मेरे दफ्तर पहुंचने से पहले ही वो वहां मौज़ूद था। मुझसे एकाध इंच लम्बा यानी वो होगा कोई 6 फिट 1 या 2 इंच का। गठीला बदन। साफ झलकता था कि कोई स्पोर्ट परसन है। हंसता हुआ चेहरा, उसकी मुस्कान में एक अलग ही शान थी,अपनत्व का भाव था, जिसने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया था। मुझे देखते ही उठा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। माय सेल्फ फारूख दिनशा..। मैने अपनी पास वाली कुर्सी पर उसे बैठने का इशारा करते हुए औपचारिक भाव से कहा, सोरी फारूख, मुझे आने मे लेट हो गया, आपको इंतजार करना पडा होगा... आईये, बैठिये और बताईये क्या बात है? वो हंसते हुए बैठ गया और कहने लगा- अमिताभजी, आपका नाम बहुत सुना है, आपसे मिलना था इसलिये आ गया.., वैसे आपसे मिलकर ऐसा लग रहा है कि अमिताभ बच्चन से मिल लिया..., और जोर से हंसने लगा। मैं भी मुसकुरा दिया उसकी बालसुलभ हंसी पर। मेने कहा- इस बात पर चाय हो जाये? उसने कहा- श्योर। यह बात होगी कोई 1995-96 की।
मार्शल आर्ट का विख्यात खिलाडी, बेहतरीन प्रशिक्षक, उम्दा खेल लेखक। अपनी नई पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण देने आया था वो। साथ ही उसने बताया कि मार्शल आर्ट को लेकर उसने कितना कुछ किया है और कर रहा है। बच्चों से लेकर आर्मी के जवानो तक वो अपनी प्रतिभा का पूरा पूरा उपयोग करते हुए लोगों को जीवन जीना सिखा रहा था , आत्मरक्षा की कलाये सिखा रहा था, उनमें आगे बढने, लक्ष्य पाने की राह दिखा रहा था। हालांकि मैं किसी से इतनी जल्दी प्रभावित नहीं होता लिहाज़ा उससे उसके कार्यों के सन्दर्भ में पूछता रहा और सवालों के जवाब पाता रहा। शायद उसके विषय में मेरी इतनी रुचि, ज्ञान, गम्भीरता को देखते हुए वो मुझसे प्रभावित हो गया। कह उठा- ओह ग्रेट। यू आर रियली प्योर..। मैं हंस पडा..मैने कहा- ऐसी बात नहीं है, दरअसल मैं भी थोडा बहुत जानता हूं जूडो-कराटे..., हो सकता है कि इस वजह से आपसे पूछता चला गया। खैर उस मुलाकात के बाद फोन पर बातें, उसके कार्यक्रमों में मुलाकातों ने हमे करीब ला दिया। एक दोस्ताना रिश्ता बन गया जिसमें कोई स्वार्थ नहीं दिखा। मैं उसके किसी प्रोग्राम में नहीं जा पाता तो फोन पर नाराजगी जाहिर करता, पहुंच जाता तो इतना खुश हो जाता मानो मुख्य अतिथि ही पहुंच गया हो। इंतजार, मुलाकात, फोन पर बातचीत आदि हमारी दोस्ती में नये अध्याय जोडते गये। मेरी किसी बात को वो टालता नहीं, स्मृतियां बनती गईं। मैं कुछ व्यस्त हुआ तो मिलना जुलना कम हो गया, वो भी अपने कार्यों में व्यस्त किंतु न वो भूला न मैं। यदा कदा फोन और किसी कार्यक्र्म में बुलावा। उसका समर्पणभाव, किसी के लिये कुछ करने की ललक और हमेशा उपलब्ध रहने की आदत उसके इंसान होने का जीता जागता उदाहरण था। मेरी बच्ची को मैं सिखाना चाहता था मार्शल आर्ट, इसके लिये उसने कह दिया था- अमिताभ घर भिजवा दूंगा सिखाने वाला, मुझे बस कहभर देना कि कब शुरू करना है। किंतु ऐसा हो नहीं सका। हां वर्ष 2003-04 में मुझसे मेरी एक कलिग ने ऐसी इच्छा जाहिर की और मैने फारूख को फोन मिला दिया। कोई 3-4 साल बाद मैं उसे फोन कर रहा था। उसने प्रसन्नता से कहा- भेज दो उसे। मैने अपनी कलिग से कहा- देखो वो बहुत महंगा प्रशिक्षक है , पूछ लेना कितनी फीस वगेरह है। उसने पूछा, और जवाब में उसे मिला 'अमिताभ से कह देना आइन्दा ऐसी बात वो सोचे भी नहीं।' जिन्दादिली का दूसरा नाम था फारूख, मैं अपनी किस्मत पर खुश रहता कि इतना बेहतरीन इंसान मेरा दोस्त है। 27 नवम्बर 2008 को कोई एक बडा सा कार्यक्रम था स्पोर्ट का, मुझे उसमें आतिथ्य के लिये अपने परिचित कुछ बडे खिलाडी आमंत्रित करने थे। मैं लिस्ट बना रहा था जिसमें फारूख का नाम पहले नम्बर पर था। सोचा फारूख कभी मना नहीं कर सकता, सो पहले दूसरों को बुला लूं उसे 26 की रात फोन कर तय कर लूंगा। किंतु 26 को तो इधर आतंकी घटना घटित हो गई और सबकुछ उलट-पलट सा गया। कार्यक्रम स्थगित हो चुका था। किंतु फारूख की याद आ रही थी। और यकीन मानिये जब 29 तारीख को फोन किया तो वो बन्द। लैंड लाईन एंगेज़। ऐसा पहली बार हो रहा था। और शायद अंतिम बार भी। क्योंकि फारूख......।
26 की शाम अपने दोस्त के साथ ओबेराय में खाना खाने गया था वो। दोस्त को बचाने और एके 47 से दागी जा रही आतंकी द्वारा गोलियों को वो अपने सीने पर झेल गया। यह 30 नवम्बर को पता चला। अच्छा होता कि पता ही नहीं चलता...। अब तक वो मुझे बुलाता रहा था, मगर जब मेरी बारी आई तो...,उसने उसके फोन के 'स्वीच आन' का इंतजार मुझे थमा दिया। ऐसा इंतजार..जो कभी पूरा नहीं होना है...।
कुछ ऐसा ही इंतजार उन सब का भी होगा जिनके बेटे, मित्र, भाई, पति, पत्नी, बच्चे इस हमले के शिकार हुए..। होते रहते हैं...। और हम हमेशा बरसिया मनाते रहते हैं..सालों से बरसियां मनाई जा रही हैं, नई-नई बरसी आ जाती है और हम मनाते जा रहे हैं,मनाना खत्म नहीं होता..। वाह क्या विडम्बना है।