सोमवार, 27 जुलाई 2009

कारगिल की कसक

यही तो समय था। क्या करूं, क्या न करूं की दुविधा में शरीर छ्टपटा रहा था, आंखों में क्रोध के साथ आंसू भी गरम हो रहे थे, दिल में तूफान और कुछ कर गुजरने की लपलपाती इच्छा थी। एक दशक हो गया। यही समय था जब अखबार में कारगिल (भारत-पाकिस्तान) युद्ध पर समर्पित पूरा एक पेज़ छोड दिया गया था, जिसमें शहीदों के नाम और जवानों की हौसला अफज़ाई करती पाठकों की रचनायें आमंत्रित थी। मेरी ही देख रेख में यह पेज़ लगाया जाता था और रोज़ सैकडों चिटिठ्यां आती, मैं ईमानदारी से पढता और पेज़ पर उन्हें जगह देता। मेरे साथ मज़बूरी यह थी कि पेज़ छोटा पडता था और चाहता था तमाम चिटिठयों को स्थान दूं। मुझे लगता सारा देश एक हो चला है। यह लगना सच भी था। मेरा खून खौलता था और आंखे नम होकर शहीदों के प्रति अपनी मौन श्रद्धांजलि अर्पित करती जाती। किंतु यह कार्य मेरे कुछ कर गुजरने की इच्छा को पूर्ण नही कर पा रहा था। वैसे मैं सिवाये जवानों के प्रति अपनी श्रद्धा और संवेदनायें व्यक्त करने के अलावा और कर भी क्या सकता था? चाह अवैधानिक थी कि सीमा पर जाकर ज़ंग में शरीक हो जाऊं। छ्टपटाहट बढ रही थी। दिन को चैन नहीं, रात को नींद नहीं। दिमाग में 24 घंटे अपने देश के सैनिकों की ज़ंग घूमती। चैनलों पर देख कर सिहर उठता तो खबरों मे पढ कर लगता कि एक झटके में पूरा पाकिस्तान खत्म कर दूं। और जब अखबार में काम करता तो ऐसी खबरों को लिखना, पढना साथ ही रोज़ ही आ रही चिट्ठी रूपी भावनाओं को सहेज कर उन्हें छापना मुझे सिर से लेकर पैरों तक सरसरा दिया करती। इन्हीं दिनों में निर्देशक देवेन्द्र खंडेलवाल ने दूरदर्शन के लिये मेरे सामने एक धारावाहिक का प्रस्ताव रखा। (मैं बता दूं कि धारावाहिक व व्रत्तचित्र लेखन कार्य भी मैं करता रहा हूं) तय हुआ कि 'वीरो तुम्हे सलाम' शीर्षकाधीन एक डाक्युमेंट्री बनाई जाये। रूपरेखा बनी। दूरदर्शन ने पास भी कर दिया। और अब हमें फिल्म बनाकर प्रस्तुत करनी थी।
महाराष्ट्र और इसके आसपास शहीदों के परिवार, उनका परिवेश, गांव आदि का सम्पूर्ण ब्यौरा कैमरा टीम अपने कैमरे में कैद करती, साक्षात्कार लेती और मैं उन्हे देख कर, पढ कर कमेंट्री लिखता। उफ्फ, बहुत कठिन और असहनीय कार्य था। इसके पहले कई व्रतचित्र लिखे, कई कहानियां लिखीं कभी इतना कठिन नहीं लगा। मैरे शब्द गुम हो जाते, मेरा हाथ ठिठक कर रुक जाता। किंतु मैं किससे कहूं? एक अति सम्वेदनशील और अति भावुक व्यक्ति तमाम द्र्श्य और कल्पनायें कर सिवाये कन्धे झुका, सिर और गर्दन को अपने घुटनों में फंसा कर उकडू बैठ रो लेता। दीवारों पर घूंसे बरसा देता। चट्टानों पर जोर से पैर पटकता। सरकार की निर्वीयता पर झीकता। वैसे आज भी हालात जस के तस हैं। क्या बदलाव आया? कौनसी अत्याधुनिक सुविधाओं से हमारे वीर सैनिक लैस हो गये हैं? राजनीति ने कौनसा तीर मार लिया है? कौनसी प्रशासनिक श्रद्धाजंलि स्वर्ग में बैठे शहीदों के गले उतरती है? चारों तरफ ढ्कोसले ही ढकोसले, मुर्दुस चेहरों से लिपी-पुती बयान बयार ही तो बह रही है। विजय दिवस के नाम पर नेतागण औपचारिकतायें ही तो पूरी करते है। ओह, सत्य कैसे लिखुं? फिर आंखे नम होती जाती है। और अफसोस अटटाहास करते हुए दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर चढ विराज जाता है। हम उन शहीदों के प्रति कभी ईमानदार हो सकते हैं? हम उनके बलिदान को सही अर्थों में कभी साकार कर सकते हैं? फिलवक्त ऐसा होना दूर की कौढी नज़र आता है। खैर।
मुझे लिखना ही था। कभी फूट-फूट कर रो लेता तो कभी आंसू आंखों में कैद कर चुपचाप शब्दों को आकार देता। शब्द भी पूर्ण सत्य कैसे हो सकते थे? क्या मैं किसी शहीद के आंगन में बिखरी गर्वीली विरानी को लिख सकता हूं? क्या उस मां के दर्द को हूबहू उकेर सकता हूं, जिसकी गोद में कभी वो जवान किलकारियां मार हंसता था? क्या उस पिता के गर्वीले चेहरे के पीछे छुपी पीडा को लिख सकता था, जिसके कन्धों पर चढ कर ही शायद उसने बर्फीली पहाडियों को फान्दना सीखा था? जिसकी उंगली पकड कर गांव की गली नुक्कड पर मदमस्त हो वो नाचता फिरता था? क्या घर के उन कोनों में छिपी पीडादाई कमी को सचित्र कर सकता था जहां कभी उसके कदमों की आहट और उसके होने के भाव बिखरे पडे थे? क्या उस बहन की वेदना लिपिबद्ध कर सकता था जो बाज़ार में सज़ी राखी की दुकानों पर बहनों की भीड तो देखती है पर खुद राखी नही खरीद पाती? क्या मैं उस औरत के घूंघट के अन्दर आंसुओं से भीगा चेहरा लिख सकता हूं जिसे अभी कल ही तो वो कह कर गया था तेरे इस जन्मदिन पर साडी जरूर लाकर दूंगा? क्या आंगन में खेल रहे उस छोटे बच्चे की अनभिज्ञता को लिख सकता हूं जिसकी किलकारी से अब घर खुश नही बल्कि दुखी होता है कि काश वो इसे देख पाता? नहीं मैं कुछ भी लिख नही सकता था। मेरी हालत तो उस पिता के समान थी जिसके चेहरे पर देशाभिमान और बेटे के खोने का गर्व तो था किंतु अन्दर ही अन्दर उसकी कमी का जो ज़ख्म था, जो दर्द था वो चाह कर भी उसे ना तो व्यक्त कर पाता ना ही जी खोल कर रो पाता। क्या मैं इस अनुभव को इस आंतरिक पीडा को शब्दाकार दे सकता था? हाँ, लिख लेता यदि मैं इस परिवेश की सिर्फ कल्पना करता। अपनी नंगी आंखों से मैने सच देखा है। बहुत करीब से दर्द का अनुभव किया है। और जब बाहर की दुनिया में पैर रखा तो सिर्फ यही पाया कि इस जंग के बाद, शहीद हो जाने के बाद हाथ आता क्या है? सिर्फ यह जो मैने देखा? सोचता हूं आखिर जंग किसलिये? क्या दिल्ली के तख्तोताज़ पर बैठे लोगो के भाषणों के लिये? खैर। डाक्युमेंट्री बनी, डीडी वन पर प्रसारित भी हुई। मगर उसमे आने वाले मेरे नाम ने मुझे सुख नही दिया। जैसा किसी अन्य शार्ट फिल्मों या धारावाहिक में आया देख में खुश हो जाया करता था। कुछ कर गुजरने की मेरी लपलपाती इच्छा को विराम आज तक नहीं मिला है।
ज़ौक साहब का शे'र आज़ भी उसी हालात को बयां करता है जो उन दिनो थे-
" रात ज़ूं शमअ कटी हमको जो रोते रोते
बह गये अश्को में हम सुबह होते होते"

मेरा सैल्यूट अपने देश के सैनिकों को। मेरे आंसू किसी कायरता के प्रतीक कभी नही रहे, बल्कि वो तो सिर्फ इसलिये बहते रहे कि उन सैनिकों के सामने मैं नही आ सका जिनके सीने मे गोलियां धंस गई। कारगिल की कसक आज भी है। आज हालात दूसरे रूप में सामने हैं। शहीद होने का क्रम भी बना हुआ है। और दिल्ली में ???????

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

उधडन

सुना था,
कोई कमीज़ थी एक
शानदार कलप लगी
इस्त्री से सज्ज
दमकती हुई।
समय के कांटे में
उलझ वो
कहीं से उधडी तो
धीरे-धीरे उधड्ती चली गई।
उसकी बाहें अलग-अलग हो
कहीं बह गई,
जेब कहीं जाकर जम गई,
कालर डालर की
आड में खडी हो गई,
बटनें टूट कर
छिटक गई,
पिछ्ला सपाट हिस्सा
पीठ दिखा दूर हो गया,
अग्र भाग के दो हिस्से
वैसे भी बटनों से
एक होते थे किंतु अब
वे सिर्फ फड्फडाते
मिलने की आस में
बस कभी-कभी टकरा जाते हैं
फूट-फूट रोते हैं।
मैं सोचता हूं
सब को एकत्र कर
तुरपई कर दूं,
उसे फिर कमीज़ का
आकार दे दूं।
किंतु
न तो मेरे पास
मज़बूत धागा है
न वो सुई
जिसकी चुभन को
सहते हुए भी
एक होने का भाव
इस कमीज़ को कभी
गर्व महसूस कराता था।
अब तो यह
उधड गई है,
बिखर गई है,
बदली हवा के झौकों में
बह कर उसके भाग
इतनी दूर हो गये हैं
कि ढूंढना मुश्किल,
एक करना मुश्किल।
और
मज़ा देखो कि
बिखरे, उधडे,
फटे,चिथडे होने के बावज़ूद
जिस पर अब वो
'टुकडे' गर्व करते हैं
21 वीं सदी ने उसे
एक ब्रांड नाम भी दे दिया-
"न्यूक्लियर फैमेली"

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

तर-ब-तर मुम्बई, दर-ब-दर मन

लो मुम्बई में भी बारिश हो गई। जम के हुई। पानी-पानी हो गया। वैसे यह सच है कि मुम्बई का मानसून किसी भी हिस्से से अनोखा होता है। यहां मानसून का अलग ही मज़ा है। अब यह भी अलग बात है कि कितने लोग इसका मज़ा लेते है? क्योंकि मुम्बई मे मज़ा कम सज़ा ज्यादा है। बादलो से बरस रही बरखा रानी भी सज़ा बन बरसती है। सज़ा कैसी? सुबह-शाम दफ्तर जाने-आने वालों से पूछिये। सडकों पर चलने वालों से पूछिये। झोपडी-चालों में रहनेवालों से पूछिये। वाहन सवारों से लेकर वाहन मालिकों तक सबके चेहरे पर बारिश की सज़ा का भीगा-भीगा रिसाव ब-आसान देखा जा सकता है। प्रशासन चौकस, व्यवस्था मुस्तैद किंतु फिर भी समस्यायें सुरसा के मुहं की तरह मुम्बई के जीवन को लीलना चाहती हैं। हर कोई परेशानियो में भीगा-भीगा सा। बावज़ूद मुस्कान लिये। यह सब तो मुम्बई के लोगों के लिये रोज़ का काम, आदत हो गई है, लिहाज़ा मुस्कान लिये वो परिस्थितियों से लडना जानते हैं। इस बात पर मुम्बईवासियों की जितनी तारीफ की जाये कम है। इस तारीफ को भी सरकार अपना श्रेय बना कर प्रचारित कर देती है, ये उसका साहस है और मुम्बईवालों का दुर्भाग्य। राजनीति इसीका नाम है। खैर..।
मुम्बई भीग उठी। सबसे पहला असर यातायात पर पडता है, सो लोकल ट्रेनें अनियमित, सड्कों पर ज़ाम, उपर से बरसात, नीचे भरे पानी से मुश्किलें आम। मैं भी अपने दफ़्तर, जो कि अपने घर से पौने दो घंटे की दूरी पर है, चार घंटों मे पहुंचा। तरबतर वातावरण में नौकरी पर जाना सिवाय मज़बूरी के और कुछ नही होता। वैसे भी इन नौकरियों मे अब इंसानियत खत्म हो चुकी है। कौन कैसे आ रहा है? कितनी मुसीबतों में? क्या-क्या जतन करके? किसे फिक्र? क्या करे बोस को काम निकलवाना है, 'उपर' उसे भी बताना है। सो कर्मचारियों कि ऐसे हालात मे पूछ कर लेना उनके लिये मुसीबत बन सकती है इसलिये कोई मानवता नहीं सिर्फ नौकरीयता। यानी आप चाहे इस बारिश मे मुश्किलों मे फंसे हों या दफ्तर नही पहुंच सकते, उन्हे इससे कोई मतलब नहीं। आपको आना है तो बस आना है। बेचारा कर्मचारी॥जाता है। अब प्रशासन चेताता है, एसएमएस करता है कि आवश्यकता हो तब ही घर से निकलें...। हास्यास्पद नही लगता ये? वैसे देखा जाये तो अब मुम्बई हास्यास्पद ही ज्यादा हो गई है। यही मज़ा है। इसे आप बारिश का मज़ा कह लीजिये या मौसम की मार का, जो भी हो मुम्बई मे मानसून का अपना ही मज़ा है। सागर किनारे उसकी उत्ताल लहरों से भीगना, गरमागरम भुट्टों पर नमक-नींबू लगवा कर खाना, कभी चाय की चुस्की तो कभी वडा पाव का मज़ा। कुछ आवारा हो जाने का मन करता है। कभी तो लगता है पानी भरी सडक पर दौड लगा दूं, जोर से चिल्लाते हुए भागूं। हो हो ..$$$$$,,,,,,। आते जाते लोगों को छेड्ते हुए निकल जाऊं..बस आज़ाद पंछी की तरह ..कोई तनाव ना हो, कोई काम ना हो...बस हो तो ये बरसता हुआ आसमान और मैं....। किंतु....मुश्किल है अब। खासतौर पर मेरे लिये, या मुझ जैसे इंसानों के लिये जिसे पद-प्रतिष्ठा के फेरे मे फंसे छटपटाते ही रहना है। आह, कैसी बनावटी जिन्दगी? खैर..। पर मन तो चौकडी भरता ही है। बारिश के साथ भीगता ही है। बंजर सी हो चली स्म्रतियों की ज़मीन को खाद पानी मिल ही जाता है। फिर कोपलें फूट पडती हैं, फिर एक एक कर यादें बाहर निकल आतीं हैं। तन-मन सब तर हो जाता है। ऐसे में शब्द किसी गीत की रचना करते हैं या कोई कविता की। कुछ इसी तरह के आलम में चंद पंक्तियां रचा गई।

" घुमड-घुमड के बादल आये
सावन बरसे, मन तरसाये।
दिल में छुपी बतिया को जगाये,
कैसे अब हम मन समझायें॥


घुमड-घुमड के .......

झूले पडे हैं डाली-डाली
रुत भी कितनी है मतवाली।
चारों ओर खिली हरियाली
फिर भी मन है खाली-खाली॥

घुमड-घुमड के..........

भीगी आंखे, भीगा तन है
लागी कैसी ये अगन है।
क्या कभी होगा मिलन है?
दूर बहुत मेरे सजन हैं॥

घुमड-घुमड के.......

तेरे लिये मैं रूप संवारूं
टक-टकी बांधे राह निहारूं।
ओ निर्मोही तूझे पुकारूं
मादक पल ये कैसे गुजारूं?

घुमड-घुमड के बादल आये
सावन बरसे, मन तरसाये॥

शनिवार, 11 जुलाई 2009

अफसोस

1-

वो
मेरी चिंता में
दुबली हो चली है।

किसी अज्ञात भय से
घिरी दिनरात वो
मेरे कुशल क्षेम के
लिये अपने भगवान से
मनौतियां मांगती रहती है।

और फोन पर
मेरे हाल चाल जान
उसका अपने भगवान पर
विश्वास और द्रढ हो जाता है।

वो कुछ और मनौतियां
व्रत जैसे उपक्रम कर
मेरी स्वस्थ कामना मे रत हो जाती है।

उसका
प्रतिदिन होता है
कुछ इसी तरह......

2-

मैं
अपनी चिंता में
बहुत कुछ भूल चला हूं।

पद प्रतिष्ठा के फेरे में
दिनरात उठापटक
इसका-उसका करता
रहता हूं।

अपने दमकते
आभामंडल को अपनी
जीत मान
इतराता फिरता हूं।

उसके फोन मेरे काम
मे अड्चन डालते हैं,
मै ठीक हूं इसका टेप लगा
व्यस्त हो जाता हूं।

मेरा
प्रतिदिन होता है
कुछ इसी तरह.....

3-

अफसोस
आखिर क्युं नही
समझ पाते
हम बेटे,
अपने पीछे की
उस अद्रष्य शक्ति को
जो उनकी तमाम हार को
जीत मे तब्दिल कर
उन्हें इतराने का
मौका देती रहती है.......

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

फिर मुस्कुराने के लिये

आज गुरुपूर्णिमा है, अपने शब्द सुमन गुरु के चरणों मे अर्पित करता हूं.
साथ ही आप सबके गुरुओं को मेरा स-आदर चरण् स्पर्श।

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" जिनके चरणों मे झुका ये शीश है
पिता ही मेरे गुरु, मेरे ईश हैं,
है ये सौभाग्य मेरा कि मेरे
कदम-कदम उनके आशीष हैं.. "
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अब मेरी एक रचना-

"मुस्कुराते हुए
चेहरों के
नेपथ्य में जो
'खेल' रहे दर्द हैं
उनसे मेरी प्रियता है,
मैं इनके साथ
विचरता हूं, झूमता हूं
गाता हूं, जीता हूं।

इनके मौन प्रदेश में
गज़ब की विरानी है
सन्नाटा है।

यहां
सांय-सांय चल रही
हवाओं में घुली
गमगीन मदहोशी है,
तो निछ्चल-पावन-निरापद
गंगा की तरह बह रही
अश्रु सरिता है
जिसमें डुबकी लगा
मैं तर जाता हूं।

इस स्थल की भूमि
कठोर नहीं, बेहद उपजाऊ है
नरम,मुलायम,संवेदनशील।

यहां विरह अग्नि के
तमतमाते सूर्य से
ऊष्मा ले खिलने वाले
पुष्पों पर बैठ रहे
आस व प्रतिक्षा के
भौरों की गुनगुनाहट
ह्रदय के स्पन्दन को
थामे रखती है।

मैं प्रतिदिन इन दर्दों को
संवारता हूं, सजाता हूं
और तैयार करता हूं
दुनियाई मंच पर
पेश करने के लिये
एक के बाद एक
नाटक के मंचन के लिये
फिर मुस्कुराने के लिये। "