बुधवार, 9 मार्च 2011

थैली के चट्टे-बट्टे

जितना अपने चुनावी दांव-पेंच और मतदाताओं को उल्लू बना सकने में गंभीरता अपनाई और दिमाग लगाया जाता है उतना यदि देश के लिये कांग्रेस सोचे तो सच में आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिल सकते हैं, किंतु अफसोस यही है कि कांग्रेस का हर नेता देश के लिये नहीं बल्कि अपने चुनावी और अपने गठबंधन को ध्यान में रखकर अपनी काबिलियत सोनिया गांधी के सामने बघारने की कोशिश करता रहता है। अफसोस यह भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिये भी बढिया नेता होने का मापदंड यही है कि उक्त नेता कांग्रेस को कितना फायदा पहुंचा सकता है और जब भी गठबंधन में कभी गडबड हो तो चुनाव जीतने तथा मतदाताओं को बेवकूफ बना सकने में वो कितना पारंगत है? कांग्रेस यहां तो हमेशा सोच समझकर, आगा-पीछा देख कर कदम उठाती है, मगर जब भी देश की बात आती है तो टालमटोली करती दिखती है, यहां तक कि उसका प्रधानमंत्री यह कह कर टाल जाता है कि उन्हें कुछ भी पता नहीं था। थॉमस मामले में यही हुआ। महंगाई हो, या बढता भ्रष्टाचार यूपीए की ऐसी कोई नीति अभी तक देखने को नहीं मिली है जो इस पर अंकुश लगा सके। यह विडंबना है इस देश की कि जनता भी कांग्रेस की इस कुचाल में फंस जाती है और वह देश में कोई बडा बदलाव लाने की फिक्र से ऐन वक़्त मुंह मोड लेती है। सच यह भी है कि कांग्रेस भारतीय जनमानस को अच्छी तरह से जानती-समझती है। यही वजह है कि उसके जाल में वो पार्टियां भी अपना हित साधने के लिये फंस जाती है जो आये दिन उसका विरोध करती रहती हैं। जैसा कि हाल ही में देखने को मिला जब पीएम ने माफी मांगी और विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उन्हें माफ कर दिया। यह मामला सिर्फ माफी मांगने और माफी देने तक का ही था क्या? उधर डीएमके कल तक कांग्रेस से अपनी सीटों के बंटवारे में एकमुश्त शर्त की बात कर रहा था और सरकार से अलग हट जाने की बात ताल ठोंक कर दर्शा रहा था, किंतु अचानक सबकुछ तय हो गया और डीएमके कांग्रेस के साथ हाथ मिलाते नज़र आने लगी। उधर आप समाजवादी पार्टी का उदाहरण ले लीजिये, जब डीएमके ने अपना हाथ खींचने की बात कही तो इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिये मुलायम सिंह यादव ने झट से यह घोषणा कर दी कि वो यूपीए गठबंधन के साथ बने रहेगे और सरकार को किसी अनहोनी का सामना नहीं करना पडेगा। सपा की नीति, उसका कार्य और उसकी विचारमीमांसा रहस्यवादी है, शायद वो नहीं जानती कि स्वार्थगत राजनीति में अपना भविष्य तलाशने वाली पार्टियों को कभी न कभी मुंह की खानी ही पडती है। खैर, फिलहाल सपा ने जो सोचा था कि वो सोनिया गांधी की नज़रों में विश्वासपात्र बन जायेगी, डीएमके के राजी होने के बाद उसका भी कचरा हो गया है। दरअसल यह सब इसलिये होता है कि आज यूपीए गठबंधन की हर पार्टी किसी न किसी घोटाले या विवाद से दो हाथ कर रही है और अगर कांग्रेस से वो अलग हट जाती हैं तो उनका सत्यानाश अवश्य संभव है, लिहाज़ा खिसायाते हुए सब नतमस्तक होते रहते हैं और सोनिया गांधी को खुश करने में ही अपनी राजनीतिक भलाई मानते हैं।
बहरहाल, कांग्रेस-द्रमुक का गतिरोध लगभग खत्म हो चुका है, इससे जयललिता को भी झटका लगा होगा जो यह सोच कर बैठ गईं थी कि अब इस गतिरोध का फायदा उन्हें अपने राज्य में जरूर मिलने वाला है। प्रणब मुखर्जी का दिमाग और उनका कांग्रेस के प्रति समर्पित जीवन ही ऐसा रामबाण है जो करुणानिधि को साध गया। यह सोनिया गांधी भी जानती थी कि ऐसे समय उनके पास तुरुप का इक्का प्रणब मुखर्जी के रूप में मौजूद है, इसलिये ही वे द्रमुक की हवाबाजी से चिंतित नहीं हुई। डीएमके ने कांग्रेस को 63 सीटे दे दी। पिछली बार उसके खाते में 48 सीटे थी, आप सोच सकते हैं कि जो भी सौदेबाजी हुई होगी वो कितनी उच्चस्तरीय रही होगी। करुणानिधि की पत्नी भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच दायरे में है और करुणानिधि चाहते हैं कि इस दायरे से उनकी पत्नी को दूर रखा जाये। मज़ेदार बात यह है कि यहां आपस में लडाई वो करते हैं जो खुद के गिरेबां में कलंकित है, और यह जानते हैं कि एकदूसरे की ही उन्हें जरुरत है। वे बस जनता को बेवकूफ बना सके और अपनी महत्ता को दर्शा सकने के लिये हाथ-पैर चलाते रहें, उनका यही परम कर्तव्य है।
अब इस गतिरोध के बीच जयललिता को देखिये जिन्होंने कांग्रेस को अपने 9 सांसद देने की बात से राहत पहुंचाने का काम किया था। कांग्रेस जयललिता के फेंके जाल में फंस जाती मगर उसने देखा कि जयललिता ने अभिनेता विजयकांत की डीएमडीके को 41 सीटे दे रखी है तो उसे यह सौदेबाजी रास नहीं आई। 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विजयकांत से हाथ मिलाती इसके पहले यह बाज़ी जयललिता ने मार ली थी, विजयकांत की पार्टी तमिलनाडु राजनीति में डीएमके और एआईडीएमके के बाद तीसरी सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरी थी। ऐसे में कांग्रेस के पास उस वक्त डीएमके से जुडना लाचारी थी, अब चूंकि उसने देखा कि जयललिता के साथ अगर वह हाथ मिलाती है तो चुनाव में इसका खामियाजा उठाना पडेगा, क्योंकि उसके हाथ से डीएमके जैसे दूसरी बडी पार्टी छूट जायेगी, उधर जयललिता चाहती थी कि यदि वह कांग्रेस को पटा लेगी तो इस बार के विधानसभा चुनाव में फिर सत्ता पर आसानी से काबिज हो सकती है। किंतु कांग्रेस के लिये यह फायदेमंद सौदा नहीं था सो उसने डीएमके को पकडे रखा, डीएमके के लिये भी कांग्रेस को खोना उसकी अपनी नींद हराम होने जैसा ही था, एक तो वामपंथी पार्टियों ने उसका दामन छोड रखा है, दूसरे जयललिता ने स्थानीय पार्टियों को अपने खेमे में ले रखा है, डीएमके के लिये अकेले चुनाव लडना आसान भी नहीं था, सो थोडी हुडकी देने के बाद कांग्रेस को कांग्रेस की शर्तों पर सीटे दे दी, जब जयललिता ने यह प्रेम-मोहब्बत देखी तो वो फिर से कांग्रेस की दुश्मन पार्टी बन गई हैं। एक तरफ दोस्ती का हाथ बढाया जाता है और जब मामला करवट बदलता है तो झट से हाथ खींच लिया जाता है या हाथ मलते हुए मतदाताओं को रिझाने के लिये तर्कों-कुतर्कों का सहारा लिया जाने लगता है। राजनीति इसीको कहते हैं। मुलायम हो या जयललिता जैसे नेता सत्ता और सत्ता में बने रहकर अपने खिलाफ कोई मुहिम न चल पडे जैसी सोच के तहत कांग्रेस के आगे झुकते रहते हैं। आप यह भी देखिये कि कांग्रेस कितनी पारंगत है, कितनी मंझी हुई है कि वो तमाम विवाद के बावजूद हमेशा जीत हासिल करती है, इसका एकमात्र कारण यह है कि इस देश में उसका कोई मज़बूत विकल्प नहीं है। एक भारतीय जनता पार्टी है किंतु वो भी अपने स्थान पर अडिग रहने वाली नहीं है। उसकी करवटों से देश भलिभांति परिचित है। पहले राममंदिर का मुद्दा था तो जमकर वोट कबाड लिये गये, अब वो मुद्दा उनकी प्राथमिकता से हट गया है। इंडिया शायनिंग का गुब्बारा भी फुस्स हो चुका है और वे विपक्ष में आ बैठी। अब जब उसके पास ढेरों अवसर हैं तो उसे भुनाने में भी वो देश को अपने स्वार्थ से पीछे धकेल कर सोचती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सीवीसी के थॉमस मामले में लगभग फंस चुके थे और भाजपा ने जिस तरह से उसे प्रचारित करके अपनी छवि संसद में कठोर बनाई थी उसकी हवा पीएम की माफी मांग लेने से ही निकल गई। भाजपा में भी इस विचार के दो धडे हो गये हैं, सुषमा स्वराज के अचानक माफ कर देने वाले लहज़े को दूसरे कुछ नेता समझ नहीं पा रहे हैं। समझे भी कैसे जब आप किसी मुद्दे को देश के साथ जोडते हैं और संसद तक को ठप करके कार्यवाही चाहते हैं,तब अचानक उस मुद्दे को कैसे ठंडा किया जा सकता है? जबकि उसके लिये आपने देश के जनमानस तक को झंझोड कर रखा। क्या वो मुद्दा अपका निजी था? जो आपके माफ कर देने से खत्म हो गया? भाजपा ने इस मुद्दे को अंजाम अपनी स्वार्थगत राजनीति खेल कर दिया। कुलमिलाकर आज चल यही रहा है आप इस देश को, देशवासियों को किस तरह से चूना लगा कर उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड कर सकते हैं, उनकी आंखों में धूल झौंककर अपनी रोटियां सेंक सकते हैं। आप इसमे जितने निपुण हैं उतने ही सफल हैं। और बेचारे सामान्य देशवासी? उनके लिये रोज अखबार पढना, चैनल देखना और किसी चौपाल पर बैठकर राजनीति की बहस कर लेना, फिर उसी महंगाई, रोज-रोज की आपाधापी में ही जीवन गुजार देना भर है। दूसरी ओर तमाम दल एक थैली के चट्टे-बट्टे से अधिक कुछ नज़र नहीं आते।

शनिवार, 5 मार्च 2011

वाह रे मनमोहना

देश का प्रधानमंत्री तब स्वीकार करता है, तब अपनी जिम्मेदारी मानता है जब सुप्रीम कोर्ट उसके कान उमेठता है। अगर मान लीजिये ऐसा नहीं होता, अदालत बीच में नहीं आती तो क्या कोई जान पाता कि एक धीर-गंभीर, सुशील, बुद्धिमान दिखाई देने वाले प्रधानमंत्री के दो चेहरे भी हैं? आप मान सकते हैं कि यह कैसा मुखिया है जो जैसा दिखता है वैसा है नहीं। अब तक सिर्फ माना जाता था किंतु अब तो खुद उनके स्वीकार कर लेने के बाद स्थितियां साफ हो गई कि बेशर्मी की कितनी हद है। पी जे थॉमस की नियुक्ति अवैध थी, क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं जानते थे? यदि नहीं जानते थे तो क्यों नहीं जानते थे? जानने के लिये जब सुषमा स्वराज ने अपनी आपत्ति जाहिर की और मामले की तमाम जानकारी दी तब भी उनकी आंखे बंद क्यों रही? और जब सुप्रीम कोर्ट ने हंटर चलाया तब ही उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास क्यों हुआ? और क्या इस अहसास के बाद वे प्रायश्चित करेंगे? यदि करेंगे तो वो प्रायश्चित क्या होगा? जो भी होगा, किंतु यह सच है कि अगर विपक्ष या यह देश उन्हें सबसे अशक्त प्रधानमंत्री का तमगा देता है तो कोई गलती नहीं करता है। आप अगर मनमोहन सिंह को इसके बाद भी बेहतर प्रधानंमंत्री मानते हैं तो कम से कम अब आपको अपनी राय बदल लेनी चाहिये।
दिलचस्प होगा यह जानना कि मनमोहन सिंह के इस कबूलनामे के बाद राजनीतिक परिदृष्य कैसा होगा? वैसे भी यूपीए सरकार के दिन गर्दिश में दिखाई दे रहे हैं उपर से उसके सबसे मज़बूत धडे करुणानिधि ने भी अपना समर्थन वापस लेने की बात कर दी है, उधर पहले ही कांग्रेस भ्रष्टाचार के दलदल से उबरने का असफल प्रयत्न कर रही है और एक के बाद एक कई खादीधारी कालेधन के जाल में फंसते नज़र आ रहे हैं। ऐसे कार्बनयुक्त माहौल में अब खुद मनमोहन सिंह के हाथ कालिख लगती हैं तो यकीनन यह कहा ही जा सकता है कि सरकार की दाल में काला ही नहीं बल्कि पूरी दाल काली है।
बहरहाल, क्यों थॉमस को लेकर सरकार ने सीवीसी की गरिमा का ख्याल नहीं रखा? क्यों मनमोहन सिंह मौन रहे? और यदि अब जाकर उन्होंने जिम्मेदारी कबूली है तो इसकी सजा क्या है? जिम्मेदारी कबूलना ही यह साबित करता है कि मनमोहन सिंह पहले से जानते रहे हैं कि थॉमस नामक चीज क्या है? यानी देश को अंधेरे में रखा गया, क्यों रखा गया? ऐसे कितने ही सवाल अपनी तेज बौछारों के साथ प्रधानमंत्री के माथे पर ओले की तरह पड रहे हैं। सरकार ने जो काम किया है वह निस्संदेह शर्मनाक है, विपक्ष तो यह चाहेगा ही फिर भी जनमानस मानता है कि अगर प्रधानमंत्री में थोडी भी शर्म शेष है तो अपने पद से हट जाने की हिम्मत दिखाई जा सकती है, मगर सत्तालोभ और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस के लिये यह संभव नहीं। वो तो शुक्र है कि हमारे देश में न्यायपलिका का इमानदाराना रौब चलता है अन्यथा देश का तो भगवान ही मालिक होता। जब राजा ही सो रहा हो तो उसके मंत्री-संत्री सब इसका फायदा उठाते हैं, थॉमस जिस दादागिरी के साथ अपने पद पर अडिग थे वो स्पष्ट करता है कि उनके सिर पर किसी बलवान का वरदहस्त था। और यह बलवान कौन? प्रधानमंत्री के अतिरिक्त और कौन हो सकता है? दिक्कत यह है कि अब वे ऐसा मान भी नहीं सकते कि वे कुछ नहीं जानते थे, या उन्हें समझने में देर लगी, या फिर वे किसी दबाव में थे। अफसोसजनक तो यह भी है कि 3 सितंबर 2010 से आज तक के इतने समय के बाद तथा इतने वाद-विवाद के बाद जब अदालत की फटकार लगती है तब उन्हें अपने फर्ज़ की याद आती है और वे अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। पर हास्यस्पद यह भी है कि एक ओर सरकार कह रही है कि थॉमस हटाये जा चुके हैं किंतु अभी भी यह भ्रम कायम है (सरकार सोमवार को संसद में जवाब देने वाली है) क्योंकि थॉमस महोदय की ओर से अपने पद से इस्तीफे की बात अभी भी बाहर नहीं आई है। उन्होंने इस्तीफा दे दिया है, इसका कोई सबूत दिखाई नहीं दिया है यानी यह एक घिनौना मज़ाक नहीं तो क्या है? देश का सीधे सीधे मखौल उडाया जा रहा है, और अपनी दादागिरी व्यक्त की जा रही है, मानो थॉमस महोदय देश और देश की न्याय व्यवस्था से कोई उपर के आदमी हैं। ऐसे आदमी को तुरंत घसीटकर चौराहे पर लाकर फटकार लगाने की जरुरत होती है, किंतु ऐसा हो नहीं रहा। क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि निश्चित रूप से थॉमस के पास कोई जादू की छडी है जिससे सरकार सहमी हुई है। थॉमस की नियुक्ति के नेपथ्य में यह तय है कि कोई बहुत बडा गेम छुपा है जो सरकार खेलने जा रही थी। पर देश का सौभाग्य है कि उसके लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तंभ न्यायपालिका को डिगाना संभव नहीं है।
केरल के 1990 में हुए पामोलीन आयात घोटाले के आरोपी हैं थॉमस। उनका दामन दागदार तो है ही साथ ही उन्हें तो किसी प्रकार की सतर्कता या जांच-पडताल का अनुभव भी नहीं है, जो किसी भी सीवीसी के करतार के लिये आवश्यक होता है, बावजूद उनकी नियुक्ति को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम ने जल्दबाजी दिखाई साथ ही नियुक्ति के लिये गठित पैनल की तीसरी सदस्य सुषमा स्वराज की बार-बार मनाही को सिरे से खारिज करते हुए थॉमस की नियुक्ति पर ठप्पा लगा दिया गया। जिस व्यक्ति पर एफआईआर दाखिल हो, जिसकी जमानत विचारधीन हो, जिस पर भ्रष्टाचार का मामला चल रहा हो क्या उससे आप उम्मीद कर सकते हैं कि वो सीवीसी के तहत जो भी कार्य करेगा पाक-साफ करेगा? दरअसल यह सब 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे बडे-बडे घोटाले पर पानी फेरने और देश को गुमराह करने की कवायद ज्यादा जान पडती है जो सरकार के भ्रष्ट रूप को दबा सके। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह सब आखिर क्यों किया? किसके दबाव में किया? क्यों उन्होने देश को भुलावे में रखने का प्रयत्न क्या? और अब यदि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी कबूली है तो वे इसका उदाहरण किस रूप में देंगे? क्या वे जानते हैं कि खुद को अगर वे इमानदाराना साबित करना चाहते है तो उन्हें पहले अपनी मजबुरी बयां करनी होगी, फिर अपने उपर पडे विशेष दबाव का खुलासा करना होगा। मगर विडंबना यह है कि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस का कचूमर निकल जायेगा। ऐसी कांग्रेस के पास हिम्मत नहीं कि वो देश के लिये अपना बलिदान दे सके, इसका मतलब यह हुआ कि देश को अब नया खेल देखने को तैयार हो जाना चाहिये। आप यूपीए गठबंधन का कालिख लगा दामन किसी सर्फ एक्सेल से धुला हुआ देख सकते हैं। क्योंकि यह तय है कि सरकार अब थॉमस की जगह नये की नियुक्ति कर देगी और इस पूरे विवाद को पीछे छोड देगी। प्रधानमंत्री की ली गई जिम्मेदारी से उठे सवाल जैसे थे वैसे ही रखे रह जायेंगे और एकबार फिर देश की जनता किसी बडे सच से अनजान रह कर नये फेरे में अपनी नज़र गाढ लेगी। यह देश का दुर्भाग्य है। और इसे कांग्रेस अच्छी तरह से समझती है कि भारतीय लोगों को भूलने की आदत है, उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। वैसे भी तुलसीदास की चौपाई चरितार्थ होती है कि " समरथ को नहिं दोष गुंसाई...।"

मंगलवार, 1 मार्च 2011

क्या अच्छा सोचूं?

मन-मस्तिष्क भटके हुए हैं, भटके इन द सेंस अस्थिर हैं, जिसमें आप बैठकर कोई बेहतर लेखन नहीं कर पाते, किंतु विचारों के चक्रवात में भी फंसा है मन, जो उगल देना चाहता है जो कुछ भी हैं, जैसा भी है..। तो उस 'विज्ञापन' की तरह जिसमें रितिक रोशन की टोपी बवंडर में उडती है और वो अपनी बाइक लेकर उस बवंडर को चीरते हुए अपनी टोपी हासिल कर लेता है, ठीक वैसा ही प्रयास मेरा है, शेष आप बतायें-

"अचानक मन ने चाहा कि
कभी कुछ अच्छा भी सोचा जाये।
अच्छा यानी भला-भला सा
चाहे वो दीन-दुनिया के बारे में क्यों न हो?

किंतु क्या?

मेरे चारों ओर लगभग
सड चुके विचारों की दुर्गंध है,
बोथरी हो चुकी रचनात्मकता है
उलझे हुए जीवन हैं
और मरी हुई जिजीविषा है।

उधर सीमा पार
जब फर्लांग मार कर जाता हूं तो
काटने-मारने की आवाजें ही कानों में पडती हैं।
इधर भी ज्यादा कुछ अंतर नहीं है।

वातानुकुलित कमरों में बैठकर
खेत-खलियान की बातें हैं,
और खेत-खलियान कभी
सूरज की तपन से तो कभी
बादलों के प्रकोप से उजडे पडे हैं।
किसानों की आंखों से टपकते आंसू
उनके 'लोन' अदा नहीं कर सकते।
उनके बच्चों के पेट
मिलावटी खाद और रासायनिक पदार्थों से
भरे नहीं जा सकते।


अरे, मगर यह सब तो मुझे सोचना नहीं है
क्योंकि आज कुछ अच्छा सोचने
की दरकार करता है मन।

हां, जब फसल अच्छी होती है तो
चेहरे नाचने लगते हैं।
कम से कम उन्हें तो पता नहीं है
कि यह सब
स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है,
जो ऊंचे दाम अदा करके
खाते हैं अनाज।
वैसे भी जीवन कितना बडा होता है?
और सुखद यह कि
यह सब जानती है सरकार भी।

सडक पर निकलते समय
भले ही डर लगता है कि
कहीं कुछ हो न जाये?
भले ही घर में बीवी
लौट आने पर राहत महसूस करती है।
किंतु इससे
आतंक का खात्मा तो नहीं हो सकता न?
पर खुशफहमी है कि
खुद बच निकले।

लालच और भ्रष्ट आचार में
आकंठ डूबे हिन्दुस्तानियों की
वीरता देख कर भी लगता है कि
कोई सरकार या कोई कानून उनका
बाल बांका नहीं कर सकता,
क्योंकि
चाहे सरकार हो या कानून
सब कोई एक ही थैली के चट्टे-बट्टे से
दिखते हैं,
और क्या यह कम बडी बात है कि
हमारे हर कार्य शीघ्रता से निपट जाते हैं
और टेबल के नीचे
मुस्कुराता दिखता है शिष्टाचार।

धर्म पाखंड से खंडित है
तर्क, कुतर्कों में सध रहे हैं
वचनबद्धता बेमानी हैं
प्रवचन जारी हैं,
'रंग' भी लड रहे हैं,
यानी सबकुछ गड्डमड्ड है।
यह चूरमा है उस रोटी का जो बासी है
मगर खिलाई जा रही है शौक से।

'वो' करोडों में खेलते हैं
चाहे 'योग' के नाम या 'भोग' के नाम से,
हैं परम पूजनीय,
और यह उम्मीद कि संतों के देश का
कल्याण संभव है,
यह विचार कुछ देर तक तो शुभ लग सकते हैं न?

किंतु सच से मुख मोडा
नहीं जाता और तुलसी बाबा ध्यान आ जाते हैं
कि-
कलिमल ग्रसे धर्म सब
लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि
प्रगट किये बहु पंथ।
भए लोग सब मोहबस
लोभ ग्रसे सुभ कर्म,
सुनु हरिजान ग्यान निधि
कहउं कछुक कलिधर्म।


कलिधर्म का सच होता सिलसिला
बखान होगा तो
वह सोच जाती रहेगी कि
कुछ अच्छा सोचना है।
किंतु विडंबना भी है कि
क्या अच्छा सोचूं?