ओफिस से रात में लौटना होता है, अमूमन आधी रात चढ जाया करती है। जब गांव वाले अपनी नींद को बिदाई देने के लिये अंतिम खर्राटे लिया करते हैं तब मैं अपने घर पहुंच कर या तो दरवाजा खटखटाता हूं या फिर बेल बजाता हूं। अज़ीब सी जिन्दगी है महानगरों की। खैर..लौटा ही था कि अपने पोस्ट बाक्स में कोई किताब आई हुई दिखी, झट से बाक्स ओपेन किया। सीढियां चढते चढते ही उसका कवर खोला और दरवाजे की बेल बजाने से पहले आंखों के सामने थी
'आंखों में कल का सपना है' गज़ल संग्रह। डा.अमर ज्योति 'नदीम' का गज़ल संग्रह। दरअसल यह आर्कुट का कमाल है जब डाक्टर साहब से परिचय हुआ। और उनके ब्लोग तक जा पहुंचा। उनके बारे में लिखा हुआ पढा और थोडा बहुत उन्हे जाना। फिर जी मेल से चेट पर उन्हें पक़डा और उनसे शुरू हुई बातचीत। गम्भीर और सधे हुए उनके शब्दों ने प्रभावित किया। आदमी की उम्र और उसके अनुभव परिपक्वता प्रदान करते हैं,और ज्ञान बन कर बरसते हैं। मुझे तो इसी बरसात में नहाना अच्छा लगता है सो डाक्टर साहब जब भी नेट पर दिखते हैं मैं उन्हें पकड लेता हूं। वे भी मुझसे बात करते हैं बिल्कुल ऐसे जैसे मुझे बरसों से जानते हों। यह उनका बडप्पन है। हालांकि आजकल ऐसे लोग कम ही मिल पाते हैं। मेरा तगडा अनुभव है कि ज्यादातर लोग अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिये छोटा होना नहीं चाहते। पद का, प्रतिष्ठा का, पैसों का या फिर ज्ञान का ऐसा मद उनमें भरा होता है कि वे झुकना नहीं चाहते। झुकने को अक्सर छोटापन मान लिया जाता है जबकि कहा जाता है कि ज्ञानी हमेशा सरल और लचीला होता है। किंतु आज नमस्कार भी ऐसे किया जाने लगा हैं मानों एहसान जता रहे हों। खैर..मैने कहीं पढा था कि छोटा होना या झुकना जब आदमी भूल जाता है उसका पतन वहीं से शुरू हो जाता है। ख्यातिनाम ला त्सू का एक कथन भी प्रसंगवश कहता हूं कि "झुकना समूचे को सुरक्षित रखना होता है।" अपन तो छोटे हैं इसलिये पतन का प्रश्न ही नहीं है। न नाक कटने का डर, न अहम भंग होने का भय। और किस्मत भी अच्छी कि डाक़्टर साहब जैसे लोग भी मुझे मिल जाते हैं। जिनमें किसी तरह की दुनियाई स्वर्ण परत नहीं चढी होती,और आदमी होने का 24 कैरेट खरापन भी होता है। दरअसल मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं यह भी बताता चलूं, डाक्टर साहब की जिन गज़लों को मैने पढा उनमे बहुत सारी गज़ले मेरे मनोभावों को छूती हुई गईं। यानी आज के दौर में सामाजिक स्तर पर पतन हो या व्यवहारिक स्तर पर टूटन या नौकरी पेशे में चल रही अव्यवस्थायें हों, आदमीयत कैसे खत्म होती जा रही है उसे बखूबी से उन्होंने शब्दों में उतार कर लक्ष्य पर सीधे चोट की है। जैसे-
" चूक हो जाये न शिष्टाचार में, दुम दबा कर जाइये दरबार में।
कुर्सियों के कद गगनचुम्बी हुए, आदमी बौना हुआ आकार में...।" हां उनसे उनके गज़ल संग्रह के बारे में एक बार पूछा था, सो उन्होने डाकविभाग का सदुपयोग करते हुए मुझे अपनी हस्ताक्षरयुक्त किताब प्रेषित कर दी। मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और आप सब के लिये किताब का निचोड प्रस्तुत करने की कोशिश कर बैठा। हालांकि मैं जानता हूं यह कोशिश किताब की पूरी तरह निचोड नहीं है उसके लिये तो वह पढनी ही होगी फिर भी जो कर पाया, जितना कर सका, आपके लिये नज़र है।
मैने उनकी कृति पढनी शुरू की तो हिन्दी और ऊर्दू सम्मिश्रण युक्त उनके शब्द खिलखिलाते हुए मेरी आंखों के सामने थे जो उनके जीवन का बहुत सारा भाग उढेल रहे थे। जिसमे जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, दुष्यंत कुमार ,प्रेमचन्द और मैक्सिकम गार्की से ली गई प्रेरणा स्पष्ट झलक रही थी। उनकी ज्यादतर गज़लें समाज़ और दुनिया की अव्यवस्थाओं के खिलाफ आक्रोश से भरी हुई महसूस होती है। और सचमुच उनकी आंखों में कल का सपना है जो उम्मीद व्यक्त करता है कि बदलाव सुखद हो।
प्रसादजी का छ्न्दबोध गज़लों में समाहित करना कठिन होता है किंतु
"जो कुछ भी करना है, कर ले
इसी जनम में, जी ले, मर ले।" डाक्टर साहब का यह शे'र प्रसाद्जी के श्रद्धा और मनु के बीच से निकलती जीवन धारा माना जा सकता है। किंतु इसी के आगे उन्होने प्रेमचन्द का यथार्थबोध भी करवाया कि-
" अवतारों की राह देख मत
छीन-झपट कर झोली भर ले।"गार्की का मर्म और समाज़ की पीडा इस किताब में ज्यादा है जो व्यवस्था के साथ भिडती हुई प्रतीत होती है। तो दुष्यंतजी शे'रों के साथ चलते नज़र आते हैं। यह अद्भुत है कि गोर्की और दुष्यंतजी को पढने वाले उनका अक़्स अमर ज्योति साहब के शब्दों के नेपथ्य में ढूंढ सकते हैं।
"कह गया था, मगर नहीं आया
वो कभी लौट कर नहीं आया।" तो
" नहीं कोई भी तेरे आसपास, क्यों आखिर?
सडक पर तन्हा खडा है उदास, क्यों आखिर?"आप देखिये डाक्टर साहब का आक्रोश, वेदना और राजनीतिक,सामाजिक तंत्र के प्रति धधकते सवाल कि-
"राम के मन्दिर से सारे पाप कट जायेंगे क्या?
बन गया मन्दिर तो चकले बन्द हो जायेंगे क्या?
कितने लव-कुश धो रहे हैं आज भी प्लेट-ओ- गिलास
दूध थोडा, कुछ खिलौने उनको मिल पायेंगे क्या?
चिमटा,छापा,तिलक,तिर्शुल,गांजे की चिलम
रहनुमा-ए-मुल्क अब इस भेस में आयेंगे क्या?
अस्पतालों, और सडकों, और नहरों के लिये
बोलिये तो कारसेवा आप करवायेंगे क्या?"अध्यापन और इसके बाद बैंक की नौकरी विचित्र लग सकती है किंतु पठन पाठन, दर्शन और फिर गणित का गुणा-भाग वाला व्यक्ति जीवन के हर स्तर को अनुभव करने में ज्यादा समर्थ हो जाता है जिसका निष्कर्ष, परिणाम यही निकलता है कि-
"खूब मचलने की कोशिश कर
और उबलने की कोशिश कर
व्याख्यायें मत कर दुनिया की
इसे बदलने की कोशिश कर।"सचमुच डा.अमर ज्योति 'नदीम' की आंखें (कृति) कल का सपना देखती हैं और अपने अनुभवों से आने वाले पीढी की दिशा तय करती हैं। कुल 86 गज़लों से बनाया गया है यह गुलदस्ता जिसके प्रत्येक फूल ताज़े, महकते हुए हैं। या यूं कहें अमर हैं, ज्योति की तरह रोशनी बिखेरते से हैं। अब आप सोचिये कैसे मूरख हैं वे प्रकाशक जो सिर्फ बाज़ारवाद को देखते हुए बेहतरीन कृतियों को नज़रअन्दाज़ करते हैं, जिन्हे जन-जन में जाने से रोकते हैं। और ये आजकल की नई पीढी के फेशनेबल, आधुनिक मानेजाने वाले हाडमांस के अर्धजीवित पुतले हिन्दी साहित्य से क्यों दूर हैं? शुक्रिया अयन प्रकाशन का जिसने इस कृति को आकार दिया। और शुक्रिया डाक्टर साहब का भी जिन्होनें मुझे अपनी कृति से परिचय कराया।
12 टिप्पणियां:
अमिताभ जी, आदाब
डा. अमर ज्योति के खूबसूरत ख्यालात से सजे इस संग्रह से रूबरू कराने के लिये शुक्रिया.
देखते हैं कब तक हमारे हाथ लगता है ये
आंखों में कल का सपना...
डॉ अमर ज्योति जी का तो क्या कहना..उन्होंने तो अपनी पुस्तक हम तक कनाडा पहुँचा कर हमें मुरीद बना लिया. बहुत सहृदय व्यक्ति हैं और उतनी ही उन्नत लेखनी.
...आभार !!!
डाक्टर अमर जी का परिचय और उनसे मिलवाने का शुक्रिया अमिताभ जी .... आपने कुछ शेर और छन्द यहा दिए हैं उनसे लग रहा है की यथार्थ के केनवर पर लिखी हैं सब रचनाएँ .... समाज का चिंतन गहरे से नज़र आ रहा है इन रचनाओं में ...
डाक्टर साहब का परिचय और उनकी पुस्तक का विवरण देने के लिए आभार. सच एक बहुत अच्छी पोस्ट क्योंकि एक अच्छे इन्सान को जानने का अवसर मिला आपके माध्यम से.
आपकी सुन्दर और बेहतरीन समीक्षा पढकर इस किताब को पढने की हमारी भी इच्छा हो रही है। वैसे मैं गजलों को सुनना पसंद करता हूँ पढना नही पर डा. साहब कुछ शेर पढकर तो गजल पढने का मन भी होने लगा है।
जब किसी बेहतरीन कृति को इतनी विशद और बहुआयामी समीक्षा का परस मिल जाय तो सहज ही वह विशिष्ट हो जाती है..इसमे जितना श्रेय रचनाअकार का है तो समीक्षक का योग्दान भी कम नही है..जो पाठको को गजल के इस सरोकारपूर्ण माधुर्य से परिचित कराता है..
एकदम सटीक जगह पर मार करती हैं गजलें..जैसे कि यह
कितने लव-कुश धो रहे हैं आज भी प्लेट-ओ- गिलास
दूध थोडा, कुछ खिलौने उनको मिल पायेंगे क्या?
वैसे काव्य का कर्मवाद और बात करने की निर्भीकता मुझे अपने सबसे पसंदीदा कवि दिनकर की याद दिलाती है..
ऐसी और कृतियों के परिचय की अपेक्षा रहेगी आपसे..
amitabh ji bahut bahut shukriya...ye sab share kiya..aur hame bhi padhne ka mauka mila. aabhaar.
Bahut sunder prastuti aur shere karne ke liye hardik dhnyabad..
sir maine aapko orkut par frnd.request bheji hai..pls accept karlijiyega. thamx
डा.अमर ज्योति 'नदीम' जी के
गज़ल संग्रह की बहुत ही सुंदर समीक्षा की है.यह तो प्रकाशकों में बहुत समय से ही है कि बेहतरीन कृतियों को नज़र अंदाज़ कर देते हैं और आज तो व्यवसायिकता पहले से अधिक है.
तकिनिक और अंतरजाल ने यह सुविधा अब दी है कि अधिक से अधिक पाठकों तक लेखक खुद को पहुँचा सकता है.
आप के द्वारा इस ग़ज़ल संग्रह की जानकारी मिली और समीक्षा भी ..कभी मौका मिलेगा तो ज़रूर पढ़ना चाहेंगे. बहुत बहुत आभार.
शुभकामनाएँ.
'होली की रंगबिरंगी शुभकामनाएँ.'
चूक हो जाये न शिष्टाचार में, दुम दबा कर जाइये दरबार में।
बड़ी आँख फाड़ फाड़ कर पढ़ा ये शे'र...मजा ही आ गया...
और..
"कह गया था, मगर नहीं आया
वो कभी लौट कर नहीं आया।"
इसे पढ़ कर अपना लिखा एक याद आ गया...
कह गया वो, के तू यहीं रुकना..
आउंगा मैं यहीं पे, जो आया....
फिर आते हैं साहब...
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