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रविवार, 26 अप्रैल 2009
यादे
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शनिवार, 18 अप्रैल 2009
अधरों से मै पी लूं
गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
ऐसे कैसे लोग ?
कार में अंगूठा सवार हुआ है,
चाट- चाट तलुवो को बने है
देखो सांठ गाँठ वाले लोग।
देश हमारा महान हुआ
शुक्र है चाँद से नज़र ना आते
भूखे नंगे फिरते लोग।
आदत पड़ी जो 'खाने' की ,
रिश्वत - घूस ठूंस ठूंस कर
सेठ कहलाते पेट वाले लोग।
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
मुफलिस जी की कविता से प्रेरित होकर लिखने का मन हुआ। इसके पूर्व प्रख्यात रचनाकार विजय देवनारायण साही की कुछ पंक्तिया स्मृति में आ रही है, उन्हें जरूर लिखूंगा , जिसके अर्थ तथा गंभीरता की गहराई में जाकर मेरी सीधी व सपाट कविता के संग आप किनारे लग सकते है।
" सच मानो प्रिय
इन आघातों से टूट- टूट कर
रोने में कुछ शर्म नहीं ,
कितने कमरों में बंद हिमालय रोते है।
मेजों से लग कर सो जाते कितने पठार
कितने सूरज गल रहे है अंधेरो में छिपकर
हर आंसू कायरता की खीझ नहीं होता। "
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क्या ऐसे ही प्रतिभाये
रोती रहेंगी?
चाटुकारों- चापलूसों की चांदी कटेगी?
शिक्षाये धंधे बाजों के खेत सींचती रहेंगी ?
कुर्सी पर मूर्खाधिराज का शासन होगा?
प्रिये मंज़र खौफनाक है ।
ऐसे में ईमान लहुलुहान होता दिख रहा है
तो कोई नई बात नही।
प्रतिभाये बिखरते बिखरते रेत बन चुकी है।
रेगिस्तान हो गई है आदमियत,
जिसपे मुह मारने वाले ऊँटो का काफिला
अट्टहास करते गुजरता है।
और बदनीयत मंजिल पा रही है।
किंतु प्रिये अभी भी उम्मीदे शेष है
अन्धकार के घटाटोप बादल छंटेंगे जरूर
क्योकि पचती नही है
हराम की कमाई।
जुलाब होता है और नासूर बन
रिसती है शरीर के हर कोने से।
सच्चाई है यह,
इससे मुह मोडे जो खड़ा है, खड़ा रहने दो।
बस तुम प्रतीक्षा करो।