सोमवार, 31 अगस्त 2009

अगर तुम साथ दो



हौसला है मुझमें
पार कर लूंगा इस दर्द से
भरी बदरंगी नदी को,
उसकी आगत
उछाल मारती
लहरों पे नाचूंगा,
और इस चौडे दर्प से भरे
पर्वत को
चूर-चूर कर दूंगा
अपने कदमों तले,
अगर तुम साथ दो।

यूं तो क्षितिज कुछ होता नहीं
महज मरिचिका की तरह
प्रतीत होता है,
किंतु मैं
उस आकाश को
पकङ खींच लूंगा,
इस धरा पर ला पटकूंगा,
और यदि तुम
चाहो तो,
कदमों में तुम्हारे
उसे झुका दूंगा,
अगर तुम साथ दो।

जरूरी नहीं कि
प्रेम में करीब ही रहा जाए,
सांसो को आपस में
टकराया जाए,
अधरो की कंपन को
अधरों से मिटाया जाए,
मैं हवाओं के सहारे
आलिंगन कर लूंगा,
तुम्हें अपने अंतस में
बसा लूंगा,
अपनी गर्म सांसों को
सूरज की किरणों से मिला
तन तुम्हारा तर दूंगा
अगर तुम साथ दो।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

न जाने कब ?

सातिया मांड (बना)
पटा रख
उस पर आसन बिछा कर
बैठाती थी मां,
आरती उतार कर
तिलक लगा
ढेर सारे अशीर्वाद बुदबुदाती,
मुंह में मीठाई रख देती,
फिर चारों दिशा में
धोक (प्रणाम) दिला
पीठ पर हाथ धर
अपने भगवान से
मेरे लिये कितनी
दुआयें मांगती,
मुझे नही पता।
कहती
आज के दिन
कोई संकल्प लो
और अपनी कोई भी
बुरी आदत छोड दो।
उसके आशीर्वाद
लिये मैं
बढता रहा,
लडता रहा,
जीतता रहा।
मगर न कोई
संकल्प ले पाया
न बुरी आदतें छोड पाया।
अब
जब वर्षों से दूर हूं
हर बार 'आज' उनकी
ज्यादा याद आती है,
बहुत ज्यादा
बहुत ही ज्यादा
याद आती है।
यहां रहने की
कैसी मज़बूरी है,
और क्या ये जरूरी है?
पता नहीं।
सोचता हूं,
ज्यादा सोचता ही हूं कि
दौड कर चला जाऊं
उनके पास।
कम से कम 'आज़' के दिन।
फोन पर और उनके मन मे
हर-हमेश आशीर्वाद
रहते ही हैं,
पर आज़ का विशेष दिन है,
आज फिर वो मुझे अशीर्वाद देंगी
और संकल्प व बुरी आदत
छोडने को कहेगी,
मैं भी चाहता हूं
अब संकल्प ले ही लूं,
अपनी कोई बुरी आदत
छोड ही दूं,
उनके साथ रहने का संकल्प
और छोडने में
मुम्बई रहने की
बुरी आदत।
किंतु...
न जाने कब
मेरी ये मुराद
पूरी होगी?
न जाने कब?

( जब घडी में रात के 12 बजे थे यानी 19 अगस्त शुरू हो गया था कि फोन की रिंग चहक उठी। मेरी अज़ीज़... ममता की बधाई, फिर तुरंत सुशील छोक़्कर जी की शुभकामनायें...सुधीर महाजन का एसएमएस.....मेरे इस दिन को खुशनुमा कर गये। घर से माता-पिता-बहन-भाईयों के आशीर्वाद प्राप्त हुए जो मेरी शक़्ति हैं।
मेरी बिटिया अपनी मम्मी के साथ एक दिन पहले से इस दिन की तैयारी में लग जाती है। बिटिया के लिये तो मानों कोई उत्सव हो। मुझसे छुपाकर अपने हाथों से ग्रीटिंग बनाना, मेरी जरूरत के हिसाब से कोई गिफ्ट लाना, और सोकर उठूं इसके पहले मेरे कान में अपनी आवाज़ में रिकार्ड की हुई बधाई लगा देना....., फिर ग्रीटिंग ...फिर गिफ़्ट..फिर मीठाई....फिर...., सच तो यह है कि माता-पिता के आशीर्वाद ही इस रूप में फलते हैं। और जब कोई मुझसे पूछ्ता है कि जीवन में तुमने कमाया क्या? तो मैं अपने अज़ीज़, मित्रों के नाम ले लेता हूं, यही सब तो मेरी पूंजी है।)

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

कौन दे गया शाप

' स्वाईन फ्लु' तेज़ी से बढ्ने लगा है। मुम्बई के हालात कुछ ठीक नहीं कहे जा सकते। आप यदि अस्पताल की ओर देखें तो पायेंगे बदहवास लोगों की भीड और परेशान चेहरे हर कोने पर बिखरे पडे हैं। फ्लु की तादाद भले कम हो पर दहशत हरकिसी के सिर पर सवार है। क्या बाज़ार,क्या दफ्तर,क्या सडके और क्या घर...हर जगह स्वाईन के नाम का डर। सच और अफसोस यह भी है कि रोज़ इस बीमारी से कोई ना कोई मौत हो रही है। उफ्फ..

" न बाढ
न चिलचिलाती धूप
न कोई आकाल
न कोई भूचाल।
न खबर
न आतंक
और न ही कोई आहट,
बस, चुपचाप-दबे पांव
धडाम से फट पडा
खौफ का बादल,
टूट पडा
कोने-कोने पसर गया।
हाय,
शहर मेरा फिर डर गया।
शरारत
अणु से शैतान की,
जो फैला गया
शंका, शक़ और शोक।
वो प्रेम मिलन
होठों का चुम्बन
गलबहियां
सब शूल बन गई,
चुभने लगीं।
दूर होने लगे
लोग आपस में
शनै-शनै,
बहने लगी
बदहवासी।
हाय,
शहर में मेरे बसने लगी खामोशी।
हां,
नथूनों से होकर
गले में घुस
सीधे मस्तिष्क पर
करता वार।
लाचार, बीमार
बिलखता परिवार
परेशां सरकार
करती उपचार।
फिर भी
बढता जाता है ताप,
भोग रहे बच्चे, बूढे और जवान
न जाने किसका पाप?
हाय,
शहर को मेरे कौन दे गया शाप।"

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

हाज़िर हूँ जनाब

मित्रवर की आवाज़ हो और हम ना आयें ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे यकीन मानिये इन दिनो मैं इस हाल में नही हूं कि कुछ स्वस्थ लेखन हो सके, पिछले दिनो ऐसी व्यस्तता रही कि लिखने का समय नही मिला, समय मिलता कि वायरल फीवर ने जकड लिया { शुक्र है कि स्वाईन फ्लु ने नही जकडा} पिछली लगातार भागादौडी की थकान और फीवर की वजह से आई कमजोरी ने लगभग शरीर को तोड कर रख दिया। रोज़ सोचता रहा कि कुछ लिखूं, पढता तो रहा मगर लिखने का कीडा बस कुलबुलाता ही रहा. अभी जब अपने मित्र (दर्पणजी) का बुलावा देखा तो खुद को रोक नही सका। सच कहूं तो इस ब्लोगिंग ने मुझे तर दिया है. कुछ ऐसे मित्र मुझे मिल गये जिनकी कल्पना ही मैं कभी किया करता था. ईश्वर की किरपा।
बीमार मन आखिर क्या लिख सकता है? किंतु हां, इस अवस्था का भी अपना अनुभव होता है और जो सबसे अलग होता है। मुझे लगता है ये अवस्था खुद को देखने के लिये सबसे बेहतर अवस्था है। हम कम से कम ये तो जान लेते हैं कि हमारा 'शरीर' भी है। अन्यथा इतने व्यस्त जीवन मे इस शरीर का भान रह ही कहां पाता है? वैसे शरीर है तो रोग भी हैं। पर ईश्वर से यही दुआ करता हूं कि किसी को भी रोगी न होने दे। आदमी की सारी रचनात्मकता रोग की वजह से रुक जाती है। कैसा भी रोग हो, आदमी तो भुगतता ही है साथ ही साथ उससे जुडे लोगों को भी वो परेशान कर देता है। मुझ जैसा व्यक्ति कुछ ज्यादा सोचता है,पर यह भी उतना ही सच है कि बीमारी में आदमी जीवन के कुछ ज्यादा करीब चला जाता है। तब उसे नज़र आता है अपने आसपास का माहौल। कभी कभी वो स्वयं को बहुत बौना समझने लगता है और दुनिया उसे बहुत बडी दिखाई देने लगती है। उसे लगता है..जिस दुनिया को उसने अपने तलवो के नीचे दबाये रखने का घमन्ड पाला हुआ था ऐसा यथार्थ में है नही। सारे लोग उसे अपने से लम्बे..आदमकद जान पडते है। आकाश ऐसा प्रतीत होता है मानो उसे बस निगलने ही वाला है। धरती पर पैर रखने मे घबराने लगता है। वो खुद एक बौना, असहाय सा जान पडता है। यानी बीमारी में आदमी अपनी अस्लियत को बहुत करीब से देखता है। मैं तो सम्भल जाता हूं..इसलिये कि कुछ याद आ जाता है जो दिल को तसल्ली दे जाता है, अब देखिये न, जौक़ साहेब ने शायद मुझ जैसों के लिये ही तो यह लिखा होगा कि-
'देख छोटों को है अल्लाह बडाई देता
आस्मां, आंख के तिल में है दिखाई देता'

खैर.. ठीक हो रहा हूं, जल्दी ही अपने छूटे हुए खास ब्लोग्स पर भ्रमण करुंगा। इन दिनो मगर मज़ा भी रहा, अपनी कुछ यादों में सफर कर आया, तो बहुत कुछ आत्मिक अनुभव भी प्राप्त किये। ये समय खुद के लिये बना होता है शायद, खुद को पहचानने के लिये। जब आप अपने कामकाज से दूर, बस अपने बारे में सोचते होते हैं। लगता तो ये है कि डोक्टर कहता भी इसीलिये है कि- कम्प्लीट्ली रेस्ट लो। जो भी हो, इस अज़ीब से रेस्ट' का मज़ा भी है। हालांकि ये मेरे मानने से थोडा परे हट कर है ,मेरा मानना है कि व्यस्त रहना ज्यादा सुखकर है। आप अकेले पडे नहीं कि तमाम तरहो की बातों मे दिमाग उलझने लगता है। व्यस्तता बान्ध कर रखती है, अच्छी नींद देती है और आपको अपने उद्देश्य की और हमेशा अग्रसर रखती है। पर बीमारी में? उफ्फ, इंसान की फितरत भी क्या चीज़ बना दी। खैर.. वो शायर 'मुश्फिक' का शे'र है न कि-
' इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है'

जनाब मुश्फिक़ से शायद आपका परिचय नहीं होगा, इनके बारे में कभी लिखुंगा जरूर, कमाल के शायर थे, फिलहाल इस अनमने लेखन को झेलिये, दरपणजी का बुलावा मैं टाल नहीं सकता था इस्लिये जो मन में आया वो लिख दिया। उन्हीं को समर्पित-

"लो सूरज भी डूब गया
बेचारा दिन ऊब गया
मटमैली सी ये
शाम का पल्लू झट उलट गया।
'साथी' की मुस्कुराहट लिये
लो खिल आई चांदनी
रात की गोद मे बैठ
'उसके' लिये मैं कुछ लिख गया।