उस घर से
कोई पांच घर छोड़
एक गली थी ,
गली के बाद
दो घर छोड़ उसका घर।
घरों की इस कतार को
गली विभाजित करती थी।
मगर निगाहें विभाजन की इस रेखा से पार
दोनों घरो की चौखट पर बिछी होती थी।
इधर से भी-
उधर से भी।
दरवाजे खुलने का
बेसब्र इन्तजार
मुस्कुराते चहरे के रूप में
अक्सर प्रतिफल देता था।
कितने ही सपनो से
लिपे जाते रहे थे आँगन और
बनाई जाती रही थी
प्रेम रंगोलियां।
अब कोई नहीं है ,
न वो , न मैं।
सूने पड़े हैं आँगन ,
घर, दरवाजे।
किन्तु
घरों की कतार के बीच खींची गली
आज भी है वहां
और उनके -मेरे जीवन में भी।