मित्रवर की आवाज़ हो और हम ना आयें ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे यकीन मानिये इन दिनो मैं इस हाल में नही हूं कि कुछ स्वस्थ लेखन हो सके, पिछले दिनो ऐसी व्यस्तता रही कि लिखने का समय नही मिला, समय मिलता कि वायरल फीवर ने जकड लिया { शुक्र है कि स्वाईन फ्लु ने नही जकडा} पिछली लगातार भागादौडी की थकान और फीवर की वजह से आई कमजोरी ने लगभग शरीर को तोड कर रख दिया। रोज़ सोचता रहा कि कुछ लिखूं, पढता तो रहा मगर लिखने का कीडा बस कुलबुलाता ही रहा. अभी जब अपने मित्र (दर्पणजी) का बुलावा देखा तो खुद को रोक नही सका। सच कहूं तो इस ब्लोगिंग ने मुझे तर दिया है. कुछ ऐसे मित्र मुझे मिल गये जिनकी कल्पना ही मैं कभी किया करता था. ईश्वर की किरपा।
बीमार मन आखिर क्या लिख सकता है? किंतु हां, इस अवस्था का भी अपना अनुभव होता है और जो सबसे अलग होता है। मुझे लगता है ये अवस्था खुद को देखने के लिये सबसे बेहतर अवस्था है। हम कम से कम ये तो जान लेते हैं कि हमारा 'शरीर' भी है। अन्यथा इतने व्यस्त जीवन मे इस शरीर का भान रह ही कहां पाता है? वैसे शरीर है तो रोग भी हैं। पर ईश्वर से यही दुआ करता हूं कि किसी को भी रोगी न होने दे। आदमी की सारी रचनात्मकता रोग की वजह से रुक जाती है। कैसा भी रोग हो, आदमी तो भुगतता ही है साथ ही साथ उससे जुडे लोगों को भी वो परेशान कर देता है। मुझ जैसा व्यक्ति कुछ ज्यादा सोचता है,पर यह भी उतना ही सच है कि बीमारी में आदमी जीवन के कुछ ज्यादा करीब चला जाता है। तब उसे नज़र आता है अपने आसपास का माहौल। कभी कभी वो स्वयं को बहुत बौना समझने लगता है और दुनिया उसे बहुत बडी दिखाई देने लगती है। उसे लगता है..जिस दुनिया को उसने अपने तलवो के नीचे दबाये रखने का घमन्ड पाला हुआ था ऐसा यथार्थ में है नही। सारे लोग उसे अपने से लम्बे..आदमकद जान पडते है। आकाश ऐसा प्रतीत होता है मानो उसे बस निगलने ही वाला है। धरती पर पैर रखने मे घबराने लगता है। वो खुद एक बौना, असहाय सा जान पडता है। यानी बीमारी में आदमी अपनी अस्लियत को बहुत करीब से देखता है। मैं तो सम्भल जाता हूं..इसलिये कि कुछ याद आ जाता है जो दिल को तसल्ली दे जाता है, अब देखिये न, जौक़ साहेब ने शायद मुझ जैसों के लिये ही तो यह लिखा होगा कि-
'देख छोटों को है अल्लाह बडाई देता
आस्मां, आंख के तिल में है दिखाई देता'खैर.. ठीक हो रहा हूं, जल्दी ही अपने छूटे हुए खास ब्लोग्स पर भ्रमण करुंगा। इन दिनो मगर मज़ा भी रहा, अपनी कुछ यादों में सफर कर आया, तो बहुत कुछ आत्मिक अनुभव भी प्राप्त किये। ये समय खुद के लिये बना होता है शायद, खुद को पहचानने के लिये। जब आप अपने कामकाज से दूर, बस अपने बारे में सोचते होते हैं। लगता तो ये है कि डोक्टर कहता भी इसीलिये है कि- कम्प्लीट्ली रेस्ट लो। जो भी हो, इस अज़ीब से रेस्ट' का मज़ा भी है। हालांकि ये मेरे मानने से थोडा परे हट कर है ,मेरा मानना है कि व्यस्त रहना ज्यादा सुखकर है। आप अकेले पडे नहीं कि तमाम तरहो की बातों मे दिमाग उलझने लगता है। व्यस्तता बान्ध कर रखती है, अच्छी नींद देती है और आपको अपने उद्देश्य की और हमेशा अग्रसर रखती है। पर बीमारी में? उफ्फ, इंसान की फितरत भी क्या चीज़ बना दी। खैर.. वो शायर 'मुश्फिक' का शे'र है न कि-
' इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है'जनाब मुश्फिक़ से शायद आपका परिचय नहीं होगा, इनके बारे में कभी लिखुंगा जरूर, कमाल के शायर थे, फिलहाल इस अनमने लेखन को झेलिये, दरपणजी का बुलावा मैं टाल नहीं सकता था इस्लिये जो मन में आया वो लिख दिया। उन्हीं को समर्पित-
"लो सूरज भी डूब गया
बेचारा दिन ऊब गया
मटमैली सी ये
शाम का पल्लू झट उलट गया।
'साथी' की मुस्कुराहट लिये
लो खिल आई चांदनी
रात की गोद मे बैठ
'उसके' लिये मैं कुछ लिख गया।