सबकुछ उल्टा-पुल्टा है। लिखना या पढना कठिन हो चला है। अब यह देखने वाली बात है कि इमानदारी और मेहनत से भरा प्रतिभायुक्त पिचका पेट आखिर कितनी और पराजय पचा सकता है? कब तक बडे पेट वालों की डकार अपने नथूनों में भरकर चाटुकार अपनी चमक बिखेरते रहेंगे? कोई एक तो होगा जो उम्मीद जैसे शब्द को साकार बनाता हो? यह है एक आदमीयत से भरी सोच, जिसका कोई बीमा नही होता। खैर....
"जब रेंकने वाले गधे
भौंकने लगे
तब समझो आदमी के
धैर्य की
परीक्षा शुरू हो जाती है।
उनकी यह पदोन्नति है या अवनति?
जो भी हो किंतु
परिस्थितियों की इस
कोचिंग क्लास में
सीख यही मिलती है कि
आखिर गधों की उम्र
आदमी की उम्र से कम होती है।"
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
4 दिन पहले
23 टिप्पणियां:
सच में सब कुछ उल्टा पुल्टा है क्योंकि यह कलयुग है...कहते भी हैं न कि रामचन्द्र कह गए सिया से....हंस चुगेगा दाना तिनका कौव्वा मोती खायेगा..तो--जब रेंकने वाले गधे
भौंकने लगे लगें 'तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये..वैसे भी यह तो अब हर महकमे में दिखने लगा है..यह इंसानियत [आदमियत ] की ही सोच है जो आशावान है और उम्मीद नहीं छोड़ी कि सही व्यक्ति को सही स्थान मिलेगा..आज नहीं तो कल!
क्योंकि ऐसे चापलूस व्यक्ति या चापलूसी पसंद करने वाले शासकों का राज अधिक दिन टिकता नहीं हैं...
-----बहुत ही कम शब्दों में एक बड़ा विषय 'प्रस्तुत किया है इस कविता में .
बहुत बेहतरीन .
आखिर गधों की उम्र
आदमी की उम्र से कम होती है।"
होती होगी पर आजकल यह भी भ्रम टूटने सा लगा है
बहुत सुन्दर रचना
आज के युग में जीना है तो गधों की भौंक सुनना भी मजबूरी है.
कम शब्द - गहरे भाव। सुन्दर।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
....बहुत सुन्दर !!!
आज जो ना हो जाये थोडा है....सच ही सब उलट पलट है
bahut hi sundar lajawaab
Har nukkad pe gadhe khade hain,haale basti kya hoga?
Unheen ke galon me haar hain...moortiyon ke bageeche hain, akhbaron me jalve hain...nanhee kaliyaan janam se pahle marti hain,inki umr daraz hai..
आजकल सब कुछ उल्टा पुल्टा है ..
बेहतरीन रचना!!
gagar mein sagar bhar diya sir..bahut badhiya!
परिस्थितियों की इस
कोचिंग क्लास में
ak poori ki poori jindgi simat aai hai in panktiyo me .
aur soch ka beema ?beema compny ne padh liya to der nahi lgegi bhunane me ?
यह सच है जब सब कुछ उल्टा पुल्टा होता है तो लिखना पढना मुश्किल हो ही जाता है और जो इंसान इस बीच कुछ सार्थक लिख दे वो इंसान हर परीक्षा में पास हो ही जाता है। सर कलयुग है अल्पना जी ठीक कह रही है। और कलयुग मे गधे भौकने लगते ही है। खैर पते की बात भी आखिर मे आपने कह ही दी। सच में आपने एक आज के एक पहलू पर बहुत खूब लिखा है। काम की कदर खत्म सी हो चली है। जिधर देखो चाटुकारिता अपने पैर पसार रही है। खैर जीवन है और जीवन में आदमी इन सब प्रलोभन से बचकर निकल गया तो सार्थक जीवन जी गया नही तो जीवन जानवर भी जीते है। खैर हमे भी लिखने का टानिक मिला। डाग्दर साहब फीस कितनी लेगे :)
अमिताभ जी ,
अच्छी रचना की बधाई .
रेंकते गधों के भोंकने पर मायूस न हों . एक डंडा उठाईये और गधों को उनकी औकात पर लाईये. गधा किसी भी स्वर में बोले रहेगा गधा ही-- इस शाश्वत सत्य का पाठ करते रहें , तकलीफ कम होगी.
कुछ विषाद मे दीख पड़ते हैं..अमिताभ जी..या शायद आक्रोश मे!..खैर परिस्थितियों के कोचिंग-क्लास की इस सीख के भी काफ़ी मँहगी ही आती है..मगर यह भी याद रखने की बात है कि ऐसे ’गधों’ की उम्र भले ही कम हो मगर उनकी वंश-बेलें ’आदमी’ से ज्यादा तेजी से बढ़ती है..
आदमीयत से भरी सोच, जिसका कोई बीमा नही होता !
bahut gahri baat manas me dhar jor ka jhatka dheere se diya.
Soch gahari hai..
Gadhe jaisee nahin lekin sachmuch bhaukati hai.. Sochane par majboor karti hai.
Jayant
आईये जानें ..... मन ही मंदिर है !
आचार्य जी
बहुत ख़ूब अमिताभजी !
आग़ाज़ ही कविता के तेवर बता रहा है…
"जब रेंकने वाले गधे
भौंकने लगे
तब समझो आदमी के
धैर्य की
परीक्षा शुरू हो जाती है।"
क्या बात है !
और
"परिस्थितियों की कोचिंग क्लास"
यह नया बिंब साहित्यजगत में आगे से आपकी वज़ह से प्रचलन में आता रहेगा ।
साधुवाद्…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
zabardast....aaj ke daur me yahi sab hona hai saab ...
Maikya Baujee,
Aap to dikhne mein bhi padhe-likhe lagte hain, upar se kuchh khaas hai!
Aur main thehra ekdum khalis 100% aam.....
Zor laga raha hoon, shayad subah tak samajh aa jaaye!
सही निष्कर्ष है ।
Dear Amitabh ji,
a very nice poem. i have copy-pasted your work in one of my facebook entries. but hae taken due care to mention about you.
I hope u don't mind.:-)
U can anytime check out my link through settings of your blog.
Regards,
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