गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

वो भूमि बंज़र हो गई

बही हवा परिवर्तन की
और प्रीत मेरी खो गई,
मैं रह गया पूर्व दिशा में
वो पश्चिम की हो गई।
गाँव गाँव भटका निरर्थक
गली गली ढूंढा क्यों,
पागल मनवा जान न पाया
कि मीत सयानी हो गई।
बीज प्रेम के जहां बोए थे
आंसू से सींचा था जिनको
सुन ले ओ परदेसी अब
वो भूमि बंज़र हो गई ।
बही हवा परिवर्तन की
और प्रीत मेरी खो गई

7 टिप्‍पणियां:

सुधीर महाजन ने कहा…

प्रीत ,
गीत,
रीत,
मीत
कभी न होते विस्मृत
भाव है यह आगत
रहती जो शाश्वत !
प्रीत का सयानापन बाह्यगत भाव है !हम आगत भाव में रहे सयाने नही हो सके !

KK Yadav ने कहा…

....काबिले तारीफ़ लिखा है. बधाई स्वीकारें।

बेनामी ने कहा…

बीज प्रेम के जहां बोए थे
आंसू से सींचा था जिनको
सुन ले ओ परदेसी अब
वो भूमि बंज़र हो गई ।

waah! main to avaaak reh gayi..kitni sundar panktiyaan.. kuchh panktiya mein aapne saara dard udel diya hai.. badhayi amitabh ji..

निर्मला कपिला ने कहा…

bahut hi sunder abhivyakti hai-beej prem ke jahan boye theaansu se seenchatha jisko
sun le o pardesi ab vo bhumi banjar ho gayee bahut khoob

BrijmohanShrivastava ने कहा…

श्रीवास्तव जी /मई पूर्व का रहा वो पश्चिम की हो गई में हास्य भी और व्यंग्य भी /आंसू से सींची भूमि का बंजर हो जाना में वास्तविक पीडा दर्शित होती है /छोटी सी रचना मगर जानदार

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar ने कहा…

अमिताभ जी ,
आपकी कुछ कवितायें पढीं .कविताओं में नयापन ,संवेदनाएं ,अच्छा शिल्प ...
बहुत कुछ संभावनाओं के साथ नजर आया .उम्मीद है आगे भी ऐसी ही भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ आपके ब्लॉग पर पढने को मिलेंगी .
हेमंत कुमार

बेनामी ने कहा…

Tarif karana chahta hoon par sochta hoon kya likhun? kahin mera likha `malai' jaisa na lage. rukhi-sukhi bhasa me kahoon to `pathniya' hai.