इतने व्यस्त जीवन मे इस शरीर का भान रह ही कहां पाता है? वैसे शरीर है तो रोग भी हैं। पर ईश्वर से यही दुआ करता हूं कि किसी को भी रोगी न होने दे। आदमी की सारी रचनात्मकता रोग की वजह से रुक जाती है। कैसा भी रोग हो, आदमी तो भुगतता ही है साथ ही साथ उससे जुडे लोगों को भी वो परेशान कर देता है। मुझ जैसा व्यक्ति कुछ ज्यादा सोचता है,पर यह भी उतना ही सच है कि बीमारी में आदमी जीवन के कुछ ज्यादा करीब चला जाता है। तब उसे नज़र आता है अपने आसपास का माहौल। कभी कभी वो स्वयं को बहुत बौना समझने लगता है और दुनिया उसे बहुत बडी दिखाई देने लगती है। उसे लगता है..जिस दुनिया को उसने अपने तलवो के नीचे दबाये रखने का घमन्ड पाला हुआ था ऐसा यथार्थ में है नही। सारे लोग उसे अपने से लम्बे..आदमकद जान पडते है। आकाश ऐसा प्रतीत होता है मानो उसे बस निगलने ही वाला है। धरती पर पैर रखने मे घबराने लगता है। वो खुद एक बौना, असहाय सा जान पडता है। यानी बीमारी में आदमी अपनी अस्लियत को बहुत करीब से देखता है। मैं तो सम्भल जाता हूं..इसलिये कि कुछ याद आ जाता है जो दिल को तसल्ली दे जाता है, अब देखिये न, जौक़ साहेब ने शायद मुझ जैसों के लिये ही तो यह लिखा होगा कि-
'देख छोटों को है अल्लाह बडाई देता
आस्मां, आंख के तिल में है दिखाई देता'

खैर.. ठीक हो रहा हूं, जल्दी ही अपने छूटे हुए खास ब्लोग्स पर भ्रमण करुंगा। इन दिनो मगर मज़ा भी रहा, अपनी कुछ यादों में सफर कर आया, तो बहुत कुछ आत्मिक अनुभव भी प्राप्त किये। ये समय खुद के लिये बना होता है शायद, खुद को पहचानने के लिये। जब आप अपने कामकाज से दूर, बस अपने बारे में सोचते होते हैं। लगता तो ये है कि डोक्टर कहता भी इसीलिये है कि- कम्प्लीट्ली रेस्ट लो। जो भी हो, इस अज़ीब से रेस्ट' का मज़ा भी है। हालांकि ये मेरे मानने से थोडा परे हट कर है ,मेरा मानना है कि व्यस्त रहना ज्यादा सुखकर है। आप अकेले पडे नहीं कि तमाम तरहो की बातों मे दिमाग उलझने लगता है। व्यस्तता बान्ध कर रखती है, अच्छी नींद देती है और आपको अपने उद्देश्य की और हमेशा अग्रसर रखती है। पर बीमारी में? उफ्फ, इंसान की फितरत भी क्या चीज़ बना दी। खैर.. वो शायर 'मुश्फिक' का शे'र है न कि-
' इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है'

जनाब मुश्फिक़ से शायद आपका परिचय नहीं होगा, इनके बारे में कभी लिखुंगा जरूर, कमाल के शायर थे, फिलहाल इस अनमने लेखन को झेलिये, दरपणजी का बुलावा मैं टाल नहीं सकता था इस्लिये जो मन में आया वो लिख दिया। उन्हीं को समर्पित-

"लो सूरज भी डूब गया
बेचारा दिन ऊब गया
मटमैली सी ये
शाम का पल्लू झट उलट गया।
'साथी' की मुस्कुराहट लिये
लो खिल आई चांदनी
रात की गोद मे बैठ
'उसके' लिये मैं कुछ लिख गया।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

कारगिल की कसक

यही तो समय था। क्या करूं, क्या न करूं की दुविधा में शरीर छ्टपटा रहा था, आंखों में क्रोध के साथ आंसू भी गरम हो रहे थे, दिल में तूफान और कुछ कर गुजरने की लपलपाती इच्छा थी। एक दशक हो गया। यही समय था जब अखबार में कारगिल (भारत-पाकिस्तान) युद्ध पर समर्पित पूरा एक पेज़ छोड दिया गया था, जिसमें शहीदों के नाम और जवानों की हौसला अफज़ाई करती पाठकों की रचनायें आमंत्रित थी। मेरी ही देख रेख में यह पेज़ लगाया जाता था और रोज़ सैकडों चिटिठ्यां आती, मैं ईमानदारी से पढता और पेज़ पर उन्हें जगह देता। मेरे साथ मज़बूरी यह थी कि पेज़ छोटा पडता था और चाहता था तमाम चिटिठयों को स्थान दूं। मुझे लगता सारा देश एक हो चला है। यह लगना सच भी था। मेरा खून खौलता था और आंखे नम होकर शहीदों के प्रति अपनी मौन श्रद्धांजलि अर्पित करती जाती। किंतु यह कार्य मेरे कुछ कर गुजरने की इच्छा को पूर्ण नही कर पा रहा था। वैसे मैं सिवाये जवानों के प्रति अपनी श्रद्धा और संवेदनायें व्यक्त करने के अलावा और कर भी क्या सकता था? चाह अवैधानिक थी कि सीमा पर जाकर ज़ंग में शरीक हो जाऊं। छ्टपटाहट बढ रही थी। दिन को चैन नहीं, रात को नींद नहीं। दिमाग में 24 घंटे अपने देश के सैनिकों की ज़ंग घूमती। चैनलों पर देख कर सिहर उठता तो खबरों मे पढ कर लगता कि एक झटके में पूरा पाकिस्तान खत्म कर दूं। और जब अखबार में काम करता तो ऐसी खबरों को लिखना, पढना साथ ही रोज़ ही आ रही चिट्ठी रूपी भावनाओं को सहेज कर उन्हें छापना मुझे सिर से लेकर पैरों तक सरसरा दिया करती। इन्हीं दिनों में निर्देशक देवेन्द्र खंडेलवाल ने दूरदर्शन के लिये मेरे सामने एक धारावाहिक का प्रस्ताव रखा। (मैं बता दूं कि धारावाहिक व व्रत्तचित्र लेखन कार्य भी मैं करता रहा हूं) तय हुआ कि 'वीरो तुम्हे सलाम' शीर्षकाधीन एक डाक्युमेंट्री बनाई जाये। रूपरेखा बनी। दूरदर्शन ने पास भी कर दिया। और अब हमें फिल्म बनाकर प्रस्तुत करनी थी।
महाराष्ट्र और इसके आसपास शहीदों के परिवार, उनका परिवेश, गांव आदि का सम्पूर्ण ब्यौरा कैमरा टीम अपने कैमरे में कैद करती, साक्षात्कार लेती और मैं उन्हे देख कर, पढ कर कमेंट्री लिखता। उफ्फ, बहुत कठिन और असहनीय कार्य था। इसके पहले कई व्रतचित्र लिखे, कई कहानियां लिखीं कभी इतना कठिन नहीं लगा। मैरे शब्द गुम हो जाते, मेरा हाथ ठिठक कर रुक जाता। किंतु मैं किससे कहूं? एक अति सम्वेदनशील और अति भावुक व्यक्ति तमाम द्र्श्य और कल्पनायें कर सिवाये कन्धे झुका, सिर और गर्दन को अपने घुटनों में फंसा कर उकडू बैठ रो लेता। दीवारों पर घूंसे बरसा देता। चट्टानों पर जोर से पैर पटकता। सरकार की निर्वीयता पर झीकता। वैसे आज भी हालात जस के तस हैं। क्या बदलाव आया? कौनसी अत्याधुनिक सुविधाओं से हमारे वीर सैनिक लैस हो गये हैं? राजनीति ने कौनसा तीर मार लिया है? कौनसी प्रशासनिक श्रद्धाजंलि स्वर्ग में बैठे शहीदों के गले उतरती है? चारों तरफ ढ्कोसले ही ढकोसले, मुर्दुस चेहरों से लिपी-पुती बयान बयार ही तो बह रही है। विजय दिवस के नाम पर नेतागण औपचारिकतायें ही तो पूरी करते है। ओह, सत्य कैसे लिखुं? फिर आंखे नम होती जाती है। और अफसोस अटटाहास करते हुए दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर चढ विराज जाता है। हम उन शहीदों के प्रति कभी ईमानदार हो सकते हैं? हम उनके बलिदान को सही अर्थों में कभी साकार कर सकते हैं? फिलवक्त ऐसा होना दूर की कौढी नज़र आता है। खैर।
मुझे लिखना ही था। कभी फूट-फूट कर रो लेता तो कभी आंसू आंखों में कैद कर चुपचाप शब्दों को आकार देता। शब्द भी पूर्ण सत्य कैसे हो सकते थे? क्या मैं किसी शहीद के आंगन में बिखरी गर्वीली विरानी को लिख सकता हूं? क्या उस मां के दर्द को हूबहू उकेर सकता हूं, जिसकी गोद में कभी वो जवान किलकारियां मार हंसता था? क्या उस पिता के गर्वीले चेहरे के पीछे छुपी पीडा को लिख सकता था, जिसके कन्धों पर चढ कर ही शायद उसने बर्फीली पहाडियों को फान्दना सीखा था? जिसकी उंगली पकड कर गांव की गली नुक्कड पर मदमस्त हो वो नाचता फिरता था? क्या घर के उन कोनों में छिपी पीडादाई कमी को सचित्र कर सकता था जहां कभी उसके कदमों की आहट और उसके होने के भाव बिखरे पडे थे? क्या उस बहन की वेदना लिपिबद्ध कर सकता था जो बाज़ार में सज़ी राखी की दुकानों पर बहनों की भीड तो देखती है पर खुद राखी नही खरीद पाती? क्या मैं उस औरत के घूंघट के अन्दर आंसुओं से भीगा चेहरा लिख सकता हूं जिसे अभी कल ही तो वो कह कर गया था तेरे इस जन्मदिन पर साडी जरूर लाकर दूंगा? क्या आंगन में खेल रहे उस छोटे बच्चे की अनभिज्ञता को लिख सकता हूं जिसकी किलकारी से अब घर खुश नही बल्कि दुखी होता है कि काश वो इसे देख पाता? नहीं मैं कुछ भी लिख नही सकता था। मेरी हालत तो उस पिता के समान थी जिसके चेहरे पर देशाभिमान और बेटे के खोने का गर्व तो था किंतु अन्दर ही अन्दर उसकी कमी का जो ज़ख्म था, जो दर्द था वो चाह कर भी उसे ना तो व्यक्त कर पाता ना ही जी खोल कर रो पाता। क्या मैं इस अनुभव को इस आंतरिक पीडा को शब्दाकार दे सकता था? हाँ, लिख लेता यदि मैं इस परिवेश की सिर्फ कल्पना करता। अपनी नंगी आंखों से मैने सच देखा है। बहुत करीब से दर्द का अनुभव किया है। और जब बाहर की दुनिया में पैर रखा तो सिर्फ यही पाया कि इस जंग के बाद, शहीद हो जाने के बाद हाथ आता क्या है? सिर्फ यह जो मैने देखा? सोचता हूं आखिर जंग किसलिये? क्या दिल्ली के तख्तोताज़ पर बैठे लोगो के भाषणों के लिये? खैर। डाक्युमेंट्री बनी, डीडी वन पर प्रसारित भी हुई। मगर उसमे आने वाले मेरे नाम ने मुझे सुख नही दिया। जैसा किसी अन्य शार्ट फिल्मों या धारावाहिक में आया देख में खुश हो जाया करता था। कुछ कर गुजरने की मेरी लपलपाती इच्छा को विराम आज तक नहीं मिला है।
ज़ौक साहब का शे'र आज़ भी उसी हालात को बयां करता है जो उन दिनो थे-
" रात ज़ूं शमअ कटी हमको जो रोते रोते
बह गये अश्को में हम सुबह होते होते"

मेरा सैल्यूट अपने देश के सैनिकों को। मेरे आंसू किसी कायरता के प्रतीक कभी नही रहे, बल्कि वो तो सिर्फ इसलिये बहते रहे कि उन सैनिकों के सामने मैं नही आ सका जिनके सीने मे गोलियां धंस गई। कारगिल की कसक आज भी है। आज हालात दूसरे रूप में सामने हैं। शहीद होने का क्रम भी बना हुआ है। और दिल्ली में ???????

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

उधडन

सुना था,
कोई कमीज़ थी एक
शानदार कलप लगी
इस्त्री से सज्ज
दमकती हुई।
समय के कांटे में
उलझ वो
कहीं से उधडी तो
धीरे-धीरे उधड्ती चली गई।
उसकी बाहें अलग-अलग हो
कहीं बह गई,
जेब कहीं जाकर जम गई,
कालर डालर की
आड में खडी हो गई,
बटनें टूट कर
छिटक गई,
पिछ्ला सपाट हिस्सा
पीठ दिखा दूर हो गया,
अग्र भाग के दो हिस्से
वैसे भी बटनों से
एक होते थे किंतु अब
वे सिर्फ फड्फडाते
मिलने की आस में
बस कभी-कभी टकरा जाते हैं
फूट-फूट रोते हैं।
मैं सोचता हूं
सब को एकत्र कर
तुरपई कर दूं,
उसे फिर कमीज़ का
आकार दे दूं।
किंतु
न तो मेरे पास
मज़बूत धागा है
न वो सुई
जिसकी चुभन को
सहते हुए भी
एक होने का भाव
इस कमीज़ को कभी
गर्व महसूस कराता था।
अब तो यह
उधड गई है,
बिखर गई है,
बदली हवा के झौकों में
बह कर उसके भाग
इतनी दूर हो गये हैं
कि ढूंढना मुश्किल,
एक करना मुश्किल।
और
मज़ा देखो कि
बिखरे, उधडे,
फटे,चिथडे होने के बावज़ूद
जिस पर अब वो
'टुकडे' गर्व करते हैं
21 वीं सदी ने उसे
एक ब्रांड नाम भी दे दिया-
"न्यूक्लियर फैमेली"

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

तर-ब-तर मुम्बई, दर-ब-दर मन

लो मुम्बई में भी बारिश हो गई। जम के हुई। पानी-पानी हो गया। वैसे यह सच है कि मुम्बई का मानसून किसी भी हिस्से से अनोखा होता है। यहां मानसून का अलग ही मज़ा है। अब यह भी अलग बात है कि कितने लोग इसका मज़ा लेते है? क्योंकि मुम्बई मे मज़ा कम सज़ा ज्यादा है। बादलो से बरस रही बरखा रानी भी सज़ा बन बरसती है। सज़ा कैसी? सुबह-शाम दफ्तर जाने-आने वालों से पूछिये। सडकों पर चलने वालों से पूछिये। झोपडी-चालों में रहनेवालों से पूछिये। वाहन सवारों से लेकर वाहन मालिकों तक सबके चेहरे पर बारिश की सज़ा का भीगा-भीगा रिसाव ब-आसान देखा जा सकता है। प्रशासन चौकस, व्यवस्था मुस्तैद किंतु फिर भी समस्यायें सुरसा के मुहं की तरह मुम्बई के जीवन को लीलना चाहती हैं। हर कोई परेशानियो में भीगा-भीगा सा। बावज़ूद मुस्कान लिये। यह सब तो मुम्बई के लोगों के लिये रोज़ का काम, आदत हो गई है, लिहाज़ा मुस्कान लिये वो परिस्थितियों से लडना जानते हैं। इस बात पर मुम्बईवासियों की जितनी तारीफ की जाये कम है। इस तारीफ को भी सरकार अपना श्रेय बना कर प्रचारित कर देती है, ये उसका साहस है और मुम्बईवालों का दुर्भाग्य। राजनीति इसीका नाम है। खैर..।
मुम्बई भीग उठी। सबसे पहला असर यातायात पर पडता है, सो लोकल ट्रेनें अनियमित, सड्कों पर ज़ाम, उपर से बरसात, नीचे भरे पानी से मुश्किलें आम। मैं भी अपने दफ़्तर, जो कि अपने घर से पौने दो घंटे की दूरी पर है, चार घंटों मे पहुंचा। तरबतर वातावरण में नौकरी पर जाना सिवाय मज़बूरी के और कुछ नही होता। वैसे भी इन नौकरियों मे अब इंसानियत खत्म हो चुकी है। कौन कैसे आ रहा है? कितनी मुसीबतों में? क्या-क्या जतन करके? किसे फिक्र? क्या करे बोस को काम निकलवाना है, 'उपर' उसे भी बताना है। सो कर्मचारियों कि ऐसे हालात मे पूछ कर लेना उनके लिये मुसीबत बन सकती है इसलिये कोई मानवता नहीं सिर्फ नौकरीयता। यानी आप चाहे इस बारिश मे मुश्किलों मे फंसे हों या दफ्तर नही पहुंच सकते, उन्हे इससे कोई मतलब नहीं। आपको आना है तो बस आना है। बेचारा कर्मचारी॥जाता है। अब प्रशासन चेताता है, एसएमएस करता है कि आवश्यकता हो तब ही घर से निकलें...। हास्यास्पद नही लगता ये? वैसे देखा जाये तो अब मुम्बई हास्यास्पद ही ज्यादा हो गई है। यही मज़ा है। इसे आप बारिश का मज़ा कह लीजिये या मौसम की मार का, जो भी हो मुम्बई मे मानसून का अपना ही मज़ा है। सागर किनारे उसकी उत्ताल लहरों से भीगना, गरमागरम भुट्टों पर नमक-नींबू लगवा कर खाना, कभी चाय की चुस्की तो कभी वडा पाव का मज़ा। कुछ आवारा हो जाने का मन करता है। कभी तो लगता है पानी भरी सडक पर दौड लगा दूं, जोर से चिल्लाते हुए भागूं। हो हो ..$$$$$,,,,,,। आते जाते लोगों को छेड्ते हुए निकल जाऊं..बस आज़ाद पंछी की तरह ..कोई तनाव ना हो, कोई काम ना हो...बस हो तो ये बरसता हुआ आसमान और मैं....। किंतु....मुश्किल है अब। खासतौर पर मेरे लिये, या मुझ जैसे इंसानों के लिये जिसे पद-प्रतिष्ठा के फेरे मे फंसे छटपटाते ही रहना है। आह, कैसी बनावटी जिन्दगी? खैर..। पर मन तो चौकडी भरता ही है। बारिश के साथ भीगता ही है। बंजर सी हो चली स्म्रतियों की ज़मीन को खाद पानी मिल ही जाता है। फिर कोपलें फूट पडती हैं, फिर एक एक कर यादें बाहर निकल आतीं हैं। तन-मन सब तर हो जाता है। ऐसे में शब्द किसी गीत की रचना करते हैं या कोई कविता की। कुछ इसी तरह के आलम में चंद पंक्तियां रचा गई।

" घुमड-घुमड के बादल आये
सावन बरसे, मन तरसाये।
दिल में छुपी बतिया को जगाये,
कैसे अब हम मन समझायें॥


घुमड-घुमड के .......

झूले पडे हैं डाली-डाली
रुत भी कितनी है मतवाली।
चारों ओर खिली हरियाली
फिर भी मन है खाली-खाली॥

घुमड-घुमड के..........

भीगी आंखे, भीगा तन है
लागी कैसी ये अगन है।
क्या कभी होगा मिलन है?
दूर बहुत मेरे सजन हैं॥

घुमड-घुमड के.......

तेरे लिये मैं रूप संवारूं
टक-टकी बांधे राह निहारूं।
ओ निर्मोही तूझे पुकारूं
मादक पल ये कैसे गुजारूं?

घुमड-घुमड के बादल आये
सावन बरसे, मन तरसाये॥

शनिवार, 11 जुलाई 2009

अफसोस

1-

वो
मेरी चिंता में
दुबली हो चली है।

किसी अज्ञात भय से
घिरी दिनरात वो
मेरे कुशल क्षेम के
लिये अपने भगवान से
मनौतियां मांगती रहती है।

और फोन पर
मेरे हाल चाल जान
उसका अपने भगवान पर
विश्वास और द्रढ हो जाता है।

वो कुछ और मनौतियां
व्रत जैसे उपक्रम कर
मेरी स्वस्थ कामना मे रत हो जाती है।

उसका
प्रतिदिन होता है
कुछ इसी तरह......

2-

मैं
अपनी चिंता में
बहुत कुछ भूल चला हूं।

पद प्रतिष्ठा के फेरे में
दिनरात उठापटक
इसका-उसका करता
रहता हूं।

अपने दमकते
आभामंडल को अपनी
जीत मान
इतराता फिरता हूं।

उसके फोन मेरे काम
मे अड्चन डालते हैं,
मै ठीक हूं इसका टेप लगा
व्यस्त हो जाता हूं।

मेरा
प्रतिदिन होता है
कुछ इसी तरह.....

3-

अफसोस
आखिर क्युं नही
समझ पाते
हम बेटे,
अपने पीछे की
उस अद्रष्य शक्ति को
जो उनकी तमाम हार को
जीत मे तब्दिल कर
उन्हें इतराने का
मौका देती रहती है.......

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

फिर मुस्कुराने के लिये

आज गुरुपूर्णिमा है, अपने शब्द सुमन गुरु के चरणों मे अर्पित करता हूं.
साथ ही आप सबके गुरुओं को मेरा स-आदर चरण् स्पर्श।

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" जिनके चरणों मे झुका ये शीश है
पिता ही मेरे गुरु, मेरे ईश हैं,
है ये सौभाग्य मेरा कि मेरे
कदम-कदम उनके आशीष हैं.. "
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अब मेरी एक रचना-

"मुस्कुराते हुए
चेहरों के
नेपथ्य में जो
'खेल' रहे दर्द हैं
उनसे मेरी प्रियता है,
मैं इनके साथ
विचरता हूं, झूमता हूं
गाता हूं, जीता हूं।

इनके मौन प्रदेश में
गज़ब की विरानी है
सन्नाटा है।

यहां
सांय-सांय चल रही
हवाओं में घुली
गमगीन मदहोशी है,
तो निछ्चल-पावन-निरापद
गंगा की तरह बह रही
अश्रु सरिता है
जिसमें डुबकी लगा
मैं तर जाता हूं।

इस स्थल की भूमि
कठोर नहीं, बेहद उपजाऊ है
नरम,मुलायम,संवेदनशील।

यहां विरह अग्नि के
तमतमाते सूर्य से
ऊष्मा ले खिलने वाले
पुष्पों पर बैठ रहे
आस व प्रतिक्षा के
भौरों की गुनगुनाहट
ह्रदय के स्पन्दन को
थामे रखती है।

मैं प्रतिदिन इन दर्दों को
संवारता हूं, सजाता हूं
और तैयार करता हूं
दुनियाई मंच पर
पेश करने के लिये
एक के बाद एक
नाटक के मंचन के लिये
फिर मुस्कुराने के लिये। "

शनिवार, 27 जून 2009

डांस 'ब्रेक'

किसी भी कलाकार का चले जाना कला क्षेत्र की क्षति है. कलाकार का न तो कोई देश होता है, न धर्म और न ही वो किसी जाति विशेष मे बन्धा होता है. वो होता है तो सिर्फ एक कलाकार होता है, लोग उसे सिर्फ कला के नाम से जानते हैं. इसलिये पिछ्ले दिनो जब मायकल जैक्सन का निधन हुआ तो एक अभूतपूर्व कला का भी अंत हो गया. अब उसकी कला बिखरी रहेगी किंतु वो नही होगा. यही कलाकार की पूंजी होती है कि उसके बाद भी उसका नाम अमर रहे. मै पक्का भरतीय हूं और इसीलिये कला प्रेमी भी हूं. मुझे मायकल का गुजर जाना व्यथित कर गया, क्योकि वो मेरे कालेज जमाने का हीरो रहा था. मुझे उसके हाल के विवाद और उसकी जीवनशैली से कोई मतलब नही, मुझे तो मतलब है उसकी कला से. मायकल जैक्सन का मेरे लिये मतलब है 'ब्रेक डांस',और गीत- संगीत का बेताज बादशाह.
बात बहुत पुरानी है, जब मै कालेज का छात्र हुआ करता था. उन दिनो हमारा शहर आधुनिकता मे बहुत पीछे था, पास ही इन्दोर जैसा बडा शहर जरूर था किंतु हमारे शहर मे उसकी हवा बहुत बाद मे पहुचती थी. मुझे फैशन भाती थी, कुछ नया करने व करते रहने की धुन बलवती रही. मै जानता हू उन दिनो घर की माली हालत. ऐसे मे मैरे शौक पूरे होना सम्भव नही थे, मुझसे बडे भाईसाहब की नौकरी जब मुम्बई मे लगी तो उनके माध्यम से मेरे पहनावे इत्यादि के शौक भी पूरे होने लगे.यानी मुम्बइया होने लगे. घर मे यदि फैशन आई तो सिर्फ मेरी ही वजह से, और ये भी यकीन के साथ कह सकता हूं कि शहर मे भी मै ही नई फैशन लाया था. दरअसल सिर्फ पहनावे से ही नही बल्कि मुझे हमेशा से ही आकर्षक दिखने की ललक रही थी, और इसके लिये मै खुद ही कुछ न कुछ ऐसा किया करता था कि वो सबसे अलग हो. उन दिनो फेशन का एक्मात्र स्त्रोत सिनेमा हुआ करता था, जबकी सिनेमा ने मुझे कभी अपनी ओर लुभाया नही. आज भी फिल्म से बहुत दूर हूं, हीरो-हीरोइने मुझे आकर्षित नही करते, फिर भी पता नही क्यों मेरे अन्दर अच्छा दिखने की ललक रही थी. खैर.. 'हिप्पी पना' न पिताजी को अच्छा लगता था न मां को. पर इतना जरूर कहूंगा कि मुझे कभी किसी ने रोका नही, शायद मै बहुत लाड का रहा. मेरे शहर मे उन इक्के दुक्के लोगो मे मै भी शरीक था जिन्हे बेहतरीन फेशनेबल कहा जाता था. दोनो भाई मेरे लिये मै जैसी मांग करता, वैसे परिधान लेकर आते,, 'ज़िंस' का शौकीन था, आज भी हूं, आज हालत ये है कि 'ज़िंस' पैंट के अलावा मुझे दूसरा कोई कपडा अच्छा नही लगता. किंतु तब 'ज़िंस' पैंट पहनना या खरीदना कठिन था. बावजूद इसके एक दिन जब पिताजी ने किसी व्यक्ति के माध्यम से 'जिंस' का कपडा बुलवाया तो मुझे हैरत हुई थी. मैरे लिये पिताजी की और से 'जिंस'?? वो पहला 'जिंस' का पैंट था, जिसे अपने मित्र बने टेलर से सिलवाया था, टेलर भी मुझसे खुश रहता क्योकि मै उससे अपने अन्दाज़ मे कपडे सिलवाता फिर वो उसी अन्दाज़ के ओरों को सिल के देता. बहरहाल वो जिंस का पैंट मेरे लिये बहुत कीमती था. कालेज मे मेरा जिंस पहनना भी एक अलग ही शान थी. शौको मे फेशन ही नही गीत-संगीत भी था. खेलकूद तो मुझे मानो विरासत से मिला ही था. मैं सोचता हूं यदि शहर पिछ्डा हुआ नही होता तो उन्नति के नाम पर बहुत कुछ पा जाता. विशेषतौर पर मेरे बडे भाई, जो टेनिस और टेबल-टेनिस के उन दिनो राज्य के बेहतरीन खिलाडी हुआ करते थे. खैर... बांसूरी बजाना, सिंथेसाईज़र बजाना मेरे शौक थे और ये शौक पूरा करते थे मेरे मुम्बई वाले भाई साहब. तब एक दिन मुझे ज्ञात हुआ कि कोई मायकल जैक्सन नामक प्राणी भी है जो गाता और नाचता जबरदस्त है. बस फिर क्या था, मुम्बई वाले भाईसाहब से पूछा, और उन्होने मुझे जैक्सन की कुछ किताबे व कैसेट भिजवा दी. तब मेने जाना जैक्सन को. फिर क्या था, मेरे शहर मे जैक्सन और उसका ब्रेक डांस अपने दोस्तो के माध्यम से फैलने लगा. मै उसकी दो कैसेट 'बेड' और 'थ्रीलर' बजाता, डांस करता. यकीन मानिये कुछ स्टेप तो मै बहुत ही जानदार करने लगा था. पर ये सब अपने घर मे पता नही चलने दिया था, क्योकि डर था कि डांट पडेगी. हमारे शहर मे विशेष दिन जैसे गणेश उत्सव, नवरात्रि आदि पर खूब कर्यक्रम होते थे, कालेज के गेदरिंग तो थे ही, जिनमे मेरा हिस्सा लेना जरूरी होता था. इधर ब्रेक डांस जैसी नई विधा से शहर अभी परिचित नही हुआ था. एमपीईबी मे ऐसे ही एक उत्सव मे सांस्क्रतिक कार्यक्रम था, मुझे याद है मै उस दिन बीमार था, घर पर आराम कर रहा था, एक दोस्त ने मुझे बताया कि अमिताभ् तुम्हे वहां डांस करना है और वो भी तुम्हरा नया डांस.. मै मना नही कर पाया. शाम हुई, रात आठ बजे से कार्यक्रम शुरू होना था. इधर मुझे किसी भी तरह जाना था, मगर बुखार ने रोक रखा था. फिर भी ठीक होने, अच्छा लगने का झूठ बोल कर थोडा बाहर घूम आने की इच्छा मां से व्यक्त की. जवाब मे 'ना' ही था. दीदी को पटाया.और किसी तरह एक झोले मे जिंस पैंट, टी शर्ट, कमीज़ डाल कर भाग निकला सीधे एमपीईबी. ऐलान हुआ. मै जल्दी तैयार होकर स्टेज़ पर जा पहुंचा. कैसेट थ्रीलर की थी, जिसका कोई गाना जिसमे म्यूजिक ज्यादा था, बजना शुरू और मैरा थिरकना भी. तालियो की आवाज़ से मेरा बुखार हवा हो चुका था. जब डांस खत्म हुआ तो ' एक बार और, एक बार और की आवाज़े कानो मे पड रही थी..किंतु मुझे तो जल्दी घर भागना था अन्यथा डांट मिलती. मै घर पहुच गया था. सोचा मम्मी-पापा को पता नही चला है. वाकई पता नही था. वो तो दूसरे दिन पापा को शहर मे फैली मेरे डांस की चर्चा से ज्ञात हुआ. इधर मेरे दोस्त ने बताया था कि तूने बहुत अच्छा डांस कर दिया भाई..पर मुझे भय था कि पापा को पता चल गया होगा और अब डांट के लिये तैयार हो जाऊं. पर जब पिताजी घर आये तो कुछ नही बोले..मुझे लगा उन्हे पता नही चला है. मायकल जैक्सन की बुक उठा कर उन्होने मुझसे इतना ही कहा कि पढाई भी जरूरी होती है.
कहने का मेरा तात्पर्य यह है कि मायकल जैक्सन का बुखार तब से मुझ पर था, किंतु बाद के दिनो मे समय बदला, नौकरी की आपाधापी और भागादौडी ने मैरे तमाम शौको पर स्वतः ही ज़ंज़ीरे जकडना शुरू कर दी, और समय की रेत मे मेरा वो अलमस्त जीवन भी दबता रहा. मुम्बई आ गया, परिवेष बदला, भाषा बदली..रहन-सहन बदला. सोचने- समझने की शक़्ल बदली. गम्भीरता ने उस काल के उत्साह को हरा दिया. मै अपने कार्यो मे व्यस्त हो गया. पत्रकारिता के संघर्ष मे खुद को झोंक दिया. क्योकि यही जरूरी था. गाना-बजाना-नाचना सब बंद. एक अलग 'अमिताभ' बन गया.
मुझे पता चला कि शिवसेना मायकल जैक्सन को मुम्बई आमंत्रित कर रही है। बस उसे देखने-मिलने की इच्छा और उसके होने की याद 6 सालो बाद फिर कुलाचे मारने लगी. 30 अक्टूबर 1996 का वो दिन था, जब मेरा हीरो मुम्बई मे मुझे साक्शात दिखने वाला था. वो आया. मैने देखा, मिला. और मह्सूस किया कि आज भी अपने शहरवासियो से पहले उसे मेने देखा, जिसके नाम से मै चर्चित हुआ था कभी. दुनिया को जिसने अपने गीत संगीत से झूमने पर मज़बूर कर दिया हो ऐसा व्यक्ति साधारण तो हो नही सकता॥सचमुच जैक्सन साधारण नही था. उसका महज़ 50 वर्ष की आयु मे चला जाना मुझे अटपटा सा लग रहा है. मै जानता हूं मेरी तरह इस देश मे भी कितने होंगे जिन्हे जैक्सन भाता होगा..../ ऐसे जादूगर को कौन भूला सकता है.

शुक्रवार, 19 जून 2009

असल साहित्य क्या है ?

इसमे कोई दो राय नही कि 'कहानी' साहित्य की खूबसूरत विधा है. किंतु 'कहानी' ही साहित्य है, यह हज़म हो जाने जैसा तो नही लगता. पिछले दिनो जब हम मित्र मंड्ली मे यह चर्चा चल रही थी और साहित्य के तथाकथित 'कार' राजेन्द्र यादव के सन्दर्भ मे बात करके अपना समय जाया कर रहे थे तो इस बीच मेरा गौतम राजरिशी जी के ब्लोग पर जाना हुआ, वहा भी मेने यही पाया कि राजेन्द्र जी मौज़ूद है/ लिहाज़ा मेरा मासूम मन साहित्य मे गद्य के प्रति विचारो की अग्नि मे तपने लगा/ 'जितना तपता सोना उतना निखरता है' वाला कथन सच ही है/
गौतमजी के ब्लोग पर राजेन्द्र यादव के प्रति स्वस्थ आलोचना मन को भायी, स्वस्थ आलोचना साहित्य को तराशने का काम करती है/ हालांकि राजेन्द्रजी जैसे जीव का पाचन तंत्र कितना बलिष्ठ है इसका पता नही किंतु साहित्य के 'आका' कहलाने का उनका मोह 'हंस' मे दीखता है/ उनका साहित्य और साहित्य के लिये उठा पट्क वाला जो आभा मन्डल है वो उन लोगो की आंखे भले ही चौन्धीयाता रहे जिन्हे उनसे स्वार्थ हो, मेरी आंखो मे वे और उनका सहित्य कभी आकर्षण का पात्र नही बन सका। अपना अपना द्रष्टिकोण ठहरा. सौभाग्यवश मेरी उनसे कभी मुलाकात नही हुई, दुर्भाग्यावश मेने उनकी कुछ रचनाओ को पढा है। खैर जहा तक बात कहानी को ही साहित्य मानने की है तो मै इसे ठीक नही मानता। साहित्य की उपज राग से है, राग पध्य रूप मे ज्यादा स्पष्ट होता है। लिहाज़ा साहित्य का जन्म ही मै पध्य से हुआ मानता हू/ आप यदि गम्भीरता से विचार करे या साहित्य की मूल गहराई मे उतरे तो पहले काव्य के रूपो को जानने व समझने के लिये थोडा पाश्चात्य व भारतीय परम्परा को खंगाल लेना आवश्यक है। काव्य के भेदो मे यूरोपीय समीक्षको ने व्यक्ति और संसार को प्रथक करके काव्य के दो भेद किये है, एक विषयीगत दूसरा विषयागत. विषयीगत यानी सब्जेक्टिव, जिसमे कवि को प्रधानता मिलती है और दूसरा विषयागत यानी आब्जेक्टिव जिसमे कवि के अतिरिक्त शेष स्रष्टि को मुख्यता दी जाती है. यानी पहला प्रकार काव्य 'लिरिक' हुआ। यूनानी बाज़ा 'लाइर' से सम्बन्ध होने के कारण इसका शाब्दिक अर्थ तो वैणिक होता है किंतु इसे प्रायः प्रगति या भाव- प्रधान काव्य कहते है। इसमे गीत तत्व की प्रधानता रह्ती है. दूसरे प्रकार के काव्य को अनुक्रत या प्रक्थनात्मक कहा गया है। महाकाव्य और खंड काव्य इसके उपविभाग है. किंतु पाश्चात्य देशो मे प्रायः महाकाव्य ही इस प्रकार के काव्य का प्रतिनिधित्व करता है. वहा खंड काव्य जैसा कोई विशेष उपविभाग नही है. ये विभाग पध्य के ही है। अब यदि गध्य की बात करे तो इसके विभाजन मे गध्य काव्य की महिमा है. जहा भाव-प्रधान काव्य मिलेगा. और उपन्यास महाकाव्य का तथा कहानी खंड्काव्य का प्रतिनिधित्व करेगा/ गद्य मे निबन्ध, जीवनी आदि अनेक ऐसे रूप है जिनको इस विभाजन मे अच्छी तरह बान्ध नही सकते. पर गध्य काव्य के शेत्र से बाहर नही है। गद्य का उलट ही पद्य है. जिसको आप अंगरेज़ी मे (Verse) कहते है।
आप जानते है कि भारतीय परम्परा मे नाटक को प्रधानता मिली है। जो काव्य अभिनीत होकर देखा जाये तो द्रष्य काव्य है और जो कानो से सुना जाये तो श्रव्य काव्य कहलाता है। यध्यपि श्रव्य काव्य पढे भी जाते है। रामायण का उदाहरण लिया जा सकता है जिसे पढने व गाने के लिये उपयुक्त माना जाता है।
उपन्यास महाकाव्य का स्थानापन्न होकर और कहानी खन्डकाव्य के रूप मे गद्य के प्रबन्ध काव्य कहे जाते है। गद्य काव्य तो मुक्तक है ही, पत्र भी मुक्तक की कोटि मे आयेंगे. उनकी निबन्ध और जीवनी के बीच की सी स्थिति है। समस्त संग्रह की द्रष्टि से एक एक निबन्ध मुक्तक कहा जा सकता है। किंतु निबन्ध के भीतर एक बन्ध रहता है. ( हालांकि उनमे निजीपन व स्वछन्दता भी होती है) वैयक्तिक तत्व की द्रष्टि से गद्य के विभागो को इस प्रकार श्रेणी बद्ध कर सकते है, उपन्यास, कहानी ( काव्य के इस रूप मे उपन्यास की अपेक्षा काव्य तत्व और निजी द्रष्टिकोण अधिक रहता है.) जीवनी यह इतिहास और उपन्यास के बीच की चीज है। इसका नायक वास्तविक होने के कारण अधिक व्यक्तिपूर्ण होता है) निबन्ध (इसमे विषय की अपेक्षा भावना का आधिक्य रहता है) गद्य काव्य तो ये सभी रूप है। किंतु गद्य काव्य के नाम की विधा विशेष रूप से गद्य काव्य है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो यह समझते है कि साहित्य कहानी या गद्य को ही कहा जाता है वे मेरी समझ मे ना समझ है। गद्य का जन्म ही कविता से हुआ है। मुझे अच्छा यह लगा कि गौतमजी न सिर्फ गज़ल या संस्मरण के महारथी है बल्कि वे वैचारिक स्तर पर साहित्य की परख करने से भी नही हिचकिचाते है। सम्भव है इसीलिये मुझे उनका ब्लोग रुचिकर लगता है।
बहुत दिन हुये मेने कोई रचना उकेरी नही.तो कोशिश करता हूं-
" मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।

निजत्व जो है
नीरा पवित्र है,
किंतु, ठीक है
गंगा की तरह
मैला कर
दिया जाता हूं,
तो कर दिया जाता हूं।

अब वो माने
या ना माने
समर्पण करे
या ना करे
मुझे प्राथमिकता दे
या ना दे
मै तो उन्हे सिर्फ
प्रेम किये जाता हूं।

अपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।

क्योकि
मासूम हूं।
हर बार
छलने के
लिये ही हूं।
"

गुरुवार, 28 मई 2009

किसी बिरले को खो दे

कभी-कभी
आदमी जो कहता है
उसके अर्थ को अपने आस-पास के
परिवेश के कारण
बदल कर गाह्य कर लिए जाते है
और इस तरह शब्दों के
ईमान की हत्या हो जाती है।

शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है,
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है,
रिश्ते-नाते टूट कर बिखरने लगते है,
होता कुछ नही है
बस आदमी आदमी
नही रहता
उसका पवित्र नाता
किसी ग़लत फहमी के जाल में
उलझ कर तड़पता है।

बार-बार यदि वो अपनी
सफाई भी पेश करे
तो भी मन के अन्दर पेठी
विरूध्द भावना उसके रास्ते की
रुकावट बनती है,
और यह मान्य कर लिया जाता है
की जिस पर भरोसा किया
उसने, उसकी भावनाओ ने
सिर्फ़ लूटा या लूटना चाहा।

कैसी मानवता है ये ?
कैसी विचारशक्ति है ?

शायद इसी वजह से इस समाज में
प्रेम नही टिकता , नाते टूटते है,
रिश्ते बिखरते है,
और सात्विक हृदय की
पूछ नही होती,
उसे समझा नही जाता
और बहुत जल्द उसके ख़िलाफ़
एक घिनौनी मानसिकता
तैयार कर ली जाती है।

जबकि होना यह चाहिए की
किसी के प्रति कोई धारणा
बनाने से पूर्व
उसके सच को खंगालना
परम जरूरी है।

हम सबको एक द्रष्टिकोण से
नही देख सकते।
और यदि देखते है तो
हो सकता है
किसी बिरले को
खो दे।

बुधवार, 20 मई 2009

मन मत्स्य


बहुत चिकना होता है विचार पथ

जिस पर मन बार- बार फिसल जाता है,

फिसलकर भाव सरिता में बहने लग जाता है।

भावो की लहरों संग खूब तो उछलता है

डुबकिया लगाता है और किनारे आ-आ कर

साधु हृदय को चिढ़ाता है।

कभी बिल्कुल निरापद

तो कभी शैतान होकर

उसका चैन उडाता है।

खिलखिलाते नृत्यरत

ऐसे मन को क्या साधना?

किंतु

शब्द अपना जाल बुनते है

उसे पकड़ने के लिए स्याही के कांटे का उपयोग करते है।

और चारे की तरह अक्षर को कांटो में फंसा

सरिता में डालते है।

घंटो इन्तजार के पश्चात

अंततः झांसे में आ ही जाता है मन

अक्षर शब्दों के साथ पंक्तिबध्द

खड़े होकर मन को चीरने लग जाते है

फाड़ते है,

उसकी आजाद जिंदगी को

कविता के नाम पे

बलि चढ़ा दिया जाता है।

भुना जाता है और

काव्य जगत के बाज़ार में

परोस कर फ़िर

रसास्वादन होता है।

बेचारा मन मत्स्य ।




बुधवार, 13 मई 2009

सड़क और मै











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मंगलवार, 5 मई 2009

मेरा जीवन सार तुम्ही हो...

"दुःख को छिटक मै आया
तुमसे मिलने ओ एकांत,
बता कहां है मागॅ जहां से
मिलता माँ का वो प्रांत।
याद मुझे है सबकुछ किंतु
राह विस्मृत सी हो चुकी
विदा हो रहा था जब मै
थी अश्रुरत पलके झुकी।
ये समय का फेर था कैसा
कालचक्र से छला गया,
अपने हृदय धर तुमको
दूर कैसे मै चला गया।
संग दल-बल, बना महल
किंतु न कभी चैन मिला,
भीड़ में भी रहा अकेला
एक अदद न मीत मिला।
कहा तुम्हे था कि रोना मत
यदि ध्यान कभी मेरा आए,
पर मै यहाँ बिन तुम्हारे
रहा नित दृग नीर बहाए।
अपने हृदय पर रख पत्थर
था केसे तूने विदा किया,
मेरा मन धरने को तूने
विष बिछोह का पी लिया।
वर्षो संघर्ष में लिप्त रहा
पर नही मिला ठोर ठिकाना,
मिले जो जग के वैभव सारे,
झूठे है सब मेने जाना।
मेरा सुख साम्राज्य तुम्ही
मेरा राज वैभव तुम्ही हो,
गोद तुम्हारी, प्यार तुम्हारा,
मेरा जीवन सार तुम्ही हो। "

रविवार, 26 अप्रैल 2009

यादे

मुझे लगता है यादे दो तरह की होती है, एक वो जिसमे तड़प होती है, कसमसाहट होती है, दर्द होता है, विरह की अग्नि से जलता मन होता है, दूसरी वो जिसमे परम शान्ति होती है , सुख होता है, मुस्कान उभरती है और जीने का अपना आनंद होता है।अमूमन पहली तरह की याद ज्यादा होती है, दूसरी तरह की क्यो नही? कविता के माध्यम से खोजने का प्रयत्न है।
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" क्यो याद सिर्फ़
तडपाती है?
मदमदाती क्यो नही?
गुदगुदाती क्यो नही?
क्यो
दावाग्नि की तरह
हहराती लपटों से
निराधार हृदय को
भस्म करने को
आतुर होती है?
और तो और
ये दावाग्नि शांत भी होती है तो
उसकी गर्म - तपतपाती राख
हवा के साथ उड़ उड़ कर
शरीर से जा चिपकती है।
रोम- रोम में रच-बस जाती है।
मन-मस्तिष्क के
निभृत एकांत को मानो
नोच-नोच कर खाती है।
क्यो ऐसा नही होता कभी की
इस प्रलय शून्य सन्नाटे में
याद चुपके से आए
अपनी महासागरीय
उत्ताल भुजाओं से थाम ले,
भींच ले अपने अंक में,
तमाम इन्द्रिय
मोहित मृग के समान
थिरकने लग जाए,
बंशी की धुन
वीणा के झंकृत तार
सुध-बुध खो दे।
क्यो नही होता ऐसा
की
याद किसी
मेघाच्छादित
आकाश की तरह
अपने आँचल से
सरस्व ढंक ले?
अपने ममतालु, मर्म स्पर्श से,
श्रृंगार रस की बारिश कर दे?
अपनी मखमली नर्म
आगोश में लेकर
छुपा ले?
अपने मादक अधरों से
टपकते अमृत का रसपान करा दे।
तृप्त कर दे हर वो शन
जो नितांत एकाकी होकर
अपने नुकीले- तीखे
कांटो से अतीत को
कुरेदते है और हर सम्भव
पीड़ा- दर्द- तड़पन दे जाते है।
उन्मुक्त हो मुस्कुराने का
पुरस्कार क्यो नही देती यादे?
शायद इसलिए की
यादे भी निछल, समर्पित
निस्वार्थ प्रेम मांगती है।
सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम। "

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

अधरों से मै पी लूं

अपनी चाह ---
सुख सारे तुमको दे दूं
दुःख तुमसे मै ले लूं
झर झर बहते ये अश्रु
अधरों से मै पी लूं॥
जानती हो? -----
संघर्ष सदा बदा है
जीवन संग लगा है
अथ- इति के मध्य
सुख-दुःख से रंगा है॥
और इसे भी मानो ----
मन को कुचल अपने
जीवन जो जिया है
विधि का उसने
स्वयम विधान रचा है॥
मै क्या हूँ--
अलस त्याग मै कूदा
जीवन के इस रण में
भाग्य लोट लगाता
मेरे पथ, कण कण में॥
सच तो यह है प्रिये--
कौन है जो यहाँ
कामना से हीन है
जगत-हृद के सागर में
हर कोई लीन है॥

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

ऐसे कैसे लोग ?

घटनाये घटित होती है, अपने आसपास की आबो हवा में कई सारी ऐसी बाते होती है जिन्हें मस्तिष्क शब्दों के माध्यम से बाँधने का प्रयत्न करता है। उछलने कूदने वाले शब्दों को साधना होता है, किन्तु इसके लिए एकांत और अनुकूल वक़्त चाहिए। व्यस्तता में शब्द सधते नहीं बंध जरूर जाते है। बंधे हुए शब्दों में भटकाव भी स्वाभाविक होता है। मेरी इस रचना में संभव है, भटकाव नज़र आये। क्योकि परिस्थितिया व्यस्तता में कैद है। घुमड़ घुमड़ कर पैदा होने वाले विचारो को मस्तिष्क ने बाँधने का यत्न किया है, जिसे एक रचना के भेस में आपके सामने परोस रहा हूँ। चाहता भी हूँ कि यदि आप मेरे बंधे शब्दों को साध सके तो और बेहतर होगा। कम से कम जिन विचारों को लेकर मेने प्रयास किया है, उन्हें पूर्णता मिल जाए।


" ऊंचे- ऊंचे पद पर बैठे
बौने-बौने जैसे लोग।
खुद को पर्वत मान लेते है
कंकर- कंकर जैसे लोग।
पढना- लिखना बेकार हुआ है
कार में अंगूठा सवार हुआ है,
चाट- चाट तलुवो को बने है
देखो सांठ गाँठ वाले लोग।
बिक रहा ईमान यहाँ
धूल में सना सम्मान यहाँ
कौडी सी कीमत लगाते
दो कौडी के जैसे लोग।
हुई तरक्की ,चाँद पर पहुंचे
देश हमारा महान हुआ
शुक्र है चाँद से नज़र ना आते
भूखे नंगे फिरते लोग।
चलो यहाँ से भाग चले
भाग कर भी कहां चले,
प्यार के पीछे पड़े हैं देखो
यहाँ धंधे- चंदे वाले लोग।
गलती नहीं ज़माने की
आदत पड़ी जो 'खाने' की ,
रिश्वत - घूस ठूंस ठूंस कर
सेठ कहलाते पेट वाले लोग।


शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

मुफलिस जी की कविता से प्रेरित होकर लिखने का मन हुआ। इसके पूर्व प्रख्यात रचनाकार विजय देवनारायण साही की कुछ पंक्तिया स्मृति में आ रही है, उन्हें जरूर लिखूंगा , जिसके अर्थ तथा गंभीरता की गहराई में जाकर मेरी सीधी व सपाट कविता के संग आप किनारे लग सकते है।
" सच मानो प्रिय
इन आघातों से टूट- टूट कर
रोने में कुछ शर्म नहीं ,
कितने कमरों में बंद हिमालय रोते है।
मेजों से लग कर सो जाते कितने पठार
कितने सूरज गल रहे है अंधेरो में छिपकर
हर आंसू कायरता की खीझ नहीं होता। "
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क्या ऐसे ही प्रतिभाये

रोती रहेंगी?

चाटुकारों- चापलूसों की चांदी कटेगी?

शिक्षाये धंधे बाजों के खेत सींचती रहेंगी ?

कुर्सी पर मूर्खाधिराज का शासन होगा?

प्रिये मंज़र खौफनाक है ।

ऐसे में ईमान लहुलुहान होता दिख रहा है

तो कोई नई बात नही।

प्रतिभाये बिखरते बिखरते रेत बन चुकी है।

रेगिस्तान हो गई है आदमियत,

जिसपे मुह मारने वाले ऊँटो का काफिला

अट्टहास करते गुजरता है।

और बदनीयत मंजिल पा रही है।

किंतु प्रिये अभी भी उम्मीदे शेष है

अन्धकार के घटाटोप बादल छंटेंगे जरूर

क्योकि पचती नही है

हराम की कमाई।

जुलाब होता है और नासूर बन

रिसती है शरीर के हर कोने से।

सच्चाई है यह,

इससे मुह मोडे जो खड़ा है, खड़ा रहने दो।

बस तुम प्रतीक्षा करो।

सोमवार, 30 मार्च 2009

जैसे माँ का आँचल

तुम्हारा निर्मल स्नेह
मेरे तपते हुए जीवन को
बर्फ सी ठंडक देता है,
मै थोडा शांत होकर
अपने 'होने' के भाव को
महसूस करने लगता हूँ।
तुम्हारे शब्द सुमन
मेरे रेगिस्तानी पथ पर
मखमली गलीचे का
निर्माण करते है,
और दूर होने के बावजूद
लक्ष्य के करीब होने का
अहसास होने लगता है।
तुम्हारा दिया गया
अप्रत्यक्ष मान- सम्मान
इस भीड़ भरी
स्वार्थी दुनिया में
मस्तक को गर्व से
ऊंचा उठाने में
टेका देता है,
और दंभ से भरा
आकाश मेरे कदमो में
लिपटने लगता है।
एक सच कहू-
तुम्हारा व्यवहार
और तुम मेरे लिए
ठीक वैसी हो
जैसे माँ का आँचल।

शनिवार, 28 मार्च 2009

ह्रदय से धन्यवाद

अपने माता-पिता के पास था, इसलिए संसार से दूर था॥
आज ही लौटा हूँ, ब्लॉग देखा, अपने आदरणीय, प्रिय, मित्र, स्नेही, शुभचिंतक और कुछ नए पाठको ने अपना स्नेह बनाये रखा है, जो मेरे लिए सोभाग्य की बात है।
मै अपने ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ, और उम्मीद करता हूँ आप सबका स्नेह बना रहेगा। सुधीर, vijay kumaar, प्रवीण त्रिवेदी, sandhya guptaji , shyamkoriji, अनिल कान्तजी ,समीर सृज़नजी , ब्रजमोहन श्रीवास्तवजी ,कुमार धीरज, हेम पांडेजी, विनीता यशस्वी ,रंजनाजी, आदि सभी का आभारी हूँ जो आपने समय निकाल कर मेरी रचना पढ़ी और अपनी टिप्पणिया दी।
विशेषरूप से गौतम राज ऋषिजी , दिगंबर नासवाजी का ब्लॉग पर आना मेरे लिए हमेशा से ही सुखद अनुभूति रही है। और हां प्रिय काजल का मेरे शब्दों के संग सफ़र अलग ही अहसास दिलाता है। सबका आत्मीय आभार। आप सबका प्रेम बना रहे यही कामना है।

बुधवार, 4 मार्च 2009

मै सुख चुरा लाया हूँ

जिन्हें प्रतीक्षा रहती है मेरे शब्दों की, उन्हें समर्पित -

" बडी मुश्किल से
दुःख को सुला आया हूँ,
तुम्हारे लिए
कुछ सुख चुरा लाया हूँ।

ग़मगीन रात में
चांदनी बिखेरता ये चाँद क्यो हंस रहा है?
लो प्रिये , उसकी मुस्कुराहट उधार लाया हूँ।

तुम्हारे लिए कुछ सुख चुरा लाया हूँ।

यकीन करो मै
उम्रभर काँटों के बीच जूझता रहा,
आज एक गुलाब खिला लाया हूँ।

तुम्हारे लिए कुछ सुख चुरा लाया हूँ।

मुझे पता नही
प्रेम का इजहार कैसे होता है?
जो दिल में था वो उगल आया हूँ।

तुम्हारे लिए कुछ सुख चुरा लाया हूँ।

है हाथ तुम्हारे
पतवार मेरी मासूम जिन्दगी की ,
मै नाव बीच मझधार छोड़ आया हूँ।

तुम्हारे लिए कुछ सुख चुरा लाया हूँ
बड़ी मुश्किल से दुःख को सुला आया हूँ। "

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

पिता

पिता की कराहती आवाज़
हवा संग, ऊंचे पर्वतो
उबड़- खाबड़ रास्तो
खेत-खलिहानों, नदी -तालो
वृक्षों, उनके झुरमुटों के
बीच से होकर
इस महानगर की
भागती- दौड़ती
जिंदगी को चीरती
समय की
आपाधापी को फाडती
थकी -हारी
सीधे मेरे हृदय में
जा धंसती है औऱ
मैं लगभग बेसुध सा
तत्क्षण उनके पास
पहुंचने के लिए

अधीर हो उठता हूं
कि तभी

महानगरीय मकडी
अपने पूरे तामझाम के साथ
दायित्वों, कर्मो,
नौकरी - चाकरी
का तामसी, स्वार्थी
राक्षसी जाल बुनने
लगती है,
जिसमे फंस कर में
छुट्टिया लेने
छुट्टिया मिल जाने की
याचनामयी सोच
के संग तडपने लगता हूँ।
जाल और सोच के
इस युद्ध के मध्य
मस्तिष्क सुन्न हो जाता है।
गीता का सार
कुरान की आयते
या बाइबिल, गुरुवाणी की शिक्षाये
सब निष्फल हो कर
मेरी इस जंग में
हाथ मलते दिखती है।
समय जाता रहता है,
मेरी जरूरत,
मेरे होने का भाव
सब कुछ शून्य में कहीं
खो जाता है।
राक्षसी मकड जाल
कस जाता है,
महानगरी मकडी
मुझे लानत भेजती है
और अपने पुत्र होने पर
मुझे कोफ्त होती है।
ह्रदय में धंसी वो
आवाज़ भी कही
विलीन हो जाती है,
कि फोन आता है,
मैं ठीक हूँ
तुम परेशान मत होना
मेरे बेटे।
............................
काश
हर पिता के
साथ उसका बेटा
आजीवन रह सके,
ऐसा कोई
ईश्वरीय वरदान
प्राप्त हो सकता है क्या?