शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

बिखर जाओगे

यदि पहुंचो वहां तो
बस छू भर लो
और लौट आओ,
ठहरो नहीं।
क्योंकि चोटियां
अक्सर सूनी होती है,
निर्जन और संकरी होती है।
शिखर पर बिखर जाओगे।

सुंदर,विचित्र,अद्भुत

जिनमें न नाक कटने की जलन है
और न ही रीढ़ झुका लेने का दर्द।
वैसे भी
गीली लकड़ियाँ कहाँ जल पाती है
फिर वो चाहे पानी से गीली हों या अश्रुओं से नम।

झुकना पड़ता है कुछ पाने को
सम्मान-पुरस्कार या ओहदा
ये कोई आसमान है जो
मस्तक ऊंचा कर ही छुआ जा सकता है?
वैसे भी वहां शून्य है।

तुम्हारी लौकिक बातें
संसार जीतने के षड्यंत्र या तुम्हारी भाषा में इसे कहूँ तो उपाय,तरीके, नुस्खे
कड़ी मेहनत, संघर्ष से प्राप्त करने जैसे प्रवचन
दरअसल मकड़ी के जाले भर हैं शिकार के लिए।
तुम सब मकड़ी हो।
सुंदर,विचित्र,अद्भुत।

मेरे चारो ओर

मेरे चारो ओर फैले हैं
सन्त, महात्मा, साधु
संन्यासी, बाबा, बुद्ध ,ज्ञानी,महाज्ञानी आदि इत्यादि।
जीने की सीख और ढेर सारी बौद्धिक बातों से भरे प्रवचनमुखी।
दिखावे में परमहंस की तरह 
किन्तु न सरल हैं और न ही सहज।
जिन्हें भी छूना चाहा वो कड़ा
जिसमें भी बहना चाहा वो सूखी नदी
जिसमें डूबना चाहा वो गहरे अँधेरे बिनपानी कुएं सा।
सब के सब स्टिरियोस्कोपी की तरह
थ्री डी भ्रम पैदा करने वाली फिल्में हैं
जिनका सत्य एक सख्त, सपाट और काली दीवार भर है।
जरा जरा सी बात पर उखड़ना
जरा जरा से सत्य पर बिखरना,
जरा जरा से लिखे पर प्रतिक्रिया
सब जरा जरा से किन्तु
स्वयं को सिद्ध पुरुष या
सबकुछ जान समझने वाले नेस्त्रादमस साबित करने व करते रहने की होड़ में लथपथ।
मुझे लगता है अब इस ठिकाने कोई बच्चा नहीं रहा
सब बड़े जन्म ले रहे हैं।
【जित देखा तित पाया जगत महाबड़ों】
5 nov 2019

न कभी होगा.

जबकि इस धरती पर
तमाम मुद्दे आदमी को
रुला-हंसा और जिला-मरा रहे हैं
आदमी इसी सबको अपना
जीवन मानकर धन्य धन्य हो रहा है
ठीक इसी वक्त
अंतरिक्ष में उसका भगवान
उल्कापिंड पर बैठा चक्कर मार रहा है।
वो घूर कर देख रहा है
मगर आदमियों को नहीं
पूरी धरती को
कि धरती उसका भोजन है..।
आदमी उसे 'गड़बड़ का भगवान' मान रहा है
आदमी उसे 'एपोफिस' बोल रहा है।
आदमी उसे 'दैत्य' कह रहा है।
पर वो नहीं जानता आदमी किस्म की किसी प्रजाति को
वो भगवान है जिसे धरती से मतलब है
और धरती इस अंनत ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा टुकड़ा भर
जिसके लिए मुंह भी नहीं फाड़ना पड़ता किसी दैत्य या भगवान को
बस एक फूंकभर धक्का देना होता है कि काम तमाम।
एक हम छोटे छोटे
दो हाथ पैरों के जीव
पता नहीं किसे पाने के लिए
किस पर जीत के लिए
किसे खाने या खत्म करने के लिए
आपस में लड़ते हैं-मरते हैं
इस धरती के उस टुकड़े के लिए
जो हमारा न कभी था, न कभी होगा..

(25 nov 2019)

हाशिए पर पटक जाएगा

दरअसल वो सुधरना और समझना चाहते थे
मगर उनके नाज़िमों ने उन्हें बहका दिया।
दरअसल वो सुधरना और समझना चाह रहे हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका रहे हैं।
दरअसल वे न सुधर सकते हैं ,न समझ सकते हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका चुके हैं।
दरअसल वो सब गुलाम और पत्थर हो चुके
उनके नाज़िम अब उनसे अपना काम ले रहे हैं।
सड़क पर बिखरे पड़े हैं पत्थरों के टुकड़े...
न वो पहाड़ बन सकते
न कोई शिल्प..!
सुबह कोई आएगा और झाड़ू से हाशिए पर पटक जाएगा।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/17 दिसम्बर19】

वही लौटेगा

हमारे हाथों में है
पत्थर और प्रेम
जो फेंक लो।
कहते हैं
जो फेंकोगे वही लौटेगा।
■ अकाट्य बिल

और ये अच्छा है।

मैं सड़कों पर रेंक रहे गदहों
चीख रहे मूर्खों
और उन्हें हांक रहे
लोगों के खुश और हंसते चेहरों में
पिशाचों की आकृतियां देख रहा हूँ।
मैं देख रहा हूँ उन दानवों को
जिन्होंने माया रची है।
इंसानों के भेष में देवताओं की भूमि पर
नँगा नाच मचा कर जो
तमाम स्थिरता और सौहार्दभरे आलम को
अस्त व्यस्त कर देना चाहते हैं।
मैं देख रहा हूँ
उस विपक्ष को जिसे शान्ति की अपील करनी चाहिए
वो इस आग में अपने बुद्धिजीवियों संग
घी बनाने में जुटा है।
मैं जो देख रहा हूँ वो मुझ जैसे करोड़ों लोग देख -समझ रहे हैं या होंगे ..
और ये अच्छा है।

(20 dec2019)

प्रदर्शन

प्रदर्शन इस लोकतंत्र की खासियत है
लोकतंत्र हिंसा से ख़ास नहीं होता।
हिंसा खत्म कर देती है वजूद उद्देश्य का
और खड़ा कर देती है कटघरे में
चोर-उचक्के, बदमाश-लुटेरों की तरह।
क्या यही बनना चाहा था?
दरअसल, वे सारे तथाकथित नेता, गुरु,उस्ताद, साहित्यकार,बुद्धिजीवी टाइप के पोंगापण्डितों के गिरोह
आज भी तुम्हारी सोच और समझ को हाईजैक किए हुए हैं
और तुम आज भी उनके पीछे अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो।
बस इतना भर तो सोचना है
उनकी कठपुतली नहीं बनना है
कि इतने में ही देखो अपना भारत बन जाएगा।
(21 december 2019)

आनन्द

जगत में हूँ
जगत का नहीं हूँ
देह में हूँ
देह का नहीं हूँ।
सारी माया, सारे मोह
सारे राग-रंग सबकुछ
व्याप्त हैं चारों ओर
किन्तु निर्लिप्त हूँ
मैं केवल आनन्द हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/24 दिसम्बर 19】

(तमाम हमउम्र अधेडो के लिए )

मानो या न मानो प्रिये
वृद्धावस्था सिर्फ देह को
जर्जर नही करती
खंडित करती है
उम्रभर की अकड़
अहंकार और स्वार्थ को ..
किंतु आदमी उस रस्सी की तरह क्यों होता है
जो जलने के बाद भी
बल नही छोड़ती ..
तुम और मैं छोड़ देना
समय रहते ही ..
क्योंकि समय शेष नहीं ज्यादा
कि हम वृद्ध न हों ..
16 -01-2017