बुधवार, 14 अप्रैल 2010

बहुत दिनों से रागमयी कोई रचना नहीं की। दिमाग भी ऐसा है कि जिसमें मज़ा आता है वही करता रह जाता है, आलेख या समीक्षायें लिखने में रमा तो लिखता ही रहा, बगैर यह सोचे कि उनके पाठक ज्यादा नहीं, सीधी, सपाट कवितायें की तो बस करता ही चला गया, बगैर यह सोचे कि उसके रस में फीकापन भी है। मगर मैं जानता हूं मेरी फितरत ही ऐसी है, किंतु यह भी जानता हूं एक ही धारा में बहते रहना भी मुझे पसन्द नहीं, हालांकि कहते हैं धारायें बदलते रहने वाले को किनारा नहीं मिल पाता, वो भटकता रह जाता है। किंतु इसका भी अपना मज़ा है, किनारा पा कर भी करना क्या है, भटकने में कभी कभी कुछ नया सा मिल तो जाता है, सो ऐसा ही एक नयापन-


"तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में।

मेरी उत्कंठा खेले जब हृदय पटल पर गा कर
झरती है बरबस भरकर, स्मृति बस आंसू बनकर।

भावों का मलयानिल जब करता आंखों में क्रीडा
रूखे यौवन सी तब तब मुस्काती मेरी पीडा।

स्मृति तेरी रे सचमुच अब बन बैठी दीवानी
चिर अजिरल मौन प्रतीक्षा, थी मेरी ही नादानी।

पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।

मेरे उजडे उपवन में कब सावन बन आओगी
कल्पना कुसुम हो मुकुलित नव जीवन सरसाओगे।

तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।

तेरी प्रतिमा दिखती है नयनों की इन कोरों में
जैसे पुष्पों की गरिमा झांकती केवल भोरों में॥"

3 टिप्‍पणियां:

अपूर्व ने कहा…

किसी वक्त मे हम प्रसाद का ’आँसू’ पढ़ते थे और और एक पीड़ा भरा भारीपन दिलो-दिमाग की कोरों मे भर जाता था..आपकी इस रागमयी रचना के भाव मे उसी घनीभूत पीड़ा के अंश नजर आते हैं..

पर कौन कहेगा तुझको मेरी यह अकथ कहानी
शायद ही पहुंचे बह कर, खारा आंखों का पानी।

प्रसाद भी सुनने वाले को ही नुरुत्साहित कर देते थे
’सुन कर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा’
और यह पंक्तियां

तुमको ढूंढा मैने पर हा पा न सका औरों में
जीवन भर तडपूं बिलखूं बिरहाग्नि अंगारों में।

बहुत पीड़ाजनक भाव हैं..यही शायद वो भावना है कि पराक्रमी क्षत्रियपुत्र राम भी बादलों के गरजने से डर जाते थे
घन-घमंड नभ गरजत घोरा
पिया हीन मन डरपत मोरा.

मगर ’अजिरल’ समझ न आया!
हाँ किनारों से परे भटकने की यह आपकी फ़ितरत भी कहीं अपनी सी लगी..

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

aakhir karragmayi rachna hui...aur achhi hui amitabh ji .. :)

Alpana Verma ने कहा…

ये तो दूसरी बार बिना शीर्षक प्रकाशित हो गयी है.