यह 150 वीं पोस्ट है, पता ही नहीं चला। खैर.., काफी दिनों से काव्यात्मक कुछ लिखा नहीं,वैसे मूलत: मैं तो आलेख लिखने वाला ठहरा, काव्यात्मक रचना मेरे बस की नहीं, सिर्फ प्रयासभर करता हूं। हां, कवितायें पढने में बहुत रस लेता हूं। अपने चन्द लेखक कवि हैं जिनके ब्लोग पर जा कर अपनी काव्य प्यास बुझा लेता हूं। इन कवि हृदयों से सीखते हुए कभी कभी मैं भी शब्दों को धारा में बहाने का प्रयत्न कर बैठता हूं, पता नहीं यह धारा में बहते भी हैं या इधर उधर होकर कहीं अटक जाते हैं? जो भी हो आपके सामने है। शब्द अटके हों तो निकालने में सहायता करें।
"मां से नज़र बचा
भरी दोपहर अपनी
नवजात प्रेम डोर लिये
भाग जाया करता था
कहीं सुदूर
वीराने पडे मैदान में।
डोर मांझने की खातिर
तपी हुई,
खौलती हुई
सरस,गोन्द की लुग्दी
मलता था, ताकि
वो पक्की हो सके।
फिर दुनियाई पतंगों को
काटने की खातिर
बीन कर लाये
कांच के टुकडों को
पीस-पीस महीन कर
उसका बुरादा बना
लगाता था।
चढाता था उस पर
अपने खून से बना रंग।
सूखने देता था घंटों
तेज़ धूप में उसे।
ये तप था, और अज़ीब सा
गुदगुदाता उत्साह था।
यकीन हो जाता था कि
हां, अब ठीक है तो
होले होले से
लपेट कर उसे
अपनी दिल की चक्री में
छुपाकर लौटता था घर।
ऐसा तो रोज़ ही किया।
धूप में जला बदन
हाथों में पडे छाले
और उपर से खाई
मां की डांट भी,
मगर सुकून था।
कि एक दिन इस
आकाश में उडाऊंगा
अपनी भी पतंग।
और काटूंगा विरोध की
तमाम उन पतंगों को
जो रोज़ उडती हुई देखता हूं।
सच पूछो तो पता नहीं था
बाज़ार में बिकने वाले
रासायनिक पदार्थों से लिपटे
इन पक्के धागों के बारे में,
जो महंगे और मज़बूत थे
बिल्कुल समाज़ की तरह।
तभी तो
थिगी ही थी कि
कट गई,
दूर कहीं जा अटकी
बबूल के पेड में।
आज भी लटकी है वहीं,
अपने उसी बने मंझे हुए
धागे के साथ,
जो हवा के संग इधर-उधर
पता नहीं कहां कहां
आधारहीन झूल रहा है।
वक़्त की मार सहता
रंगहीन, कमज़ोर, मज़बूर
बेचारा, यूं ही।
आज दान के मायने ही बदल गए हैं
3 दिन पहले
16 टिप्पणियां:
अमिताभ जी
प्रेम की डोर न सही लेकिन आपके लेखन की डोर काफी मजबूत है
बहुत दिनों बाद आपसे बात हुई, फिर आपके ब्लोग पर आ गया, सुकून मिला, या यूं कहें मुझे काफी दिनों बाद आनन्द आया। बहुत कुछ पढना बाकी था। आलेख और वो यदि दर्शन सम्बन्धित होते हैं तो लाज़वाब होते हैं। आपका अध्ययन, शोध और विषय की पकड हमेशा से उत्तम रही है। समीक्षा लिखने का आपका अपना अन्दाज़ है जो अन्यों से अलग खडा कर आपके टेलेंट को दर्शाता है। मुझे तो बहुत सी सामग्री मिल गई है पढने के लिये, सब एक-एक कर पढता हूं।
आपका-
डॉ.राजेश वर्मा
बहुत ही गहन भाव वाली इस कविता में पतंग हमारे सपने हैं जो ऊँचा उड़ते हैं दूर मजिल की तलाश में --या कहिये आसमान छूने के लिए !
कितने श्रम से /उत्साह से हम माँझा तैयार करते हैं ..जिसमें स्वेद /रक्त सब की भागीदारी होती है...लेकिन जब व्यवधान या जीवन की मुश्किलें
उन सपनो की राह में आ जाती हैं तो इसीतरह 'पतंग रूपी सपने झूलते रह जाते हैं..बेजान से...नाकाम से..
सही समझी न मैं?
[***@अरे अमिताभ ,जी ये आप कह रहे हैं कि आप कवि नहीं ?प्रयास भर करते हैं?
आप की कवितायेँ मुझे साहित्यिक लगती हैं.उनमें शब्द चयन और गठन बेहद सुरुचिपूर्ण होता है.]
हाँ ,शब्द तो कहीं अटके नहीं दिखे..प्रवाह बराबर है.
वाह!! बहुत उम्दा..आनन्द आया..
१५० वीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई..लिखते रहें.
150वी पोस्ट की हार्दिक बधाई.
सच पूछो तो पता नहीं था
बाज़ार में बिकने वाले
रासायनिक पदार्थों से लिपटे
इन पक्के धागों के बारे में,
जो महंगे और मज़बूत थे
बिल्कुल समाज़ की तरह।
==
थोड़ा और कांच चाहिये
थोड़ी और धूप दिखानी होगी
इन हाथों को पेंच लड़ाने की
थोड़ी और हुनर सीखना होगा
फिर तो ये रासायनिक डोर भी कट जायेंगे.
कि एक दिन इस
आकाश में उडाऊंगा
अपनी भी पतंग।
और काटूंगा विरोध की
तमाम उन पतंगों को
जो रोज़ उडती हुई देखता हूं।
..... बेहद प्रभावशाली रचना,बहुत बहुत बधाई!!!
बेहद सुन्दर रचना..
regards
आज भी लटकी है वहीं,
अपने उसी बने मंझे हुए
धागे के साथ,
जो हवा के संग इधर-उधर
पता नहीं कहां कहां
आधारहीन झूल रहा है।
वक़्त की मार सहता
रंगहीन, कमज़ोर, मज़बूर
बेचारा, यूं ही।
ग़ज़ब .. अमिताभ जी .. इस पतंग को बिंब रख कर आपने जीवन का नामचा लिख दिया ... बचपन और पचपन से जुड़े पहलू वैसे भी आने वाले समय का आधार होते हैं .... और आपने ... आम आदमी के जीवन को उस नमालूम भविष्य को बाखूबी बयान किया है ... हवा में लटकते, आधारहीन ... वक़्त की मार सहते इंसान की दास्तान ...
अरे रचना में इतना खो गया की १५० वी पोस्ट की बधाई ही भूल गया ... बहुत बहुत बधाई ...
ऐसे ही अनगिनत डोरे पतंग़ो के साथ ना जाने कहाँ कहाँ अटकी होगी। और क्या पता कब वही पर तप कर फिर से एक हवा के झोंके से उड़ जाए और
कि एक दिन इस
आकाश में उडाऊंगा
अपनी भी पतंग।
और काटूंगा विरोध की
तमाम उन पतंगों को
जो रोज़ उडती हुई देखता हूं।
ये सपना सच में ही सच हो जाए। अक्सर सपने ऐसे ही सच होते है। खैर एक दिल से निकली रचना पढकर जो आनंद आता है उसको बयान करना मुश्किल होता है। और हाँ 150वी पोस्ट के लिए बधाई हो।और एक हम है अभी 115 पर ही टिके है। और हाँ जो ये कहते है कि " काव्यात्मक रचना मेरे बस की नहीं" वही अच्छा काव्य लिखते है। और एक हम है बस तुकबंदी करते रहते है।
१५० वीं पोस्ट की बधाई.
वैसे इतनी मेहनत और डांट फटकार के बाद पेंच तो लड़ा ही लिए. पतंग आज भी वहीँ लटकी है.तो मतलब यही समझूं की आप के साथ ही है.हर दुःख सुख में साथ दे रही है न !!!!!
आज भी लटकी है वहीं,
अपने उसी बने मंझे हुए
धागे के साथ,
जो हवा के संग इधर-उधर
पता नहीं कहां कहां
आधारहीन झूल रहा है।
वक़्त की मार सहता
रंगहीन, कमज़ोर, मज़बूर
बेचारा, यूं ही।
आज भी लटकी है वहीं,
अपने उसी बने मंझे हुए
धागे के साथ,
जो हवा के संग इधर-उधर
पता नहीं कहां कहां
आधारहीन झूल रहा है।
वक़्त की मार सहता
रंगहीन, कमज़ोर, मज़बूर
बेचारा, यूं ही।
Bhaut gahare bhavon se saji aapki rachna samajik dhanche ke ek atuwee sachai ko bayan karti samajik bidambanon ko ingit kar man ko jhakjhor karti hai..
Bahut shubhkamnayne
१५० वी पोस्ट की बधाई!
वाह अमिताभ जी , घुमा कर बहुत बहुत कुछ कह गए ।
१५० वीं पोस्ट की बधाई।
कविता अच्छी बन पड़ी है।
भई सबसे पहले तो 150 वी पोस्ट की बधाई । और कवि का रक्त रगों मे है तो कविता तो निकलेगी ही । पिताजी की पुस्तक "रागाकाश " पढ़ रहा हूँ ।
एक टिप्पणी भेजें