रविवार, 16 दिसंबर 2018

पापा बेटी हूँ मैं

परिंदा है हुनर मेरा
पंख हैं इसमें ..
बंधेंगा तो उड़ेगा नहीं
ये खुली जमीन और खुले आसमान के लिए बना है।
जटायू सा वजूद है
बहुत दूर तक नज़र है
इत्मीनान रखो
खोज लूँगी लक्ष्य की अशोक वाटिका ।
एक बार
आकाश में छोड़ दो ..
सूरज के पास जाकर भी जलूँगी नहीं
बल्कि उसकी आग लेकर
धरती के सारे चूल्हे फूंक दूंगी ..।
रखो हौसला मेरे हुनर पर ..
रंग दूँगी कैनवास
रच दूँगी जगत
कि मैंने जन्म लिया ही किसी रचना के लिए है।
पापा बेटी हूँ मैं।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/26 अक्टूबर2018】

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