रविवार, 22 जुलाई 2018

गुंजाइश

जब कोई भी गुंजाइश शेष न हो ...
बावजूद इसके
उम्मीद की बैसाखी पकड़े
पीठ पर प्रतीक्षा लादे
विकट काली, भयावह पहाड़ियों के
दुर्गम उबड़ खाबड़ रास्तों पर चलना
और सूख चुके हलक में
सूरज की तपती किरणों के घूँट उतारना
दुनिया के लिए पागलपन है।
किन्तु जो कुछ
खोने की लालसा में
अद्भुत से सुख का निर्माण कर रहा है
उसे ज्ञात है
कि क्षितिज के पार भी दुनिया है
जिसके तहखाने में है वो प्रेम पेटी ..
एक 'हाँ' के लिए होता है जीवनसारा
क्योंकि जानता है पथिक
विधाता की डिक्शनरी में 'ना' नहीं है।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी- 18/7/18)

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