-तरुणाई संझा ने
निर्मोही दोपहर को
धकेलते हुए
मेरे आंगन में
प्रवेश किया
और मुझे
चांदनी सौंप
खुद धीरे से
खिसक गई।
-आसमान पे चढ
आंखे फाड कर
ढूंढ रहा है चांद,
किंतु रात के मदभरे
सन्नाटे में
नव वधु की तरह
चांदनी सकुचाते हुए
मेरे अंक में
समा गई।
-सांय-सांय करती
मेरे बंद कमरे के
दरवाजे-खिडकियों पर
लात मार
दस्तक देती
चिल्ला रही है हवा,
लौटा चांद की चांदनी।
पर स्म्रतियों की
सुरा पी चांदनी
मेरे संग नशे में
खो गई।
-स्वप्न मधुबन मे
बिछी तारों की सेज़ पे
मेरी देह से लिपटी
मखमली स्पर्श
और प्रेम के परम सुख्
का रसास्वादन
देती चांदनी,
लो समर्पित
हो गई।
-ना देह की सुध रही
ना दीन-दुनिया की,
जब पक्षी चहके और
भौर की किरण ने
दरवाजे की दरार से
लुढक कर
मेरे कमरे में प्रवेश किया,
तो चांदनी के चेहरे पर
देखो कुटील हंसी
छा गई।
-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
-कुछ समझ पाता
इतने में
आंखों में समा गई
किरण,
चादर की सिलवटे मिटा
चांदनी को विदा
किया ही था कि
धम्म से पलंग पर
अब किरण
पसर गई।
-और सुबह हो गई।
ख़ास दिन …
4 दिन पहले
19 टिप्पणियां:
AMITABHJI,
DO_TEEN BAAR PADHI AAPKI KAVITA< AOR TAB PATA CHALA AAPNE KITANA BADA SACH KAH DIYA HE. YAHI KHOOBI HOTI HE AAPKI KAVITA ME, KON HE YNHAA DHOODH KA DHULA? SAB ME KUCH NA KUCH EB HE. WAH, MAZA AA GAYA PADH KAR. GAZAB KE LEKHAK HO BHAI.
ME MUMBAI PAHUCH RAHA HU KAL, AAPSE MULAKAT BAGER JAA HI NAHI SAKTA. SHESH MILANE PAR.
नित नये विचारो और कविता का अवतरण हो आपके मानस पटल पर यही दुआ है हमारी .....ताकि भोर के किरणे प्रकाश मे लाये आपकी रचनाओ को ....
भोर की किरन दरवाजे की दरार से क्यूँ !! सम्पूर्ण रूप से आने को आतुर है दरवाजा तो खोलिये.
बहुत सुन्दर रचना
बहुत भावपूर्ण उम्दा रचना, बधाई.
"-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
"
aur dr. rajesh verma ji ne bhi sahi kaha...
...kabhi maine bhi likha tha....
"आदमी काला या सफ़ेद नहीं होता क्यूंकि वो किरदार नहीं, आदमी ग्रे होता है, या केवल होता है."
phir aapne to is matter ko generlised kar 'chand ' chandni ko bhi incliude kar diya....
...ab gunah karne main agar maza na bhi aaye to ek excuse, ek bahana to mil hi gaya...
..partikoon ke madhyam se ek acchi kavita.
balkin kahoon to behti kavita.
मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
....kamia sab me hai...or hum un kamio ke sath hi unhe accept karte hai....behtreen kavita....wonderful...
प्रतीकों का इस्तेमाल करके आपने सुन्दर शब्दों क़ॉ चुनकर एक प्यारी रचना रच दी और अपनी बात कह दी। जब भी कई बार पढा। और अब भी कई बार पढा। सच पूछिए तो एक बार एक अलग ही दुनिया में चला गया। खैर सारी रचना का सार इन प्यारी पक्तियों में छुपा है।
-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
क्या कमाल की लहर(लय)बनी है। और मेरे जैसे अनपढ तैराक बस लयरों में इधर उधर भटकता रहा। कुछ समझ में नही आ रहा। पर जब लहरों ने धक्का मारकर बाहर निकला तो लगा कि ये दुनिया मायावी है। और इसमें आदमी को जगने का मौका ही नही मिलता। क्या खराब है और क्या सही ये समझने का मौका ही नही मिलता है। एक महीन सी रेखा होती है जो इन्हें बाँटती है। पहले मैंने ठीक समझा पर बाद में भटक गया। खैर जो आपने लिखा है वही जीवन है। पर हमने उसे सही और गलत में बाँट दिया है। वाकई हमें पसंद आई आपकी ये रचना।
अपनी लाचारी, बेबसी का बहुत कुशलता से प्रदर्शन किया है, कितनी खूबसूरती से चादनी से कहलवा ही दिया...
-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
और तो और पुख्ता सबूत भी निम्न पंक्तियों में भी बहुत ही खूबसूरती से बयां कर गए.....
चादर की सिलवटे मिटा
चांदनी को विदा
किया ही था कि
धम्म से पलंग पर
अब किरण
पसर गई।
मानना पड़ेगा, एक सीधे-सादे सज्जन का लोग-बाग कैसे घर में भी घुस कर भी दागदार बना जाते हैं...........
इतनी सुन्दर और भोली सी रचना पर मेरी आपको हार्दिक बधाई.
(पर ध्यान रहे दागदार होने के लिए सिर्फ और सिर्फ संवेदनाएं है.........................कृपया इसे तोहमत नहीं मजाक समझें और आप ऐसा ही समझेंगे इसीलिए ऐसा मजाक लिखने की जुर्रत कर पाया.)
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
अपनी लाचारी, बेबसी का बहुत कुशलता से प्रदर्शन किया है, कितनी खूबसूरती से चादनी से कहलवा ही दिया...
-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
और तो और पुख्ता सबूत भी निम्न पंक्तियों में भी बहुत ही खूबसूरती से बयां कर गए.....
चादर की सिलवटे मिटा
चांदनी को विदा
किया ही था कि
धम्म से पलंग पर
अब किरण
पसर गई।
मानना पड़ेगा, एक सीधे-सादे सज्जन का लोग-बाग कैसे घर में भी घुस कर भी दागदार बना जाते हैं...........
इतनी सुन्दर और भोली सी रचना पर मेरी आपको हार्दिक बधाई.
(पर ध्यान रहे दागदार होने के लिए सिर्फ और सिर्फ संवेदनाएं है.........................कृपया इसे तोहमत नहीं मजाक समझें और आप ऐसा ही समझेंगे इसीलिए ऐसा मजाक लिखने की जुर्रत कर पाया.)
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
कितने सारे बिम्बों का खूबसूरती से प्रयोग..
..कविता कुछ भूलभुलैया की तरह है..हम समझते कुछ और हैं..और कविता समाप्त होने पर कुछ और ही कह जाती है..
एक मजेदार बात जो मुझे लगी कि आपकी व्यक्तिगत कोई चॉइस नही होती..बैड्मिंटन की शटल की तरह कभी चाँदनी तो कभी सूर्य-किरण के पाले मे झूलते रहते हैं..
बेहतरीन रचना..कई नये अर्थों की गिरह खोलती हुई
..अभी अमावस पर भी कुछ लिखिये.. ;-)
नए नए प्रयोग और नए एहसास को समेटे कहीं प्राकृति तो कहीं जीवन .......... आपकी कविता में हर बार कुछ न कुछ नया होता है ........ शब्द जैसे आपके हाथों में खेलने लग जाते हैं अमिताभ जी .......... और फिर srajan होता है रचना का ........ bhor की kiran तो आपकी rachnaa से foot कर आती है .......... अध्बुध है अमिताभ जी आपकी kalpana shakti ..........
" जहाँ तू नही ,
वो घर मेरा नही ,
चद्दरों पे सिलवटें ,
करनेके लिए तो आ ,
झरोंको से झाँकती किरनोंमे ,
बिन तेरे उजाला नही "
Anek shubhkamnayen!
वाह बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! रचना का हर एक शब्द दिल को छू गई! इस बेहतरीन और लाजवाब रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ !
प्रेम भरे भावों की सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
धरती के आँचल में
खिलता है पलाश
जब सिमटती है साँझ
उषा की बाहों में ,
तपन दुपहरी भी
भला कैसे छोड़ती
उषा को
अंक में अपने भी तो
जकड़ती है !
सुर्खी लिए पलाश का
खिलना और खिलखिलाना
यकीनन
दाग व दागदार
की नुमाइश नहीं करता !
---------आप खिलते रहे मित्र
और कविता की सुरभि से इसी तरह
हमे मह्काते रहे !
शुभकामनाए !
धरती के आँचल में
खिलता है पलाश
जब सिमटती है साँझ
उषा की बाहों में ,
तपन दुपहरी भी
भला कैसे छोड़ती
उषा को
अंक में अपने भी तो
जकड़ती है !
सुर्खी लिए पलाश का
खिलना और खिलखिलाना
यकीनन
दाग व दागदार
की नुमाइश नहीं करता !
---------आप खिलते रहे मित्र
और कविता की सुरभि से इसी तरह
हमे मह्काते रहे !
शुभकामनाए !
चांदनी को माध्यम बनाकर कविता ने अपना माधुर्य पाया है शब्दों का सहज गति से चलना ही भाषा को अलंकृत कर गया है |
बहुत सुन्दर कविता |
संझा शब्द पढ़कर मालवा निमाड़ कि याद आ गई पितृ पक्ष में वहाँ कन्याये संझा फूली खेलती है |
दीवारो पर गोबर से चंदा सूरज तारे गणेश आदी आक्रतिया बनाकर उन्हें फूलो से सजाती है लोकगीत गाती है मीठा प्रसाद बाँटती है और संजा से अ पने लिए योग्य वर कि प्रार्थना करती है |कुछ गीत के बोल याद आ रहे है |
संजा की माँ संजा खे भेजो
करो संजा कि आरती
पाना फुला भरी चमेली
केशर भरियो बाग को ..........
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
-बहुत ही अद्भुत..और एक बेहतरीन रचना..
चांदनी का समर्पण और भोर की किरण ..
इन सभी में आप ने अपनी भावनाओं को बहुत ही कुशलता से बुना है.
बधाई.
तरुणाई संझा ने
निर्मोही दोपहर को
धकेलते हुए
मेरे आंगन में
प्रवेश किया
और मुझे
चांदनी सौंप
खुद धीरे से
खिसक गई।
wah
amitabh
bahut acha laga aapko padhker
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