सोमवार, 24 जनवरी 2011

फिर भी ..........

अरे हां,

हम भूल गये हैं
कब और क्यों फहराया जाता है झंडा?
गुलाम थे तो याद था,
आज़ाद होते तब भी याद रहता।

- हम तो बद से बदतर हो चुके हैं,
इतने निर्लज्ज हो चुके हैं कि
हमाम से बाहर निकल कर
खुले मैदान में
नंगा नाच करने लगे हैं।

-फाडने लगे हैं संस्कृतियों के कपडे
गड्ढे खोद-खोद कर
कुर्बानियों को गाडने लगे हैं,
डींगे ऐसी हांकते हैं मानों
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
हमारा राज है।
हा हा हा...।

- हां, आवाज़ आती है
दिल्ली से देश के कोने-कोने तक,
राजपथ चमकता है,
तोपे गूंजती है,
सलामी बजती है
और फिर
भाषणों का भ्रमजाल
कस लेता है शिकंजा।

अब

उठाकर दिखाओ झंडा
बाजुओं में ताकत शेष है क्या?
फहरा कर दिखाओ
लाल चौक पर तिरंगा,
काट डाले जायेंगे हाथ,
खून की नदियां बह निकलेंगी।

ओह,

उधर सरकार
शांति की दुहाई देती है,
......खाक शांति।

चुप्प बैठ और देख......

ढोंग जारी है,
नामर्द मदारियों के
बंदर शिलाजीत के लालच
में खेल रचे हुए है..

कोई नहीं जानता
झंडा क्यों और कहां फहराया जाता है?
फिर भी ..........।

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

दिल भारी है सूखे लब

उधेडबुन आदमी के दिमाग को अस्त व्यस्त रखती है। फिर यदि हम यह सोचें कि इसमें किसी रचनात्मक कार्य को अंजाम दे दिया जाये तो यह कठिन है। पिछले महीनेभर से ब्लॉग के लिये यदि कुछ न लिख पाया तो वजह यही थी, हालांकि यह वजह अभी भी बेवजह बनी हुई है। कौन्धता रहता है सवाल कि आखिर हम अपने लिये वक़्त क्यों नहीं निकाल पाते? दिमाग भी पट्ठा जवाब ढूंढ कर वार कर ही दिया करता है, कि वक़्त तो हम अपने लिये ही जीते हैं, किंतु उसमे परिस्थितियों का तडका लग जाया करता है। और हम तडके के स्वाद में पेट खराब करते रहते हैं यानी अपने लिये वक़्त नहीं निकाल पाते और उलझकर रह जाते हैं ताउम्र। खैर..। मैने अनुभव किया है कि जब मन-मस्तिष्क, सबकुछ जीविकोपार्जन की मशक्कत में सिर तक डूबा रहता है तो अन्यत्र कुछ भी दिखाई नहीं देता और यह एक ऐसी स्थिति होती है जब किसीको समझ पाना भी कठिन होता है। हां, ढेर सारे दर्शन होते हैं, आध्यात्मिक विचार होते हैं, सीखें होती हैं मगर व्यक्ति की पीडा व्यक्ति ही जान सकता है कि गहरे पानी में क्या वजह है कि वह थक गया है या किनारे आने के लिये कितनी और कैसी तकनीक की आवश्यकता है? हां किनारे लगे लोग इसका बखूबी वर्णन कर सकते हैं, और नज़रअंदाज भी। बहरहाल, जीवन के ऐसे ही खाकों से होते हुए सफर करना ठीक वैसा लगता है जैसे उबड-खाबड, गड्ढों से पटी पडी सडक पर किसी सरकारी, खटारा बस का चलना और देर से ही सही किंतु दुरुस्त मंजिल तक पहुंच भी जाना। चलिये..छोडिये मेरी फिलॉसाफी को.., आप पढिये मेरे भाईसाहब की दो और गज़लें-

1,
" दिल भारी है सूखे लब
गिन-गिन तारे बीती शब।

तडपे-रोए इश्क़ में हम
यही है चाके-दिले-सबब।

हुस्न रहा कुछ दूरी पर
हैं साए सब बेमतलब।

देख के दुनिया पागल है
तुम में है कुछ बात गज़ब।

खूब सहेजा और समेटा
टूटे बिखरे ख्वाब हैं अब।

खैर, जो इज्जत बची रहे
दफ्न हो चुके यहां अदब।

तुम भी 'अश्क' अज़ब नादां हो
सुधरे हैं कमजर्फ भी कब?"

2,

कौन यहां रहने वाले हैं
इक दिन सब चलने वाले हैं।

तेज़ बहुत है दिल की धडकन
फिर वो कुछ कहने वाले हैं।

चुप्पी लब पर, रक्तिम चेहरा
ज़ाहिर है लडने वाले हैं।

कहकर कर लो दिल तुम हल्का
हमें है खूं, सहने वाले हैं।

दरिया और समंदर क्या है
आंसू में बहने वाले हैं।

तुलसी,मीर,कबीर,सूर को
कौन आज पढने वाले हैं।

उनने हंसकर मुझको देखा
लोग 'अश्क़' जलने वाले हैं।