शनिवार, 28 नवंबर 2009

सुशीलजी की 'अमिताभ यात्रा"


यह भी अज़ीब संयोग है कि कानपुर में भारतीय क्रिकेट टीम ने अपनी 100 वीं टेस्ट जीत अर्जित की और मैने ब्लोग पिच पर अपनी 100 वीं रचना। हालांकि टीम इंडिया ने 1932-33 से अपने टेस्ट जीवन की शुरुआत की थी और 1952 में पहली जीत हासिल की थी। मैं 2008 में ब्लोग पिच पर उतरा था और अक्टूबर को पहली रचना पोस्ट की थी। भारत की 432 वें टेस्ट मैच में 100 वीं जीत है और मेरी करीब 400 दिनों में 100 वीं रचना। है न अज़ीब संयोग। खैर..।
जीवन में घटनाये होना अवश्यंभावी है। प्रकृति घटनाओं में समाई होती है। घटनायें घटित होने के बाद ही हमें ज्ञात होता है कि कुछ हुआ है। यह प्रकृति का गुण है, और शायद इसीलिये प्रकृति को रहस्यमयी माना जाता है। किंतु जो भी घटनायें घटनी होती है उसके घटने का क्रम न जाने कब से प्रारंभ हो चुका होता है। अज्ञात ही सही मगर एक एक तिनके जुडने लगते हैं। काल उसे बुनने लगता है। क्रमानुसार उसके छोटे से छोटे अंश आपस में टकराने लगते हैं और एक विशेष दिन को उद्घाटित करने के लिये पूरा का पूरा प्राकृतिक तंत्र जुट जाता है। कहते हैं इस प्रकृति में जो भी घटता है उसका कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है। निरर्थक कुछ नहीं करती प्रकृति। शायद यही वजह है कि सुशील छौक्कर जी और अमिताभ श्रीवास्तव की प्रत्यक्ष भेंट के लिये प्रकृति ने अपना काम बहुत पहले से शुरू कर दिया होगा। ब्लोग की दुनिया से भी पहले। मिलने के लिये कब कब और कौन कौन सी जरुरते होनी है स्वतह ही निर्मित होती चली गई होंगी , हमारे अनजाने ही। दुनिया बहुत छोटी है। सैकडों लोग रोज़ टकराते हैं। किंतु किससे कब कैसे मुलाकात होनी है यह अज्ञात ही होता है और एकदिन जब मुलाकात हो जाती है तो आश्चर्य होता है। इसके बाद किसी दूसरी प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये समय दिन बुनने लगता है। स्मृतियां भी बनती है और भविष्य भी निर्मित होता चला जाता है। कुछ जो कर्म होने है वो सम्पादित भी होते चले जाते हैं। हमे बगैर खबर हुए ही हमसे प्रकृति कार्य करवा लेती है। क्योंकि हम प्रकृति के हाथों में कैद हैं। उसके कर्मों के एक माध्यम हैं। उसके लिये कोई बडा या कोई छोटा नहीं होता। सब के सब सामान्य, उसके हाथों के खिलौने। फिर कैसे कहें कि हमने कोई बडा नहार मार लिया? या हम किस शान, किस अहम में जीते हैं? सबकुछ बेमानी। प्रेम ही एकमात्र ऐसा वाहक है जो ईश्वरीय शक़्ति का अहसास कराता है और इस प्रकृति मे तमाम प्राणी इस अद्भुत प्रेम शक़्ति से बन्धे होते हैं। अब यह समय के उपर है कि कब कौन किससे मिलता है?
सुशीलजी से मुलाकात हुई मुम्बई, कल्याण स्टेशन के प्लेट्फार्म नं-5 पर। पंजाब मेल का 24-25 घंटों का लम्बा सफर तय करते हुए 22 नवम्बर की सुबह करीब 7.30 बजे वे दिल्ली से अमिताभ तक आये। अमिताभ इसलिये कह रहा हूं कि वे सिर्फ और सिर्फ मेरे लिये मुम्बई आये थे। अन्यथा होता यह है कि मुम्बई आना होता है, यहां कोई रहता है तो चलो उनसे भी मिल लिया जाये जैसी मानसिकता होती है। हालांकि मिलने के लिये यह मानसिकता भी कोई बुरी नही किंतु सुशीलजी विशुद्ध रूप से मुझसे मिलने आये थे। लिहाज़ा प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिये शब्द गुम हो जाते हैं। जहां निस्वार्थ प्रेम भाव होता है वहां किसी के प्रति कोई अन्देशा या भ्रम की स्थिति भी नहीं होती। लिहाज़ा हमारी मुलाकात में औपचारिक जैसी कोई चीज नहीं थी। उन्हे लोकल में तुरंत घुसाया। रविवार था वरना उन्हे 'घुसाया' ना कह कर 'ठूंसना' कहता। फिर भी भीड थी। मेरे घर तक पहुंचने के लिये कल्याण से 20 मिनिट तो लगते ही हैं। उनका यह पहला अनुभव था। 22-23 और 24 तीन दिन हम साथ रहे। और मज़ा देखिये कि मेरी छुट्टियां भी थी, अन्यथा मुम्बइया व्यस्तता में सुशीलजी को पूर्ण समय देना कठिन हो जाता। सुशीलजी ने यह सब पहले ही देखभाल लिया था। जिसका नतीज़ा रहा कि 'बस मज़ा आ गया।' खूब बतियाये, घूमे-फिरे। फोटो-सोटो खींचे। क्या इसे महज़ यह माना जाये कि हमारी मुलाकात के पीछे सिर्फ यही कारण होगा? नहीं, कोई भी मुलाकात सिर्फ मुलाकातभर नहीं होती। बल्कि जीवन के किसी भी दिन के उसके उपयोग के लिये कुछ न कुछ 'अच्छा' प्रकृति तय कर देती है। 'अच्छा' इसलिये कि प्रकृति में बुरा कुछ भी नहीं होता। जो भी बुरा होता है या जो हमे लगता है वो हमारे द्वारा ही किया जा रहा कुछ अप्राकृतिक कर्म है। अब इस 'अच्छे' के मनोभाव में ही सही एक रिश्ता तो बन जाता है। जो जीवन में सुनहरी यादों के इतिहास में अपना एक अलग अध्याय जोडता रहता है। बहलहाल, अज़ीब संयोग के इस सिलसिले में यह कितना बढिया रहा कि अपनी 100वीं पोस्ट सुशीलजी की "अमिताभ यात्रा" को समर्पित है।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

वाह क्या विडम्बना है



मेरे दफ्तर पहुंचने से पहले ही वो वहां मौज़ूद था। मुझसे एकाध इंच लम्बा यानी वो होगा कोई 6 फिट 1 या 2 इंच का। गठीला बदन। साफ झलकता था कि कोई स्पोर्ट परसन है। हंसता हुआ चेहरा, उसकी मुस्कान में एक अलग ही शान थी,अपनत्व का भाव था, जिसने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया था। मुझे देखते ही उठा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। माय सेल्फ फारूख दिनशा..। मैने अपनी पास वाली कुर्सी पर उसे बैठने का इशारा करते हुए औपचारिक भाव से कहा, सोरी फारूख, मुझे आने मे लेट हो गया, आपको इंतजार करना पडा होगा... आईये, बैठिये और बताईये क्या बात है? वो हंसते हुए बैठ गया और कहने लगा- अमिताभजी, आपका नाम बहुत सुना है, आपसे मिलना था इसलिये आ गया.., वैसे आपसे मिलकर ऐसा लग रहा है कि अमिताभ बच्चन से मिल लिया..., और जोर से हंसने लगा। मैं भी मुसकुरा दिया उसकी बालसुलभ हंसी पर। मेने कहा- इस बात पर चाय हो जाये? उसने कहा- श्योर। यह बात होगी कोई 1995-96 की।
मार्शल आर्ट का विख्यात खिलाडी, बेहतरीन प्रशिक्षक, उम्दा खेल लेखक। अपनी नई पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण देने आया था वो। साथ ही उसने बताया कि मार्शल आर्ट को लेकर उसने कितना कुछ किया है और कर रहा है। बच्चों से लेकर आर्मी के जवानो तक वो अपनी प्रतिभा का पूरा पूरा उपयोग करते हुए लोगों को जीवन जीना सिखा रहा था , आत्मरक्षा की कलाये सिखा रहा था, उनमें आगे बढने, लक्ष्य पाने की राह दिखा रहा था। हालांकि मैं किसी से इतनी जल्दी प्रभावित नहीं होता लिहाज़ा उससे उसके कार्यों के सन्दर्भ में पूछता रहा और सवालों के जवाब पाता रहा। शायद उसके विषय में मेरी इतनी रुचि, ज्ञान, गम्भीरता को देखते हुए वो मुझसे प्रभावित हो गया। कह उठा- ओह ग्रेट। यू आर रियली प्योर..। मैं हंस पडा..मैने कहा- ऐसी बात नहीं है, दरअसल मैं भी थोडा बहुत जानता हूं जूडो-कराटे..., हो सकता है कि इस वजह से आपसे पूछता चला गया। खैर उस मुलाकात के बाद फोन पर बातें, उसके कार्यक्रमों में मुलाकातों ने हमे करीब ला दिया। एक दोस्ताना रिश्ता बन गया जिसमें कोई स्वार्थ नहीं दिखा। मैं उसके किसी प्रोग्राम में नहीं जा पाता तो फोन पर नाराजगी जाहिर करता, पहुंच जाता तो इतना खुश हो जाता मानो मुख्य अतिथि ही पहुंच गया हो। इंतजार, मुलाकात, फोन पर बातचीत आदि हमारी दोस्ती में नये अध्याय जोडते गये। मेरी किसी बात को वो टालता नहीं, स्मृतियां बनती गईं। मैं कुछ व्यस्त हुआ तो मिलना जुलना कम हो गया, वो भी अपने कार्यों में व्यस्त किंतु न वो भूला न मैं। यदा कदा फोन और किसी कार्यक्र्म में बुलावा। उसका समर्पणभाव, किसी के लिये कुछ करने की ललक और हमेशा उपलब्ध रहने की आदत उसके इंसान होने का जीता जागता उदाहरण था। मेरी बच्ची को मैं सिखाना चाहता था मार्शल आर्ट, इसके लिये उसने कह दिया था- अमिताभ घर भिजवा दूंगा सिखाने वाला, मुझे बस कहभर देना कि कब शुरू करना है। किंतु ऐसा हो नहीं सका। हां वर्ष 2003-04 में मुझसे मेरी एक कलिग ने ऐसी इच्छा जाहिर की और मैने फारूख को फोन मिला दिया। कोई 3-4 साल बाद मैं उसे फोन कर रहा था। उसने प्रसन्नता से कहा- भेज दो उसे। मैने अपनी कलिग से कहा- देखो वो बहुत महंगा प्रशिक्षक है , पूछ लेना कितनी फीस वगेरह है। उसने पूछा, और जवाब में उसे मिला 'अमिताभ से कह देना आइन्दा ऐसी बात वो सोचे भी नहीं।' जिन्दादिली का दूसरा नाम था फारूख, मैं अपनी किस्मत पर खुश रहता कि इतना बेहतरीन इंसान मेरा दोस्त है। 27 नवम्बर 2008 को कोई एक बडा सा कार्यक्रम था स्पोर्ट का, मुझे उसमें आतिथ्य के लिये अपने परिचित कुछ बडे खिलाडी आमंत्रित करने थे। मैं लिस्ट बना रहा था जिसमें फारूख का नाम पहले नम्बर पर था। सोचा फारूख कभी मना नहीं कर सकता, सो पहले दूसरों को बुला लूं उसे 26 की रात फोन कर तय कर लूंगा। किंतु 26 को तो इधर आतंकी घटना घटित हो गई और सबकुछ उलट-पलट सा गया। कार्यक्रम स्थगित हो चुका था। किंतु फारूख की याद आ रही थी। और यकीन मानिये जब 29 तारीख को फोन किया तो वो बन्द। लैंड लाईन एंगेज़। ऐसा पहली बार हो रहा था। और शायद अंतिम बार भी। क्योंकि फारूख......।
26 की शाम अपने दोस्त के साथ ओबेराय में खाना खाने गया था वो। दोस्त को बचाने और एके 47 से दागी जा रही आतंकी द्वारा गोलियों को वो अपने सीने पर झेल गया। यह 30 नवम्बर को पता चला। अच्छा होता कि पता ही नहीं चलता...। अब तक वो मुझे बुलाता रहा था, मगर जब मेरी बारी आई तो...,उसने उसके फोन के 'स्वीच आन' का इंतजार मुझे थमा दिया। ऐसा इंतजार..जो कभी पूरा नहीं होना है...।
कुछ ऐसा ही इंतजार उन सब का भी होगा जिनके बेटे, मित्र, भाई, पति, पत्नी, बच्चे इस हमले के शिकार हुए..। होते रहते हैं...। और हम हमेशा बरसिया मनाते रहते हैं..सालों से बरसियां मनाई जा रही हैं, नई-नई बरसी आ जाती है और हम मनाते जा रहे हैं,मनाना खत्म नहीं होता..। वाह क्या विडम्बना है।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

आटा और रोटी

आटा गूंथना
जीवन मथने
जैसा ही तो है|
उसकी लोई बना
बेलन से आकार देना
और गर्म तवे पर
रख सेंकने भर से
रोटी नहीं बनती,
आग पर
तपना भी होता है
और इस तरह
जलना होता है
कि कही
चिटक तक न लगे|
जीवन क्या ऐसा नहीं?

फिर दुःख ...
कहते है
रोटी को
चबा चबा कर खाना
पाचन तंत्र के लिए
ठीक होता है|
न निगलना
न उगलना..
चबा कर
रसमय कर लेना|
जीवन में दुःख भी
एक रोटी ही तो है|