यही तो समय था। क्या करूं, क्या न करूं की दुविधा में शरीर छ्टपटा रहा था, आंखों में क्रोध के साथ आंसू भी गरम हो रहे थे, दिल में तूफान और कुछ कर गुजरने की लपलपाती इच्छा थी। एक दशक हो गया। यही समय था जब अखबार में कारगिल (भारत-पाकिस्तान) युद्ध पर समर्पित पूरा एक पेज़ छोड दिया गया था, जिसमें शहीदों के नाम और जवानों की हौसला अफज़ाई करती पाठकों की रचनायें आमंत्रित थी। मेरी ही देख रेख में यह पेज़ लगाया जाता था और रोज़ सैकडों चिटिठ्यां आती, मैं ईमानदारी से पढता और पेज़ पर उन्हें जगह देता। मेरे साथ मज़बूरी यह थी कि पेज़ छोटा पडता था और चाहता था तमाम चिटिठयों को स्थान दूं। मुझे लगता सारा देश एक हो चला है। यह लगना सच भी था। मेरा खून खौलता था और आंखे नम होकर शहीदों के प्रति अपनी मौन श्रद्धांजलि अर्पित करती जाती। किंतु यह कार्य मेरे कुछ कर गुजरने की इच्छा को पूर्ण नही कर पा रहा था। वैसे मैं सिवाये जवानों के प्रति अपनी श्रद्धा और संवेदनायें व्यक्त करने के अलावा और कर भी क्या सकता था? चाह अवैधानिक थी कि सीमा पर जाकर ज़ंग में शरीक हो जाऊं। छ्टपटाहट बढ रही थी। दिन को चैन नहीं, रात को नींद नहीं। दिमाग में 24 घंटे अपने देश के सैनिकों की ज़ंग घूमती। चैनलों पर देख कर सिहर उठता तो खबरों मे पढ कर लगता कि एक झटके में पूरा पाकिस्तान खत्म कर दूं। और जब अखबार में काम करता तो ऐसी खबरों को लिखना, पढना साथ ही रोज़ ही आ रही चिट्ठी रूपी भावनाओं को सहेज कर उन्हें छापना मुझे सिर से लेकर पैरों तक सरसरा दिया करती। इन्हीं दिनों में निर्देशक देवेन्द्र खंडेलवाल ने दूरदर्शन के लिये मेरे सामने एक धारावाहिक का प्रस्ताव रखा। (मैं बता दूं कि धारावाहिक व व्रत्तचित्र लेखन कार्य भी मैं करता रहा हूं) तय हुआ कि 'वीरो तुम्हे सलाम' शीर्षकाधीन एक डाक्युमेंट्री बनाई जाये। रूपरेखा बनी। दूरदर्शन ने पास भी कर दिया। और अब हमें फिल्म बनाकर प्रस्तुत करनी थी।
महाराष्ट्र और इसके आसपास शहीदों के परिवार, उनका परिवेश, गांव आदि का सम्पूर्ण ब्यौरा कैमरा टीम अपने कैमरे में कैद करती, साक्षात्कार लेती और मैं उन्हे देख कर, पढ कर कमेंट्री लिखता। उफ्फ, बहुत कठिन और असहनीय कार्य था। इसके पहले कई व्रतचित्र लिखे, कई कहानियां लिखीं कभी इतना कठिन नहीं लगा। मैरे शब्द गुम हो जाते, मेरा हाथ ठिठक कर रुक जाता। किंतु मैं किससे कहूं? एक अति सम्वेदनशील और अति भावुक व्यक्ति तमाम द्र्श्य और कल्पनायें कर सिवाये कन्धे झुका, सिर और गर्दन को अपने घुटनों में फंसा कर उकडू बैठ रो लेता। दीवारों पर घूंसे बरसा देता। चट्टानों पर जोर से पैर पटकता। सरकार की निर्वीयता पर झीकता। वैसे आज भी हालात जस के तस हैं। क्या बदलाव आया? कौनसी अत्याधुनिक सुविधाओं से हमारे वीर सैनिक लैस हो गये हैं? राजनीति ने कौनसा तीर मार लिया है? कौनसी प्रशासनिक श्रद्धाजंलि स्वर्ग में बैठे शहीदों के गले उतरती है? चारों तरफ ढ्कोसले ही ढकोसले, मुर्दुस चेहरों से लिपी-पुती बयान बयार ही तो बह रही है। विजय दिवस के नाम पर नेतागण औपचारिकतायें ही तो पूरी करते है। ओह, सत्य कैसे लिखुं? फिर आंखे नम होती जाती है। और अफसोस अटटाहास करते हुए दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर चढ विराज जाता है। हम उन शहीदों के प्रति कभी ईमानदार हो सकते हैं? हम उनके बलिदान को सही अर्थों में कभी साकार कर सकते हैं? फिलवक्त ऐसा होना दूर की कौढी नज़र आता है। खैर।
मुझे लिखना ही था। कभी फूट-फूट कर रो लेता तो कभी आंसू आंखों में कैद कर चुपचाप शब्दों को आकार देता। शब्द भी पूर्ण सत्य कैसे हो सकते थे? क्या मैं किसी शहीद के आंगन में बिखरी गर्वीली विरानी को लिख सकता हूं? क्या उस मां के दर्द को हूबहू उकेर सकता हूं, जिसकी गोद में कभी वो जवान किलकारियां मार हंसता था? क्या उस पिता के गर्वीले चेहरे के पीछे छुपी पीडा को लिख सकता था, जिसके कन्धों पर चढ कर ही शायद उसने बर्फीली पहाडियों को फान्दना सीखा था? जिसकी उंगली पकड कर गांव की गली नुक्कड पर मदमस्त हो वो नाचता फिरता था? क्या घर के उन कोनों में छिपी पीडादाई कमी को सचित्र कर सकता था जहां कभी उसके कदमों की आहट और उसके होने के भाव बिखरे पडे थे? क्या उस बहन की वेदना लिपिबद्ध कर सकता था जो बाज़ार में सज़ी राखी की दुकानों पर बहनों की भीड तो देखती है पर खुद राखी नही खरीद पाती? क्या मैं उस औरत के घूंघट के अन्दर आंसुओं से भीगा चेहरा लिख सकता हूं जिसे अभी कल ही तो वो कह कर गया था तेरे इस जन्मदिन पर साडी जरूर लाकर दूंगा? क्या आंगन में खेल रहे उस छोटे बच्चे की अनभिज्ञता को लिख सकता हूं जिसकी किलकारी से अब घर खुश नही बल्कि दुखी होता है कि काश वो इसे देख पाता? नहीं मैं कुछ भी लिख नही सकता था। मेरी हालत तो उस पिता के समान थी जिसके चेहरे पर देशाभिमान और बेटे के खोने का गर्व तो था किंतु अन्दर ही अन्दर उसकी कमी का जो ज़ख्म था, जो दर्द था वो चाह कर भी उसे ना तो व्यक्त कर पाता ना ही जी खोल कर रो पाता। क्या मैं इस अनुभव को इस आंतरिक पीडा को शब्दाकार दे सकता था? हाँ, लिख लेता यदि मैं इस परिवेश की सिर्फ कल्पना करता। अपनी नंगी आंखों से मैने सच देखा है। बहुत करीब से दर्द का अनुभव किया है। और जब बाहर की दुनिया में पैर रखा तो सिर्फ यही पाया कि इस जंग के बाद, शहीद हो जाने के बाद हाथ आता क्या है? सिर्फ यह जो मैने देखा? सोचता हूं आखिर जंग किसलिये? क्या दिल्ली के तख्तोताज़ पर बैठे लोगो के भाषणों के लिये? खैर। डाक्युमेंट्री बनी, डीडी वन पर प्रसारित भी हुई। मगर उसमे आने वाले मेरे नाम ने मुझे सुख नही दिया। जैसा किसी अन्य शार्ट फिल्मों या धारावाहिक में आया देख में खुश हो जाया करता था। कुछ कर गुजरने की मेरी लपलपाती इच्छा को विराम आज तक नहीं मिला है।
ज़ौक साहब का शे'र आज़ भी उसी हालात को बयां करता है जो उन दिनो थे-
" रात ज़ूं शमअ कटी हमको जो रोते रोते
बह गये अश्को में हम सुबह होते होते"
मेरा सैल्यूट अपने देश के सैनिकों को। मेरे आंसू किसी कायरता के प्रतीक कभी नही रहे, बल्कि वो तो सिर्फ इसलिये बहते रहे कि उन सैनिकों के सामने मैं नही आ सका जिनके सीने मे गोलियां धंस गई। कारगिल की कसक आज भी है। आज हालात दूसरे रूप में सामने हैं। शहीद होने का क्रम भी बना हुआ है। और दिल्ली में ???????
प्रेम का होना ...
2 दिन पहले