मंगलवार, 30 मार्च 2010

मेरी नज़र में-नाटककार चरणदास सिद्धू (भाग-2)

अनुभव जब एकत्र हो जाते हैं तो वे रिसने लगते हैं। मस्तिष्क में छिद्र बना लेते हैं और ढुलकने लगते हैं, कभी-कभी हमे लगता है अपनी खूबियों को बखानने के लिये व्यक्ति लिख रहा है, बोल रहा है या समझा रहा है। किंतु असल होता यह है कि अनुभव बहते हैं जिसे रोक पाना लगभग असम्भव होता है। नदियां बहुत सारी हैं, कुछ बेहद पवित्र मानी जाती है इसलिये उसमें डुबकी लगाना जीवन सार्थक करना माना जाता है। हालांकि तमाम नदियां लगभग एक सी होती हैं, कल कल कर बहना जानती हैं, उन्हें हम पवित्र-साधारण-अपवित्र आदि भले ही कह लें किंतु किसी भी नदी को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे कैसा माना जा रहा है या वो कैसी है? वो तो निरंतर बहती है, सागर में जा मिलती है। आप चाहे तो उसके पानी का सदुपयोग कर लें या उसे व्यय कर लें, या फिर नज़रअंदाज़ कर लें, यह सब कुछ हम पर निर्भर होता है। ठीक ऐसे ही आदमी के अनुभव होते हैं, जो रिसते हैं, कलम के माध्यम से या प्रवचन के माध्यम से या किसी भी प्रकार के चल-अचल माध्यम से। कौन किसका अनुभव, किस प्रकार गाह्य करता है यह उसकी मानसिक स्थिति या शक़्ति पर निर्भर है। " मेरी दृष्टि में, एक सुखी जिन्दगी वो होती है जिसमें जरूरी आराम की चीज़े हों, मगर ऐशपरस्ती न हो। इसमें किसी किस्म का अभाव महसूस न हो। सब्र संतोष हो। इसके लिये आवश्यक है कि आदमी तगडा काम करे जो इंसानियत की भलाई की खातिर हो। सबसे अहम बात-एक सुखी जीवन रिश्तेदारों और दोस्तों की संगत में, दूसरों के वास्ते जिया जाय।" ( 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द चित्र', - सुखी जीवन-मेरा नज़रिया पृ.17) डॉ. चरणदास सिद्धू अब जाकर यह कह सके, यानी 44-45 वर्षों बाद, तो इसे क्या उनके जीवन का निचोड नहीं माना जा सकता? मगर ये ' दूसरों के वास्ते जिया जाय' वाला कथन मुझे थोडा सा खनकता है क्योंकि पूरी जिन्दगी उन्होंने नाटक को समर्पित की, उनका परिवार उनके समर्पण में सलंग्न रहा तो इसे मैं दूसरों के वास्ते जीना नहीं बल्कि अपने लक्ष्य के वास्ते जीना ज्यादा समझता हूं। वैसे भी जब आप किसी लक्ष्य पर निशाना साधते हैं तो शरीर की तमाम इन्द्रियां आपके मस्तिष्क की गिरफ्त में होती है और आपको सिर्फ और सिर्फ लक्ष्य दिखता है, ऐसे में दूसरा कुछ कैसे सूझ सकता है? यह सुखद रहा कि सिद्धू साहब को जैसा परिवार मिला वो उनके हित के अनुरूप मिला। यानी यदि जितने भी वे सफल रहे हैं उनके परिवार की वज़ह भी उनकी सफलता के पीछे है और यह उन्होंने स्वीकारा भी है। खैर..। पर यह तो नीरा दर्शन हुआ, जिसमें जीवन के लौकिक रास्तों से हटकर बात होती है। पर असल यही है कि सिद्धू साहब बिरले व्यक्ति ठहरे जिनका अपना दर्शन किसी गीता या कुरान, बाइबल से कम नहीं। यथार्थवादी दर्शन। और यह सब भी इसलिये कि उन्होंने जिन्दगी को जिया है, नाटकों में नाटक करके, तो यथार्थ में उसे मंचित करके। उनकी पुस्तक 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' जब पढ रहा था तो उसमे पहले पहल लगा कि व्यक्ति अपनी महत्ता का बखान कर रहा है, या करवा रहा है। किताब सबसे उत्तम जरिया होता है। मगर बाद में लगा कि व्यक्ति यदि अपनी महत्ता बखान भी रहा है तो फिज़ुल नहीं, बल्कि वो वैसा है भी। और यदि वो वैसा है तो उसका फर्ज़ बनता है कि वैसा ही लिखे या लिखवाये। कोई भी कलाकार हो, उसे अपनी कला का प्रतिष्ठित प्रतिफल मिले, यह भाव सदैव उसके दिलो दिमाग में पलता रहता है। यानी यह चाहत कोई अपराध नहीं। सामान्य सी चाहत है। इस सामान्य सी चाहत में रह कर असामान्य जिन्दगी जी लेने वाले शख्स को ही मैरी नज़र महान मानती है। महान मानना दो तरह से होता है, एक तो आप उक्त व्यक्ति से प्रभावित हो जायें, दूसरे आप व्यक्ति का बारिकी से अध्ययन करें, उसके गुण-दोषों की विवेचना करें। मैं दूसरे तरह को ज्यादा महत्व देता हूं। इसीलिये जल्दी किसी से प्रभावित भी नहीं होता, या यूं कहें प्रभावित होता ही नहीं हूं, क्योंकि यहां आपका अस्तित्व शून्य हो जाता है, आप अपनी सोच से हट जाते हैं और प्रभाववश उक्त व्यक्ति के तमाम अच्छे-बुरे विचार स्वीकार करते चले जाते हैं। ऐसे में तो न उस व्यक्ति की सही पहचान हो सकती है, न वह व्यक्ति खुद अपने लक्ष्य में सफल माना जा सकता है। फिर एक धारणा यह भी बनाई जा सकती है कि आखिर मैं किस लाभ के लिये किसी व्यक्ति के सन्दर्भ में बात कर रहा हूं? और क्या मुझे ऐसा कोई अधिकार है कि किसी व्यक्ति के जीवन को लेकर उसकी अच्छाई-बुराई लिखूं? नहीं, मुझे किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। न ही ऐसा करने से मुझे कोई लाभ है। फिर? आमतौर पर आदमी लाभ के मद्देनज़र कार्य करता है। उसे करना भी चाहिये। जब वो ईश्वर को अपने छोटे-मोटे लाभ के लिये पटाता नज़र आता है तो किसी व्यक्ति के बारे में लिख पढकर लाभ क्यों नहीं कमाना चाहेगा? मुझे भी लाभ है। वो लाभ यह कि मुझे सुख मिलता है। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में लिख कर जिसके माध्यम से अन्य जीवन को किसी प्रकार का रास्ता प्राप्त हो सके, बस इसका सुख। न कभी मैं सिद्धू साहब से मिला, न ही दूर दूर तक ऐसी कोई सम्भावना है कि मिलना हो। और मैं जो भी लिख रहा हूं वो सारा का सारा उनकी किताब में ही समाहित है। मैं तो सिर्फ उस लिखे को सामने रख अपनी व्याख्या कर रहा हूं, जो किसी भी प्रकार से गलत नहीं माना जा सकता। यह मैरा धर्म है कि जब किसी पुस्तक को पढता हूं तो उसे सिर्फ पढकर अलमारी के किसी कोने में सजाकर नहीं रख देता बल्कि उसके रस से अपनी छोटी ही बुद्धि से सही, सभी को सराबोर या अभिभूत करा सकने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि कोई भी पुस्तक किसी पाठक से यही चाहती है। यह मेरी, नितांत मेरी एक ईमानदार सोच है। और मेरा कर्म, धर्म लिखना ही तो है सो मैं इसे निसंकोच निभाता हूं। और लाभ यह कि सुख मिलता है। जैसा कि सिद्धू साहब ने लिखा- " सुख तो एक सोचने की आदत है, स्थाई तौर पर अच्छा महसूस करने की हालत। सुख कभी न छूटने वाली वो आदत है जिसके जरिये आप हमेशा चीज़ों के रौशन रुख को ताकते रहें...।" मेरा रुख यही है। सुख की सोच। रोशन रुख को ताकते हुए। तो क्या, सिद्धू साहब दार्शनिक हैं? नहीं। उनका जीवन दार्शनिक है। उनके अनुभव दर्शन है। मैने उनकी किताबों से जो व्यक्तित्व पाया है उसके आधार पर ही मैं कुछ कह सकता हूं। वरना लिखना तो उन लोगों के बारे में होता है जिन्हें आप अच्छी तरह से जानते हों। और यदि मैं कहूं, मैं उनके बारे में कैसे लिख रहा हूं तो वो सिर्फ इसलिये कि मेरी जिन्दगी में उनकी किताबे आईं और उन्हीं किताबों के जरिये अपनी छोटी सी बुद्धि के सहारे बतौर समीक्षक शब्दों में उतार रहा हूं। "नाटक लिखा नहीं जाता नाटक गढा जाता है" ( नाट्य कला और मेरा तजुरबा,मुलाकातें-पृ.165) सिद्धू साहब बताते हैं। जब अपनी धुन, अपने तरह का जीवन जिसने गढ रखा हो वो कोई चीज कैसे लिख सकता है? गढ ही सकता है। काश के मुझे उनके नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता? भविष्य में ही सही इंतजार किया जा सकता है। किंतु इधर 1973 से 1991 तक के सफर में उनके द्वारा जो करीब 33 नाटक रचे, लिखे गये हैं उन्हें पढने की उत्सुकता बढ गई है और यह भी तय है कि सबको धीरे धीरे पढ लूंगा। शायद तब डॉ. सिद्धू सर के नाटकों पर लिखा जा सकता है, अभी तो उनके जीवन पर ही लिखी गई किताबें मेरे पास है सो मैं सिर्फ वही लिख सकता हूं। जैसी किताब है। तो अगली पोस्ट में मिलिये और यह भी जानिये कि, हां आदमी जो ठान लेता है, वो करके ही दम लेता है। और जब दम लेता है तो उसके वो दम में बला की तसल्ली होती है। किंतु इस दम लेने के बीच उसे उम्र का बहुत बडा भाग तपा देना होता है। " स्वर्ण तप-तप कर ही तो निखरता है।" कैसे तपे सिद्धूजी? और कैसे निखरे? जरूर पढिये अगली पोस्ट में।

शनिवार, 27 मार्च 2010

मेरी नजर में- नाटककार डॉ.चरणदास सिद्धू

किसी भी व्यक्ति को उसकी किताब से पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता। वैसे भी किसी व्यक्ति को पूरा कब जाना जा सका है, हां उसके करीब रह कर उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव, उसकी आदतें आदि जानी जा सकती है और जब ऐसे व्यक्ति किसी के बारे कुछ लिखते हैं तो हम उक्त व्यक्ति के सन्दर्भ में अपनी रूप रेखा बना सकते हैं। बस यही रूप-रेखा खींची है मैने डॉ. चरणदास सिद्धू को लेकर। इस देश में कई ख्यातिनाम नाटककार हुए हैं। उनमे से एक यदि मैं चरणदास सिद्धू को गिन लूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ठीक है कि मैने कभी सिद्धू साहब के नाटक नहीं देखे, कभी इसके पहले तक उनके नाम से परिचय नहीं हुआ, कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई, किंतु यह कतई जरूरी नहीं होता कि आपके जीवन में कभी कोई महान व्यक्ति आ ही नहीं सकता। समय-समय की बात होती है जब आपको मिलने, पढने आदि को प्राप्त होता है और तब आप कह उठते हैं कि अरे, मैं इनसे पहले क्यों नहीं मिल पाया या मैं इतना अज्ञानी रहा कि अब जा कर इनके बारे में पता चला? खैर देर आयद दुरुस्त आयद। धन्यवाद दूंगा सुशील छौक्कर जी का जिनके माध्यम से मैं डॉ.चरणदास सिद्धू के नाम से परिचित हुआ, फिर उनकी 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' तथा 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्दचित्र' जैसी किताब पढ पाया। दोनों किताबें सुशीलजी के सौजन्य से ही मुझे प्राप्त हुई। एक आदमी जिसने अपना पूरा जीवन नाटकों को समर्पित कर दिया, जिसने नाटक के अलावा कुछ और सोचा ही नहीं, जिसने अपने सामने आए कई सारे बडे प्रतिष्ठित पदों को ठुकरा दिया, जिसने अपने घर-परिवार तक को नाटक की दीवानगी में दूसरे पायदान पर रखा और जो आज भी नाटक के लिये ही जी रहा है क्या ऐसे व्यक्ति के बारे में जानना-समझना कोई नहीं चाहेगा? क्या ऐसे व्यक्ति बिरले नहीं? मैं समझता हूं कि किसी भी कार्य को करने के लिये सनक होनी चाहिये, सनक यानी दीवानगी आपको कार्य की सफलता तक छोडती है और यदि सफलता की चमक में आपकी आंखे चौन्धियाती नहीं है तो समझो आप सचमुच के आदमी है। बस यही 'आदमी' माना जा सकता है चरणदास सिद्धू को। सुशीलजी ने इनकी बारे में काफी कुछ बताया। फिर पढा। और फिर इनके बारे में, इनके करीबी रहे, छात्र रहे, दोस्त रहे, जानने-समझने वाले रहे व्यक्तियों ने जो कुछ भी लिखा, उसे भी पढा। फिर इनको मनन किया। और तब खींची रूप रेखा जो आपके सम्मुख लाने से रोक नहीं पाया।
इस देश में बेहतरीन नाटककार शेष ही कितने हैं? नाटककारों पर लिखने वाले भी शेष कितने है? और नाटककारों को जानने-समझने के लिये कितनों के पास वक्त है? ऐसे प्रश्न क्यों नहीं कौन्धते है आमजन में? खैर इससे नाटककारों या चरणदास सिद्धू जैसों को कोई मतलब भी नहीं क्योंकि ये तो बस धुनी रमाये हुए हैं, तप में लीन है। दुर्भाग्य हमारा है कि हम वंचित रह जाते हैं ऐसे दुर्लभ जीवन से, जिसके माध्यम से हम जीवन के कई सारे अनबुझे पहलुओं को जान सकते हैं, समझ सकते हैं। क्योंकि नाटककार सिर्फ नाटक मंचित नहीं करता बल्कि अपने जीवन को, अपने परिवेश को, अपने अनुभवों को या कहें एक समग्र जीवन दर्शन को कथानक में उतारकर पेश करता है। वो अभिनय करता या कराता तो है किंतु कहीं वो अपने ही जीवन के साथ खेल भी रहा होता है। कौन खेलता है अपने जीवन के साथ? आज जब मैं अपने चारों ओर भागते-दौडते-खाते-पीते- कमाते- गंवाते लोगों की भीड देखता हूं तो यही ख्याल आता है कि जी कौन रहा है? खेल कौन रहा है? जीवन काट रहें है सब। कट रहा है सबकुछ बस। खेलने के अर्थ बदल गये हैं। खैर..। मैने चरणदास जी के बारे में सुना व पढा है। फक्कड सा जीवन। किंतु ऐसी फक्कडता नहीं कि जीवन का लक्ष्य ही लुप्त हो जाये। अपने लक्ष्य के लिये तमाम बाधाओं को पार करने वाला व्यक्तित्व, अपने शौक के लिये आसमान को ज़मीन पर झुका देने वाला साहसिक जांबाज, अपनी एक अलग दुनिया बना कर चलने वाला दुनियादार इंसान...., क्या कभी मिल भी सकुंगा उनसे? क्योंकि जितना पढा-सुना है वो उनसे मिलने के लिये व्यग्र तो कर ही देता है किंतु अपनी भी बडी बेकार आदत है कि किसी के बारे में जानने-समझने के इस चक्कर में यदि कभी कहीं उसके ही विचारों के कई सारे विरोधाभास जब सामने आते हैं तो उसे कहने-बोलने से भी हिचकिचाता नहीं। कभी-कभी इस आदत के चलते सामने वाला मिलना नहीं चाहता। जबकि मिलकर मुझे बहुत कुछ और जानने-समझने को मिल सकता है जो ज्यादा असल होता है। पर..स्पष्टवादिता की प्रवृत्ति स्वभाव में प्राकृतिक रूप से जो ठहरी। कभी कभी गुडगोबर भी कर देती है। क्योंकि ज़माना औपचारिकता का है और अपने को औपचारिकता की ए बी सी डी नहीं आती। यानी हम जमाने के साथ नहीं है, यह हम जानते हैं। शायद इसीलिये बहुत पीछे हैं। वैसे इस पीछडेपन को हम स्लो-साइक्लिंग रेस मानते हैं। जिसमे जीतता कौन है? आप जानते ही हैं। खैर..डॉ.चरणदास सिद्धू के बारे में सुशीलजी से सुनकर, उनकी किताबो को पढकर उनके बारे में जो चित्र खींचा है वो वाकई दिलचस्प है और जिसे एकमुश्त पोस्ट मे ढालकर पेश नहीं किया जा सकता, सो अगली पोस्ट का इंतजार जरूर कीजियेगा।

रविवार, 21 मार्च 2010

उथले हैं वे जो कहते हैं


किसी भी साहित्यिक रचना या रचना संग्रह को इमानदारी से पढने वाला पाठक अगर मिल जाता है और वो उस रचना पर अपनी राय भी व्यक्त कर देता है तो यह सोने पे सुहागा हो जाता है। उस संग्रह को फिर किसी दूजे पुरस्कार आदि की आवश्यकता ही नहीं होती। मेरे पूज्य पिताजी डॉ. जे पी श्रीवास्तव के काव्य खंड " रागाकाश" के प्रकाशन के लिये जब इस पर मैं वर्क कर रहा था तो कई सारी कठिनाइयां आ रही थीं। पहली तो यही थी कि मैं बगैर पिताजी की आज्ञा के उनकी धरोहर को छापना चाह रहा था। उनकी अपने दौर में लिखी गई कई सारी रचनायें, जिसमें कइयों के कागज़ भी पुराने होकर फटने लगे थे को सहेज कर मुम्बई तो ले आया था अब बस पिताजी की आज्ञा की देर थी। पहले जब उनका साहित्ययुग पूरे उफान पर था, देश-विदेश के बडे से बडे साहित्यकार आदि से मेल मिलाप था, तब परिवारिक परिस्तिथियों ने उनके किसी भी तरह के प्रकाशन सम्बन्धित कार्य को नहीं होने दिया। और जब परिस्थितयां सुधरी तो काफी देर हो चुकी थी, पूरा का पूरा युग मानों बदल गया था, फिर भी उनका लेखन सतत जारी रहा, आज भी पठन-पाठन वैसा ही है जैसा पहले था किंतु लेखन अब ज्यादा नहीं होता। इस दौर में किसी प्रकाशन के प्रति भी उनका रुख उदासीन रहा। फिर भी मेरा प्रयास जारी था, उधर मेरे बडे भाई ने ढांढस बन्धाया कि अभी काम पे लग जाओ बाद में अपनी मंशा पिताजी को बतायेंगे, कुछ हो न हो कम से कम रचनायें व्यवस्थित तो हो जायेंगी। हमारे लिये यही जरूरी था। सो टाइप और इसकी साज सज्जा मैने अपने कमप्युटर पर दिन रात बैठ कर तैयार कर ली। अब? यदि पुस्तक का रूप देना है तो खास समस्या थी प्रकाशक की। दरअसल मेरे पास एक साहित्यक निधि थी, साहित्य के रसिकों के लिये बेहद उपयुक्त व विशुद्ध धरोहर थी सो चाहता था कि अच्छा प्रकाशक मिले। किंतु इस 'बाज़ार' में प्रकाशकों की शर्तों व आनाकानी का जो सीधा अनुभव मैने किया वो संस्मरण योग्य है। खैर..अगर बेहतर सामग्री हो तो उसे बेहतर कलेवर देना ही आवश्यक होता है जिसमे मैं कोई समझौता नहीं करना चाहता था। लिहाज़ा एक प्रकाशक की भूमिका अख्तियातर करने की मानसिकता लिये मैं छापाखानों पर भटकने लगा। कई जगह अलग अलग लागत निकालता रहा और अंत में तय किया कि अब हो न हो अपना प्रकाशन शुरू कर इस दस्तावेज को पुस्तकाकार देना ही है। चाहे जितना पैसा लगे। सो पुस्तक छपने डाल दी। अब सामने था पिताजी को बताना और बाद में विमोचन या लोकार्पण ताकि साहित्य को उसका पूरा पूरा सम्मान मिल सके। कहते हैं न यदि आप अपने कार्य के प्रति इमानदार हों और वो सदमार्गीय हो तो ईश्वर रास्ते निकालते जाता है। रास्ते निकले। पिताजी माने। बडे भाई की मेहनत रंग लाई। फिर तो बाद में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जी जैसे महान साहित्यकार की अद्वितीय कलम ने 'पुरोवाक' लिखा। "रागाकाश" छपकर आई। विमोचन भी बडे साहित्यकारों की संगत में हुआ। समीक्षायें हुई। किसी ने कहा कि ऐन समारोह पर किताब को डिसकाउंट में बेचा जा सकता है। काफी बिक सकती है। किंतु पिताजी ने साफ इंकार कर दिया। हम भाई भी इस मूड में नहीं थे कि किताब बेचें। साहित्यकार, इसके रसिक परिचितों, मित्रों के साथ साथ देश की कई पत्रिकाओं-समाचार पत्रों में 'रागाकाश' प्रेषित की गई। कुछ ने समीक्षा की, कुछ पचा गये। परिचितों, मित्रो आदि में से किसने कितना लाभ लिया यह उनका अनुभव होगा। किंतु जिस प्रयास की शुरुआत मैने की थी वो 2008 के अप्रैल महीने में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। किताब के बारे में राय आती रही यानी उसकी सार्थकता सिद्ध होती रही। यह नहीं पता था, और न ही इसका कोई प्रयास था कि किसी प्रकार के पुरस्कार के लिये कोई अतिरिक्त उपक्रम किया जाये। वैसे भी पिताजी को पुरस्कार आदि का कभी मोह नहीं रहा, और मैने भी ज्यादा यही सोचा कि 'रागाकाश" पठनप्रेमियों तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचे। लिहाज़ा सम्मान या पुरस्कार आदि के सन्दर्भ में कभी हमने सोचा ही नहीं था। पिताजी का मानना रहा है कि- होई वही जो राम रची राखा। सो दो वर्ष बीत जाने के बाद अचानक अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर राजस्थान की ओर से स्व.सेठ घनश्यामदास बंसल स्मृति 2009-10 का पुरस्कार काव्य संग्रह " रागाकाश" को प्राप्त हुआ है, कि खबर डाक द्वारा आई। श्री नरेन्द्र शर्मा, डॉ. आनंद मंगल वाजपेयी, डॉ. त्रिभुवन राय और डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के सूक्ष्म परिक्षण के बाद तय हुआ रागाकाश को पुरस्कृत करना। इस पुरस्कार से और कुछ हो न हो किंतु यह जरूर ज्ञात होता है कि आज भी बेहतर साहित्य को पूछने-परखने वाले लोग हैं और यथासम्भव उनकी वजह से ही भारत में साहित्य जिन्दा है। क्योंकि साहित्य के जिन्दा रहने के लिये सुधी पाठकों की आवश्यकता होती है। बहरहाल, यह भी एक अनुभव रहा था मेरा जिसने सिखाया कि कार्य इमानदारी से करो, प्रतिफल जो भी हो जैसा भी हो, अच्छा ही होता है। इसी सम्बल से फिलवक़्त उनके एक निबन्ध संग्रह के कार्य में भी रत हूं। देखता हूं कब वो पुस्तक का आकार लेता है? अच्छे प्रकाशक की तलाश तब भी रहेगी ही। और न मिलेगा तो अपना दम है ही।
अब 'रागाकाश' के दूसरे खंड 'रागानुगा" की एक छोटी रचना भी चलते चलते आपको नज़र करता हूं, यह मुझे बहुत पसन्द है, शायद आपको भी पसन्द आयेगी-

" उथले हैं वे जो कहते हैं
वर्ना दुख तो सब सहते हैं
किसको है मिल गया किनारा
सब धारा ही में बहते हैं।

सूखेगा जो हरा बना है
टूटेगा जो अभी तना है
कोई काम नहीं आता है
बडबोलापन यहां मना है।

सृष्टि किसी की नहीं, यहां सब
नश्वर है, टिकता है क्या कब?
जाने किसके हाथ डोर है
दिखा रहा प्रतिक्षण नव करतब।

हार-हार कर हार न मानी
मृत्यु वरण करने की ठानी
ऐसे पुरुषार्थी भी डूबे
डूबे पीर, औलिया, ज्ञानी।

काल अजय है, अजय विधाता
माया है सब रिश्ता-नाता
धीरे-जल्दी, हंसके-रोके
आया है जो, निश्चित जाता॥"

मंगलवार, 16 मार्च 2010

सृष्टि सर्जन का पहला मुहूर्त

बचपन से ही सृष्टि के सन्दर्भ में जानने-समझने की जिज्ञासा रही है। यह विषय मेरे लिये हरहमेश रोमांचित कर देने वाला रहा है। बहुत कुछ पढा-लिखा, अध्ययन किया, साथ ही इस सन्दर्भ में पंडित, ज्योतिष, वैज्ञानिक, ज्ञानियों आदि इत्यादि से समय समय पर अपनी जिज्ञासा शांत करने के उपक्रम भी करता रहा हूं, बावजूद सृष्टि मेरे लिये अबूझ ही बनी हुई है। यानी संतुष्ट नहीं हो पाया हूं कि आखिर ऐसा अजूबा जन्मा कैसे? हालांकि अपने-अपने तरीकों से लगभग सारे शास्त्रों, ज्ञानी महापुरुषों ने इसके बारे में बताया है। समझाया है। विज्ञान का भी अपना तर्क है। जितना अधिक मिल सका उतना मैने पढा भी। किंतु इस क्षुधा का क्या जो शांत ही नहीं होती? खैर..। आज इस व्यक्त सृष्टि का पहला ऊषाकाल है। सवंतसर। समग्र जगत का प्रथम सूर्योदय। भारतीय नव वर्ष का प्राम्भिक दिन। आप गर्व कर सकते हैं कि इसका प्रारम्भ किसी ऋषि-मुनि, पंडित, महात्मा आदि की किसी जन्मतिथि आदि से नहीं है बल्कि जिस क्षण सृष्टि शुरू हुई उसी समय संवतसर का प्रारम्भ हो गया। हां इस तिथि मे कई महाज्ञानी जन्में, मृत्यु को धारित हुए। यहां तक कि युधिष्ठिर विक्रमादित्य समेत कइयों ने अपने अपने संवतसर चलाये भी, किंतु इस प्रथम संवतसर की पहली सौर्यकिरण, पहला दिन, तिथि गणना सचमुच बेहद ही दिलचस्प और अनूठी है। गणना के अनुसार सृष्टि की आयु 1 अरब 95 करोड, 58 लाख, 85 हजार एक सौ 12 वर्ष हो चुकी है। वैज्ञानिक अनुमान भी यही है। आज के दिन से ही काल की भी शुरुआत हुई थी। जी हां वही काल जिसे हम समय, टाइम आदि नाम से जानते हैं। भारतीय दर्शन में काल और ब्रह्म पर्याय हैं। लोकजीवन में काल और मृत्यु को पर्याय माना जाता है। सृष्टि सर्जन से पूर्व काल बोध नहीं था। संवतसर भी नहीं। फिर उसके पहले था क्या? मेरी जिज्ञासा का सूत्रपात इसी प्रश्न से हुआ था। ऋगवेद के नासदीय सूक्त (10.129) में बहुत खूबसूरत चित्रण किया गया है कि- तब न सत था, न असत। न भूमि, न आकाश- "नो व्योमा परो यत।" न मृत्यु थी न अमरत्व। न रात, न दिन। वायु भी नहीं थी किंतु वह एक स्वयं अवात अवस्था में अपनी शक्ति से प्राण ले रहा था- "आनीदवातं स्वधया तदेकं।" अब आप देखिये कितना मजेदार है यह, कि 'वह एक- तदेकं' कौन? .., ऋगवेद में है यह, कि वह बिना हवा के सांस ले रहा था। इसी 'वह एक' को विद्वानजन कभी विप्र इन्द्र, मित्र, अग्नि तो कभी वरूण आदि देव नामों से पुकारते हैं। किंतु वह 'एक सद'- एक ही सत्य है- एकसद विप्रा बहुधा वदंति। (ऋ.1.164.46) सृष्टि सर्जन के मंगलाचरण के साथ का आईना ही परिवर्तन की शुरूआत है। प्रारम्भ है। जब परिवर्तन है तो तय है कोई गति अवश्य है। जहां गति है वहीं समय है। और यही समय का दर्पण ही तो संवतसर है।
विज्ञान में देखें। प्रत्येक सर्जन या बदलाव यानी परिवर्तन के पीछे एक ऊर्जा है। शक्ति के केन्द्र लगातार ऊर्जा दे रहे हैं तो क्या एक दिन इस संचित ऊर्जा का भी क्षय होगा? हो सकता है। होगा ही। एंगेल्स की ' डायलेक्टिस आफ नेचर' में लिखा है करोडों वर्ष बीतेंगे, सूर्य की ऊर्जा क्षीण होगी। सूर्य का ताप ध्रूवों के हिम को गला न पायेगा। हिम बढेगा, मानव जाति को जीवन के लिये पर्याप्त ऊष्मा नहीं मिलेगी। वो आगे लिखते हैं कि- धरती चन्द्रमा के समान, निर्जीव हिम पिंड की तरह निर्जीव होते सूर्य के चारों ओर निरंतर घटती हुई कक्षा में चक्कर लगायेगी और अंत में उसी में जा गिरेगी। कुछ ग्रह इसके पहले ही वहां गिर चुके होंगे। वैदिक दर्शन इसे प्रलय कहता है। किंतु प्रलय काल सम्पूर्ण ऊर्जा का नाशक नहीं है यानी उसके बाद भी ऊर्जा शेष रहती है और यही वजह है कि प्रलय के बाद पुनः सृष्टि का जन्म होता है। भारत के सांख्य दर्शन में कपिल ने यही बात बहुत पहले ही कही थी। सृष्टि और प्रलय प्रकृति की इकाई में चलते हैं इसीलिये प्रकृति मे द्वंद्व दिखाई देता है। बडी अजीब है न सृष्टि। और आज उसके काल के प्रवाह में बहते बहते हम यहां तक आ गये। भारतीय कालबोध का क्षण सृष्टि का प्रारम्भ है। फिर इसके बाद युग हैं। महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद यानी ईसा पूर्व 3102 वर्ष से कलियुग चल रहा है। युगाब्ध के अनुसार भारत की 52 वीं सदी है यह। विक्रमसम्वत के अनुसार यह 2067 सम्वत है। यही शक संवत्सर 1932 है। किंतु दुनिया ईसाकाल की दृष्टि से देखती है जिसके अनुसार 21 वीं सदी है। जो भी हो किंतु यह निर्विवाद सत्य है कि आज के दिन से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था जो हमारे लिये नववर्ष का प्रारम्भ है। तो आइये इसे मनायें। हमारे भारतीय संवत्सर का स्वागत करें। खूब नाचे-झूमें-गायें। सभीको मेरी ओर से आत्मीय शुभकामनायें।

शनिवार, 6 मार्च 2010

फिर दिल की नहीं, दिशा की जरूरत है

हॉकी का विश्वकप चल रहा है और भारत अपने तीन मैचों में सिर्फ एक पाकिस्तान से जीता है बाकी के ऑस्ट्रेलिया और स्पेन से बुरी तरह हारा। यानी उसके सेमीफाइनल के रास्ते अब कठिन हो चुके हैं। आज उसका इंग्लैंड के साथ मुकाबला है। इधर हीरो होंडा के विज्ञापन में दिखाया गया है कि फिर दिल दो हॉकी को....। कैसे? हीरो होंडा खरीद कर या हॉकी के लिये नया दिमाग देकर? खैर। भारतीय हॉकी जिस परम्परागत शैली में खेली जाती है उसे बदलने की जरूरत है। बदलाव की इस दरकार को समझकर प्रयत्न भी हुए किंतु सबसे बडी समस्या हमारी जलवायु की है। गरम देश में स्टेमिना को बरकरार रख पाना थोडा कठिन हो जाता है। फिटनेस भी इसीके चलते अपना अहम रोल निभाती है। लगातार तेज़ हॉकी खेलते रहना सम्भव नहीं हो पाता। किंतु यह सब कारण बहाने की लिस्ट में रखे जा सकते हैं। हां, भारतीय हॉकी संघ और खिलाडियों में मानसिक बिखराव भी अहम भूमिका निभाता है। हॉकी को लेकर गम्भीर चिंतन, समाधान, आर्थिक सहयोग आदि जैसे तमाम प्रयत्न किये जाते रहे हैं, बावजूद हम इसमे सुधार नहीं कर पाये। यही हाल पाकिस्तानी हॉकी का भी है। उसकी शैली भी ठीक हमारी शैली से मिलती जुलती है किंतु पाकिस्तान में जीतने की जिजीविशा हमसे ज्यादा है और यही कारण है कि उसकी हॉकी मरी नहीं है। भारतीय हॉकी से अपेक्षायें कुछ ज्यादा कर ली जाती है, वैसे पिछले डेढ दशक से जिस गति से उसका पतन हुआ है उससे अपेक्षायें जैसी बात बहुत हद तक कम हो चुकी है। किंतु फिर भी हॉकी को फिर से दिल देने की जरूरत नहीं है क्योंकि वो हमारा दिल है ही। हां, लगातार पराजय किसी भी खेल से ध्यान भंग करा देती है, बस हॉकी के साथ भी यही हो रहा है। हॉकी महासंघ विवादों में रहता है। उसकी अपनी राजनीति है। इस तथ्य को थोडी देर के लिये भूल जाइये क्योंकि मैं उस कारण की ओर ध्यान खींचना चाहता हूं जो आज की हॉकी के लिये बेहद जरूरी है। हॉकी के ख्यातिनाम खिलाडी धनराज पिल्लै मेरे मित्र हैं। उनसे भी कई बार इस मुद्दे पर चर्चा हुई है। विवाद अपनी जगह है, मुद्दे अपनी जगह है जिस पर धनराज ने भी कईबार अपनी राय व्यक्त की है, ऐसे और भी कई हॉकी के खिलाडी हैं जिन्होंने हॉकी की रजनीति को अव्वल कारण बताया है किंतु फिर भी इसे मैं फिलहाल परे रखूंगा क्योंकि मैं मानता हूं कि उससे ज्यादा जरूरी है हमारी खेल शैली में बदलाव की। धनराज भी मानते हैं कि 'यूरोपीय शैली आज के दौर में हमारी परम्परागत शैली को पीछे छोड चुकी है। किंतु उनका मानना यह भी कि इसके बावजूद हम बेहतर खेल सकते हैं और जीत सकते हैं। अगर सूझबूझ के साथ खेलें तो।' मैने पूछा भी था कि क्या सूझबूझ नहीं होती? उन्होने कहा था कि होती तो है मगर हम विरोधी टीम की रणनीति में उलझकर रह जाते हैं। और उसे भंग करने के चक्कर में कईबार खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते। खैर यह पहलू तो है ही, इसके साथ ही साथ मेरा सोचना है या यूं कहूं हॉकी के सन्दर्भ में बारिकी से जानना है कि हमारी हार के पीछे सबसे बडा कारण है जीतने की जिद का न होना। साथ ही यूरोपीय शैली को समझने के बावजूद उसका तोड न ढूंढ पाना। तोड के लिये या तो आप भी उतने ही तेज़ हों या तकनीकी रूप से आप पूरे 70 मिनिट तक ढीले न पडें। हमारी टीम की स्वभावगत कमजोरी है कि हम विरोधी टीम पर या तो दबाव नहीं बना पाते या फिर यदि बनाते भी हैं तो उसे कायम नहीं रख पाते। उल्टे खुद बहुत जल्दी दबाव में आ जाते हैं। आज भी फिनिशिंग नहीं है। ट्रेपिंग नहीं है। साझापन नहीं है और रणनीति को साधे नहीं रख पाते। या बीच खेल में अपनी रणनीति को बदल नहीं पाते। खिलाडियों में आपस में कोई समझदारी दिखती ही नहीं जो विरोधी टीम को धोखे में रख सके। न तो हमारे पास लम्बे शॉट्स हैं, न स्कूप को रोकने की सधी कला, न ही पेनल्टी कार्नर को गोल में बदलने की धारधार क्षमता। और जब विरोधी टीम की डी में हम घुसते हैं तो बिखर जाते हैं। वहां इतनी हडबडाहट होती है कि गेन्द को अपनी हॉकी से चिपकाये भी नहीं रख पाते। ऑस्ट्रेलिया से मैच की बात हो या स्पेन से, हम यदि हारे तो हमारी परम्परागत गलतियों की वज़ह से। हां हमारी रक्षापंक्ति हमेशा मजबूत रही है यह कहा जा सकता है किंतु उसकी मजबूती बनी रहे इसके लिये हमारे फारवर्ड खिलाडियों को और ज्यादा मेहनत करनी जरूरी हो जाती है। वैसे भी आज की हॉकी, उसके नियमों में भारी बदलाव हैं और जिसमें अब किसी भी खिलाडी की कोई फिक्स जगह नहीं रह गई है, यह वजह भी है कि हम अभी तक इन नियमों में पारंगत नहीं हो पायें हैं। दूसरी बात जो सबसे प्रमुख है कि यूरोप में हॉकी फुटबाल की रणनीति की तरह खेली जाने लगी है। इसका उदाहरण स्पेन के साथ हुए मुकाबले में देखा जा सकता था। कौनसा खिलाडी कहां से कब निकल कर गेन्द पर झपटता है या कौन किसे कब गेन्द पास कर रहा है यह दौडते रहते खिलाडियों में सूझबूझ का कमाल है जो हम नहीं समझ पाते, यही वजह है कि विरोधी टीमे हम पर अक्सर फिल्ड गोल दागती रहती हैं। कुलमिलाकर भारतीय हॉकी को अभी सुधरने में काफी वक्त लगेगा, और यह भी तब होगा जब हॉकी संघ की राजनीति अहम, स्वार्थ, कमाई की लडाई से बाहर निकल जाये। फिर चाहे कोच बदल लें, देशी-विदेशी कोच रख लें, खिलाडियों को बाहर कर दें, नये खिलाडी ले आयें, कोई फर्क़ नहीं पडने वाला। इस तरह के तमाम दोषों पर जब तक गम्भीर नहीं होंगे तब तक हम विश्व विजेता बनने के सपने देखना छोड ही दें तो अच्छा है। हम जानते हैं कि इस राजनीति ने कई बेहतरीन खिलाडियों के करियर को खा लिया है। जिसमें धनराज जैसे ताज़ा उदाहरण सामने हैं। और यही कारण रहा कि भारतीय हॉकी आज अपने ही अस्तित्व को तलाशने में जुटी हुई है। सो मुद्दे की बात यह है कि हॉकी को दिल नहीं दिशा देने की जरूरत है। आप भी कुछ सोचते होंगे? सो लिख डालिये ताकि हमारी हॉकी के लिये कुछ बेहतर हो सके। क्योंकि यह तय है कि मैं समय समय पर तमाम बातों को लेकर हॉकी की जड में सम्पादित करने की किसी भी तरह की कोशिश करता ही रहता हूं।