रविवार, 16 दिसंबर 2018

सार

कैसा तो गूंथा है आपस में
हरा, सूखा सब झाड़ झँखड़
जैसे अब कोई रास्ता ही न हो
उलझे रह जाओ यहीं सुख दुःख की तरह
मुक्त हो ही न सको।
सुनो प्रिये,
मत थको,
कि आगे बढ़ो..
हरे भरे में खोओ मत
कि सूख चुके पत्तों का दुःख ओढो मत
पार करो इसे भी क्योंकि
उस पार फैला 'आकाश' है
और वही सार है।

(2 des 2018)

यादें

यादें तो आ रही हैं मगर वो नहीं आते ,
लौटे नहीं वो क्यूँ जो बिछड़ के चले जाते ;
मुद्दत हुई उन्हें नहीं देखा है इसलिए ,
रह रह के हमको अब ये उजाले भी सताते ।
मआलूम है आएँगें नहीं वो किसी सूरत ,
हर वक़्त मगर दिल से उन्हें हम हैं बुलाते ।
बढ़ जाएँ न बेचैनियाँ बेहद इस डर से ,
दुन्या मे लग लग के यादों को सुलाते ।
इस मोड़ पे ले आया हमें अब तेरा जाना ,
अपनी ही हम लाश को दिन-रात उठाते ।

【टुकड़ा-टुकड़ा डायरी/06 नवम्बर 2018】

प्रेम लिखता हूँ

मैं तुम्हारे लिए प्रेम लिखता हूँ
तुम नफरत।
जिसकी कलम में जो रंग स्याही 
वो वही लिखता है।

(9 nov 2018)

जियो ऐसे

तुमने कांटो में देखा क्या प्यार
पाया क्या सूखे झाड़ झंखाड़ में सौंदर्य ?
निर्जन पड़े हिस्से में कभी जाकर पूछा क्या
कैसे हो?
दिखी क्या
अकेले रास्ते, पड़े पत्थरों, खड़ी सूनी बदसूरत सी झाड़ियों में बिखरी मुस्कान?
तुम्हारे आने से जिनका एकांतवास पूर्ण हुआ
लंबी राहत भरी उनकी सांस की आवाज़
सुनी क्या?
सुनो!
रुको वहां ,जहाँ कोई नहीं रुकता
जाओ वहां जहाँ कोई नहीं जाता
सुनो उन्हें, जिन्हें कोई नहीं सुनता..
हाँ इन्हीं की तरह सीखो भी कि
जियो ऐसे जैसे कोई नहीं जीता ।

(18 nov 2018)

मैं पल दो पल का शायर हूँ .

ये पर्वत,पेड़
पथ और पत्थर
पीर किसे सुनाएं अपनी?
पास कौन आता इनके
प्यार करता भला कौन?
देख मुझे डबडबा कर आँखे
पूछा
पथिक तू है कौन?
तभी अचानक उड़ के आई
प्रीत पवन की
कंधो पे अपने लेकर आई
गीत एक पुराना-
मैं पल दो पल का शायर हूँ ....
(19 nov 2018)

दिन हो जाता है

सुबह लिखती है 
आसमान पर कविता
सूरज बिंदी बन छाता है।
कोई टिटहरी कंठ खोल गाती है
और दिन हो जाता है
( 22 nov 2018)

नीला विष

पर्वत हो जाना चाहा कभी
कभी नदी
तो कभी वो पगडंडी जिस पर चल कर
गुजरते रहे पर्वत, नदी, ताल ।
हुआ कुछ नहीं
बस सफर ही रहा
उपर फैला विस्तृत आकाश
शून्य का महासागर बन
सिर पर तारी रहा
और बस मन की लहरें
उथलती रही, चढ़ती उतरती रही।
मंजिल थी ही नहीं
घुमावदार रस्ते ,घाट, खाइयां
जंगल और फिर लंबी सी बिछी हुई
स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ
अजगर की तरह देह से लिपटी कसती रही।
उन्होंने कहा था साथ ही रहना मेरे
फिर पता नहीं क्या हुआ कि
वे छिटक गए।
अब ये यात्रा है
सबकुछ है
वे नहीं हैं।
हो सकता पर्वत, बह सकता नदी बन
या लेट जाता पगडंडी की तरह
तो लौटता ही नहीं।
लौटना और फिर फिर
वहीं से गुजरना
जहाँ से गुजरा करते थे साथ हम
जन्म-मृत्यु के मध्य का
विकट समय होता है।
शायद इसे ही कहते हैं नीला विष जिसे
शंकर ने कंठ में रोक लिया था।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/30/10/2018】

पापा बेटी हूँ मैं

परिंदा है हुनर मेरा
पंख हैं इसमें ..
बंधेंगा तो उड़ेगा नहीं
ये खुली जमीन और खुले आसमान के लिए बना है।
जटायू सा वजूद है
बहुत दूर तक नज़र है
इत्मीनान रखो
खोज लूँगी लक्ष्य की अशोक वाटिका ।
एक बार
आकाश में छोड़ दो ..
सूरज के पास जाकर भी जलूँगी नहीं
बल्कि उसकी आग लेकर
धरती के सारे चूल्हे फूंक दूंगी ..।
रखो हौसला मेरे हुनर पर ..
रंग दूँगी कैनवास
रच दूँगी जगत
कि मैंने जन्म लिया ही किसी रचना के लिए है।
पापा बेटी हूँ मैं।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/26 अक्टूबर2018】

ये क्षण

जिन्हें देख 
मंद मंद 
मुस्कुराते हैं 
ये क्षण 
किन्तु 
कम आते हैं....

(25 OCT 2018)

मछलीमार

मुसोलिनी या हिटलर नहीं थे तानाशाह
मार देना शौक बड़ा नहीं जितना कि तड़पाना।
तानाशाह तो वो हैं
जो बिना जाल और कांटे के
फांस लेते हैं मछली
उस्ताद शिकारी की तरह दोस्ती का लालच देकर।
हाँ, देखो
न बेचते हैं , न खाते हैं
छोड़ देते हैं पानी से बाहर निकाल कर।
और तड़पते देखना उन्हें
नृत्य सा अनुभूत होता है।
उफ्फ,
फिजूल बदनाम हैं हिटलर जैसे ...!
ओ, दुनिया के सारे दोस्तों
तुम एकबार हिटलर बन जाना
किन्तु मत बनना कभी ऐसे मछलीमार!
(24 oct 2018)

आदमीयत वाला आदमी

आदमीयत वाला आदमी
------------------
मैं बहुत पीछे छूटा हुआ आदमी हूँ।
बहुत पीछे।
जहाँ होशियारी नहीं होती 
जहाँ वो गंवारपन होता है
जरा सा कोई प्रेम से कह दे
हृदय खोल के परोस दिया जाता है।
मैं नहीं समझ पाता आज भी
समझदारी की वो बातें
कि हर किसी को प्रेम नहीं करना चाहिए
हर किसी को दोस्त नहीं बनाते
हर किसी से खुल कर पेश नहीं आते
हर किसी से स्पष्टता नहीं होती ।
इतना गांवठी हूँ कि
रो देता हूँ
खो देता हूँ
हर उसको जिससे प्रेम होता है।
और देखो मेरा बुद्धू होना कि
मनाते कैसे हैं
जतलाते कैसे हैं
कि
कुछ भी तो नहीं आता मुझे।
इसीलिए हर वो कहता है
जो दूर हो जाता है
कि देखो ये
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता है।
मिट्ठू होता तो निर्मोही होता
किन्तु मैं चकोर सा
बस घने वृक्ष की पत्तियों से ढंकी उस शाखा पर
बैठा रहता हूँ
जो दिखती नहीं ।
मगर टूटती सबसे पहले है।
सच में , मैं छूटा हुआ, टूटा हुआ
एक आदमी हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18 अक्टूबर 2018】

धार कहाँ से करवाते हो ?

देह कोमल धरते हो फिर
सख्त हृदय क्यों रखते हो ?
कांटे ने फूल से कहा-
एक बात तो बताओ भाई
कौनसी चक्की का आटा खाते हो ?
मैं तो काँटा हूँ
चुभना काम मेरा , गाली रोज खाता हूँ।
किन्तु कितनी सदियां बीत गई
रहस्य न जान सका ये अभी तक
फूल होकर भी कैसे चुभ लेते हो?
दिखता ही नहीं जो वो
जहर कहाँ से ले आते हो ?
सवाल बहुत है मेरे पास
बोलो , सिखाया किसने चुभना तुम्हे?
चुभ कर हंसना तुम्हे?
न पैने दीखते हो
न तुम हो नुकीले
फिर घाव गहरा कैसे कर जाते हो?
बताओ , पीठ पीछे छिपे खंजर में
धार कहाँ से करवाते हो ?
(16 OCT 2018)

देश-काल-कलयुग


बेवजह बदनाम करना
वजह बना देता है दुश्मनी की।
आओ देखें कितना दम तुम्हारे झूठ में है
और कितना सच हमारे पास है।
जिन सबूतों को लेकर इतरा रहे हो
उन्ही सबूतों में तुम्हारे भी खिलाफ
पुख्ता शब्द हैं स्मरण रखना,
याद ये भी रखना कि
शीशे के घर में हो और पत्थर चला रहे हो।
खामोशी में डूबे आलम को
उसकी नियति मत मान बैठना
उठेगा तूफ़ान तो इसकी जद में
तुम्हारा पूरा वजूद भी तबाह होगा ।
बहादुरी की डींगें हांकने वाले
देखें खूब है जीवन में।
उठे तूफानों से खूब रस्ते बनाए हैं
ताल ठोंक कर अखाड़े में
उतरना हमे भी आता है,
तुम्हारी खूबसूरत चालबाजियों के उठे फन को
कुचलने का दांव
सीखा है जिंदगी के बेहतरीन कोचों से ।
भोले और साफझग मेकअप के पीछे का सच
काजल है या कोयले की कालिख
वक्त के परदे पर अंकित है।
देखते हैं -
फिल्म शुरू तो होने दो!
( 9 OCT 2018)

आभास

आभास
कि तुम हो
तुम हो..?
पूजा,पाठ
प्रार्थनाएं
आस्था,श्रद्धा जगाती है।
तुम नहीं जगे
सोए हो
इसलिए आभासी हो।
उठोगे?
कि प्रेम छटपटा रहा है
कि मन विचलित है
कि दर्द बह रहा है
एक बार
कह ही दो
कि तुम हो...
(8 Oct 2018)

प्रेम दुबारा बरसेगा

दुविधाओं के मेघों से घिरे
आसमान को
कौन समझेगा?
अहंकार नहीं ये मेरा
प्रतीक्षा है बस कि
प्रेम दुबारा बरसेगा ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/4अक्टूबर 2018】

शनिवार, 3 नवंबर 2018

प्रेम


सुनो,
तुम सुखी हो
इसलिए दुःख को
बहुत अच्छे से
एक्सप्लेन कर सकते हो ...
प्रेम की बातें इसीलिए तो खूब करते हो।
और गर सचमुच होता तो?
(2 oct 18)

बीज

बीज में बिना फूल पत्तियों के पेड़ था
उगा और बड़ा हुआ
डूंड सा , लम्बी लम्बी शाखाओं वाली भुजाओं सा
दैत्याकार।
न छाहँ देता है
न सुकून
बस भयावह दिखता है।
पानी तो उसने भी पीया है
बोया तो वह भी गया है
जमीन तो उसकी भी यही है
फिर ?
(30 sept 18)

ठोकर

तुममे
मुझमें
एक बुनियादी फर्क है।
हुनरमंद हाथों के
छैनी हथौड़े से उकेरी गई
मूरत की तरह हो तुम।
मैं
ठोकरों से
तराशा चला जाता गया
एक पत्थर ।
(24 sept 18)

मोतियाबिंद

यूं तो हर जगह पराजित हुआ
प्रेम में, व्यवहार में , कार्यों में, जिंदगी में..
और खुश हुए मेरे अकेलेपन ,मेरी असफलताओं ,
मेरी पराजयों, मेरी नाकाम कोशिशों को देखकर
मेरे दुश्मन, मेरे ईर्ष्यालु ..मेरे अप्रेमी।
किन्तु इसके बावजूद
नेपथ्य की एक महसूस होती जीत ने
हर हमेश खड़ा रखा कि
मैं किसी भी तरह किसी की खुशी
किसीके संतोष, किसी की जीत का कारण तो बना।
मुस्कुराते उनके चेहरे देखना भी
साबित करता है
कि मोतियाबिंद नहीं पड़ा है आँखों में।
(11 sept 2018)

हरसिंगार

फूल ऋतुओं को अपने सौंदर्य में समेट लेते हैं ..जैसे हरसिंगार शरद को अपनी आगोश में भींच लेते हैं। ये मौसम हरसिंगार का है, शरद के श्रृंगार का। कांच सा आकाश और उस पर तैरते बादल के टुकड़े। ऐसा लगता है जैसे मानसून में उधम मचाने वाले काले -मटमैले मेघों को नहला धुला कर प्रकृति ने टांक दिए हों आकाश में..धवल -साफ़ सुथरे किसी राजा बेटा के माफिक। और सूरज भी गोया उनके माथे पर प्यार से हाथ फेरते हुए -धरती को शीतलता का अहसास दिलाता है। शरद ऋतु चाँद का भी मौसम है। वो सजता है,सँवरता है और मीठी सी किरणों को धरती पर भेजता है ताकि नव रात्र हो ..दीप जलें और मन आत्मा किसी झिलमिलाती झील सा तरल हो कर, पिघल कर बह चले, झूम उठे, खिलखिला उठे, चहक उठे ...
शिशिर के स्वागत में सजते संवरते इस मौसम का अपना मन है-कभी तेज धूप तो कभी सर्द पवन को लपेट कर उतरती सूर्य रश्मियां ..कभी यज्ञ सी तो कभी होम की गई चंदन की महक सी अनुभूत होती हैं..जो धरती से लेकर पुण्यात्माओं के लोक तक को सुवासित करती हैं । मुझे ये ऋतु आकर्षित करती है सिर्फ उन 15 दिनों को छोड़ कर जिसे श्राद्ध पक्ष कहते हैं। इन दिनों में एक अजीब सा सूनापन है..उदासी और बोझिल मन सा महसूस होता है। सूरज भी तपता है, उमस भी होती है..हवा भी शांत ,स्थिर और हृदय भी बैठा बैठा सा लगता है। प्रकृति और मान्यताओं के मध्य भी कितना सामंजस्य है ये शरद के दिन स्थापित करते हैं।
बहरहाल, मेरे घर के बाहर ही हराभरा सा हरसिंगार का पेड़ है। रातभर उसके फूलों की महक मन मस्तिष्क को अपने जादू में रखती है ..गुलजाफरी का ये आलम मदमस्त बनाए रखता है। सुबह जब मैं उसके फूल चुनता हूँ तो लगता है जैसे कोई मंत्र चुन रहा हूँ..जिसकी आध्यात्मिक महक है और शायद इसी वजह से ईश्वर को भी ये बेइंतेहा पसंद है....दरअसल न केवल ये फूल अपनी जादुई खुशबू से मुग्ध करते हैं बल्कि आयुर्वेद ने भी इन्हें प्रमुखता दे रखी है जो मन के अतिरिक्त तन के लिए भी स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं। सचमुच हरसिंगार के फूलों का ये शरद मौसम दिलकश है..और शायद यही वजह भी है कि साहित्य ने इस ऋतु को अपनी कलम की नोंक पर रखा है ..
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी, 10 सितंबर 2018】

काश

काश
कास भी तुम्हारे
केशो पर सजता..
और मैं शरद सा
मोहित हो जाता ..
पिंगल हो उठता सूर्य हमारा
क्लेश ,दुःख, दर्द
जल भस्म हो जाते सारे।
हो जाता जीवन आकाश निर्मल
खिल जाते
मन सरोवर कमल...
किन्तु कास तो काश ही ठहरा मन का
केशों पर थोड़े सजता है।
दूर दिखता
और बस छलता है
प्रेम आस की तरह।
(9 sep 18)

लड़ न सका

मैं विधाता से लड़ न सका
जबकि लड़ना था ।
उसने पेश की थी चुनौती
और ललकारा था मुझे।
मैं अब तक की पूजा पाठों के
मायाजाल में ऐसा लिप्त रहा कि
उसकी शक्ति का प्रतिकार तक नहीं कर पाया।
ये उसका ही तो भ्रमफन्दा था जो
मेरे गले में पड़ा और मैं
उसके विधान को स्वीकार कर उसे ही पुकारता रहा।
इस उम्मीदों पर कि
धरती के देव चिकित्सक बचा लेंगे पिता को।
ये युद्ध था
जो मैं लड़े बिना हार गया ..
कितने लड़े बिना हार रहे हैं..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /02 सितंबर/2018)

सुनो

सुनो ,
गिरगिट सी व्यवस्था और
विषभरे सम्बन्ध से नहीं बच सकते तुम।
यहां प्रेम चिकना, चमकीली त्वचा का है 
रेंगता है,
तुम्हे ही नहीं
बल्कि अपनी केंचुली तक वो छोड़ देता है।
दोस्त,
दुनिया एक सांप है
जिसे पूंछ से पकड़ना चाहिए।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी / ३१-जुलाई-१८)

पत्थर है जगत

तराशे जाने वाले पत्थर
आकर्षक मूर्ति का रूप जरूर लेते हैं
पर जीवन नहीं होता उनमें,
वो भ्रम पैदा करते हैं
रहते पत्थर ही हैं।
पत्थर है जगत।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /30 जुलाई 18)

पुरुष की पीड़ा

पुरुष की पीड़ा
घुप्प अँधेरे में होने वाली घटना है।
वह इतनी एकाकी है कि
उसे स्वयं पीना है।
घूँट की कोई प्रतिध्वनि नहीं।
प्रचारित नहीं है वो
और न ही लेखनी से
प्रसारित की जा सकती है।
वो हलक में रोक देने वाली
नीलकंठी प्रक्रिया है।
पुरुष की पीड़ा
कोख में दफ़्न हो जाने वाली
अबोली स्थिति है ।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी/28 जुलाई 18)

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

वक्त

वक्त देना जीवन का सबसे बड़ा तोहफा होता है। कौन किसे वक्त देता है अपना ? इस जूझती, दौड़ती, भागती दुनिया में जो ये लोग आपस में मिलते जुलते , गलबहियां डाले दीखते हैं उनकी पीठ पर चिपकी होती हैं लालसाएं, लदे होते हैं स्वार्थ के बोरे, किसी न किसी काम के साए में होती है मीटिंग्स। मिलते सब हैं मगर वक्त नहीं देते , वक्त लेते हैं।
------
-तुम मिलोगे?
-हाँ, पक्का ।
-सच में?
-हाँ।
--------
कितनी सारी योजनाएं बनती है । दिमाग में मिलने के लिए दौड़ते हैं बहाने, जीवन के मकड़ जालों से कुछ देर बाहर निकलने की उत्सुकता और सालों साल बाद मिलने के क्षण को न गंवा देने की अथक कोशिशें। ये मिलन वक्त का सबसे शुद्ध मिलन माना जाता है जिसमे कोई स्वार्थ नहीं ,सिर्फ मिलने की उत्कंठा और उस सुख को पुनः जीवित कर देना जो कभी जिंदगी के खेल में दफ़्न हो चुका था।
-----
ज्यादा देर तो हम साथ नहीं रह सकते किन्तु मिलना जरूरी था, पता नहीं अब कब मुलाकात हो ...!
हाँ, इस बीच कितना कुछ बदल गया....उम्र चढ़ आई चेहरों पर ...
मगर जो ठहरी हुई मित्रता थी वो आज भी तो वैसी ही हरी हरी है ...है न ..
मैंने कुछ बहाने बनाए हैं ..कुछ बहाने घर पहुंच बनाने होंगे।
लंच साथ में करने का वादा था...लो वो पूरा भी हुआ।
-----
इधर उधर की बातों ने मिलने के थोड़े से निकले वक्त को फुर्र से उड़ा दिया और अब अपने अपने रास्ते जाना है ..ये सच किसी भी स्नेहात्मक सम्बन्धो का सबसे कठिन किन्तु अटल सच होता है। कौन किसे आज ऐसा वक्त देता है भला ...
जरा अपना हाथ बढ़ाओ...
कलाई पर एक घड़ी बाँध दी गई ।
----
वक्त पर वक्त को ढालने वाली भेंट, वक्त को फ्रेम में जड़ कर स्मृतियों की दीवार पर टांगने वाली भेंट..ये ही असल पूँजी होती है दोस्त ...बाकी जीवन में कुच्छ भी न धरा ...
बस्स अपनों को वक्त दो !
- टुकड़ा टुकड़ा डायरी /28जुलाई2018

बाँध

हम सब बहने वाली चीजो को रोकने का प्रयत्न करते हैं...
बाँध बनाते हैं
किंतु इन बांधो से सैकड़ों जमीनें डूब जाती है।
बाँध आवश्यक हैं,
आवश्यक वो जमीनें भी हैं। 
फिर करें क्या ?
कविताएं बाँध क्यों हैं,
वो सारे के सारे बह रहे विचार नहीं समाते कविता में जिन्हें बाँध के बाद डूब जाना होता है।
डूबी जमीन को बचाइए, विस्थापित न कीजिए ...
कविता दरअसल डूबी जमीन है ।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /29 जुलाई18)

पुरुष की पीड़ा

पुरुष की पीड़ा
घुप्प अँधेरे में होने वाली घटना है।
वह इतनी एकाकी है कि
उसे स्वयं पीना है।
घूँट की कोई प्रतिध्वनि नहीं।
प्रचारित नहीं है वो
और न ही लेखनी से
प्रसारित की जा सकती है।
वो हलक में रोक देने वाली
नीलकंठी प्रक्रिया है।
पुरुष की पीड़ा
कोख में दफ़्न हो जाने वाली
अबोली स्थिति है ।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी/28 जुलाई 18)

पत्थर है जगत

तराशे जाने वाले पत्थर
आकर्षक मूर्ति का रूप जरूर लेते हैं
पर जीवन नहीं होता उनमें,
वो भ्रम पैदा करते हैं
रहते पत्थर ही हैं।
पत्थर है जगत।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /30 जुलाई 18)

दुनिया एक सांप है

सुनो ,
गिरगिट सी व्यवस्था और
विषभरे सम्बन्ध से नहीं बच सकते तुम।
यहां प्रेम चिकना, चमकीली त्वचा का है 
रेंगता है,
तुम्हे ही नहीं
बल्कि अपनी केंचुली तक वो छोड़ देता है।
दोस्त,
दुनिया एक सांप है
जिसकी पूंछ पकड़नी चाहिए।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी / ३१-जुलाई-१८)

रविवार, 22 जुलाई 2018

समझी क्या बारिश ?

कहा था
हांफ जाओगी।
कमर में पल्लू खोंस के झूमने लगी
इतना कि गोया कोई रिकार्ड बनाना हो।
जियादा नृत्य भी ठीक नहीं होता
वहां तो कतई नहीं जहाँ स्टेज न हो ।
जहाँ हैं वहां तुम नहीं झूमती।
लोग जो तुम्हारे नृत्य पर झूम रहे थे
दूसरे तीसरे दिन उठ कर जाने लगे।
तेज बाजे का शोर
धूम धड़ाका और बेतरतीब नाच
भाता नहीं है।
अब देखो न
आयोजकों से लेकर घटिया मंच तक की
पोल खोल गया
मगर तुम न रुकी।
अब कैसे तो थक चुकी हो
हांफ रही हो
मगर थिरकना गया नहीं है ।
दर्शक जा चुके हैं
सबके अपने काम होते हैं ।
तुम भी जाओ
वहां जहाँ तुम्हारे नृत्य की जरूरत है
वहां जहाँ तुम्हे बुला रहे हैं
वहां जहाँ प्यासे है तुम्हे देखभर लेने के
मायानगरी में लोग सिर्फ
मनोरंजन भर करते हैं
वो हुआ।
समझी क्या बारिश ?
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी -11/07/18)

यहाँ कौन है तेरा मुसाफिर ...


पीड़ाएं बाहर नहीं दिखती ।
अन्तस् का रास्ता
इतना सँकरा है कि
कौन पहुंच सकता है ?
तिस पर घुप्प अँधेरा।
जब हाथ को हाथ नहीं सूझता
तब कैसे सूझेगा किसी का सन्नाटा?
खैर छोडो ..
आओ, बैठो
चाय पियो !
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी , 13/07/18)

अश्क का शे'र


गुंजाइश

जब कोई भी गुंजाइश शेष न हो ...
बावजूद इसके
उम्मीद की बैसाखी पकड़े
पीठ पर प्रतीक्षा लादे
विकट काली, भयावह पहाड़ियों के
दुर्गम उबड़ खाबड़ रास्तों पर चलना
और सूख चुके हलक में
सूरज की तपती किरणों के घूँट उतारना
दुनिया के लिए पागलपन है।
किन्तु जो कुछ
खोने की लालसा में
अद्भुत से सुख का निर्माण कर रहा है
उसे ज्ञात है
कि क्षितिज के पार भी दुनिया है
जिसके तहखाने में है वो प्रेम पेटी ..
एक 'हाँ' के लिए होता है जीवनसारा
क्योंकि जानता है पथिक
विधाता की डिक्शनरी में 'ना' नहीं है।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी- 18/7/18)

बारिश


नीरज का जाना

पीड़ा के संग रास रचाया, आँख भरी तो झूम के गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से, क्या इस तरह जिया जाएगा..

मंदिर


बुधवार, 11 जुलाई 2018

तुम भी न बारिश

तुम भी न बारिश
हो क्या चीज ?
बताओ तो !
पानी तो नहीं हो तुम ।
होती तो कैसे जलाती हॄदय इतने
मन में क्यों आग लगाती?
भला पानी भी
लौ फूंकता है क्या!
(टुकड़ा-टुकड़ा डायरी, ०९-०७-१८ )

सोमवार, 2 जुलाई 2018

कभी कभी इश्क़

कभी कभी इश्क़
अचानक होता है ..
अचानक ।
एकदम से।
देखते ही।
उतर जाता है अंदर ,
समा जाता है ।
बहने लगता है रक्त की तरह रगों में ..
कोई प्रश्न नहीं - किससे हुआ, क्यों हुआ और ये क्या हुआ ?
बस होता है ।
सच मानना
इश्क़ बुरा नहीं होता ।
कभी उसे अपनी हथेली पर रखकर
आँखों के करीब लाकर
ग़ौर से देखना ..
उसका रंग पानी है ..
हवा है ..
जीवन है।
मृत्यु के बाद सा जीवन।

उम्र बूँद बूँद

माथे के उपर
भिनभिनाते सत्य को तुम
मच्छर उड़ाने की भांति
हाथों से झटकते, भगाते ,उड़ाते रहते हो
कि कहीं डँस न ले ..
आहा,
जीवन कितना भोला है
नासमझ है , नादान है
कि जैसे मिला तो मिल ही गया।
तुम मानो या न मानो प्रिये !
अमृत कलश में जरूर
छोटा सा छिद्र है
रिसती है जहाँ से उम्र बूँद बूँद ।

छिपे प्यार

हर एक कविता के बाद
छोड़ देते हो तुम
प्रतीक्षा ।
हाँ न ...तुम्हे खबर नहीं है 
मुझे प्रेम हो गया है
तुम्हारी कविताओं से ।
मानो या न मानो
किन्तु लिखे शब्द और उनके अर्थ
जैसे छू कर मुझसे
जाते हैं
जैसे सिरहन सी दौड़ती है पूरी देह में ।
जानते बूझते भी कि
मेरे लिए नहीं है ये शब्द ,
न ये डोली भाव की
जो सामने से गुजरती है
गुजर जाती है।
फिर भी
देर तक खड़ा महसूसता रहता हूँ
गंध को कविता की ।
जैसे फिर लौटोगे तुम अपनी कविता के साथ
इसी रास्ते से
और मैं दूर खड़ा निहारूँगा
डूब जाऊँगा , पढ़ जाऊँगा।
और तुम्हे खबर भी न होगी
छिपे इस प्यार की।

बहुत मज़ा

और मैं आँख बंद कर ट्रैफिक के बीच दौड़ लगाता हूँ
गाड़ी घोड़े वाले जब मुझे बचाते हुए चलते हैं तो
मज़ा आता है।
हवलदार की घुड़की को
अपनी सॉरी सॉरी से डिलीट करने का
मज़ा कौन क्या जाने।
बोलो कूदोगे मेरे संग गहरे
ख़ौफ़नाक सागर में
कि तैरना भी नहीं आता मुझे
किसी को बचा तो सकता ही नहीं।
सोचकर जो सिरहन सी दौड़ती हैं उस रोमांच की
मज़ा विलग है दोस्त।
खाली जेब किसी पंचतारा में घुस जाना
और किसी बुक्ड टेबल पर बैठकर
आर्डर देने का मज़ा क्या है
जानते हो ?
मैं तो ऐसा ही हूँ जीने के लिए ।
प्रेमिका को सागर किनारे नहीं ले जाता
जाते हैं किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम..
या फिर यतीम बच्चो के साथ बीच सड़क पर
गुल्लीडंडा , गेंदमार खेलते हुए जोर से
गला फाड़ चिल्लाते हैं तो
चलते लोगों का बिदकना
मुंह बनाना
उनकी
डांट सुनने का मज़ा ...!
आहा ....
इस आहा को पाना है तो
किसी दिन कमर कस लेना
आवारागर्दी के लिए
फेंक आना अपने पद-प्रतिष्ठा -पैसा आदि को
शहर के बड़े गंदे से नाले में
हाहाहा ..
हंसो भी यार क्योंकि
इस पूरे ब्रह्माण्ड में
हंस सकता है तो सिर्फ मनुष्य ही।
इस प्राप्य अद्भुत गिफ्ट को
गंवाना मत कभी ।
बहुत मज़ा है इसमें।

चुपके से

चुपके से जाकर 
छूट चुकी पिछली पोस्टों को 
लाइक कर आना 
उसे दीवार पर फिर से चिपका आना होता है।
फिर से जन्म ले लेती हैं वो सारी।
जिन्होंने पढी और जिन्होंने नहीं पढ़ी
फिर फिर जी लेते हैं उसे।
इस तरह अपन ही
ब्रह्मा हो जाते हैं -
लिखे को बिसरने न देने
उसे जिलाने के।

स्त्री-पुरुष

अपने जीवन, प्रेम और संसार में
कितनी व्यस्त हो तुम
बावजूद वक्त निकालती हो मेरे लिए!
पता है वो कितना खरा है ?
मेरे लिए ठीक ठीक वैसा
जैसे समुद्र मंथन से निकला अमृत!
ये तो जाना मैंने!
किन्तु क्यों न जान सका कि
मुझे अमृत देकर तुमने
विष का क्या किया ?
निकलता तो वो भी है।
कभी बताती नहीं स्त्री
और
पूछता भी कहाँ है पुरुष।

मारीचिकाएं

गर्म रेत में धँसते पैर
और सिर पर धरे सूरज की तपन
सूखा गला
और रूंधे गले में फंसी आवाज़
किसे पुकार पाती भला।
दूर दूर तक सन्नाटा
धुंधली, मिचमिचाती आँखों में
हवा के तांडव से उड़ते रेत कण
भनभना रहे इस समय को
इतना सूना बना चुके कि
कहीं से तितली उड़ कर आ जाती
जिसके पीछे चल पड़ते हैं कदम।
मानो रेगिस्तान के इस भयावह मार्ग से वो निकाल बाहर करेगी।
उम्मीदें आदमी को जिंदा रखती हैं।
प्रेम रेगिस्तान में भी उपजता है ।
आदमी की खुशफहमी भी एक गलतफहमी हो सकती है।
कि तितली आई, बैठी , उड़ी
कि किसी सरोवर तट से टकरा कर पवन ने ठन्डे झौंके दिए।
कि कदम में जान आ गयी
और चल पड़ा उस दूरस्थ झील की ओर
सोचकर कि
होगी महक फुलवारी की
तितली वहीं तो जाएगी।
किन्तु
कहाँ जान पाता है एक अनजाना आदमी
कि रेगिस्तान में होती हैं मारीचिकाएं।

फिलॉसॉफीकल दलील

वो जब मिटटी गूंथते दीखते हैं
तो लगता है किसी मूर्ति को आकार देंगे।
वो ऐसा नहीं करते।
मूर्ति को नहीं बल्कि जिन्दा लोगो को
जिन्दा रखने के लिए 
दुनिया गोल की तरह
गोल गोल रोटियों को आकार देते हैं।
मिट्टी में नमक
नमकहलाल की तरह ही तो है
जो मिलाकर पेट की भूख को थापने की
जद्दोजहद करते हैं वो।
कितना काला काल है
कि लोग रिपोर्ट बनाते हैं।
तस्वीरे खींचते है
बच्चे, जवान ,बूढ़ों को
मिट्टी की रोटी खाते देखती है दुनिया
मगर कोई समाधान नहीं।
मजबूर लोगो के पेट से
मिट्टी हटा कर आटा भरने की
कोई तो हो कवायद !
कि मिट्टी के लोग
मिट्टी में मिल जाने की
फिलॉसॉफीकल दलील
लीलती रहेगी जिंदगियां?
( हैती, जहाँ मिट्टी की रोटी बनाकर खाने पर मजबूर हैं लोग ,ये दुनिया के विकास की सबसे दर्दनाक खबर है-मगर जिजीविषा देखो..उफ़।)

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

भेड़ों का वसुधैव कुटुम्बकम

कितने लोगो के पास
कितनी सारी संवेदनाएं हैं
जिन्हे बेहिचक व्यक्त की जाती है।
कितने लोगो के पास 
कितनी सारी हिदायतें हैं
जिन्हे बे हिचक दी जाती है।
कितने लोगो के पास
कितने सारे प्यार हैं
जिन्हे शब्दाकार दिया जाता है।
कितने लोगो के पास
कितना अकेलापन है
जिन्हे दूर नहीं किया जाता है।
कितने लोगो के मुस्कुराते चेहरे
कितने मुखौटों से लदे हैं
जिन्हे उतारा नहीं जा सकता है।
आप आप , मैं मैं
और कितनी सारी तू तू
के बावजूद
कितने सारे लोग हैं जो नहीं समझते
कि समझना आखिर क्या है ?
भेड़ ही भेड़
भेड़ों का वसुधैव कुटुम्बकम

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

हुआ प्रेम अकेला होता है

हुआ प्रेम अकेला होता है
उससे नहीं होता किसीको प्रेम।
क्योंकि होने वाले प्रेम में
करने वाले जैसे तत्व नहीं होते
न ही होता कोई आकर्षण। 
न ही ये मन्मथ है , न रतिसखा
न ही मदन , न ही पुष्पधन्वा
और न कदर्प , न अनंग
ये तो निपट बदरंग होता है।
असंग होता है।
इसलिए नहीं होता अब किसीको प्रेम
इसलिए हुआ प्रेम अकेला होता है।