जन्म के साथ
जिन्दगी की तरह
एक सीधी-सपाट डोर थमाई थी "उसने",
कहा था, इसके सहारे
इसीकी तरह तुम भी चलना।
अभी चलना शुरू किया ही था कि
रिश्ते-नातों की तमाम
गठानें बान्धनी भी शुरू कर दी।
जीवन को जीने, उसे मज़बूत बनाने के चक्कर में
कितनी गांठे बान्ध ली..।
और जब मुड कर देखा तो
उन्हीं गांठों में फंसे, तडपते से हम दिखे।
और तो और
गांठों की वजह से
वो सीधी-सपाट, लम्बी सी डोर भी
छोटी हो गई, बिल्कुल जिन्दगी की तरह।
अब गठान खुलती नहीं,
खुलती भी है तो डोर में सलवटे हैं
वो सीधी रही नहीं,
सो इंसानी फितरत कि
काटने लगे हैं अब अपनी ही डोर
अपनी ही जिन्दगी की तरह।
उपर से यह वाहियात सोच कि
एक दिन
न रहेगा बांस
न बजेगी बांसुरी।
ख़ास दिन …
3 दिन पहले
15 टिप्पणियां:
अच्छी कविता है भाई अमिताभ ।
अमिताभ जी, रिश्तों सच्चे होते हैं तो वो जीवन की डोर को और लम्बा बनाते हैं, झूठी रिश्ते ही गांठ बनकर बोझ सा बन जाते हैं. रिश्तों-नातों की असलियत को उजागर करती सुंदर कविता है.
बहुत बढ़िया कविता, बधाई.
....बेहतरीन रचना!!!
Haan..aisa hota rahta hai..bahut khoobsoorat tareeqese ujagar kiya aapne..
amitaabh ji ,
mai chupchaap baitha hoon apne cabin me aapki kavita padhkar ... kahi kuch atak sa gaya hai gale me aur dil me ..... kitni sacchi aur sirf sacchi kavita ....yaar bhai ji , mera salaam kabul kare aur kuch kahne ki halaat me nahi hoon ...
aabhar
vijay
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अब गठान खुलती नहीं,
खुलती भी है तो डोर में सलवटे हैं
वो सीधी रही नहीं,
सो इंसानी फितरत कि
काटने लगे हैं अब अपनी ही डोर
अपनी ही जिन्दगी की तरह।
अमिताभ जी ये तो एकदम सत्य सभी के जीवन का आज हर किसी को इन्ही सबसे दो चार होना पड़ रहा है.आप ने तो दुखती रग पर ही कविता रख दी है
आभार
जीवन की उथल पुथल और कशमकश से उपजी कविता है.
गाठें बाँधती हैं खुलती हैं..बस जीवन की डोर यूँ ही कभी कच्ची तो कभी पक्की होती चली जाती है..
भावों की सफल अभिव्यक्ति.
सच कहा अमिताभ जी गाँठे इतनी गहरी और इतनी कसी हुई है कि अब खोलना बड़ा मुश्किल है। हमने पहले तो चंद पल की खुशी के लिए कुछ गाँठो की परवाह नही की पर जब जिदंगी की गलियों में अवरोध मिले तो लगे सोचने मगर समझे अब भी नहीं। वैसे जिदंग़ी को समझना इतना आसान भी नहीं। किसी ने कहा है कि " जो जिदंग़ी को समझता है वो जिदंगी पर रोता है.......।" और हाँ अगर जिदंगी का मजा लेना है तो सवाल मत करो बस जीते जाओ। खैर आपकी कविताएं बहुत गहरे कूँए से निकली होती है। और कुँए की पानी की तरह अंदर तक सुकून पहुँचाती है।
Amitaabh babu,
In gaanthon ki wajah se sukh bhi milta hai! Aapka ma-pitaji ke prati aadar-prem aisi hi ek gaanth ka parichayak hai!
Haan, kaee baar ye gaanthein dum ghotne ki kshamta bhi rakhteen hain!
Bhavpoorn rachna, badhai!
आखिरी लाइन ने चौका दिया ... पहले तो कविता समानांतर ही चलती रही ...
सच कहूँ तो पहले सोचा आपके स्तर की नहीं लग रही थी, सोचा आपको मेल करूँगा के ये क्या लिख रखा है ... फिर आखिरी लाइन ने चौंका दिया और यही अस्ल बात होती है लेखन में ...
बहुत खूब बात की है आपने ... अगर कोई बारीकी से ना पढ़े तो लाज़मी है समझ भी नहीं पायेगा ...
इस कविता पर एक और शे'र नूर साहब के ...
गुजरे जिधर जिधर से वो पलटे हुए नक़ाब
एक नूर की लकीर सी खिचती चली गयी ..
अर्श
rishto ko kasha-kassi se ubharti gantho ki hi tareh ye kavita man ki kashmokash ko ukerti hui acchhi lagi.
रिश्ते नातो की गाँठों में कभी कभी जीवन फँस के रह जाता है ... बहुत टेडी मेडी हो जाती हैं रिश्तों की गाँठें ... बहुत ही अच्छा लिखा है ... और रचना का अंत तो नयी उँचाइयों तक ले गया है आपकी सोच को ... अकल्पनीय अमिताभ जी ...
आपकी कविता का इन पंक्तियों से पूरा होना
उपर से यह वाहियात सोच कि
एक दिन
न रहेगा बांस
न बजेगी बांसुरी।
कुछ सोचने का सामान दे गया ..बाँसुरी भी बाँस की चरमावस्था जैसी कुछ होती है..तो ’उसका’ बाँस बनाने का उद्देश्य भी..मगर यह वाहियात सोच कि....
और इन रिश्तों की मोटी-हलकी गाँठें डोर को और भारी, बोझिल बना देती हैं..मगर एक अच्छी डोर भी तो वही है न जो टूट-टूट कर जुड़ने की क्षमता रखती हो..
मननयोग्य कविता!!
behad khubsurat marmsparshi kavita hai ..
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