समय, काल, परिस्थितियों के साथ-साथ पत्रकारिता की परिभाषा भी बदली है। उसका रूप, रंग और उद्देश्य ने भी करवट ली है। जिस पत्रकारिता का जन्म कभी 'मिशन' के तौर पर हुआ माना जाता था और जिसने अपनी महत्ता समाज़ की बुराइयों को जड से नष्ट करने के लिये स्थापित की थी वो आज अपनी उम्र के एक ऐसे पडाव पर आ पहुंची है जहां आगे खतरनाक खाई है और पीछे धकेलने वाले हजारों-हजार नये किंतु ओछे विचार। ये ओछे विचार ही आज की मांग बन चुके हैं। ऐसे विचार जिनमे स्वार्थगत चाटुकारिता निहित है, बे-ईमानी को किसी बेहतर रंग-रोगन से रोशन किया गया हैं और जिनमे ऐसे लोगों का वर्चस्व है जो अपनी सडी हुई मानसिकता को बाज़ार की ऊंची दुकानों में सजाये रखने का गुर जानते हैं। कह सकते हैं कि महात्मा गांधी की तरह ही पत्रकारिता भी आज महज इस्तमाल की चीज बन कर रह गई है। इसका हाल ठीक वैसा है जैसे घर में खांसता बूढा अपनी ही संतानों से सताया हुआ हो, या उसे बेघर कर दिया गया हो और उसकी विरासत को लूटा-झपटा जा रहा हो। सत्य, ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण वाले अति व्यंजन इस शब्द को स्वर्णाक्षर जरूर देते हैं किंतु यह दिखने वाली वह मरिचिका है जिसके आगे-पीछे सिर्फ रेत ही रेत बिछी है और सामान्य आदमी इस पर सफर नहीं कर सकता। ऊंट की तरह मेरुदंड वाले या कहें कूबड वाले लोग हैं जो इस रेत पर रास्ता बना कर दिशा तय कर रहे हैं। हां, मानस में यह प्रश्न जरूर उठता है कि यह सब हालिया बदलाव तो नहीं हैं, फिर अगर बदलाव हैं तो कब से और किस सदी से? पत्रकारिता का सत्यानाश आखिर कब से शुरु हुआ? और कैसे पाक से नापाक की ओर इसने रुख किया? इसका सही-सही आकलन करना वाकई कठिन है।
फ्रांस का बादशाह नेपोलियन बोनापार्ट जब विश्व विजय का ख्वाब देख रहा था तब उसने कहा था कि "एक लाख संगीनों की अपेक्षा मैं तीन समाचार पत्रों से ज्यादा डरता हूं।" यानी पत्रकारिता से डरने का क्रम 1769 ईसवीं से या इसके पहले से प्रारंभ हो चुका था, किंतु उस काल में इससे डरने का तात्पर्य यह था कि हम कहीं कोई गलत काम न कर बैठें या कोई ऐसी भूल न हो जाये कि लोग हमारे खिलाफ एकजुट हो जायें। समाचार पत्र तब समाज़ को और संसार को बचाये रखने का एक बेहतर जरिया माना जाता रहा। हमे अपने पौराणिक काल या उसके शास्त्रों में नारद जैसा एक विद्वान देवपुरुष मिलता है जो हालांकि पत्रकार नाम से कभी जाना नहीं गया किंतु उसके कार्य कुछ इसी प्रकार के थे। आप इसे नारद की चुगली या इधर की उधर लगाने वाली बात मान सकते हैं किंतु उनके इस कार्य में हमेशा ही कोई सदपरिणाम छुपा हुआ रहा, जिसने लोक की रक्षा की यानी लोकहितार्थ कार्य किये। सैमुअल बौल्स ने पत्रकारिता को देश की प्रमुख शक्ति के रूप में अगर समझा तो इसके पीछे यही कारण था कि पत्रकारिता जनता को जनता के हित में और बुराई से लड सकने का मार्ग प्रशस्त कर रही थी। किंतु समय के साथ-साथ अचानक जब वो सैमुअल जानसन की नज़र में आई तो उसने कहा " शायद ही कोई ऐसी चीज हो जो क्रूरता की कथा की तरह चेतना को झकझोरती हो। संवाद लेखक यह बताने से कभी नहीं चूकता कि शत्रुओं ने कैसे शिशुओं का वध किया और कुमारियों पर बलात्कार किया, और अगर घटनास्थल कहीं दूर रहा तो वह एक पूरे प्रदेश की आधी आबादी की खोपडियां उतरवा कर रख देता है।"
आप गंभीरता से सोचिये कि जिस पत्रकारिता ने भारत की आज़ादी में अपनी अहम भूमिका निभाई वो आज़ादी के बाद राजनीति, कारपोरेट या सेठ-साहुकारों के गलियारों में नाचती हुई दिख रही है। जहां यह फर्क करना दुश्वार हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन दलाल? या पत्रकारिता के भेष में दलाली ही दलाली? यदि इस रूप में पत्रकारिता है तो इसका दोष किसे दें? उन संपादकों को जिन्होने सेठ-मालिकों की जुबान पर अपने विचार तय किये? या उन सेठ-मालिकों को जिन्होने ऊंचे दाम में संपादक खरीदे? या ऐसे संपादकों को जिसने कभी अपने सहयोगियों को स्वच्छंद रहने, लिखने नहीं दिया। उन्हें हमेशा अपने हित के लिये दबाव में रखा और कार्य करवाया? यह आम राय है कि संपादकीय सहयोगी चाहे कितना भी प्रतिभावान हो उसे अपने संपादक की खुशी के लिये कार्य करना होता है न कि अखबार या चैनल के लिये। और यदि सहयोगी विशुद्ध प्रतिभा का इस्तमाल कर कोई बेहतर संपादन कार्य करना चाहता है तो संपादक द्वारा उसे अपने अहम और प्रतिष्ठा पर आघात मान लिया जाता है कि कैसे कोई अदना पत्रकार उन तक पहुंचे या उनसे अच्छा लिख सके। पेट और नौकरी की मज़बूरीवश सामान्य किंतु बेहद ऊर्जावान पत्रकार संपादकों के ओछे निर्णयों को भोगने, मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं। या फिर नौकरी छोड कर इस दलदल से दूर। शुद्ध पत्रकारिता को चकनाचूर करने मे इस रवैये ने भी अपनी अहम भूमिका निभाई है।
भारत में हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता की दशा में जमीन आसमान का फर्क है। हिन्दी पत्रकारिता गरीबी रेखा से नीचे की दिखती है और अंग्रेजी अमीरी रेखा से भी उपर की। वजह? वजह दोनों में भ्रष्ट नीति। एक ऊपर चढ बैठी तो दूसरी नीचे। सच्चीदानन्द हीरानंद वात्साययन 'अज्ञेय' की 'आत्मपरक' में इसी पत्रकारिता और संपादक के संदर्भ में उनके कथन है कि " आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही है और सम्मान के पात्र नहीं हैं।" विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक है 'पत्रकार कला' जिसमे उनकी भूमिका में गणेश शंकर विद्यार्थी का कोट है कि " यहां भी अब बहुत से पत्र सर्व साधारण के कल्याण के लिये नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं............., इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं, धन से ही वे चलते हैं और बडी वेदना के साथ कहना पडता है कि उनमे काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन की ही अभ्यर्थना करते हैं।" कृष्णबिहारी मिश्र भी इस पत्रकारिता के परिवेश को अपनी पुस्तक 'पत्रकारिता, इतिहास व प्रश्न' में यह जाहिर कर कहते हैं कि " आज पत्रकार देश के दुर्भाग्य को अपना दुर्भाग्य मानने और अपनी विरासत के उज्जवल अध्याय को अपना आदर्श बनाने को तैयार नहीं है। समाज के दूसरे वर्ग के लोगों की तरह वह निजी समृद्धि और विलास वैभव में जीने की आकुल स्पृहा से आंदोलित होकर रंगीन-घाटों पर दौडता नज़र आ रहा है।" ऐसे हालात सिर्फ भारत के बने हैं, ऐसा भी नहीं है..यह पत्रकारिता की दुनिया की रीत बन चुकी है। शायद तभी आस्कर वाइल्ड यह कहते पाये गये कि- " साहित्य और पत्रकारिता में फर्क यही है कि पत्रकारिता पढने योग्य नहीं होती और साहित्य पढा नहीं जाता।" जार्ज बर्नाड शा मानते थे कि-" एक साइकिल दुर्घटना और सभ्यता के बीच जो अंतर है, उसे पहचानने में समाचारपत्र जाहिरा तौर पर असमर्थ होते हैं।" यह इसलिये कि पत्रकारिता ने अपने स्तर को पुष्ट नहीं किया, उसने उसे बेहतर बनाने की दिशा नहीं दी। हो यह गया है कि पत्रकार तथ्यों के साथ इंसाफ नहीं कर रहा, इसके पीछे के कारण भी कई सारे होते हैं। मुझे मार्क ट्वेन के शब्द याद आते हैं कि-" पहले तथ्यों को प्राप्त कीजिये, फिर तो आप उन्हें जितना चाहे तोड-मरोड सकते हैं।" मार्क ने हो सकता है दूसरे लिहाज़ से कहा हो किंतु आज पत्रकारिता में अगर तथ्य होते हैं तो उनकी ऐसी-तैसी कर परोस दिया जा रहा है। नेपथ्य में दबाव, लालच या भ्रष्ट आचार का खेल है। समाचार पत्र मुख पत्र बन गये हैं और जो सचमुच मुखपत्र हैं उन पर छींटाकशी ऐसी कि मानों वे कोई अपराध कर रहे हों। कमसे कम वे मुखपत्र अपनी ईमानदारी तो दिखा ही रहे हैं जो समाचार पत्रों में नहीं दिखती।
आप न्यूज चैनलों की बात करें। आधुनिक युग का सबसे बडा और प्रभावशाली मीडिया तंत्र। इसे ग्लेमर या फैशन शो की संज्ञा दी जा सकती है, जहां समाचार और मुद्दो पर निष्पक्ष विचार नहीं होते बल्कि राजनेताओं के लिये खुला मंच सौंपा जाता है, खासकर उन्हें जो सत्ता में हो। सच भी है क्योंकि उनके वरदहस्त से ही सारी माल-मस्ती है। सूट-बूट और टाई में, जेल लगे सलीके से जमे केशों वाले प्रबुद्ध पत्रकार या बढी हुई दाढी और आधुनिक बुद्धिजीवी, जिसे आप अंग्रेजी में एक्स्ट्रा इंटलीजेंट कह सकते हैं, लोगों को इस कदर बेवकूफ बनाते हैं मानों उनके सिवा कोई पत्रकार नहीं है और ये ही चंद लोग अवार्ड या सम्मान पाते दिखते हैं। ऐसा लगता है मानों इलेक्ट्रानिक मीडिया के ये बाप-दादा हों, इनसे ही शुरु और इन पर ही खत्म होती है पत्रकारिता।
आप पिछले एक दशक का काल उठा कर देख लीजिये..कौनसा नया पत्रकार दिखा जिसे आपने कोई मीडिया अवार्ड लेते देखा? जब बडे जनर्लिस्ट दा किसी विवाद या घोटालों में फंसे दिखते हैं तो पत्रकारिता शर्म से अपना सिर नीचा कर लेती है। छोटों की बिसात क्या? वे तो छोटी छोटी बे-इमानियों में ही मस्त रहते हैं। पत्रकारिता की यह पापचरिता इतनी गंभीर रूप से पैठ चुकी है कि इसे ही हमने असल मान लिया है। कारपोरेट या चाटुकारिता वाली पत्रकारिता जबसे शुरू हुई तबसे इसकी जमीन पर अफीम उगने लगी, जिसके नशे में मदमस्त पत्रकार मानने को तैयार नहीं कि वह नशे में है। अफसोस होता है कि जिस पत्रकारिता ने वर्ष 1920 से 1947 के बीच संघर्ष, अभावों, अभिशापों और उत्पीडन के मध्य रहने के बावजूद देशहित में आग उगलती हुई कलम से भारतीय जनमानस में नईचेतना जाग्रत की, जिसने अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ एकमेव होकर अपनी आवाज़ बुलंद की और जिससे ब्रिटिश शासन तक हिल गया आज बाज़ार में सजी हुई है और जो चाहे उसे खरीद ले सकता है। आज 1885 के राजा रामपाल सिंह जैसे विशुद्ध लडाके नहीं बचे है जिन्होने राष्ट्रीय जागरण के लिये हिन्दी दैनिक 'हिन्दोस्थान' का प्रकाशन किया, और ऐसे ही अनगिनत पत्र प्रकाशित किये जाते रहे जो भारत की ऊर्जा, उसका आत्मबल साबित होते रहे। बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, गणेश विद्यार्थी जैसे अब इतिहास में दफ्न है जिनसे प्रेरणा लेना इन सफेदपोश माने जानेवाले पत्रकारों के लिये शरमींदगी का विषय है। मुझे फिर कृष्ण बिहारी मिश्र याद आते हैं जो लिखते हैं कि ".....स्खलन को नये मुहावरों से महिमान्वित करते गर्वपूर्वक कहा जाने लगा है कि पत्रकारिता आज व्यवसाय है। आदर्श का सवाल उठाना अप्रासंगिक राग टेरना है....।" मेरे जहन में एक सवाल कौन्धता है कि यदि पत्रकारिता व्यवसाय है तो क्या व्यवसाय में आदर्श की हत्या माफ होती है?
एक भारतीय मानसिकता यह भी कि "फिर भी उम्मीद है किसी ऐसे वीर, जाबांज की जो भारत की भूमि से इस गंदगी से सनी पत्रकारिता को उज्जवल कर दिखायेगा और ताज्जुब मत कीजिये कि इस और कदम बढाये जा चुके हैं। क्योंकि अच्छाई सनातन है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता और वो बुराई पर विजय प्राप्त करने के लिये ही अवतार लेती है।"
ख़ास दिन …
3 दिन पहले
12 टिप्पणियां:
सबसे पहले अमिताभ जी एक शानदार लेख के लिए बधाई। मैं कहने ही वाला था कि जैसे जैसे पत्रकारिता के आज के नायक भी मुखोटे लगाके घूमने लगे है तो एक लेख अवश्य लिखा जा चाहिए...।
अमिताभ जी कौन सी दुनिया में रहते हो आज के समय में व्यवसाय में भी कोई आर्दश होते है? व्यवसाय में सिर्फ होता है मुनाफा,बस। जैसे गाँधी के देश में गाँधी नही मिलते। वैसे ही मुनाफे के व्यवसाय में आर्द्श नही मिला करते अमिताभ जी। दरअसल बात कुछ यूँ हैकि पहले लोग पत्रकारिता में इसलिए जाया करतेथे कि उनका पहला मकसद जनता की मुशकिलों को उठानाऔर नए नए विचारों से लोगों जागरुक कर समाज में एक सार्थक बदलाव लाना। जहाँ पैसा इतना महत्व नहीं रखता था। बस उस पैसे घर ही चलाया जाता था। और कईबार तो हालात बत्तर होते थे पर और घर चलाना मुश्किल होता था पर पत्रकार अपनी पत्रकारिता नहीं छोड्ता था। तब लोग पत्रकार को सर आँखो पर रखतेथे पर उसके पेशे को अपने बच्चोंको नही अपनाने देते थे। पर अब मकसद बद्ल गया। सरोकार बदल गए है। अब पह्ला मकसद पैसा हो गया। और लोग अपने बच्चोंको शान से पत्रकार बनाते है। बैशक दूसरी तरफ उन्हें भला बुरा कहते है। अगर अमिताभ जी आज भी पत्रकारिता के मोटे मोटे पैकेज मिलने बंद हो जाए तो क्या आपको लगता है कि उतनी ही भीड आऐगी पत्रकार बनने जितनी की अब आती है? और कोई संस्थान मोटे मोटे पैकेज यूँ ही न्ही देगा। बद्ले मेंउसको कई गुना रिटर्न चाहिए।
और रिटर्न तब ही आऐगा जब ज्यादा एड आऐगी। और ज्यादा एड तब आऐगी जब खबरों में मासाला आऐगा। और मसाला जब आऐगा। जब उसमें वो मुद्दे आऐगे जिसकी वजह से आपने ये लेख लिखा और उसका टाईटल रखा "पत्रकारिता यदि व्यवसायाहै तो क्या व्यवसाय में आर्दश की हत्या माफ होती है?"
एक बेहतरीन लेख़ के लिए धन्यवाद्
अमिताभ जी एक शानदार और जानदार लेख के लिए बधाई. मैं तो इतना कहना चाहूंगी कि ये मिडिया वाले रातों रात बिना किसी कारण के किसी कि छवि उभार सकते है बिगाड़ सकते हैं, या राजा को रंक और रंक को राजा बना सकते हैं. मैं अपने घर की ही बात बताऊँ पिछले साल की ही बात है एक सरकारी कंपनी (जो अपने क्षेत्र की देश की नंबर वन है और शायद विश्व में भी किसी एक काम के लिए अव्वल और प्रोफिट मेकिंग में १८ पायदान पर ) के लोग जब हड़ताल पर गए और देश में खूब शोर हुआ और सरकार की थू थू हुई तो सरकार ने खूब अनाप शनाप बातें (जो सत्य से कोसों दूर थीं)मिडिया के द्वारा फैलानी शुरू की. हम लोगों के द्वारा मीडिया से सम्पर्क करने और अपनी सफाई की बात चली तो देश के एक प्रतिष्ठित टी वी चेनेल वालों ने करोड़ों रूपये के लिए मुंह खोला. अब आगे तो कहने को कुछ बचा ही नहीं
आभार
एक भारतीय मानसिकता यह भी कि "फिर भी उम्मीद है किसी ऐसे वीर, जाबांज की जो भारत की भूमि से इस गंदगी से सनी पत्रकारिता को उज्जवल कर दिखायेगा और ताज्जुब मत कीजिये कि इस और कदम बढाये जा चुके हैं। क्योंकि अच्छाई सनातन है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता और वो बुराई पर विजय प्राप्त करने के लिये ही अवतार लेती है।"
Achha laga ki,is behtareen aalekh ka ant in ashawaadee khayalaat se hua!
ये बात तो तय है की मीडिया की अपनी मजबूरियाँ होती हैं .... उनके भी कमाई करनी होती है ... खुद को चलाने के लिए ... और अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए ... पर आज का मंदी सच में इनसब से बहुत आगे है ... और इस चमकती दुनिया में पत्रकार भी इन सब बातों से अछूते नहीं हैं ... नमी गिरामी पत्रकार तो वैसे भी निष्पक्ष नहीं रह पाते ... किसी न किसी विचारधारा के प्रतिनिधित्व करते हैं ... और ऐसे लोग उनका पोषण भी करते हैं ....
अमिताभ जी एक बहुत ही प्रभावी, लाजवाब विश्लेषण भरा लेख है आपका ... सोचने को मजबूर करता है ....
bhaayi amitaabh ji aap to chupe rustm nikle aek amitaabh big b he to dusre aap amitaabh blogr ki duniyaa ke aaj se big b ghoshit hue mubark ho . akhtar khan akela kota rajsthan
अमिताभ एक शानदार लेख के लिए बधाई।
"सूट-बूट और टाई में, जेल लगे सलीके से जमे केशों वाले प्रबुद्ध पत्रकार या बढी हुई दाढी और आधुनिक बुद्धिजीवी, जिसे आप अंग्रेजी में एक्स्ट्रा इंटलीजेंट कह सकते हैं, लोगों को इस कदर बेवकूफ बनाते हैं मानों उनके सिवा कोई पत्रकार नहीं है और ये ही चंद लोग अवार्ड या सम्मान पाते दिखते हैं। "
आपसे पूर्णत सहमत |
इस सामयिक आलेख पर कुछ भी कह पाने में असमर्थ प् रही हूँ आपने पत्रकारिता का उद्देश्य ,पत्रकारिता की सम्पूर्ण सफल ,असफल यात्रा को
बहुत ही बेबाकी के साथ लिखा है |
साधुवाद
आ गये आप अपने बेहतरीन अन्दाज़ में। यही खास होता है आपके आलेखों में। पहले अखबारों में पढा करता था, नशा सा हो गया था आपको पढने का..अब ब्लॉग दुनिया में। मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। पत्रकारिता के इस बदलते परिवेश पर आपसे वैसे भी कई बार बात हो चुकी है मगर आलेख तो आलेख होता है और इसका मज़ा खास। अरे हां कवितायें काफी दिन हुए लिखी नहीं है आपने। मगर मैं तो आलेख के बाद नीचे खिसक आता हूं और फिर से कवितायें पढकर नये नये अर्थों के साथ आनंद ले लेता हूं।
-डॉ.राजेश वर्मा
patrkarita ko lekar raveesh ji ki kain reports padhi hai..mujhe bahut gyaan to nahi ..par phir bhi itna to padhkar keh sakti hoon..khara likha hai
एक बेहद प्रभावशाली लेख..अपने मेसेज को पहुँचाने मे पूरी तरह सफ़ल है..पढ़ कर पत्र्कारिता के बारे मे कुछ अहम बातें पता चलीं और आपके कन्सर्न का अंदाजा भी लगता है..कोई भी पेशा कभी अपने आस-पास के समाज और उसके मूल्यों से अछूता नही रहता..और अगर किसी पेशे के लिये पैशन से ज्यादा पैसा और ग्लैमर आकर्षित करे तो उनसे उच्च मूल्यों के निर्वहन की अपेक्षा नही की जा सकती..और किसी भी पेशे की मूल्यहीनता की बड़ी वजह उसके उच्चतम आदर्शपुरुषों का पतन होना और निहित प्रतिबद्धता के मानकों का ह्रास होना है..आज जब कि बाजार-केंद्रित समाज और अर्थव्यवस्था हमारे सामाजिक ढ़ांचे के लिये सबसे बड़ा खतरा बनती जा रही हो..वहाँ पत्रकारिता का अपनी भूमिका का सचेत निर्वहन सबसे बड़ी आवश्यकता..जबकि पत्रकारिता का अपने उद्धेश्य से विचलन एक गंभीर बात है...मगर आपके लेख के अंत का आशावाद खोखला नही है..और यही हमारे वक्त की एक बड़ी उम्मीद भी...
आभार विस्मृतियों के दौर मे इन जरूरी बातों की चर्चा करने के लिये..
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