गुरुवार, 14 मई 2015

सब्र

'बेरोजगार के चेहरे पर मुस्कराहट उसकी लापरवाही नहीं होती बल्कि उसका धैर्य होता है।''
''किस धैर्य की बात करते हो ? हाथ-पैर बाँध कर बैठे रहना और ईश्वर से प्रार्थना करते रहना कि कोई नौकरी मिले ?''
''इसमे भी क्या बुराई है ?''
''बुराई , अरे ये बेवकूफी है , मूर्खता है।''
''ये तुम कैसे कह सकते हो कि ये मूर्खता है ? क्या मूर्खता यह नहीं की बगैर किसीके बुलावे पर आप नौकरी की भीख माँगने जाओ और वो आपको वहां से भगा दे।  देखो , याचना आदमी को झुका देती है , दो कौड़ी का आदमी एक याचक का बाप बन जाता है। समझे।''
''कामयाबी के लिए संघर्ष जरूरी होता है, यही सब संघर्ष है। इतना मैं जानता हूँ।''
''हाँ, जरूरी है, मैंने कब मना किया और वैसे भी हर कामयाब आदमी प्रेरक बन जाता है और वो अपने संघर्ष को  ढेर सारे रंग दे देकर कहता फिरता है।  किन्तु असल में होता कुछ नहीं है , कामयाबी संघर्ष के बाद ही मिलती हो ऐसा नहीं है।  कामयाबी प्रत्येक कार्य का परिणाम है।  चाहे वो हार हो या जीत। कार्य ही   कामयाबी भी  है। यानी उसका परिणाम। हार भी कामयाबी ही होती है दोस्त।''
''मुझे समझ नहीं आता तेरा तर्क।''
''हाँ, ये जो समझ है वह भी बड़ी विचित्र होती है।  प्रत्येक आदमी जो सोचता है , उसके लिए वही एकमात्र सच और सही होता है।  उसके भिन्न वो कुछ सुनना ही नहीं चाहता।  आप ठीक वैसा करो जैसा कोई बोलता है और नहीं किया तो वो आपको ताने भी मारने लगता है। संभव है किसीके प्रति गलत फहमियां पलने की यह शुरुआत भी हो। यह स्वभाव है आदमी का।  इसे पूर्वाग्रह कहते हैं।  और हाँ, ऐसा तब अधिक होता है जब दो परस्पर व्यक्तियों में एक रोजगार-सफल हो और दूसरा बेरोजगार।  अगर दोनों एक जैसे हों तो तर्क और एक दूसरे को समझ सकते हैं। क्योंकि दोनों एक दुसरे की मनोस्थिति को समझने लायक होते हैं। इसलिए मनोविज्ञान में कहा गया है कि आप किसीको समझाएं तो पहले उसकी तरह आप सोचने और समझने लायक बनें।''
''अजीब है , आदमी फालतू होने पर दार्शनिक भी बन जाता है , यह आज पहली बार देख रहा हूँ मैं।''  हँसते हुए रोहन विक्रम की पीठ पर हाथ रखते हुए उठता है - ''अच्छा अब मैं चलता हूँ , आफिस में लेट हो जाऊंगा।''
''ठीक है , रात को फ्री रहे तो आना।''  विक्रम भी उसके साथ खड़ा होता है और रोहन को दरवाजे तक छोड़ने जाता है।
''विक्रम कहीं अपनी जिंदगी बिगाड़ न ले ....''  रोहन बाइक ड्राइव करते हुए सोच रहा है- ''पहले वो ऐसा नहीं था।  मेरी बात मानता था , बहस तो करता ही नहीं था।  मगर आज , पता नहीं क्या हो गया है उसे। शायद बेरोजगार होना चिड़चिड़ा भी बना देता है आदमी को ? और दार्शनिक भी......''
विक्रम रोहन को विदा कर अपने कमरे में लौट आया है।  नीचे बिछी चटाई पर धम्म से बैठता है और चित लेट जाता है।  कमरे की छत पर उसकी निगाहें टिक जाती है।  ''रोहन मेरे लिए सोचता है , मैं उसकी हर बात को काटने लगा हूँ।  क्या मैं सही कर रहा हूँ ? मैं जो सोचता हूँ क्या वही एकमात्र सही है या रोहन जो कहता है -समझाता है वो सही है ? वो गलत नहीं कहता-आखिर मेरे भले के लिए ही तो कहता है। पर मैं करू तो क्या करूँ ? हालात ने मुझे पंगु बना दिया है।  वैसे रोहन कहता है - तू फालतू रहकर दार्शनिक हो चला है।  उसे क्या पता  कि  अगर मैं तर्क और दर्शन या फिर आध्यात्मिक होकर नहीं सोचूंगा तो शायद मैं खड़ा रहने लायक भी नहीं रह पाउँगा।  यह सब कुछ मेरा धैर्य है , धैर्य थामे रखने के लिए आदमी को किसी न किसी का सहारा तो लेना ही पड़ता है।  ईश्वर का है तो क्या बुरा  . और ईश्वर  आपको अकेला नहीं होने देता- आप को ताउम्र लगता है की वो कुछ भला करेगा। और आप इस आस में खड़े रहते हैं।  गिरते नहीं। इसे रोहन मूर्खता भले कहे मगर यह मूर्खता ही आदमी का सहारा अधिक है.....''
विक्रम के चहरे पर हलकी सी मुस्कान उभर आई है जो उसे शायद पता भी नहीं , पता तो उसे यह भी नहीं चला  कि इसी मुस्कान के साथ लेटे हुए सोचते सोचते  उसकी आँख कब लग गयी।

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