आँगन से लेकर
बरामदे तक
बिछी नाकामयाबियों की चादर पर
बैठ कर उम्मीदों के
सहारे अब रहा नहीं जाता।
बहुत कुछ बनाने के फेरे में
बहुत कुछ छूट गया।
छूट गए साथी , संगी , प्रेमी
जो चिपक गया है
वह बदकिस्मती और असफलताओं के तमगे है।
अब न प्रयास है , न कोई रोशनी की किरण
अब सिर्फ अन्धेरा है।
किसी की बैसाखी पर आश्रित
चलने और कभी चले जाने का ही एक मात्र शेष है रास्ता।
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उससे क्या कहूं ?
किसीसे से क्या कहूं ?
झूठ कि सब ठीक है ?
सच कि कुछ भी नहीं है ?
कहने -सुनने का वक्त भी किसके पास ?
और अगर कह -सुन भी लिया तो क्या ?
जीने और इच्छाओं की पूर्ति
फटी जेब में टिकती नहीं है।
इसलिए मौन अच्छा।
मेरे लिए भी
उसके लिए भी।