मंगलवार, 31 जुलाई 2018

वक्त

वक्त देना जीवन का सबसे बड़ा तोहफा होता है। कौन किसे वक्त देता है अपना ? इस जूझती, दौड़ती, भागती दुनिया में जो ये लोग आपस में मिलते जुलते , गलबहियां डाले दीखते हैं उनकी पीठ पर चिपकी होती हैं लालसाएं, लदे होते हैं स्वार्थ के बोरे, किसी न किसी काम के साए में होती है मीटिंग्स। मिलते सब हैं मगर वक्त नहीं देते , वक्त लेते हैं।
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-तुम मिलोगे?
-हाँ, पक्का ।
-सच में?
-हाँ।
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कितनी सारी योजनाएं बनती है । दिमाग में मिलने के लिए दौड़ते हैं बहाने, जीवन के मकड़ जालों से कुछ देर बाहर निकलने की उत्सुकता और सालों साल बाद मिलने के क्षण को न गंवा देने की अथक कोशिशें। ये मिलन वक्त का सबसे शुद्ध मिलन माना जाता है जिसमे कोई स्वार्थ नहीं ,सिर्फ मिलने की उत्कंठा और उस सुख को पुनः जीवित कर देना जो कभी जिंदगी के खेल में दफ़्न हो चुका था।
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ज्यादा देर तो हम साथ नहीं रह सकते किन्तु मिलना जरूरी था, पता नहीं अब कब मुलाकात हो ...!
हाँ, इस बीच कितना कुछ बदल गया....उम्र चढ़ आई चेहरों पर ...
मगर जो ठहरी हुई मित्रता थी वो आज भी तो वैसी ही हरी हरी है ...है न ..
मैंने कुछ बहाने बनाए हैं ..कुछ बहाने घर पहुंच बनाने होंगे।
लंच साथ में करने का वादा था...लो वो पूरा भी हुआ।
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इधर उधर की बातों ने मिलने के थोड़े से निकले वक्त को फुर्र से उड़ा दिया और अब अपने अपने रास्ते जाना है ..ये सच किसी भी स्नेहात्मक सम्बन्धो का सबसे कठिन किन्तु अटल सच होता है। कौन किसे आज ऐसा वक्त देता है भला ...
जरा अपना हाथ बढ़ाओ...
कलाई पर एक घड़ी बाँध दी गई ।
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वक्त पर वक्त को ढालने वाली भेंट, वक्त को फ्रेम में जड़ कर स्मृतियों की दीवार पर टांगने वाली भेंट..ये ही असल पूँजी होती है दोस्त ...बाकी जीवन में कुच्छ भी न धरा ...
बस्स अपनों को वक्त दो !
- टुकड़ा टुकड़ा डायरी /28जुलाई2018

बाँध

हम सब बहने वाली चीजो को रोकने का प्रयत्न करते हैं...
बाँध बनाते हैं
किंतु इन बांधो से सैकड़ों जमीनें डूब जाती है।
बाँध आवश्यक हैं,
आवश्यक वो जमीनें भी हैं। 
फिर करें क्या ?
कविताएं बाँध क्यों हैं,
वो सारे के सारे बह रहे विचार नहीं समाते कविता में जिन्हें बाँध के बाद डूब जाना होता है।
डूबी जमीन को बचाइए, विस्थापित न कीजिए ...
कविता दरअसल डूबी जमीन है ।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /29 जुलाई18)

पुरुष की पीड़ा

पुरुष की पीड़ा
घुप्प अँधेरे में होने वाली घटना है।
वह इतनी एकाकी है कि
उसे स्वयं पीना है।
घूँट की कोई प्रतिध्वनि नहीं।
प्रचारित नहीं है वो
और न ही लेखनी से
प्रसारित की जा सकती है।
वो हलक में रोक देने वाली
नीलकंठी प्रक्रिया है।
पुरुष की पीड़ा
कोख में दफ़्न हो जाने वाली
अबोली स्थिति है ।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी/28 जुलाई 18)

पत्थर है जगत

तराशे जाने वाले पत्थर
आकर्षक मूर्ति का रूप जरूर लेते हैं
पर जीवन नहीं होता उनमें,
वो भ्रम पैदा करते हैं
रहते पत्थर ही हैं।
पत्थर है जगत।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /30 जुलाई 18)

दुनिया एक सांप है

सुनो ,
गिरगिट सी व्यवस्था और
विषभरे सम्बन्ध से नहीं बच सकते तुम।
यहां प्रेम चिकना, चमकीली त्वचा का है 
रेंगता है,
तुम्हे ही नहीं
बल्कि अपनी केंचुली तक वो छोड़ देता है।
दोस्त,
दुनिया एक सांप है
जिसकी पूंछ पकड़नी चाहिए।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी / ३१-जुलाई-१८)

रविवार, 22 जुलाई 2018

समझी क्या बारिश ?

कहा था
हांफ जाओगी।
कमर में पल्लू खोंस के झूमने लगी
इतना कि गोया कोई रिकार्ड बनाना हो।
जियादा नृत्य भी ठीक नहीं होता
वहां तो कतई नहीं जहाँ स्टेज न हो ।
जहाँ हैं वहां तुम नहीं झूमती।
लोग जो तुम्हारे नृत्य पर झूम रहे थे
दूसरे तीसरे दिन उठ कर जाने लगे।
तेज बाजे का शोर
धूम धड़ाका और बेतरतीब नाच
भाता नहीं है।
अब देखो न
आयोजकों से लेकर घटिया मंच तक की
पोल खोल गया
मगर तुम न रुकी।
अब कैसे तो थक चुकी हो
हांफ रही हो
मगर थिरकना गया नहीं है ।
दर्शक जा चुके हैं
सबके अपने काम होते हैं ।
तुम भी जाओ
वहां जहाँ तुम्हारे नृत्य की जरूरत है
वहां जहाँ तुम्हे बुला रहे हैं
वहां जहाँ प्यासे है तुम्हे देखभर लेने के
मायानगरी में लोग सिर्फ
मनोरंजन भर करते हैं
वो हुआ।
समझी क्या बारिश ?
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी -11/07/18)

यहाँ कौन है तेरा मुसाफिर ...


पीड़ाएं बाहर नहीं दिखती ।
अन्तस् का रास्ता
इतना सँकरा है कि
कौन पहुंच सकता है ?
तिस पर घुप्प अँधेरा।
जब हाथ को हाथ नहीं सूझता
तब कैसे सूझेगा किसी का सन्नाटा?
खैर छोडो ..
आओ, बैठो
चाय पियो !
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी , 13/07/18)

अश्क का शे'र


गुंजाइश

जब कोई भी गुंजाइश शेष न हो ...
बावजूद इसके
उम्मीद की बैसाखी पकड़े
पीठ पर प्रतीक्षा लादे
विकट काली, भयावह पहाड़ियों के
दुर्गम उबड़ खाबड़ रास्तों पर चलना
और सूख चुके हलक में
सूरज की तपती किरणों के घूँट उतारना
दुनिया के लिए पागलपन है।
किन्तु जो कुछ
खोने की लालसा में
अद्भुत से सुख का निर्माण कर रहा है
उसे ज्ञात है
कि क्षितिज के पार भी दुनिया है
जिसके तहखाने में है वो प्रेम पेटी ..
एक 'हाँ' के लिए होता है जीवनसारा
क्योंकि जानता है पथिक
विधाता की डिक्शनरी में 'ना' नहीं है।
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी- 18/7/18)

बारिश


नीरज का जाना

पीड़ा के संग रास रचाया, आँख भरी तो झूम के गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से, क्या इस तरह जिया जाएगा..

मंदिर


बुधवार, 11 जुलाई 2018

तुम भी न बारिश

तुम भी न बारिश
हो क्या चीज ?
बताओ तो !
पानी तो नहीं हो तुम ।
होती तो कैसे जलाती हॄदय इतने
मन में क्यों आग लगाती?
भला पानी भी
लौ फूंकता है क्या!
(टुकड़ा-टुकड़ा डायरी, ०९-०७-१८ )

सोमवार, 2 जुलाई 2018

कभी कभी इश्क़

कभी कभी इश्क़
अचानक होता है ..
अचानक ।
एकदम से।
देखते ही।
उतर जाता है अंदर ,
समा जाता है ।
बहने लगता है रक्त की तरह रगों में ..
कोई प्रश्न नहीं - किससे हुआ, क्यों हुआ और ये क्या हुआ ?
बस होता है ।
सच मानना
इश्क़ बुरा नहीं होता ।
कभी उसे अपनी हथेली पर रखकर
आँखों के करीब लाकर
ग़ौर से देखना ..
उसका रंग पानी है ..
हवा है ..
जीवन है।
मृत्यु के बाद सा जीवन।

उम्र बूँद बूँद

माथे के उपर
भिनभिनाते सत्य को तुम
मच्छर उड़ाने की भांति
हाथों से झटकते, भगाते ,उड़ाते रहते हो
कि कहीं डँस न ले ..
आहा,
जीवन कितना भोला है
नासमझ है , नादान है
कि जैसे मिला तो मिल ही गया।
तुम मानो या न मानो प्रिये !
अमृत कलश में जरूर
छोटा सा छिद्र है
रिसती है जहाँ से उम्र बूँद बूँद ।

छिपे प्यार

हर एक कविता के बाद
छोड़ देते हो तुम
प्रतीक्षा ।
हाँ न ...तुम्हे खबर नहीं है 
मुझे प्रेम हो गया है
तुम्हारी कविताओं से ।
मानो या न मानो
किन्तु लिखे शब्द और उनके अर्थ
जैसे छू कर मुझसे
जाते हैं
जैसे सिरहन सी दौड़ती है पूरी देह में ।
जानते बूझते भी कि
मेरे लिए नहीं है ये शब्द ,
न ये डोली भाव की
जो सामने से गुजरती है
गुजर जाती है।
फिर भी
देर तक खड़ा महसूसता रहता हूँ
गंध को कविता की ।
जैसे फिर लौटोगे तुम अपनी कविता के साथ
इसी रास्ते से
और मैं दूर खड़ा निहारूँगा
डूब जाऊँगा , पढ़ जाऊँगा।
और तुम्हे खबर भी न होगी
छिपे इस प्यार की।

बहुत मज़ा

और मैं आँख बंद कर ट्रैफिक के बीच दौड़ लगाता हूँ
गाड़ी घोड़े वाले जब मुझे बचाते हुए चलते हैं तो
मज़ा आता है।
हवलदार की घुड़की को
अपनी सॉरी सॉरी से डिलीट करने का
मज़ा कौन क्या जाने।
बोलो कूदोगे मेरे संग गहरे
ख़ौफ़नाक सागर में
कि तैरना भी नहीं आता मुझे
किसी को बचा तो सकता ही नहीं।
सोचकर जो सिरहन सी दौड़ती हैं उस रोमांच की
मज़ा विलग है दोस्त।
खाली जेब किसी पंचतारा में घुस जाना
और किसी बुक्ड टेबल पर बैठकर
आर्डर देने का मज़ा क्या है
जानते हो ?
मैं तो ऐसा ही हूँ जीने के लिए ।
प्रेमिका को सागर किनारे नहीं ले जाता
जाते हैं किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम..
या फिर यतीम बच्चो के साथ बीच सड़क पर
गुल्लीडंडा , गेंदमार खेलते हुए जोर से
गला फाड़ चिल्लाते हैं तो
चलते लोगों का बिदकना
मुंह बनाना
उनकी
डांट सुनने का मज़ा ...!
आहा ....
इस आहा को पाना है तो
किसी दिन कमर कस लेना
आवारागर्दी के लिए
फेंक आना अपने पद-प्रतिष्ठा -पैसा आदि को
शहर के बड़े गंदे से नाले में
हाहाहा ..
हंसो भी यार क्योंकि
इस पूरे ब्रह्माण्ड में
हंस सकता है तो सिर्फ मनुष्य ही।
इस प्राप्य अद्भुत गिफ्ट को
गंवाना मत कभी ।
बहुत मज़ा है इसमें।

चुपके से

चुपके से जाकर 
छूट चुकी पिछली पोस्टों को 
लाइक कर आना 
उसे दीवार पर फिर से चिपका आना होता है।
फिर से जन्म ले लेती हैं वो सारी।
जिन्होंने पढी और जिन्होंने नहीं पढ़ी
फिर फिर जी लेते हैं उसे।
इस तरह अपन ही
ब्रह्मा हो जाते हैं -
लिखे को बिसरने न देने
उसे जिलाने के।

स्त्री-पुरुष

अपने जीवन, प्रेम और संसार में
कितनी व्यस्त हो तुम
बावजूद वक्त निकालती हो मेरे लिए!
पता है वो कितना खरा है ?
मेरे लिए ठीक ठीक वैसा
जैसे समुद्र मंथन से निकला अमृत!
ये तो जाना मैंने!
किन्तु क्यों न जान सका कि
मुझे अमृत देकर तुमने
विष का क्या किया ?
निकलता तो वो भी है।
कभी बताती नहीं स्त्री
और
पूछता भी कहाँ है पुरुष।

मारीचिकाएं

गर्म रेत में धँसते पैर
और सिर पर धरे सूरज की तपन
सूखा गला
और रूंधे गले में फंसी आवाज़
किसे पुकार पाती भला।
दूर दूर तक सन्नाटा
धुंधली, मिचमिचाती आँखों में
हवा के तांडव से उड़ते रेत कण
भनभना रहे इस समय को
इतना सूना बना चुके कि
कहीं से तितली उड़ कर आ जाती
जिसके पीछे चल पड़ते हैं कदम।
मानो रेगिस्तान के इस भयावह मार्ग से वो निकाल बाहर करेगी।
उम्मीदें आदमी को जिंदा रखती हैं।
प्रेम रेगिस्तान में भी उपजता है ।
आदमी की खुशफहमी भी एक गलतफहमी हो सकती है।
कि तितली आई, बैठी , उड़ी
कि किसी सरोवर तट से टकरा कर पवन ने ठन्डे झौंके दिए।
कि कदम में जान आ गयी
और चल पड़ा उस दूरस्थ झील की ओर
सोचकर कि
होगी महक फुलवारी की
तितली वहीं तो जाएगी।
किन्तु
कहाँ जान पाता है एक अनजाना आदमी
कि रेगिस्तान में होती हैं मारीचिकाएं।

फिलॉसॉफीकल दलील

वो जब मिटटी गूंथते दीखते हैं
तो लगता है किसी मूर्ति को आकार देंगे।
वो ऐसा नहीं करते।
मूर्ति को नहीं बल्कि जिन्दा लोगो को
जिन्दा रखने के लिए 
दुनिया गोल की तरह
गोल गोल रोटियों को आकार देते हैं।
मिट्टी में नमक
नमकहलाल की तरह ही तो है
जो मिलाकर पेट की भूख को थापने की
जद्दोजहद करते हैं वो।
कितना काला काल है
कि लोग रिपोर्ट बनाते हैं।
तस्वीरे खींचते है
बच्चे, जवान ,बूढ़ों को
मिट्टी की रोटी खाते देखती है दुनिया
मगर कोई समाधान नहीं।
मजबूर लोगो के पेट से
मिट्टी हटा कर आटा भरने की
कोई तो हो कवायद !
कि मिट्टी के लोग
मिट्टी में मिल जाने की
फिलॉसॉफीकल दलील
लीलती रहेगी जिंदगियां?
( हैती, जहाँ मिट्टी की रोटी बनाकर खाने पर मजबूर हैं लोग ,ये दुनिया के विकास की सबसे दर्दनाक खबर है-मगर जिजीविषा देखो..उफ़।)