''तुम पहाड़ पर चढ़कर आसमान को छूने की बात करती हो और मैं कहता हूँ पहाड़ से भी ऊंचा है आसमान। हाथ नहीं पहुंचेगा।''
''पहाड़ पर चढ़ जाने के सुकून से वंचित तो नहीं होउंगी। और वैसे भी आप कोई भी सफलता हासिल कर लो , और और सफलताएं , ऊपर चढ़ते-बढ़ते रहने की लालसा जाग्रत हो जाती है। बस , पहाड़ और आसमान के बीच मेरे हाथ की इतनी सी ही तो कहानी है।''
''तुम हर बात को इतना फिलॉसफिकल क्यों ले लेती हो ?''
''तुम हर बात को इतना सामान्य क्यों लेते हो ?''
''उफ्फ , कठिन है तुमसे बात करना। अच्छा मैं चलता हूँ।''
''ठीक है , तुम सरल मार्ग से जाओ , मैं कठिन ही सही।''
''फिर वही बात , कभी तो रोमांटिक मूड में आया करो।''
''चलो , तुम्हे देर हो रही है।''
वीरा ने टिफिन बंद किया और वीर के हाथो पकड़ाया। वीर बगैर कुछ बोले टिफिन को हाथ में लेकर दरवाजे से बाहर निकल गया।
ऐसा रोज ही होता है। किसी न किसी विषय पर बात का अंत वीरा की दार्शनिक बात और वीर की सामान्य सी सोच के साथ ख़त्म होती है , रात जब दोनों घर आते हैं तो लगभग थके हुए होते हैं। सो जाते हैं। सुबह का वही चक्र। वीरा पहले उठती है। कमरो की सफाई के बाद फ्रेश होती है और चाय बनाती है। वीर तब उठता है जब वीरा लगभग तैयार हो जाती है। मगर वीर के जाने के बाद ही वीरा घर से निकलती है। वीरा हमेशा सोचती है , अगर वो घर से पहले निकली तो वीर के बस का नहीं है टिफिन तैयार करके ले जाना। कई बार ऐसा हुआ भी है। वीरा को किसी मीटिंग की वजह से जल्दी जाना हुआ और वीर बगैर टिफिन के ऑफिस चला गया। वीर बाहर खाना भी तो नहीं खाता कि वीरा निश्चिन्त रहे। वीर जानता था कि वीरा उसका बहुत ख्याल रखती है और वह उसे टिफिन बनाकर इसीलिये देती है क्योंकि वो रात तक भूखा ही रहेगा। महीने में वीर वीरा को कोई ८ हजार रुपये देता है। टिफिन के। वीरा ले भी लेती है। क्योंकि लिव इन रिलेशन में रहना पूरा प्रैक्टिकल ही तो रहता है। दिल की बात इसमें नहीं होती और वीरा लाना भी नहीं चाहती। वीर कभी कभी सोचने लग जाता है कि वीरा को अपनी बना ले किन्तु कह नहीं पाता , कहने को होता है तो वीरा की दार्शनिक बातें उसे झेलनी पड़ जाती थी। वह जानता था कि वीरा में प्यार-व्यार का कोई भूत नहीं है। वह जिंदगी को बहुत रूखा सा लेती है। और वीरा को लगता था कि वीर अभी नादाँ है। नादाँ तो था ही वो।
रात बिस्तर में वीर करवट लेकर सोता है मगर वीरा उससे लिपट कर। वीर कहता है - ''क्यों डर लगता है क्या ?''
''नहीं, मुझे आदत है। पापा के साथ ऐसा ही सोती हूँ।''
''पर मैं तुम्हारा पापा नहीं हूँ।''
''हाँ, मैं भी कोई तुम्हारी बेटी नहीं हूँ।''
''फिर ?''
''फिर क्या ?''
''सो जाओ चुपचाप।''
अक्सर ऐसा ही होता है और सुबह हो जाती है।
उस दिन वीरा का आख़िरी दिन था। प्रमोशन पर उसका तबादला चंडीगढ़ हो गया था। रात देर से भी पहुँची थी। मगर वीर को उसने घर पहुंचा न देखा तो सोच में पड़ गयी। उसने फोन किया।
''कहाँ हो वीर ?''
''वीरा , अभी कितना बजा है?''
''११ बज रहे हैं रात के। पर तुम हो कहाँ, ऐसे तो कभी बाहर नहीं रहे ?''
''तुम्हे पता है वीरा , वो पानी की टंकी के पीछे जो पर्वत श्रंखला दिखती है न , मैं बस उसके नीचे खड़ा हूँ।''
''क्यों ?''
''तुम आ जाओ , आज पहाड़ पर चढूंगा , आसमान को छूने। तुम साथ नहीं चलोगी ?''
''रात में ?''
''हाँ, सोचता हूँ शायद चाँद भी हाथ लग जाए।''
''चाँद का क्या करोगे ?''
''अपने साथ रखूंगा। तुम्हारे जाने के बाद कोई तो मेरे साथ होना चाहिए न।''
वीरा ने फोन बंद कर दिया। और कुछ देर खड़ी सोचती रही। फिर सीधे घर से बाहर निकली , बाइक उठाई और चल पडी जहां वीर था।
''चलो मेरे साथ।'' हाथ पकड़ कर वीरा ने खींचा।
''क्यों?''
''चाँद घर पर ही है। तुम्हे पता है डिजायरली नामक एक महान व्यक्ति हुआ है।''
''हाँ, तो ?'' वीर ने हैरानी से कहा।
''तो क्या...'' माथे पर हल्की सी चपत लगाते हुए वीरा ने कहा - ''उसने कहा है - हर चीज लौट कर आती है अगर आदमी इंतज़ार करे।''
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें