सोमवार, 2 जुलाई 2018

मारीचिकाएं

गर्म रेत में धँसते पैर
और सिर पर धरे सूरज की तपन
सूखा गला
और रूंधे गले में फंसी आवाज़
किसे पुकार पाती भला।
दूर दूर तक सन्नाटा
धुंधली, मिचमिचाती आँखों में
हवा के तांडव से उड़ते रेत कण
भनभना रहे इस समय को
इतना सूना बना चुके कि
कहीं से तितली उड़ कर आ जाती
जिसके पीछे चल पड़ते हैं कदम।
मानो रेगिस्तान के इस भयावह मार्ग से वो निकाल बाहर करेगी।
उम्मीदें आदमी को जिंदा रखती हैं।
प्रेम रेगिस्तान में भी उपजता है ।
आदमी की खुशफहमी भी एक गलतफहमी हो सकती है।
कि तितली आई, बैठी , उड़ी
कि किसी सरोवर तट से टकरा कर पवन ने ठन्डे झौंके दिए।
कि कदम में जान आ गयी
और चल पड़ा उस दूरस्थ झील की ओर
सोचकर कि
होगी महक फुलवारी की
तितली वहीं तो जाएगी।
किन्तु
कहाँ जान पाता है एक अनजाना आदमी
कि रेगिस्तान में होती हैं मारीचिकाएं।

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