शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बारिश?

मुम्बई में बारिश का कोई ठिकाना नहीं रहता, अभी सूरज चमक रहा है और अचानक बारिश धम से टपक पडती है..रुक रुक कर, कभी तेज़ तो कभी धीमी...यहां के आलम का यह विचित्र मज़ा है..ऐसी ही बारिश की तरह लग सकती है मेरी यह रचना...

हां शायद बारिश शुरू हो गई है,
कल घर से बाहर निकला था
तो पैर के जूते गिले हो गये थे..
पसीना इतना तो नहीं होता कि
जूते के तलवे गिले हो जाये
सो निश्चित ही बारिश का मौसम है।

और तुम कहते हो कि
आजकल अपनी भी फिक्र नहीं है,
कहां खोये होते हो
पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
और अगर टूट भी जाये तो
यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
तब लगता है हां
निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।

सूरज निकलता नहीं है
डरता है शायद
और ये हवाओं को क्या हो चला है कि
आजकल ठंडी हो गई है,
बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।

वैसे

जब भंवर लयबद्ध नहीं होती
जीवन की दिशायें एक सीध खो देती हैं
मुहफेरी की खिडकियों से
झांकने लगते हैं दोस्त,
पीठ के पीछे छूरा घोपने की घटनायें आम हो जाती हैं,
मुंह के सामने मीठी छुरियों का बाज़ार लगने लग जाता है
और वे कन्धे ऊंचे व बडे हो जाते हैं एक दम से
जिनके सहारे गले में हाथ डाला जाता था
तब लगता है बारिश सावन की चमक खो चुकी है
फिर तेज़ कितनी भी हो
मुझे दिखाई नहीं देती,
बस घर के छप्पर पर आवाज़ आती है
धप धप धपा धप
जैसे कोई धोबी घाट पर कपडों को पीट रहा हो
और ऐसे में कहो कि बारिश है
तो हो सकता है बारिश का मौसम है?

32 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत ही उम्दा रचना..लगता तो है बारिश का मौसम है.

seema gupta ने कहा…

बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।
" क्या सच में बारिश का मौसम ऐसा होता है..."

regards

Parul kanani ने कहा…

amazing post sir....aankhon mein mumbaiyaan baarish ke kuch chitra ubhar gaye :)

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बारिश के माध्यम से आपने जीवन के उतार चडॅव का स्पष्ट ढाँचा खींच दिया है अमिताभ जी .... पहाड़ टूटना तो उनको बारीशों का मौसम ही लगेगा जिन के सरों पर पहाड़ नही टूटता ... जिन के जीते गीली होते हैं जिन पर गुज़रती है उनको ही पता चलता है ..... आम जीवन को बारीशों के केनवास से देखने का आपका प्रयास अध्बुध है ....

मनोज कुमार ने कहा…

इस कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं। आज का दौर विचलनों का दौर है। विचलनों के इस दौर में कविताओं में धरती दिखाई नहीं देती। लेकिन यह दिलचस्प है कि आपकी रचना में धरती और आकाश का दुर्लभ संयोग दिखता है।
यह कविता बरसात के पहले लोगों द्वारा अपना घर सहेजने की प्रक्रिया मत्र नहीं है बल्कि कंक्रीट युग के बरक्स पूरी एक संस्कृति इस कविता में दृश्यमान हो उठी है।
कविता में मुहावरों लोकोक्तियों के प्रासंगिक उपयोग, लोकजीवन के ख़ूबसूरत बिंब कवि के काव्य-शिल्प को अधिक भाव-व्यंजक तो बना ही रहे हैं, दूसरे कवियों से आपको विशिष्ट भी बनाते हैं। मनुष्य होने और बने रहने की बिडंबनाएं अमिताभ जी आपकी इस कविता में जगह-जगह मौज़ूद हैं। कवि जब बरसात को कल्पित करता है तो जैसे मौसम को ही नहीं, ख़ुद को भी उदास पाता है। इस संदर्भ में ही इस कविता को देखा जा सकता है।

Alpana Verma ने कहा…

बरसात को जीवन की व्यस्तताओं में बंधे इंसान के नज़रिए से देखा और अभिव्यक्त किया है.
-अब यह कविता पढते ही लग ही रहा है कि बारिश का मौसम है!

सुशील छौक्कर ने कहा…

कमाल की रचना। बारिश के जरिए आज के हालात का वर्णन कर दिया। आपकी यही कला मुझे अच्छी लगती है
। कई बार पढी। और क्या कहूँ .........

Vinay ने कहा…

वाह कितनी खूबसूरत रचना है

आप कहाँ अंतर्ध्यान हैं?

Tafribaz ने कहा…

बहुत ही उम्दा रचना..लगता तो है बारिश का मौसम है

Tafribaz ने कहा…

बहुत ही उम्दा रचना..लगता तो है बारिश का मौसम है

Tafribaz ने कहा…

बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।
" क्या सच में बारिश का मौसम ऐसा होता है..."

Tafribaz ने कहा…

बाहर दिन भी पगला गया है
देखो कैसा तो रोता रहता है,
इधर रात है कि दिखती नहीं है इस अन्धेरे में
पता नहीं क्या हो गया है आजकल
इसे तुम कहते हो कि बारिश का मौसम है
सो हो सकता है।
" क्या सच में बारिश का मौसम ऐसा होता है..."

Tafribaz ने कहा…

amazing post sir....aankhon mein mumbaiyaan baarish ke kuch chitra ubhar gaye :)

Tafribaz ने कहा…

amazing post sir....aankhon mein mumbaiyaan baarish ke kuch chitra ubhar gaye :)

Tafribaz ने कहा…

बारिश के माध्यम से आपने जीवन के उतार चडॅव का स्पष्ट ढाँचा खींच दिया है अमिताभ जी .... पहाड़ टूटना तो उनको बारीशों का मौसम ही लगेगा जिन के सरों पर पहाड़ नही टूटता ... जिन के जीते गीली होते हैं जिन पर गुज़रती है उनको ही पता चलता है ..... आम जीवन को बारीशों के केनवास से देखने का आपका प्रयास अध्बुध है .

Tafribaz ने कहा…

बारिश के माध्यम से आपने जीवन के उतार चडॅव का स्पष्ट ढाँचा खींच दिया है अमिताभ जी .... पहाड़ टूटना तो उनको बारीशों का मौसम ही लगेगा जिन के सरों पर पहाड़ नही टूटता ... जिन के जीते गीली होते हैं जिन पर गुज़रती है उनको ही पता चलता है ..... आम जीवन को बारीशों के केनवास से देखने का आपका प्रयास अध्बुध है .

Tafribaz ने कहा…

17.07.10 की चिट्ठा चर्चा में शामिल करने के लिए इसका लिंक लिया है।

Tafribaz ने कहा…

बरसात को जीवन की व्यस्तताओं में बंधे इंसान के नज़रिए से देखा और अभिव्यक्त किया है.
-अब यह कविता पढते ही लग ही रहा है कि बारिश का मौसम है!

Friday, 16 July, 201

Tafribaz ने कहा…

कमाल की रचना। बारिश के जरिए आज के हालात का वर्णन कर दिया। आपकी यही कला मुझे अच्छी लगती है
। कई बार पढी। और क्या कहूँ .........

Friday, 16 July, 2010

Vinay Prajapati 'Nazar' ने कहा…
वाह कितनी खूबसूरत रचना है

आप कहाँ अंतर्ध्यान हैं?

Friday, 16 July, 2010

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बारिश के माध्यम से बहुत सी बातें कह दी हैं..सुन्दर रचना ...

शरद कोकास ने कहा…

बारिश के दिनो में बारिश की रचना पढ़ना सचमुच अच्छा लगता है ।

Pawan Kumar ने कहा…

अमिताभ जी
बारिशों को पहचानने का यह अंदाज़ बहुत भाया..... बारिश की आमद जितने भी रंग बिखेर सकती थी,उतने रंग आपकी कविता ने बिखेरे....
पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
और अगर टूट भी जाये तो
यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
तब लगता है हां
निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।
पंक्तियाँ लाजवाब हैं....

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत खूब ..बारिश सी फुहार सी भिगो गयी

पश्यंती शुक्ला. ने कहा…

मुझे गद्द कविता ज्यादा पसंद नहीं इसीलिए जल्दी टिप्पणी नहीं करती लेकिन आपकी कविता पसंद आई.

शोभना चौरे ने कहा…

बारिश पर बिकुल अलग तरह की है ये कविता |और साथ ही अनेक मुद्दों पर बात कर गई आपकी मुंबई की बारिश |
बहुत अच्छी रचना |

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

बहुत खूबसूरत रचना.

रचना दीक्षित ने कहा…

अद्भुत!!!! अमिताभ जी क्या कहूँ कई बार पढ़ कर भी तसल्ली नहीं हुई इतनी अच्छी लगी ये कविता बारिश के माध्यम से जाने क्या क्या कह डाला कभी मन खिन्न हो उठता है पर सोचती हूँ यही तो जीवन है ये सब कुछ न हो तो शायद नीरसता आ जाएगी

अपूर्व ने कहा…

सच मे इस बारिश के मौसम मे सिर्फ़ बारिश ही हो बस...आपकी कविता बारिश के इस्तकबाल के लिये मूड सेट कर देती है..मगर उससे भी ज्यादा यह बारिश को मौसम से बड़े परिपेक्ष्य मे देखने के लिये विवश करती है..जहाँ मौसम को बस मौसम की तरह नही लिया जा सकता..और बारिश बस बरसने भर को ही नही होती..संशय के इस दौर मे (भवानी प्रसाद जी की एक कविता याद आती है) चीजों के होने पर भरोसा कर पाने और उनके सचमुच मे वैसा होने के बीच एक बड़ा फ़ासला होता है..और दिनोदिन छीजती जाती कच्ची मिट्टी से बनी हमारी मासूमियत की दीवारें किस बारिश मे भरभरा जायें कोई भरोसा नही..
..बारिश से डर लगने लगा है..

M VERMA ने कहा…

आज तो दिल्ली में भी बारिश हो रही है और ऐसे में आपकी रचना भिगो गयी

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

मानव जीवन की दिनचर्या में बीतती, सामना करती कडवाहतो को बखूभी शब्दों, मुहावरों का जामा पहनाया है.

सुन्दर सशक्त रचना.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

वाह अमिताभजी वाह...बारिशों के नए आयाम स्थापित किये हैं आपने इस रचना के माध्यम से...वाह...मेरी बधाई स्वीकार करें...

नीरज

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद