ढेर सी काबिलियत वाली कमजोरियों से सना और कलम की नोंक से जिन्दगी की सच्चाई को उखाड़ने वाला नाम है सआदत हसन मंटो. १०० साल के मंटो को बधाई. आपको लगेगा कि मंटो तो इस दुनिया में है नहीं फिर बधाई कैसी ?मगर मंटो मरा कब? उसे जो और जितने लोग पढ़ते -समझते है उनके दिल-दिमाग में झांकिए तो पता चलेगा मंटो ज़िंदा है. हां, वो और शख्सियतो की तरह आज भी नहीं बन पाया जिनके जन्मदिनो या किसी विशेष दिनो को जलसों का आकार देकर मनाया जाता है. शुक्र है मंटो इन सब से बच गया . ख़ैर.. पूरी जिन्दगी बस जंग रही. मगर जंग के बीच मंटो की जो साफगोई रही वो ऊपर लिखे वक्तव्य से स्पष्ट जाहिर हो जाता है. हालांकि मंटो ने जीवन के हर मोड़ पर मात खाई चाहे निजी जिन्दगी का मसला हो या बाहरी जिन्दगी का..दोस्ती हो या दुश्मनी का.. किन्तु मात खाने का मतलब यह नहीं कि मंटो थम गया हो..चाहे समाज ने गालिया दी हो, या अदालत में उस पर अश्लीलता के मुकदमे चले हो, मंटो ने पार किये हर दौर जो उसके खिलाफ रहे..टूटन रही मगर मंटो झुका नहीं ...इसलिए मंटो मरा नहीं..इसलिए उसके जन्मदिन पर उसे बधाई
.. क्या लिखा जाए मंटो पर..? मंटो को चाहने वालो के सामने से कुछ छूटा हो तो लिखा जाए ..मित्र सुशील छौक्कर ने दो दिन पहले से बोल दिया था कि आपको मंटो पर कुछ तो लिखना ही है ..मेने उन्हें समझाया कि ब्लॉग अब कौन पढता है..और फेसबुक जैसे नेटवर्क पर मंटो को समझकर पढने वाले न के बराबर है..फिर? सुशीलजी ने साफ़-साफ़ कह दिया कि इन सब बातो को छोडिये, कोइ पढ़े या न पढ़े किन्तु मुझ जैसे है जो पढेंगे ..., उनका यह भाव एकबार फिर मुझे यह यकीन दिला गया कि सचमुच मंटो ज़िंदा है.
लिखने के लिए जनाब अनवर सईद द्वारा लिखा मज़मून "सआदत हसन मंटो -खुतूत के आईने में" पढ़ कर मुझे ऐसा लगा था कि इसमे कुछ ऐसा है जिसे लिखा ही जाना चाहिए ..तो उसी मज़मून से कुछ अंश लेकर आपके लिए यहाँ पेश करता हूँ -
'मंटो के खुतूत' मंटो की मासूम शख्सियत की कई परते खोलती है..ये खुतूत अहमद नदीम कासिमी के नाम है और जनवरी १९३७ से लेकर फरवरी १९४८ तक के उस दौर से ताल्लुक रखते है जब मंटो बंबई की फ़िल्मी दुन्या में अमली जिन्दगी के झमेलों में उलझे हुए थे और ज़माने के थपेड़े खा रहे थे. अहमद नदीम लाहौर में अपनी अदबी जिन्दगी के शुरुआती दौर में थे और उस दौर के एक मुमताज़ और मारूफ अफसाना निगार को न सिर्फ हैरत से देख रहे थे , बल्कि उनसे प्रेरणा भी ले रहे थे. मंटो का अख्तर शीरानी के माहनामा 'रुमान' में उनका अफसाना 'बेगुनाह' पढ़कर खातो का सिलसिला शुरू हुआ. मंटो को लगा कि वो दोनों मुख्तलिफ राहो के मुसाफिर है.इसका ज़िक्र 'मंटो के खुतूत' के पेश लफ्ज़ में इस तरह किया गया है-
" देहली में मंटो से मेरी ( अहमद नदीम कासिमी) मुलाक़ात हुई, तो मुझे एक ही दिन में मालूम हो गया कि मंटो के जेहन में रहने और मेरे दोस्ताना रिश्ते के यकायक ख़त्म हो जाने का इमकान (संभावना) क्यों मौजूद था...." फिर उन्होंने लिखा ' ये मुलाकात हमारे रिश्ते का कुछ न बिगाड़ सकी. इसलिए कि अगर मंटो की रोजमर्रा की बेशतर दिलचस्पिया मेरी जिन्दगी के मामूलात से बिलकुल अलग थी. तो कम से कम वो सतह तो अब भी महफूज़ थी जिस पर हम एक दूसरे से प्यार करने वाले दोस्त की हैसियत से मिल सकते थे और ये सतह आपसी भाईचारे और कुर्बानी ने मुहैया कर रखी थी. ' कासिमी साहिब ने हिंद -पाक के अदीबो से मंटो के दोस्तों और अजीजो से भी उनके खुतूत हासिल करने की कोशिश की मगर उन्हें कामयाबी नहीं मिली. इसलिए भी उन्होंने अपने रिकार्ड में महफूज़ खतो पर तसल्ली कर ली. पहला ख़त का मज़मून - " आपका अफसाना 'बेगुनाह' वाकीअतन मेने बेहद पसंद किया है. सच तो यह है कि इस किस्म के ज़ज्बात में डूबे हुए अफ़साने उर्दू में बहुत कम शाए हुए है. आपके हाथ प्लास्टिक के है और मालूम होता है कि अफ़साने के मौजू को आपने न सिर्फ महसूस किया है बल्कि उसे छूकर भी देखा है. ये खुसूसीयत हमारे मुल्क के अफसानानिगारो को नसीब नहीं. मै आपको मुबारकबाद देना चाहता हूँ कि आपमें ये खुसूसीयत भरपूर है. "
मंटो उन दिनों रिसाला ' मुसव्विर ' की एडिटिंग करने के इलावा फ़िल्मी दुन्या के साथ भी वाबस्ता थे और स्क्रीन के लिए कहानिया लिख रहे थे जिसके दर्शक ज़ज्बाती सीन, ज़ज्बाती रोल और गीत जियाद पसंद करते थे. मंटो ने अफसाना 'बेगुनाह' में भी आम लोगो की पसंद को ही मद्देनज़र रखा और कासिमी साहब को लिखा- " अफसाने में आब्जेक्तिविटी टच बहुत प्यारे है और मौजू व् मुनासिब है. कुछ अरसे से मै फ़िल्मी अफ़सानो के तौर पर गौर कर रहा हूँ, चुनांचे मेने आपके अफ़साने को गैर इरादे तौर पर फ़िल्मी ही की ऐनक से देखा और इसे बहुत खूब पाया. एटमोसफेरिक टच बेहद अच्छे है...." अपने खतो के केनवास पर मंटो हमें बेहद भला , बेलौस और बेरिया (निश्छल) शख्स नज़र आते है. उस दौर में वो खुद मुश्किलों में घिरे हुए थे. माली हालात अच्छे नहीं थे. मिजाज़ में इंतिहा दर्जे का ईगो था, लेकिन किसी दुसरे को तकलीफ में देखकर मंटो पिघल जाते थे. मंटो ने कासिमी साहब की मुश्किल भांप ली थी. वो उन्हें जिन्दगी के असली उतार चढ़ाव से भी बाखबर कर रहे थे और हमदर्दी का इज़हार भी. मंटो ने लिखा- " फ़िल्मी दुन्या में कदम रखने की ख्वाहिश कालेज के हर तालिबे इल्म के दिल में होती है. आज से कुछ अरसा पहले यही जूनून मेरे सर भी सवार था. चुनांचे मेने उस जूनून को ठंडा करने के लिए बड़े जतन किये और अंजामकार थक हार कर बैठ गया. अहमद नदीम साहब, दुन्या वो नहीं, जो हम और आप समझते है और समझाते रहे है. अगर आपको कभी स्टूडियो की सियासत की स्टडी करने का मौका मिले तो आप चकरा जायंगे.फ़िल्मी कंपनियों में उनका जियाद असर है जिनके खयालात बूढ़े और नकारा है. वो बिलकुल जाहिल है और वो लोग जो अपने सीनों में असली फ़न की परवरिश करते है, उन्हें कोइ नहीं पूछता. .." मगर इस सब के बाद भी अहमद नदीम साहब की मदद करने को मंटो तैयार थे. वे लिखते है- " मै बंबई में पचास रुपये महावार कमा रहा हूँ और बेहद फजूलखर्च हूँ, आप यहाँ चले आये तो मेरा ख़याल है कि हम दोनों गुजर कर सकेंगे. मै अपनी फजूलखार्ची बंद कर सकता हूँ. मुझे आपकी मजबूरियों का पूरा एहसास है, इसलिए कि मै इन मजबूरियों से गुजर चुका हूँ." आगे देखिये मंटो लिखते है.- " आप यहाँ तशरीफ ला सकते है. मगर ये बात याद रखिये कि आपको मेरी जिन्दगी की धूप छाह में रहना होगा. मेरे पास छोटा सा कमरा है जिसमे हम दोनों रह सकते है. खाने को मिले न मिले, मगर पढने को किताबे मिल जाया करेंगी..."
किताबो से बेइंतेहा मोहब्बत करने वाले मंटो वाकई आदमीयत वाले इंसान थे ..वैसे तो उनके खतोकिताब की दास्ताँ लम्बी है जिसे मै पूरी तरह यहाँ लिख नहीं पाउँगा .. इतने से सिर्फ यह जतलाने की कोशिश है कि मंटो आज भी ज़िंदा है...कम से कम मुझ जैसे लोगो में.. जो मंटो से कोइ हट कर जिन्दगी नहीं जी रहे है....