शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

जो प्रेम की हो ली, वो है होली

रुकिये.....इतना बडा आलेख देख कर भागिये मत। सच पूछिये तो आनंद आयेगा। होली के पर्व पर इस तरह के आनंद को पाने की भी चेष्ठा होती है, तभी आप मेरे ब्लोग पर आये हैं। पूरा पढने का साहस करें, पसन्द आयेगा। तब तक मैं आपके और अन्य ब्लोग से होकर आता हूं।


-आनंद में डूबना, उसमे सराबोर होना, उसमें समाहित होना मनुष्य की प्रकृति है। आनन्द के लिये ही मानवजीवन के समस्त कर्म है। वो इसका प्यासा है। प्रकृति आनंद से परिपूर्ण है। वह मनमोहक है, उसमे रूप, रंग, गुण, गन्ध, स्वर, रस है। यानी समग्र प्रकृति में सौन्दर्य रचा बसा है। वह नियम से बन्धी है। उसका कर्म लय से जुडा है। राग स्वतंत्र है। और जितनी भी दैवीय शक्तियां हैं वे सारी इसी नियम के अंतर्गत भ्रमण करती है। प्रकृति का संविधान ऋत कहा जाता है। ऋग्वेदिक ऋषियों द्वारा निर्मित प्रकृति इसी संविधान का अनुगमन करती है। ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमंत, पतझड, बसंत इसी ऋत के ऋतुरूप होते हैं। इसमे बसंत प्रकृति का यौवनकाल है, तरुणाई उमंग का उत्थान है। प्रकृति अपना सबकुछ बसंत पर न्योछावर कर देती है। मानो नववधु पहली बार अपने प्रियतम से मिलन को ललचा रही हो। वो उसे पाकर नवजीवन सा अहसास पाती है। खिल उठती है। खिलखिला उठती है। अल्हडपन, मस्ती, दीवानगी यानी यौवन का चरम होली है। बसंत ऋतु का उल्लासशिखर होली है। जम्बुद्विप भरतखंड का उत्साह, उल्लास, और उमंग़ होली है। मस्तक पर चन्दन का टीका हो, गाल गुलाल से लाल हों, नृत्य में झूमते, गाते लोग हों, टोलियां हों, हंसी-ठिठोली हो..यही होली है। जीवन का उत्साह ही होली है।
हिन्दू धर्म व्यापक है। सनातन है। यहां जीवन को पूजा जाता है। जीवन का पर्व मनाया जाता है। यहां राम आगमन की दीवाली होती है तो कृष्ण की बांसुरी से निकले स्वर हृदयों में प्रेम घोल देते हैं, रास रचता है, रंग बिखरते हैं। जन-मन सब एक हो जाते हैं। द्वेत भाव नहीं दिखता, अद्वेत हो जाता है प्रकृति का कण-कण। यही होली है। ढेर सारे रंगों का मिलना और एक होकर उल्लास का नृत्य ही होली है। राधा-कान्हा का रास, अमीर-गरीब की गलबहियां। धरती-आकाश की प्रीति, वाकदेवी के सातों सुर झृंकत हो उठते हैं और शिव भी सुधबुध खो कर इस मस्ती में डूब जाते हैं। वात्सायन के कामसूत्र (1.4.42) में बसंत का यही उल्लास क्रीडा पर्व है। भारतवर्ष का महानतम प्रेमपर्व। मानों आकाश के तमाम देवी-देवता धरती पर उतरकर रंगों से खेल रहे हों। बैरभाव कहीं लुप्त होकर दैत्यों का मन भी ललचा रहे हों इस पावन पर्व पर थिरकने को। यही होली है।
होली को कुछ विद्वानों ने मिस्त्र या यूनान से आयातित बताया है। मिस्त्र में होली जैसा उत्सव था, यूनान में भी था। क्योकि ऐसे देशों से भारत के व्यापारिक सम्बन्ध रहे थे। सत्यकेतु विद्यालंकार के "वैदिक युग" (पृष्ठ- 232) में लिखा है कि वर्तमान ईराक़ और तुर्की राज्य के कुछ क्षेत्रों से प्राप्त भग्नावशेष व पुरातन सभ्यताओं से हमें पता चलता है कि उनके भारत से व्यापारिक सम्बन्ध थे। ऋगवेद (1.25.4) में पक्षियों के उडने वाले आकाश मार्ग और समुद्री नौका मार्ग के उल्लेख हैं। जेमिनी ने होलिका पर्व का उल्लेख (400-200 ईसापूर्व) किया और लिखा कि होलिका सभी आर्यों का उत्सव है। आचार्य हेमाद्री ने (1260-70 ई.) पुराण के उदाहरण से होली की प्रधानता बतलाई है। हज़ारों वर्ष पुरानी होली की परम्परा इसी भरत की भूमि से उपजी। मिस्त्र-यूनान ने नक़ल की। भारतीय दर्शन, साहित्य, संस्कृति कला, गीत, संगीत तथा उत्सवों, पर्वों से सराबोर है। यहीं आनंद की ऊर्जा उफान मारती है। उसका मद रस झलकाता है। प्राणीमात्र में बहकर वो प्रकृति के उच्चतम उत्साह को पाता है और होली स्दृश्य बन जन जन में व्याप्त हो जाती है।
संवेदनशीलता प्रकृतिप्रदत्त है। चार्ल्स डारविन ने ' द ओरिजिनल आफ द स्पेसिस एंड द रिसेन्मेंट' में बताया है कि ' प्राणियों को भावोत्तेजना में आनंद आता है।' आनंद का केन्द्रबिन्दु मानव के भीतर है। इसके उपाय, साधन प्रकृति में हैं। धरती सगन्धा है, पवन गन्ध प्रसारित करती है। मनुष्य में मदन गन्ध है, पुष्पों में सुगन्ध है। सूर्य ऊर्जावान है, ऊषा में सौन्दर्य झलकता है। चंद्रमा शीतल है, सुन्दर है। पूर्णीमा धवल चान्दनी बिखेरती है। प्रकृति के सारे जीव सवेंदित होते हैं। यही होली है। होली में नृत्य है। मगन होने का बोध है। महाप्राण निराला तो मानों अपने शब्दों में प्रक़ृति के इस आनंद के साथ खेलते हैं कि- 'वर्ण गन्ध धर, मधुरन्द भर, तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर, खुली रूप-कलियों में पर भर, स्तर-स्तर सपुरिकरा, रंग गई पग-पग धन्य धरा।" निराला ही क्या तुलसी, कालीदास ने भी इस यौवनमयी प्रकृति को अंगीकार करते हुए शब्दचित्र खींचे हैं। तुलसी कहते हैं-" सीतल जागे मनोभव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही, सुगन्ध सुगन्द मारुत मदन अनल सखा सही। विकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकदा, कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपसरा।" कालीदास का कुमारसम्भव तो बसंत के रस-रंग में नहाया हुआ है-" पवन स्वभाव से ही आग भडकाऊ है, बसंत कामदेव के साथ आया है। उसने नई कोपलों के पंख लगाकर आम्र मंजरियों के वाण तैयार किये हैं। आम्र मंजिर खाने से ही नर कोकिल का सुर मीठा हुआ। उसकी कूक पर रूठी नारियां भी रूठना भूल जाती हैं।" यही होली है। रूठना, गिले-शिकवा, बैरभाव जहां प्रेम के रंगों में समाहित हो जायें और एक रंग बन जायें, होली मन जाती है। सांस्कृतिक राष्ट्रभाव की उल्लासधर्मिता या उसकी अभिव्यक्ति ही होली है। और जब इस पर बाज़ारवाद चढ जाता है तो यह पूरी की पूरी स्वच्छंदता पर, संस्कृति पर आक्रमण है। संस्कृति कभी उत्सवों की प्रेरक नहीं रही, किंतु ये बाज़ार अपने उत्सव गढता है। कभी फादर्स डे होता है तो कभी मदर्स। कभी वैलेनटाइन बिकता है तो कभी होली डे। मीडिया से लेकर पूरा बाज़ारतंत्र त्योहारों को बेचने लगता है। दुकानें खुल जाती हैं। उमंग की दुकाने, उत्साह की दुकानें। रंगों की दुकानें। प्रेम की दुकानें। और खरीददारों की भीड उमडती है। माल खरीदा जाता है। उपभोग किया जाता है। और जब उपभोग के बाद माल खत्म तो उत्साह खत्म, उमंग खत्म, प्रेम के गीत खत्म। नाच खत्म। थक हार कर बैठ जाना होता है। गाल पर लगे गुलाल पौछ दिये जाते हैं, रंग नहा धो कर निकाल दिये जाते हैं। फिर से तैयार होकर मनुष्य अपने बाज़ारीकरण में मशगूल हो जाता है। या मज़बूर हो जाता है। अब जब दुकानें सजेंगी तब खरीरदारी होगी। यह होली नहीं। होलिका है जो हमारे देश के पावन पर्वों को बाज़ार की आग में झौंकती है। प्रह्लाद बनिये और इससे बचिये। होली मनाइये। इसकी अल्हडता, प्रकृति की चरम बसंतोंपूर्ण मादकता का रसभोग लेने और इसके प्रेम, दुलारमयी भांग के नशे में 12 मास रहने के लिये बस प्यार करें। भारत की महान संस्कृति, सभ्यता का रसपान करें। होली खेलें। प्रेम, भक्ति, गीत, नृत्य, सेवा, समर्पण को पूजा मान गलमिलौवल करें।
ऐसी ही सार्थक, जीवंत होली दिवस पर मेरी आत्मीय शुभकामनाये आप सब स्वीकार करें।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

आंखों में कल का सपना है


ओफिस से रात में लौटना होता है, अमूमन आधी रात चढ जाया करती है। जब गांव वाले अपनी नींद को बिदाई देने के लिये अंतिम खर्राटे लिया करते हैं तब मैं अपने घर पहुंच कर या तो दरवाजा खटखटाता हूं या फिर बेल बजाता हूं। अज़ीब सी जिन्दगी है महानगरों की। खैर..लौटा ही था कि अपने पोस्ट बाक्स में कोई किताब आई हुई दिखी, झट से बाक्स ओपेन किया। सीढियां चढते चढते ही उसका कवर खोला और दरवाजे की बेल बजाने से पहले आंखों के सामने थी 'आंखों में कल का सपना है' गज़ल संग्रह। डा.अमर ज्योति 'नदीम' का गज़ल संग्रह। दरअसल यह आर्कुट का कमाल है जब डाक्टर साहब से परिचय हुआ। और उनके ब्लोग तक जा पहुंचा। उनके बारे में लिखा हुआ पढा और थोडा बहुत उन्हे जाना। फिर जी मेल से चेट पर उन्हें पक़डा और उनसे शुरू हुई बातचीत। गम्भीर और सधे हुए उनके शब्दों ने प्रभावित किया। आदमी की उम्र और उसके अनुभव परिपक्वता प्रदान करते हैं,और ज्ञान बन कर बरसते हैं। मुझे तो इसी बरसात में नहाना अच्छा लगता है सो डाक्टर साहब जब भी नेट पर दिखते हैं मैं उन्हें पकड लेता हूं। वे भी मुझसे बात करते हैं बिल्कुल ऐसे जैसे मुझे बरसों से जानते हों। यह उनका बडप्पन है। हालांकि आजकल ऐसे लोग कम ही मिल पाते हैं। मेरा तगडा अनुभव है कि ज्यादातर लोग अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिये छोटा होना नहीं चाहते। पद का, प्रतिष्ठा का, पैसों का या फिर ज्ञान का ऐसा मद उनमें भरा होता है कि वे झुकना नहीं चाहते। झुकने को अक्सर छोटापन मान लिया जाता है जबकि कहा जाता है कि ज्ञानी हमेशा सरल और लचीला होता है। किंतु आज नमस्कार भी ऐसे किया जाने लगा हैं मानों एहसान जता रहे हों। खैर..मैने कहीं पढा था कि छोटा होना या झुकना जब आदमी भूल जाता है उसका पतन वहीं से शुरू हो जाता है। ख्यातिनाम ला त्सू का एक कथन भी प्रसंगवश कहता हूं कि "झुकना समूचे को सुरक्षित रखना होता है।" अपन तो छोटे हैं इसलिये पतन का प्रश्न ही नहीं है। न नाक कटने का डर, न अहम भंग होने का भय। और किस्मत भी अच्छी कि डाक़्टर साहब जैसे लोग भी मुझे मिल जाते हैं। जिनमें किसी तरह की दुनियाई स्वर्ण परत नहीं चढी होती,और आदमी होने का 24 कैरेट खरापन भी होता है। दरअसल मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं यह भी बताता चलूं, डाक्टर साहब की जिन गज़लों को मैने पढा उनमे बहुत सारी गज़ले मेरे मनोभावों को छूती हुई गईं। यानी आज के दौर में सामाजिक स्तर पर पतन हो या व्यवहारिक स्तर पर टूटन या नौकरी पेशे में चल रही अव्यवस्थायें हों, आदमीयत कैसे खत्म होती जा रही है उसे बखूबी से उन्होंने शब्दों में उतार कर लक्ष्य पर सीधे चोट की है। जैसे-
" चूक हो जाये न शिष्टाचार में, दुम दबा कर जाइये दरबार में।
कुर्सियों के कद गगनचुम्बी हुए, आदमी बौना हुआ आकार में...।"
हां उनसे उनके गज़ल संग्रह के बारे में एक बार पूछा था, सो उन्होने डाकविभाग का सदुपयोग करते हुए मुझे अपनी हस्ताक्षरयुक्त किताब प्रेषित कर दी। मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और आप सब के लिये किताब का निचोड प्रस्तुत करने की कोशिश कर बैठा। हालांकि मैं जानता हूं यह कोशिश किताब की पूरी तरह निचोड नहीं है उसके लिये तो वह पढनी ही होगी फिर भी जो कर पाया, जितना कर सका, आपके लिये नज़र है।
मैने उनकी कृति पढनी शुरू की तो हिन्दी और ऊर्दू सम्मिश्रण युक्त उनके शब्द खिलखिलाते हुए मेरी आंखों के सामने थे जो उनके जीवन का बहुत सारा भाग उढेल रहे थे। जिसमे जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, दुष्यंत कुमार ,प्रेमचन्द और मैक्सिकम गार्की से ली गई प्रेरणा स्पष्ट झलक रही थी। उनकी ज्यादतर गज़लें समाज़ और दुनिया की अव्यवस्थाओं के खिलाफ आक्रोश से भरी हुई महसूस होती है। और सचमुच उनकी आंखों में कल का सपना है जो उम्मीद व्यक्त करता है कि बदलाव सुखद हो।
प्रसादजी का छ्न्दबोध गज़लों में समाहित करना कठिन होता है किंतु
"जो कुछ भी करना है, कर ले
इसी जनम में, जी ले, मर ले।"

डाक्टर साहब का यह शे'र प्रसाद्जी के श्रद्धा और मनु के बीच से निकलती जीवन धारा माना जा सकता है। किंतु इसी के आगे उन्होने प्रेमचन्द का यथार्थबोध भी करवाया कि-
" अवतारों की राह देख मत
छीन-झपट कर झोली भर ले।"

गार्की का मर्म और समाज़ की पीडा इस किताब में ज्यादा है जो व्यवस्था के साथ भिडती हुई प्रतीत होती है। तो दुष्यंतजी शे'रों के साथ चलते नज़र आते हैं। यह अद्भुत है कि गोर्की और दुष्यंतजी को पढने वाले उनका अक़्स अमर ज्योति साहब के शब्दों के नेपथ्य में ढूंढ सकते हैं।
"कह गया था, मगर नहीं आया
वो कभी लौट कर नहीं आया।"

तो
" नहीं कोई भी तेरे आसपास, क्यों आखिर?
सडक पर तन्हा खडा है उदास, क्यों आखिर?"

आप देखिये डाक्टर साहब का आक्रोश, वेदना और राजनीतिक,सामाजिक तंत्र के प्रति धधकते सवाल कि-
"राम के मन्दिर से सारे पाप कट जायेंगे क्या?
बन गया मन्दिर तो चकले बन्द हो जायेंगे क्या?
कितने लव-कुश धो रहे हैं आज भी प्लेट-ओ- गिलास
दूध थोडा, कुछ खिलौने उनको मिल पायेंगे क्या?
चिमटा,छापा,तिलक,तिर्शुल,गांजे की चिलम
रहनुमा-ए-मुल्क अब इस भेस में आयेंगे क्या?
अस्पतालों, और सडकों, और नहरों के लिये
बोलिये तो कारसेवा आप करवायेंगे क्या?"

अध्यापन और इसके बाद बैंक की नौकरी विचित्र लग सकती है किंतु पठन पाठन, दर्शन और फिर गणित का गुणा-भाग वाला व्यक्ति जीवन के हर स्तर को अनुभव करने में ज्यादा समर्थ हो जाता है जिसका निष्कर्ष, परिणाम यही निकलता है कि-
"खूब मचलने की कोशिश कर
और उबलने की कोशिश कर
व्याख्यायें मत कर दुनिया की
इसे बदलने की कोशिश कर।"

सचमुच डा.अमर ज्योति 'नदीम' की आंखें (कृति) कल का सपना देखती हैं और अपने अनुभवों से आने वाले पीढी की दिशा तय करती हैं। कुल 86 गज़लों से बनाया गया है यह गुलदस्ता जिसके प्रत्येक फूल ताज़े, महकते हुए हैं। या यूं कहें अमर हैं, ज्योति की तरह रोशनी बिखेरते से हैं। अब आप सोचिये कैसे मूरख हैं वे प्रकाशक जो सिर्फ बाज़ारवाद को देखते हुए बेहतरीन कृतियों को नज़रअन्दाज़ करते हैं, जिन्हे जन-जन में जाने से रोकते हैं। और ये आजकल की नई पीढी के फेशनेबल, आधुनिक मानेजाने वाले हाडमांस के अर्धजीवित पुतले हिन्दी साहित्य से क्यों दूर हैं? शुक्रिया अयन प्रकाशन का जिसने इस कृति को आकार दिया। और शुक्रिया डाक्टर साहब का भी जिन्होनें मुझे अपनी कृति से परिचय कराया।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

रंगोली

अनमना सा मैं। डूबा तो अपने शहर के उन दिनों तक जा पहुंचा जो दिलोदिमाग में जड से गये हैं, पिघला तो पिघलता ही चला गया। होता है कभी कभी ऐसा भी। फिर शब्दों ने नहीं देखा कि उसकी बनावट कैसी है, वो किस रूप में हैं। जब यथार्थ के धरातल पर आकर शब्दों की ओर नज़र गईं तो सुधारना चाहा, किंतु किसे सुधारुं? बना हुआ अतीत कब बिगडता या सुधरता है? सो जस का तस। आपके लिये।

"गोबर से सने हाथ
लिपा हुआ आंगन
और आंगन मे बनाती
रंगोली,
कितनी रंगीली लगती थी वो।

उसकी चटक धूप से
मखमली सांझ तक की मेहनत
रंग लाती मुझे दिखती थी तब
जब रंगोली बनकर
तैयार हो जाती थी
और चेहरे पर संतोष की लकीरें
मुस्कान के साथ खिलती थी,
कितनी मासूम सी लगती थी वो।

निहारता था मैं
रंगोली को नहीं
ज्यादा उसे,
और पता भी नहीं चलता था जग को
कि किसे देख रहा हूं।

जब कोई उसकी कृति की
तारीफ करता
तो मैं भी करता,
रंगोली की नहीं,
उसकी जिसने बनाई थी।

मैं जानता था
वो नही जानती
कि मैं उसे देखने आता था
उसकी रंगोली के बहाने।
और
प्रेम के रंगों से
हृदय में नित बनाया करता था
उसकी-अपनी सपनों की रंगोली।

हां तब जब
उसकी बनाई रंगोली कोई
मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो।

मगर

मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।"

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

जनता या जमूरा?

किसी को अपनी
फिल्म चलानी है,
पार्टियों को राजनीति करनी है
चैनलों को मसाला कूटना है
और आपको?
आप तो ज़मूरे हैं।
इशारों पर नाचने वाले ज़मूरे,
इनके धंधों में
बेमोल बिकने वाले ज़मूरे।
क्या ज़मुरुओं की
कोई औकात होती है?



मुम्बई पिछले कुछ दिनो से हैरान है। आप जानते हैं क्यों है? यह भी बता दूं कि टीवी चैनलों पर जो आप देख रहे है वो असली हालात नहीं है बल्कि हालात बिगाडने के लिये बनाये गये द्रुश्य है। अपने वीज़न के अनुसार गढी जा रही मानसिकता को बखूबी प्रकट किया जा रहा है जिससे देखने वालों को लगे कि मुम्बई सचमुच आफत में है और अब बस तहस नहस ही होना है। उधर राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस का खेल है, असली मुद्दे फिलहाल पूरी तरह डिब्बा पैक हो गये हैं, यहां तक कि जनता भी सवाल नहीं कर रही। क्या बिजली, क्या पानी, क्या महंगाई सब कुछ इस बनाये गये हालात की भेंट चढ गये।
शाहरुख खान को चिंता है? अमेरिका, दुबई घूम घूम अपने स्टेटस और कमाई में जुटे इस हीरो को क्या सचमुच चिंता है? मगर हम उसके लिये परेशान है। क्यों?
क्या कभी अपने आप पर भी हंसी आई है? आई है, किंतु दबा ली गई है। क्योंकि जनता को ज़मूरा बना दिया गया है।
इधर सब इस हालत का जायजा कुछ इसप्रकार ले रहे है मानों देश की यही एक समस्या है और इसके हल हो जाने पर सबकुछ ठीक हो जायेगा।
बडी बडी बातें, बडे बडे विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं। यह सब आखिर क्यों? अब तर्क पर तर्क मिलेंगे.... खैर।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

चीनी कम

अमिताभ बच्चन और तब्बू की फिल्म थी 'चीनी कम'। मैने देखी नहीं। फिल्म देखने का शौक नहीं है सो नहीं देखी। उसकी कहानी भी पता नहीं। किंतु देश में चल रही सरकारी फिल्म 'चीनी कम' से जरूर दो चार हो रहा हूं। लगता है यह फिल्म ज्यादा लम्बी है। खत्म होने का नाम नहीं लेती। ऊपर से इसकी रील भी बढाई जा रही है। निर्माता देश की सरकार है तो निर्देशक हैं कृषि मंत्री शरद पवार। आपको बता दूं कि इस फिल्म के डायलाग गज़ब के हैं। शरद पवार खेमे के एक अखबार 'राष्ट्रवादी' में प्रकाशित हुए हैं- ' चीनी महंगी हो गई है तो चिल्लाते क्यों हो, चीनी कम खाओ, कम चीनी खाने से कोई मरता नहीं है।' है न जबरदस्त डायलाग। भारत की जनता खूब शक्कर खाती है। उसे इससे डायबटिज़ न हो जाये इसके लिये चिंतित है निर्देशक। फिल्म के साथ साथ मानवधर्म भी तो कुछ होता है। सरकार उपाय बताती है। अरहर की दाल महंगी है इसलिये पीली मटर की दाल खाओ। यानी आप दुआ कर सकते हो कि कहीं कपडे और अधिक महंगे न हो जाये वरना सरकार कहेगी नंगा घूमो। शायद इसकी नौबत पर भी सरकार का ध्यान है। वो सोच रही है कि फिल्म में आजकल अंग प्रदर्शन भी होता है, ग्लैमर भी तो होना चाहिये न। नहीं तो फिल्म चलेगी कैसे? निर्देशक का अखबार कहता है कि ''शक्कर के दाम यदि 10-15 रुपये बढते भी हैं तो इतनी हाय तौबा क्यों? एक परिवार का यदि चीनी के लिये प्रतिमाह का खर्च 90 से 100 रुपये बढ जाता है तो इससे क्या फर्क़ पडेगा? सौन्दर्य प्रसाधन का खर्च भी तो वहन किया जा रहा है।'' अब सोचने की जरूरत जनता की है। जनता सोचती बहुत है। सोचने का पैसा नहीं लगता है ना इसीलिये सरकार ने यह काम जनता को सौंप रखा है। जनता सोचती है कि- 'क्या एक परिवार महीने में एक किलो ही शक्कर खाता है?' मुझसे पूछें तो अनुमान लगा कर कह सकता हूं कि एक परिवार में चार-पांच किलो शक्कर की खपत तो होती ही होगी। राशन लेने जाता होता तो सही बता सकता था। किंतु अनुमान में कम से कम इतनी खपत तो होगी ही। कम सोचने में क्या बुराई? तो पांच किलो शक्कर कितने की हो गई? यदि 50 रुपये से जोडे तो 250 रुपये की। यह खर्च उनके लिये ठीक है जिनका पेट भरा रहता है या जो सवाल उठाने में शर्म नहीं करते। भला निर्देशक का अखबार शर्म क्यों करेगा? शर्म करे जनता। पर सवाल तो यह है कि एक सामान्य आदमी या वो जो दो रोटी की जुगाड में दिन रात एक करते हैं उनकी भूख का क्या? सवाल करने वालों को विश्वास है कि आदमी सिर्फ शक्कर खा कर पेट भर लेता है। अजी सौन्दर्य प्रसाधन तो दूर की बात है आज जीवनावश्यक वस्तुओं की हालत देख लीजिये। रसोई घर का बज़ट तीन गुना बढ चुका है। मैं जानता हूं आज से एक दशक पहले तक मैरे घर डेढ से दो हज़ार रुपये में महीनेभर का आवश्यक राशन आ जाता था, धीरे-धीरे वो अब बढ कर 6 से 7 हज़ार पहुंच गया है। गेहूं, चावल, दाल, तेल यहां तक कि सब्जियां भी अपने तेवर दिखा रही हैं। सरकारी फिल्म तर्क दे सकती है कि 'कम खाओ। ज्यादा खाने से मोटे हो जाते हैं।' किंतु कम खाने से? अरे भाई ज़ीरो फिगर का ज़माना जो है। आप कम खाओगे तो कैलोरिज़ कम होगी। हो सकता है कि कुपोषित हो जायें। और कुपोषित हो भी जायें तो यह इत्मिनान रखिये कि मरोगे नहीं। फिर भी यदि मर गये तो सरकार घोषणा कर सकती है कि यह भूख से नहीं बीमारी से मरा है। आखिर देश की इज्जत का भी तो प्रश्न है। अब बीमारी तो हर देश में है। भूखे हर देश में थोडी हैं। खैर, आपको बताता चलूं कि महंगाई के इस दौर में करीब 70 फीसदी आबादी की आय 20 रुपये प्रति दिन से भी कम है। सोचिये..सोचिये वो क्या खायें? कैसे रहें? नहीं सरकार नहीं सोचेगी। क्यों सोचेगी वो? वो इतना निम्नस्तर का नहीं सोचती। वो हमेशा बडा सोचती है। सटोरियों, मुनाफाखोरों, मिल मालिकों..आदि के बारे में। अरे भाई इनकी कौन चिंता करेगा, सरकार ही न। इनकी चिंता सरकारी काम है। जनता तो जी ही लेती है। उसके भाग्य में बदा है कि बेटों मरते मरते भी जियो।
बहरहाल, 'चीनी कम' मुद्दा गहराया हुआ है। मेरे पास जो जानकारी है उसके मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष 220 लाख टन शक्कर का उत्पादन होता है। इस साल देश में लगभग 240 लाख टन चीनी मौज़ूद है। आप पूछेंगे कि तब चीनी का दाम क्यों बढा? हां, गन्ने का उत्पादन घटा है न इसलिये। गन्ना उत्पादकों का संकट देखिये, दो साल पहले खबर थी कि गन्ना उत्पादक अपनी उपज की एवज में 120 रुपये प्रति क्विंटल की मांग कर रहे थे। मगर सरकार ने उनकी मांग नहीं मानी। लिहाज़ा गन्ना उत्पादकों ने उत्पादन में ढिलाई बरती। इस साल हम जो शक्कर खा रहे हैं वो पिछले साल की बनी हुई है। और यदि तमाम खर्च मिला लें तो यह शक्कर हमें 25 रुपये तक मिलनी चाहिये। नहीं मिल रही। वो तो 45 रुपये में मिलेगी।
देश 2009 में पर्याप्त चीनी भंडार से लबालब था। और तो और तब 48 लाख टन चीनी 12 रुपये के भाव से निर्यात भी की गई। जब लगा कि चीनी घटने वाली है तो सरकार ने 30 रुपये किलो की दर से चीनी आयात की कुल 50 लाख टन। यानी 12 के भाव में बेची और 30 में खरीदी। इसके लिये क्या आप सरकार को मूर्ख कहेंगे या उसकी पीठ थपथपायेंगे? आप भले ही न थपथपायें मगर जनता की पीठ पर महंगाई के कोडे अवश्य बरसते रहेंगे। जनता अभिश्प्त है। भले ही आप सोचें कि इस देश का प्रधानमंत्री खुद भी एक गम्भीर अर्थवेत्ता है और जिसे निपुण वित्तमंत्री प्रनब मुखर्ज़ी जैसा बुद्धिजीवी का साथ मिला हुआ है, उसके बावज़ूद यह हालत? भाई दरअसल, यह 'चीनी कम' फिल्म बडे सस्पेंस की है। इसमे पता नहीं चलता कि हीरो मरता है या विलन? हां दर्शक के जीवन की गारंटी नहीं। तो है न कमाल की फिल्म?

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

शुक्रिया जनसत्ता


जनसत्ता के 5 फरवरी के अंक में मेरी पोस्ट 'मुश्फिक़ की फिक़्र" प्रकाशित की गई। इसे जनसत्ता ने ब्लोग से ही उठाया। यह खुशी की बात है कि पत्रकारों मे अभी भी कुछ ऐसे लोग बचे हैं जो अच्छा लिखने का, लिखते रहने का हौसला देते हैं और रचनाओं की कद्र करते हैं। उन्हें धन्यवाद। शुक्रिया जनसत्ता।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

विडम्बना

गधों और घोडों के
खुरों के बीच
रौन्दी जा रही
प्रतिभा।

नोंच-नोंच उसे
खा रहे गिद्ध
आसमान
नाप रहे।

सिसकियां भी
चाटे जा रहे
रात के अन्धेरे में
चमगादड।

खरगोश सा कोमल
मुलायम मांस वाला
ईमान,
कब तक कहां-कहां
फुदकेगा?

आखिर सीधे खडे
कान पकड के उसे
भून दिया जायेगा
सरकारी भट्टी में।

बचना है
या कोई सम्मान
पाना है तो
कुत्ते की दुम की
तरह टेढे हो जाओ,
या अवसर जान
उसे दबा लो
या फिर
हिलाओ
कुं कुं करते।