मंगलवार, 26 जनवरी 2010

'मुश्फिक' की फिक्र

जी हां, गज़ल को लेकर पत्र-पत्रिकायें थोडी कंज़ूस तो रहती हैं किंतु गज़ल निर्बाध रूप से बह रही हैं, इसे भी स्वीकार किया जाना चाहिये। मुझे लगता है कि गज़ल को अपनी दिशा का भान है। उसके अपने दीवाने हैं। वर्ग विशेष होने का यह फायदा भी है कि उसके रूप, रंग, उसकी रवानी, फसाहत और कायदे पर अभी तक किसी प्रकार की ज्यादती नहीं हुई है, और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उसके मुस्तकबिल पर कभी कोई आंच नहीं आने वाली। बहरहाल, आज मैं आपका एक ऐसे शायर से परिचय करा रहा हूं जिनके बारे में आज की गज़ल प्रेमी पीढी शायद न जानती हो। जिन्होने रिवायती और क्लासिकी शायरी से हटकर समाज और मुल्की हालात को अपने मखसूस अन्दाज़ में पेश किया, जिनकी शायरी सेहतमन्द और संज़ीदा अदब से हमेशा लबरेज़ रही। जनाब मुस्तफा हुसैन 'मुश्फिक'। रायगढ (छत्तीसगढ) के गांजा चौक का एक जानापहचाना नाम। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों, आकाशवाणी आदि मंचों की रौनक। हिन्दी, ऊर्दू और छत्तीसगढी में समान गति से लिखने वाले शायर, गीतकार और कवि। गज़ल क्षेत्र की यह बहुत बडी क्षति है कि मुश्फिक साहब इस दुनिया में नहीं हैं। महज़ चौथी तक की शिक्षा और जीवनयापन के लिये टेलरिंग का व्यवसाय। ताउम्र गुरबत के साये में रहे, और शायद यही वजह रही कि उनके अनुभव ने जीवन को कलाम में बान्धकर कागज़ पर हूबहू उतार दिया। उन्हें कभी गोपालदास नीरज की बगल मिली तो कभी रूपनारायण त्रिपाठी, मुकुटबिहारी सरोज जैसे उम्दा फनकारों के बीच बैठ कर शायरी करने का मौका। यानी आप जान ही गये होंगे कि डिग्रियां हासिल कर लेने वाला ही पढा-लिखा नहीं माना जा सकता, बल्कि कबीर जैसे अनेक लोग भी साहित्य के पुरोधा हैं, उनमें से मैं मुश्फिक को भी एक मानता हूं। पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहने वाले मुश्फिक के लिये गज़ल पर कोई किताब टेडी खीर ही थी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में 26 दिसम्बर 1959 को पहली रचना प्रकाशित हुई थी, इसके बाद रचनाये छपती रहीं, गज़ले वे कहते, सुनाते रहे मगर उन्हें किताबी शक़्ल कभी नहीं दे पाये। चार दशक बाद यह सब भी हुआ। 1 मई 1998 को "मेरी फिक़्र शायरी" के नाम से उनका कलाम किताबी शक़्ल में शाये हुआ। इसके दो वर्ष पूर्व मेरे विवाह के अवसर पर वे भी शामिल हुए थे। मुझे नहीं पता था कि वो अंतिम मुलाकात होगी। खैर, उनकी किताब और स्मृतियां मौज़ूद हैं।
जनाब मुश्फिक़ ने जैसी जिंदगी देखी उसे ठीक वैसे ही उतार दिया। मुझे लगता है कि आदमी मुख्तालिफ परेशानियों की गिरफ्त के बावज़ूद, अपनी जीने की ललक नहीं छोडता, वो मुसीबतों से दो चार होता है और हंसने की पुरजोर कोशिशे करता रहता है, मुश्फिक कहते हैं कि-

" इस गरानी में भी, नातवानी में भी
लोग जिन्दा हैं, जिन्दादिली देखिये।"

गज़लों में यह खासियत तो सनी हुई है कि वो जीवन के करीब, बिल्कुल सट कर चलती है। खैर, मुश्फिक ने उम्र के करीब छह दशक बाद जब थोडी राहत महसूस की ही थी जहां वो कह सके कि-
" कितने मलाल हमको जमाने से मिले हैं
अब जाके लोग ठीक ठीकाने से मिले हैं।"

कि सांसों ने उनका साथ छोड दिया। बहरहाल, आज उनकी वो गज़ल जो मुझे ज्यादा पसन्द है आप तक पहुंचा रहा हूं, शायद मेरी ही तरह आपको भी पसन्द आयें?


इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है।

फितरत का करिश्मा है जादू है ना होना है
सोना कभी मिट्टी है मिट्टी कभी सोना है।

जो दिल पे गुजरती है नग्मों में पिरोना है
पत्थर के कलेजे को हंसना है न रोना है।

गुजरी हैं कई सुबहें हर शाम गुजरती है
हम खानाबदोशों का तकिया न बिछौना है।

वीराना ही अच्छा है बदकार इमारत से
सुख चैन की नींदे हैं और ख्वाब सलोना है।

जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।

मुद्दत से ये हसरत है हो ताबे नज़र 'मुश्फिक'
फिर उसके नज़ारों से हो जाये जो होना है।

सोमवार, 25 जनवरी 2010

"दिल्ली कितनी दूर"?

कल 26 जनवरी है। गणतंत्र दिवस। और इधर जब मैं कुछ पुरानी किताबें अपनी आदतानुसार टटोल रहा था तो मिले कविवर मधुर जी। जी हां, बलिया के श्री रामसिन्हासन सहाय 'मधुर'। इनसे हिन्दी साहित्य पढ्ने वाले परिचित होंगे। या मेरे जैसे कबाडी। खैर..मधुरजी की कविताये अनुभूति की भेदने वाली सच्चाई व उक्ति की वक्रता के लिये पढी जाती रही है। वर्ष 1920 का काल था जब मधुरजी ने रचनायें लिखना शुरू किया था। हालांकि ज्यादा रचनाये उन्होने नहीं लिखी किंतु जितनी भी लिखी या छपी उसमे देशकाल से लेकर जीवन के कई आयामों का चित्रण देखने को मिल जाता है, मुझे उनकी "दिल्ली कितनी दूर" नामक कविता आज पता नहीं क्यो प्रासंगिक लग रही है सो आप तक पहुंचा रहा हूं।

वह अंतिम बलिदान हमारा, इम्फल का मैदान हिला था
उत्तर का हिमवान हिला था, सारा हिन्दुस्तान हिला था।
रजकण में कितने सोये हैं सैनिक चकनाचूर
सपने में सिसकी लेते हैं, दिल्ली कितनी दूर।
सूम सनन चल री पुरवाई, सेनापति का नाम न पूछो,
कोहनूर की क्या कीमत है, आज़ादी का दाम न पूछो।
आज कंठ से कंठ मिलाओ, अमर शहीदों की जय बोलो,
लाट, किला, मीनारों वाली दिल्ली का दरवाजा खोलो।
भीम मांगता गदा, द्रोपदी मांग रही है चीर,
बापू, आज लुटा दो झोली, दो अर्जुन को तीर।
नील गगन कितना ऊंचा है, पुष्पक से फिर हम साधेंगे,
सागर में जलयान हमारे सप्तसिन्धु को फिर बान्धेंगे।
आज देश स्वाधीन हो गया, हम किसान-मजदूर-
दिल्ली में ही पूछ रहे हैं, "दिल्ली कितनी दूर"?

इसकी अंतिम पंक्तियां क्या आज की सच्चाई नहीं लगती? बस इन्हीं पंक़्तियों ने मुझे यह पोस्ट करने के लिये प्रेरित किया। साथ ही साथ गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये भी देता चलूं।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

मेरी प्रिय पुस्तक में से----

जब भी कभी खालीपन का अहसास हुआ, मुझे अपनी रुचिकर किताबों ने सम्भाला। जब भी कभी मन भारी होता है मैने हमेशा किताबों की शरण ली है। किताबें मुझे ज्यादा प्रियकर इसलिये भी लगती है कि उनमे स्वार्थ नहीं होता, उनमें छल नहीं होता, कपट नहीं होता, वे जैसी भी होती हैं पूरी की पूरी समर्पित होती हैं। उसके एक एक शब्द मानों जीवन की परतें खोलते हैं। मन की उदासी, खालीपन के भाव यूं रफुचक्कर होजाते हैं कि पता ही नहीं चलता। मैं फिर से तैयार हो जाता हूं। नये सिरे से अपने को संवारने लग जाता हूं। पिछले दिनो अपने पूज्य पिताजी के काव्यखंड "रागाकाश" को पढ रहा था तो मुझे लगा कि उसमें से कुछ रचनायें अपने आदरणीयजन, बन्धुओं व मित्रों के लिये भी पोस्ट करुं। "रागाकाश" पूरा एक जीवन है। तीन खन्डों में विभाजित है यह। पहला रागात्मा, दूसरा रागानुगा और तीसरा खंड रागापरा। मैं अक्सर पढता रहता हूं, और हमेशा ही मुझे लगता है और-और पढूं। आज आपके लिये इस पुस्तक के तीनों खंडों में से एक-एक रचना प्रेषित कर रहा हूं।

"रागात्मा" से-

अब न अन्धेरे से डर और न उजाले से
न कल्पना और न यथार्थ से
अब तो स्त्री से भी डर नहीं लगता।
अब-
आस्वाद और रस
या तो तृप्त हैं या अर्थहीन।
सारी भौतिक उत्तेजनायें और तनाव
जैसे एक आध्यात्मिक शांति में डूब गये हैं।
अतृप्त आकाक्षायें,
जीवन की विभीषिकायें
ऐश्वर्य-विलास
हार-जीत
सब जैसे
एक अनकह विराम में समाहित हो गये हैं।
सारे तीव्र-मध्दम काल-प्रवाह
जैसे एक शांत समुद्र में थिर हो गये हैं।
कुछ बान्धता नहीं अब
न घर, न बाहर,
न माया, न ममता
न वर्तमान, न भविष्य।
दिशा की भ्रांति हो यह
या पारिस्थितिक विवशता
पर,
सब कुछ जैसे एक निस्तब्धता में
विलीन हो गये हैं।
अब यह सोच
कि ' अब क्या होगा?'
कितना निरर्थक है।

"रागानुगा" से-

मैं दिखा,
लजा गई अरुणाई
ऐसी कुछ चमक
सद्य: धुले चेहरे पर आई
जैसे
मन्दिर के ओस-भीगे कलश से
सो के जगी ऊषा की,
पहली-पहली किरण टकराई॥

"रागापरा" से-

मत किनारे आओ
भंवर में रस लो
उसमें चक्कर जरूर है
पर गति वहीं है।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

मेरा प्रेम


उसे
न कभी देखा,
न मिला और
न ही जाना।

हां,
अपने आसपास
उसके होने का अहसास
हमेशा रहता है।

हवा संग वो
कभी शरीर से लिपटती है
तो कभी खुशबू बन
नथुनों से होकर
सीधे हृदय तक
जा उतरती है।

रोमांचित मन
मस्तिष्क में बैठ
उसकी आकृतियां
उकेरने लगता है।

और
जब इन आकृतियों को
कैनवास पर
उतारता हूं
तो चेहरा नहीं बनाता।

क्योंकि
प्रेम में
चेहरे की जरूरत
मुझे कभी
महसूस नहीं हुई।