रुकिये.....इतना बडा आलेख देख कर भागिये मत। सच पूछिये तो आनंद आयेगा। होली के पर्व पर इस तरह के आनंद को पाने की भी चेष्ठा होती है, तभी आप मेरे ब्लोग पर आये हैं। पूरा पढने का साहस करें, पसन्द आयेगा। तब तक मैं आपके और अन्य ब्लोग से होकर आता हूं।
-आनंद में डूबना, उसमे सराबोर होना, उसमें समाहित होना मनुष्य की प्रकृति है। आनन्द के लिये ही मानवजीवन के समस्त कर्म है। वो इसका प्यासा है। प्रकृति आनंद से परिपूर्ण है। वह मनमोहक है, उसमे रूप, रंग, गुण, गन्ध, स्वर, रस है। यानी समग्र प्रकृति में सौन्दर्य रचा बसा है। वह नियम से बन्धी है। उसका कर्म लय से जुडा है। राग स्वतंत्र है। और जितनी भी दैवीय शक्तियां हैं वे सारी इसी नियम के अंतर्गत भ्रमण करती है। प्रकृति का संविधान ऋत कहा जाता है। ऋग्वेदिक ऋषियों द्वारा निर्मित प्रकृति इसी संविधान का अनुगमन करती है। ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमंत, पतझड, बसंत इसी ऋत के ऋतुरूप होते हैं। इसमे बसंत प्रकृति का यौवनकाल है, तरुणाई उमंग का उत्थान है। प्रकृति अपना सबकुछ बसंत पर न्योछावर कर देती है। मानो नववधु पहली बार अपने प्रियतम से मिलन को ललचा रही हो। वो उसे पाकर नवजीवन सा अहसास पाती है। खिल उठती है। खिलखिला उठती है। अल्हडपन, मस्ती, दीवानगी यानी यौवन का चरम होली है। बसंत ऋतु का उल्लासशिखर होली है। जम्बुद्विप भरतखंड का उत्साह, उल्लास, और उमंग़ होली है। मस्तक पर चन्दन का टीका हो, गाल गुलाल से लाल हों, नृत्य में झूमते, गाते लोग हों, टोलियां हों, हंसी-ठिठोली हो..यही होली है। जीवन का उत्साह ही होली है।
हिन्दू धर्म व्यापक है। सनातन है। यहां जीवन को पूजा जाता है। जीवन का पर्व मनाया जाता है। यहां राम आगमन की दीवाली होती है तो कृष्ण की बांसुरी से निकले स्वर हृदयों में प्रेम घोल देते हैं, रास रचता है, रंग बिखरते हैं। जन-मन सब एक हो जाते हैं। द्वेत भाव नहीं दिखता, अद्वेत हो जाता है प्रकृति का कण-कण। यही होली है। ढेर सारे रंगों का मिलना और एक होकर उल्लास का नृत्य ही होली है। राधा-कान्हा का रास, अमीर-गरीब की गलबहियां। धरती-आकाश की प्रीति, वाकदेवी के सातों सुर झृंकत हो उठते हैं और शिव भी सुधबुध खो कर इस मस्ती में डूब जाते हैं। वात्सायन के कामसूत्र (1.4.42) में बसंत का यही उल्लास क्रीडा पर्व है। भारतवर्ष का महानतम प्रेमपर्व। मानों आकाश के तमाम देवी-देवता धरती पर उतरकर रंगों से खेल रहे हों। बैरभाव कहीं लुप्त होकर दैत्यों का मन भी ललचा रहे हों इस पावन पर्व पर थिरकने को। यही होली है।
होली को कुछ विद्वानों ने मिस्त्र या यूनान से आयातित बताया है। मिस्त्र में होली जैसा उत्सव था, यूनान में भी था। क्योकि ऐसे देशों से भारत के व्यापारिक सम्बन्ध रहे थे। सत्यकेतु विद्यालंकार के "वैदिक युग" (पृष्ठ- 232) में लिखा है कि वर्तमान ईराक़ और तुर्की राज्य के कुछ क्षेत्रों से प्राप्त भग्नावशेष व पुरातन सभ्यताओं से हमें पता चलता है कि उनके भारत से व्यापारिक सम्बन्ध थे। ऋगवेद (1.25.4) में पक्षियों के उडने वाले आकाश मार्ग और समुद्री नौका मार्ग के उल्लेख हैं। जेमिनी ने होलिका पर्व का उल्लेख (400-200 ईसापूर्व) किया और लिखा कि होलिका सभी आर्यों का उत्सव है। आचार्य हेमाद्री ने (1260-70 ई.) पुराण के उदाहरण से होली की प्रधानता बतलाई है। हज़ारों वर्ष पुरानी होली की परम्परा इसी भरत की भूमि से उपजी। मिस्त्र-यूनान ने नक़ल की। भारतीय दर्शन, साहित्य, संस्कृति कला, गीत, संगीत तथा उत्सवों, पर्वों से सराबोर है। यहीं आनंद की ऊर्जा उफान मारती है। उसका मद रस झलकाता है। प्राणीमात्र में बहकर वो प्रकृति के उच्चतम उत्साह को पाता है और होली स्दृश्य बन जन जन में व्याप्त हो जाती है।
संवेदनशीलता प्रकृतिप्रदत्त है। चार्ल्स डारविन ने ' द ओरिजिनल आफ द स्पेसिस एंड द रिसेन्मेंट' में बताया है कि ' प्राणियों को भावोत्तेजना में आनंद आता है।' आनंद का केन्द्रबिन्दु मानव के भीतर है। इसके उपाय, साधन प्रकृति में हैं। धरती सगन्धा है, पवन गन्ध प्रसारित करती है। मनुष्य में मदन गन्ध है, पुष्पों में सुगन्ध है। सूर्य ऊर्जावान है, ऊषा में सौन्दर्य झलकता है। चंद्रमा शीतल है, सुन्दर है। पूर्णीमा धवल चान्दनी बिखेरती है। प्रकृति के सारे जीव सवेंदित होते हैं। यही होली है। होली में नृत्य है। मगन होने का बोध है। महाप्राण निराला तो मानों अपने शब्दों में प्रक़ृति के इस आनंद के साथ खेलते हैं कि- 'वर्ण गन्ध धर, मधुरन्द भर, तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर, खुली रूप-कलियों में पर भर, स्तर-स्तर सपुरिकरा, रंग गई पग-पग धन्य धरा।" निराला ही क्या तुलसी, कालीदास ने भी इस यौवनमयी प्रकृति को अंगीकार करते हुए शब्दचित्र खींचे हैं। तुलसी कहते हैं-" सीतल जागे मनोभव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही, सुगन्ध सुगन्द मारुत मदन अनल सखा सही। विकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकदा, कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपसरा।" कालीदास का कुमारसम्भव तो बसंत के रस-रंग में नहाया हुआ है-" पवन स्वभाव से ही आग भडकाऊ है, बसंत कामदेव के साथ आया है। उसने नई कोपलों के पंख लगाकर आम्र मंजरियों के वाण तैयार किये हैं। आम्र मंजिर खाने से ही नर कोकिल का सुर मीठा हुआ। उसकी कूक पर रूठी नारियां भी रूठना भूल जाती हैं।" यही होली है। रूठना, गिले-शिकवा, बैरभाव जहां प्रेम के रंगों में समाहित हो जायें और एक रंग बन जायें, होली मन जाती है। सांस्कृतिक राष्ट्रभाव की उल्लासधर्मिता या उसकी अभिव्यक्ति ही होली है। और जब इस पर बाज़ारवाद चढ जाता है तो यह पूरी की पूरी स्वच्छंदता पर, संस्कृति पर आक्रमण है। संस्कृति कभी उत्सवों की प्रेरक नहीं रही, किंतु ये बाज़ार अपने उत्सव गढता है। कभी फादर्स डे होता है तो कभी मदर्स। कभी वैलेनटाइन बिकता है तो कभी होली डे। मीडिया से लेकर पूरा बाज़ारतंत्र त्योहारों को बेचने लगता है। दुकानें खुल जाती हैं। उमंग की दुकाने, उत्साह की दुकानें। रंगों की दुकानें। प्रेम की दुकानें। और खरीददारों की भीड उमडती है। माल खरीदा जाता है। उपभोग किया जाता है। और जब उपभोग के बाद माल खत्म तो उत्साह खत्म, उमंग खत्म, प्रेम के गीत खत्म। नाच खत्म। थक हार कर बैठ जाना होता है। गाल पर लगे गुलाल पौछ दिये जाते हैं, रंग नहा धो कर निकाल दिये जाते हैं। फिर से तैयार होकर मनुष्य अपने बाज़ारीकरण में मशगूल हो जाता है। या मज़बूर हो जाता है। अब जब दुकानें सजेंगी तब खरीरदारी होगी। यह होली नहीं। होलिका है जो हमारे देश के पावन पर्वों को बाज़ार की आग में झौंकती है। प्रह्लाद बनिये और इससे बचिये। होली मनाइये। इसकी अल्हडता, प्रकृति की चरम बसंतोंपूर्ण मादकता का रसभोग लेने और इसके प्रेम, दुलारमयी भांग के नशे में 12 मास रहने के लिये बस प्यार करें। भारत की महान संस्कृति, सभ्यता का रसपान करें। होली खेलें। प्रेम, भक्ति, गीत, नृत्य, सेवा, समर्पण को पूजा मान गलमिलौवल करें।
ऐसी ही सार्थक, जीवंत होली दिवस पर मेरी आत्मीय शुभकामनाये आप सब स्वीकार करें।
ख़ास दिन …
5 दिन पहले